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Dec 14, 2008

भारत यात्रा- तस्वीर पर कुछ पैबंद


पिछले कई महीनो से पैर थमने का नाम नही लेते, और कई तरह की यात्राओं के बीच तकरीबन ढाई हफ्ते की भारत यात्रा भी बस आज ख़त्म होने को है। हर बार की तरह इस बार भी बदलते भारत को समझने की एक सतही जद्दोजहद मेरे मन मे चलती रही, और रेफेरेंस के तौर पर वों भारत मेरे सामने बार-बार आता रहा, जो कुछ सालों पहले पीछे छूट गया, और अब हर बार चंद दिनों मे जो भी मानस को नया लगता है, उसी तस्वीर को बनाने -बिगाड़ने का समान बन जाता है। सब जगह कितने असंगठित कलाकार है, जिनके लिए इस नयी ग्लोबल अर्थ व्यवस्था मे एक नयी ज़मीन तलाशी जा सकती है, अगर उनको थोडा सा प्रशिक्षण दिया जा सकता, एक बड़ी फलक पर कई संभावनाए सामने आ सकती है.

कई किस्म के लोगो से इस बीच मुलाक़ात हुयी, और काफी बातचीत भी हुयी। ख़ास तौर पर अपनी एक ७० साल की बुआ से बात करके बड़ी गहराई से ये बात महसूस हुयी कि एक अनपढ़, बहुत साधारण और बूढी स्त्री का मानस भी लोकोक्तियों मे, कबीर और रहीम के दोहो मे, भगवत पुराण की कहानियों मे कही न कंही अपने अस्तित्व का और उसको समझने , उसे विस्तृत करने का प्रयास करता है। शायद कोई मुझे कभी इस विषय पर निबंध लिखने को कहता तो सूर, कबीर, वेदव्यास जैसे कितने ही नामो के सहारे मैं लिख लेती। पर दिल की गहराई से पहली बार मुझे ये समझ मे आया।
इस यात्रा मे खासतौर पर शहरों और महानगरो मे एक नयी और परोक्ष जाति -व्यवस्था भी उभरती नज़र आयी। खासतौर पर उन दो तबको के बीच जिनमे से एक के पास बहुत कुछ है, और दूसरे के के पास बड़ी मुश्किल से गुजारे का साधन। आर्थिक पहलू से बना ये विभाजन पहले भी था, और भारत के अलावा दूसरे देशो मे भी है। इसे जाति व्यवस्था मैं इसीलिये कह रही हूँ, क्योंकि पहले जो त्रिस्क्रित व्यवहार अछूतों के लिए था, अब गरीब आदमी के लिए है। महानगरो के निवासी अपने घरो मे काम करनेवाली, ड्राईवर, माली आदि को एक आदमी के वजूद से कमतर नज़रिए से देखते है। और कई तरह के कामो को भी उन्होंने अपने वर्ग और अपने अभिमान का विषय केन्द्र मे रखकर इस तरह से बाँट लिया है, की कुछ काम उनकी इज्ज़त को कम और दूसरे उनकी इज्ज़त को बढ़ा देते है। अपने द्वारा जनित कचरे को ठिकाने लगाना अब भी कमतर समझा जाता है। इसीलिये शहर-गाँव मैदान सब कचरे का ढेर है।
तीसरा बड़ा ही हास्यास्पद और दू:खदायी पहलू है लगभग सभी वर्गों का सिर्फ़ मात्र एक उपभोक्ता बन जाना। एक ऐसा उपभोक्ता जिसकी समझ सिर्फ़ नए से नए समान को एकत्र करने मे है, बिना ये समझे कि इसकी ज़रूरत क्या है, और कभी -कभी इन चीजों का सही इस्तेमाल क्या है। इसीलिये घड़ी एक समय को ट्रैक और मैनेज करने का टूल न बनकर जेवर बन जाती है, और कैसरोल रेफ्रीजरेटर मे खाना रखने के डिब्बे मात्र। बड़ी मार्के की बात है कि जिस समाज की सोच से नए आविष्कार जन्म नही लेते, और सिर्फ़ जहा नए उत्पादों को बेचने का एक बड़ा बाज़ार है, वहाँ निजी और सार्वजानिक तौर पर संसाधनों का क्षय होता है।