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Apr 2, 2009

यादो के झरोखे से हॉस्टल एक बार फ़िर

कभी-कभी दिल यु भी उजाड़ होता है, और स्मृति के झरोखों से रह-रह कर , बात-बेबात कितने तो लोग याद आते है। स्मृतिया एक दूसरे मे गड्ड -मड हो जाती है, जैसे सबको बहुत जल्दी है दिमाग के मर्तबान से बाहर निकलने की। जीवन का एक बड़ा वक़्त हॉस्टल मे गुजरा है, और कई चहरे आज भी जस के तस् याद है। एक मुद्दत के बाद इल्म होता है की अपने बनने-बिगड़ने की ज़द्दोजहद मे अचानक ही आए और गुम हो गए इन चेहरों का भी चाहे अनचाहे कुछ तो योगदान है।

वडोदरा प्रवास के दिनों मे हमारे १४ सहपाठियों मे सिर्फ़ एक ही थी जिसका घर था, बाकी सब होस्ट्लर्स। हम १३ उसकी तरफ़ (बल्कि उसके घर की तरफ़) बड़ी हसरत से देखते थे और वों घर से निकलकर हॉस्टल मे रहने के अवसर. गरमी की दोपहरों मे जब बत्ती गुल हो जाती थी, और इम्तेहान सर पर हॉस्टल मे रहना बेहद मुश्किल हो जता था। बरोड़ा की एकमात्र नेमत कमाटी बाग़ ऐसे दिनों मे एक मात्र जगह होती थी हॉस्टल के पास जह्ना जाकर चैन से बैठा जा सकता था। पढा भी जा सकता था। और हिन्दी हार्टलैंड की तरह शोहदों का डर नही सताता था। हमारी वों मित्र जिनका घर शहर मे था, अक्सर मेरे कमरे मे आकर रहती थी, खासतौर पर घर के अकेलेपन से ऊबकर शायद। और मै हॉस्टल की भीड़ और कुछ हद तक अनियंत्रित भीड़ जो बिन बुलाए मेरे कमरे मे आवाजाही करती थी, किसी भी पहर से पीछा छुडाने की फिराक मे रहती थी। ऐसे दिनों मे जब हम दोनों कमाटी बाग़ मे अपनी किताबे और नोट्स लेकर रटने बैठते, तो मुझे दीवार या झाडी की तरफ़ देखना होता, ताकी कोई न दिखे, और मेरी मित्र को काला घोडा के चौराहे की आवाजाही। इतने विपरीत होते हुए भी गजब का याराना था ओर कंट्रास्ट भी। मेरी मित्र भीड़ को देखना पसंद करती थी, पर भीतर से अपने को जैसे एक शीशे की दीवार मैं कैद रखती थी। लोगो से एक भावनात्मक जुडाव उनके लिए सहज नही था। मेरे जैसे अंतर्मुखी लोग जो बेवजह दखल-अंदाजी नही करते थे, उनके लिए सेफ डोमेन थे। मेरा स्वभाव उन दिनों बिल्कुल उलट था। बहुत कम लोगो से जुडाव होता था, पर अपनी तरफ़ से बहुत गहरा। भीतरी और बाहरी दूनिया का सामंजस्य बिठाने के लंबे प्रयास/प्रयोग मे मेरी मित्र मेरे लिए अवचेतन मे एक ध्रुव का (कंट्रोल) काम अब भी करती है।

बरोड़ा मे ही हॉस्टल मे कुछ ऐसे लोगो से भी दोस्ती हुयी, अक्सर तो खाने की मेज़ पर या टीवी रूम मे, जिनका दिल बड़ी ईमानदारी से सामाजिक सरोकारों से जुड़ा था। कुछ न कुछ करने का एक जनून हमेशा बना रहता था। कुछ फाइन आर्ट्स वाले विधार्थी भी थे, जिनका बेहतरीन काम और उसको करते हुए देखने का सौभाग्य भी शायद हॉस्टल मे रहने की वजह से ही मिला। कभी-कभी दिल यु भी उजाड़ होता था और सहपाठियों के साथ एक cut throat कम्पीटीशन के दिनों सहज आत्मीयता और विश्वाश भी किनारे लग जाता था, ऐसे दिनों मे दूसरे फील्ड के दोस्त बड़े सुकूनदेह होते थे।

सहपाठियों से कुछ हद तक उस जमाने लगता था की रिश्तेदारी सी है. मानो न मानो निजात नही मिलने वाली. उनके साथ दोस्ती और उसकी गहराई की समझ बरोड़ा छोड़ने के एक अरसे के बाद हुयी।, और सिबलिंग इफेक्ट इतने दिनों बाद फ़िर सर उठा देता है. पर इन्ही के साथ औरतपने और मर्द्पने से ऊपर उठकर एक व्यक्ति के बतौर दोस्ती और उसका मान भी मिला। एक मर्तबा रिसर्च थीसिस पर काम करने के चक्कर मे हमारे विभाग की लड़कियों ने कई दिनों तक देर रात गए लौटने की लगातार परमीशन ली, जो बड़ी ओफ्फिशियल होती थी, और विभागाद्यक्ष के हस्ताक्षर उसमे होते थे। और घर जाने से पहले हमारे गुरूजी ये तय करके जाते थे, की देर रात गए लड़कियों को हॉस्टल छोड़ने कोन जायेगा। पर हॉस्टल के वार्डन ठनक गए। अगले दिन तय हुया की सभी छात्राए चीफ वार्डन के ऑफिस मे जाकर धरना देंगी। हम लोग सुबह-सुबह लाइन मे खड़े चीफ वार्डन का इंतज़ार कर ही रहे थे। कि हमारे सहपाठी लडके भी साथ मे आकर खड़े हो गए। उन्होंने वार्डन के उस रिमार्क को व्यक्तिगत अपमान की तरह लिया कि सारी परेशानी ये है कि लड़कियों को रात गए लडके हॉस्टल पहुंचाने आते है। इस घटना को आज भी बेहद मान के साथ हम लोग याद करते है। कईलगातार मलेरिया की चपेट मे आकर बारी-बारी कई सहपाठी अस्पताल मे दाखिल हुए, और घर-परिवार से बहुत दूर सिर्फ़ अपने सहपाठी या जूनियर या सीनियर काम आए। कभी बहुत खुशी का मौका हुया तो केम्पस कोर्नर का नीबू-पानी चलते-चलते.
वों भरोसा और वों दोस्ती ही है, कि कभी किसी शहर मे जाना हुया तो भले ही १०-२० मिन लेकिन उन दोस्तों से मिलना टॉप प्राथिमिकता लिए रहता है।


5 comments:

  1. समानता के लिए आप एक कदम भी उठाएँगे तो जीवन भर स्मरण रहेगा।

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  2. बहुत सुंदर प्रस्‍तुतीकरण ... वों भरोसा और वों दोस्ती ही है, कि कभी किसी शहर मे जाना हुया तो भले ही १०-२० मिन लेकिन उन दोस्तों से मिलना टॉप प्राथिमिकता लिए रहता है ... अभी तक दोस्‍ती निभायी जा रही है ... कम नहीं है।

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  3. जब तक प्रतिस्पर्धा न हो उस ख़ास उम्र में दोस्त बनाना बड़ा ही सहज होता है. शायद वैसी मित्रता दोबारा हो नहीं पाती.

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  5. हॉस्टल कि ढेर साडी यादें होती हैं जो जीवन भर भुलाये नहीं भूलती ...वो यारों कि महफ़िल, दोस्ती, मदद, झगडा, रोमांस, देर रात गपशप, खाना, टहलना, ढेर साड़ी बातें हैं जिन्हें एक बार में कहा नहीं जा सकता

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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