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Sep 20, 2008

दादी का जीवन-2

सोलह साल की उमर मे मेरी दादी ३४ साल के मेरे दादा की पत्नी बनकर घर आयी थी। घर पर कोई महिला न थी। दो बच्चे मेरे दादा के और तीन बच्चे उनके बड़े भाई के थे। कुछ ऐसा इतेफाक हुया की दोनों की पूर्व पत्निया किसी शादी मे भाबर गयी आयर मलेरिया की चपेट मे आकर अचानक मर गयी थी। बड़े भाई नौकरी करते थे, और छोटे भाई यानी मेरे दादा गाँव की जमीन देखते थे। अंत मे ये तय हुया की छोटा भाई दूसरी शादी कर ले, और उसकी पत्नी इन सारे बिन माँ के बच्चों को संभाल ले। दादा के परिवार मे दोनों लोगो ने इस रणनीती को ध्यान मे रखकर मेरी दादी को परिवार मे लाये थे। आस-पास के गाव के लोगो को परिवार के हालत का पता था, सो कोई भी आसानी से अपनी लड़की को इस बोझ तले नही धकेलता। इसीलिये बहुत दूर के गाँव के एक अहमक, जंगलात के अफसर जिसकी बड़ी उम्र की बेटिया थी, उसके सामने मेरे दादा विवाह का प्रस्ताव लेकर गए। मेरी दादी के सगे जीजा ने भी इस रिश्ते को करवाने मे खासी भुमिका निभायी।

शादी के तीन-चार दिन पहले मेरी दादी को बताया गया की उसकी शादी है। शादी की उम्मीद हंसी-खुशी भरे जीवन की ही रही होगी शायद मेरी दादी के मन मे भी, उसे क्या पता था की इसका क्या मतलब है? ससुराल पहुँच कर कितने पत्थर उसके गले लटकने वाले है? किस -किस के हिस्से की जिम्मेदारिया , उसके सारे सपनो और ऊर्जा को सोखने का इन्तेजाम किए बैठी है? और ये कमसिन लड़की इससे बेखबर, थैला भरकर गहने जो उसके पास पंहुचे थे, उन्ही मे खुश हो रही थी। ये गहने भी उन दोनों मृत औरतों के थे जिनके बच्चे उसे जाकर संभालने थे। और सिर्फ़ दो-चार दिन के बाद उसे लौटाने थे। ये कहानी ढेर सी दूसरी औरतों की भी थी, जहाँ मात्र शादी के दिन के लिए गाँव भर के गहने इक्कठे किए जाते और दुल्हन के माँ-बाप को दिखाने के लिए, और घर लौटते ही गहने वापस लौटा दिए जाते। औरतों को इस तरह के धोखे देने की सामाजिक सहमति थी, और शायद आज भी है। मेरे दादा के सदाचार की , भले , उदार मनुष्य होने की साख थी। पर सामाजिक मर्यादा, उसके ताने-बाने, नेकचलनी के कांसेप्ट भी पुरूष-पुरूष के व्यवहार पर ही आधारित है। स्त्री -पुरूष के सन्दर्भ मे तो मर्यादा पुरुषोतम भी मर्यादा खो देते है, और उसका भी यश पाते है.

कभी -कभी मुझे लगता है की शादी -शुदा जीवन हमारे चारो तरफ़ बिखरा है, और कई मायने मे अपने घर परिवारों मे , समाज मे विशुद्द स्वार्थपरता से ये सम्बन्ध तय होते है, पर लड़की जिसकी शादी होनी है, वों न इन फैसलों मे शामिल है, और जिसे एक बड़ा विस्थापन झेलना है, वों शादी-शुदा जीवन के सुनहरे सपनों मे डूबी रहती है। शायद जितना कठिन शादी-शुदा जीवन है, उसके ठीक उलट इसका "विज्ञापन" उतना ही लुभावना है। और ये लोरी से शुरू होकर मोक्ष तक पहुँचने की यात्रा मे सब जगह बड़े उजाले अक्षरों मे है। इतना प्रबल है ये विज्ञापन की ये आस-पास के देखे सच और उसको गुनने की शक्ति को , नष्ट कर देता है.

पिता ने अपनी बचकाना हरकत मे तीन बचन बंधवाये, ये सोचकर की मेरी बेटी की खुशी तय हो गयी। माँ ने जब इतनी बड़ी उम्र के ६ फिट लंबे दुल्हे और अपनी सबसे नाजुक कमसिन लड़की का जोड़ बनते देखा तो बेहोश हो गयी। उसके बिना ही शादी की सारी रस्मे हो गयी और मेरी दादी विदा हो गयी.

7 comments:

  1. आगे की दास्तान का इंतजार है।

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  2. बहुत ही कठोर और निर्मम सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया है आपने। अच्छी बात ये है की परिवर्तन
    तो हो रहा है।

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  3. इसे पढ कर कुछ कहते नही बन पड़ रहा।कमोबेश आज भी यह जारी ही है।

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  4. sach me ye bhut hi sanjida baat hai. aapne sahi likha hai aaj bhi gaavo me shadi ke liye parivar vale gahane ikthhe karte hai. aapne bhut achha likha hai. par is tarah ke lekh man ko vichalit kar dete hai. jari rhe.

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  5. स्त्री -पुरूष के सन्दर्भ मे तो मर्यादा पुरुषोतम भी मर्यादा खो देते है, और उसका भी यश पाते है.
    ओडिशा के अपने ननिहाल में दलितों द्वारा खेला गया एक नाटक देखा था - उसमें मर्यादा पुरुषोत्तम से सीता का मुकाबला होता है । सीता जब वाल्मीकी के आश्रम में थीं। उनमें चण्डी का रूप देख कर समझौता हो जाता है ।

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  6. अच्छा लग रहा है पढ़कर..जारी रहिये. इन्तजार है.

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  7. ओह आपकी ये पोस्ट्स देख नही पायी , आपने इन्हें लिखकर बहुत अच्छा किया । ये दस्तावेज़ हैं और बहुत महत्वपूर्ण हैं।
    तीनों अंश पढे ।चोखेर बाली पर इन्हें देने की इजाज़त दीजिये ।

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