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Mar 31, 2009

वाकई शशि थरूर और उनके जैसे लोग देश के लिए खतरा है?

अफलातून जी के ब्लॉग पर फिलहाल उनके शशी थरूर वाले लेख पर ये मूलत: एक असहमति के साथ लिखी टिप्पणी है। मेरा शशी थरूर या फ़िर कोंग्रेस से कुछ लेना देना नही है। पर एक नागरिक के बतौर जिसका आने वाले चुनाओ मे बस इतना योगदान है की वों अधिकतर नागनाथ और सापनाथ मे चुनाव करने के लिए ही स्वतंत्र है, और एक अरब की जनसंख्या मे उस वोट का भी सिम्बोलिक मूल्य के अलावा कोई मूल्य नही है। पर फ़िर भी इस बारे मे ख़ुद को सोचने से नही रोक सकी कि क्या वाकई शशि थरूर और उनके जैसे लोग, बाहुबली विधायको, अपराधी विधायको, उनकी अगूठा-छाप पत्नियों, या फ़िर पारिवारिक " जलजले चिरागों" के आगे खारिज कर देने लायक है?

शशि के विरोध की वजह अगर ये है.....
“बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पे रोल पर रहे अथवा अन्तरराष्ट्रीय संगठनों से पेंशनयाफ़्ता ऐसे लोगों का आयात करना पड़ेगा जिनका दिल-दिमाग पूरी तरह पश्चिमीकृत हो चुका है और जो अपनी पश्चिमपरस्त नीतियों की वजह से अन्ततः बाहुबलियों से ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकते हैं ।”

इस बारे मे फ़िर से अपनी असहमति दर्ज करना चाहती हूँ। दिल का मुझे नही पता की शशि का हिन्दुस्तानी है या नही। वैसे भी दिल का काम सोचने का नही है। दिल का सोच से रिश्ता सिर्फ़ कविता मे एक रूपक की तरह है। असल जीवन मे उसका काम सिर्फ़ इतना है, की खून लगातार परिशोधित होता रहे और शरीर के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचता रहे।
दिमाग का पश्चिमीकृत या पूर्वीकृत होना भी मेरी समझ से बाहर है। सोच मे रेशनलिटी या फ़िर सुब्जेक्टिविटी
पूर्व और पश्चिम दोनों ही संस्कृति मे पायी गयी है। इतना ज़रूर है की पिछली दो -तीन सदियों मे तकनीक और विज्ञान, और बाज़ार की समझ पश्चिम मे ही परवान चड़ी है, उसके अपने ऐतिहासिक और सामाजिक कारण है।
और निश्चित रूप से उसका असर जन जीवन की सोच पर भी है। पर सब पर एकसार है, ये मुझे अपने लंबे प्रवास मे नही लगता।

पूर्व के जितने भी देश है, उन्होंने भी विज्ञान, दर्शन, राजनीती, और बाज़ार का और आधुनिक शिक्षा का प्रारूप पश्चिम से उधार लिया है। कितना भी मन कड़वा करे, या अपने गोरवमय अतीत पर मुग्ध होवे, इस सच्च से हम मुकर नही सकते। भारत का जनमानस अपनी शिक्षा मे और नयी पीढी, और हमारी अधेड़ पीढी अपनी महत्त्वाकांक्षा मे जो खाका लिए घुमते है, वों पश्चिम की संस्कृति मे और सोच मे कितनी सरोबार है, इस पर भी सोचने की ज़रूरत है। और क्या ये सम्भव है की लगातार कम होती दूरियों की इस दूनिया कोई भी पश्चिम के प्रभाव से या पूरब के प्रभाव से बचा रहेगा? थरूर के बारे मे मेरी अपनी जानकारी सीमित है, पर सिर्फ़ इसीलिये की उन्होंने UN मे नौकरी की है, या पश्चिम का एक्स्पोसर है, उनका विरोध की हल्की वजह है।

देश की समझ, जन आंदोलनों की समझ और हिस्सा होना जननेता के लिए ज़रूरी है। पर ये भी ज़रूरी है की संसद मे इस समझ के लोग भी जाय जिन्हें इल्म हो की भारत आज के समय मे अंतररास्ट्रीय स्तर पर कहा खडा है ? जिसे अनुभव हो कई देशो के लोगो से नेगोशिएट करने का. समझ हो पश्चिमी संस्कृति और भाषा की भी ताकी उनके आर्गुमेंट्स के सन्दर्भ और उपज को समझ सके, और ज्यादा सशक्त तरीके से किसी भी सौदे को भारत के पक्ष मे कर सके। बाहुबली या नितांत जनान्दोलनों से आए ईमानदार नेताओं (जिनकी संसद मे जाने की संभावना वैसे भी कम है) को निश्चित रूप से इस समझ की कमी होती है। वैरायटी मिक्स संसद मे भी चाहिए, ताकी कई तरह की दृष्टी और समझ वहा भी हो। कभी -कभी किसी जगह से दूरी अच्छी होती है। distant view पूरे परिद्र्स्य को समग्र मे देखने की छूट देता है। और माईक्रोस्कोपिक view उसके भीतर एक स्थिति या स्थानीयता की गहनता को। भारत जैसे देश को समझने के लिए और खासकर नीती निरधाराको की फोज़ मे दोनों तरह के लोगो का होना ज़रूरी है। भारत को समझने की distant view वाली एक समग्र दृष्टी थरूर से ज्यादा आज की संसद मे किसके पास है?
ये भी मेरे लिए समझ से बाहर है, कि आरिफ ज़कारिया, शशि थरूर, जैसे लोग बाहुबली से ज्यादा खतरनाक है? या फ़िर UN मे नौकरी करने वाला या MNC मे नौकरी करने वाले, या विदेशी यूनिवर्सिटी मे कार्यरत हमारे जैसे लोग उन लोगो से बेईमान है जो सहारा , रिलायंस, इत्यादि या जोड़ जुगत करके नौकरी पाये सरकारी संस्थानों/हिन्दुस्तान के विश्व्विध्लायो मे काम करते है?

Mar 17, 2009

Slum Dog Millionaire

अंतत: "Slum Dog Millionaire" देखने का समय मिला। देखने से पहले इस फ़िल्म के बारे मे पक्ष विपक्ष की बहुत सी दलीले मेरे सामने थी। पर उन दोनों को दरकिनार करके रखा जाय तो यही कह सकती हूँ की फ़िल्म औसत है, न बहुत बुरी न बहुत अच्छी। ले देकर हाशिये के पार जो जीवन है उसे एक बड़े कोलाज़ मे समटने का प्रयत्न कुछ हद तक सफल है। दंगे है, क्रूर स्कूली सिस्टम, चोरी-चकारी की जीवन मे ज़रूरत,ऐसे ही कई किस्से है। । इस मायने मे ये फ़िल्म कुछ हद तक डोमिनिक लापियर की "Five Past Midnight in Bhopal" की याद दिलाती है, पर उस स्तर की संवेदना और गरिमा के साथ हाशिये के जीवन को नही दिखाती।

बोलीवुड की तर्ज़ पर कहे तो अमिताभ की दीवार के ज्यादा करीब है, अगर गाना बजाना छोड़ दिया जाय। एक सवाल जिसके ज़बाब का सीधा तारतम्य दिखायी नही देता वों है, नायक की जानकारी रिवाल्वर के आविष्कार कर्ता के बारे मे। रिल्वाल्वर का होना और उससे जुडी ऐसी जानकारी का बिना पढ़े-लिखे, सीधा सम्बन्ध थोडा टेढी खीर लगता है। दूसरा एक सीन मे नायक अपना नाम कम्पूटर पर टाइप करता हुया दिखता है, और दूसरी जगह न लिख-पढ़ पाने का क्लेम है। जो तकनीकी के पॉइंट से ये कुछ मेल नही खाता।

बाकी भारतीय संस्कृति या भारत को खासतौर पर फ़िल्म मे जैसे दिखाया गया है, उससे मुझे कोई आपत्ति नही लगी। एक कहानी और हाशिये पर खडे बच्चों की नज़र से जो भारत दिखता होगा, कुछ कुछ ऐसा ही होगा, और इस लिहाज़ से कहानी के साथ उसकी लय है। वैसे भी भारत जैसे विविधता लिए देश को किसी एक कहानी , एक फ़िल्म, या एक दिमाग मे कैद कर पाना मुश्किल है। यहाँ एक साथ कई सदियाँ है। और किसी भी कहानीकार या फिल्मकार से ये उम्मीद करना की वों पूरे भारत को समेटे एक मुश्किल और कभी पूरी न होने वाली आशा है, और ये कतई ज़रूरी नही है। दुसरा हम जो है, वों है, एक कहानी , एक फ़िल्म , हमारी किस्मत नही बदलने वाली है।

Mar 11, 2009

होली

होली के इस अवसर पर उत्तराखंड की पारंपरिक होली और इसके सांस्कृतिक महत्तव की कुछ बातें गिर्दा की ज़बानी