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Dec 5, 2009

नही है देश जैसा कोई देश, शहर जैसा कोई शहर

कहीं दूर से एक भूली पुरानी धुन के संगीत में आह सुनाई देती है, घर लौट आओ......
मै अकबक ढूंढती हूँ घर का पता, शहर का पता, देश का पता, बहुत टटोलने पर भी ठीक ठीक शिनाख्त नही कर पाती उस जगह की। यायावरी में एक शहर से दुसरे, दूसरे से तीसरे, और फ़िर लगभग चार दशक की यात्रा में जहाँ हर २-३ साल में शहर बदले हो, और बेहिसाब सरकारी मकान, किराए के मकान, और हॉस्टल की दूनिया में जीवन बीता हो तो किसी एक जगह उंगली रखकर ये कह देना की ये मेरा घर है, ये मेरा घर था, ये मेरा शहर था, दीवानेपन के अलावा और क्या है? किसी दरवाजे पर जो नींद की सी रोमानियत में जाकर खड़ी हो जाऊं तो कौन पहचानेगा? पीछे छुटे शहर जिस गति से बदल गए है, वहाँ कही खड़े हो जाए तो बीते दिनों की ही तरह हमारी स्मृति के वों शहर भी बीत गए है, अब ये कोई और ज़मीन है, ये कोई और लोग है, इनकी दूनिया से हम, और हमारी दूनिया से बेदखल है ये लोग!

कहने वाले फ़िर भी कहेंगे, दीवानापन छोड़ो, शहर के चेहरे पर क्या कोई घर के निशान ढूंढता है? यहाँ रहने को एक कमरा मुहय्या नही और मैडम को पूरा शहर चाहिए, घर के लोग ठीक-ठाक पहचान ले तो गनीमत है, शहर से पहचान भी कोई बात हुयी? शहर, देश, सब घर की चारदीवारी के भीतर है, दहलीज़ से बाहर निकलते ही अनजानेपन की मारा-मारी है, लौटकर साबुत आ सकेंगे इस चारदीवारी के भीतर शाम को, इस बात की भी क्या कोई गारंटी है? बाकी सब किताबी बातें है, कहने, सुनाने और गाने के लिए है, जीने के लिए शहर नही, देश नही, बस निजी, बन्द, दड़बे है, बाकी कुछ और कहाँ है?

इस बात से भी निश्चिन्त कहाँ हो पाती हूँ कि किसी चारदीवारी के भीतर ही मनुष्य की पूरी पहचान अट सकती है? न इस बात का धीरज बाँध पाती हूँ कि चारदीवारी के बाहर फैले डर भी घबराकर हमारे साथ घरों के अन्दर ही घुसे चले नही आयेंगे? मनुष्य भले ही शिष्टता में रहे, डर तो खेल खेलने को स्वतंत्र है। क्या मालूम कि उन्ही का साम्राज्य और गहराता जाएगा अंधेरे बंद कमरों के भीतर भी। डरो के साम्राज्य में, अपने-अपने सुकून ढूंढते लोग, किस किसको पहचानेगे? पहचान सकेंगे? या फ़िर अपने अपह्चाने मन और हारी इच्छाओं के आयने में एक दूसरे को निहारेंगे? एक दुसरे की शिनाख्त करेंगे? और फ़िर बिलबिलाकर मैं चारदीवारी से बाहर सड़क पर निकलूंगी, शहर से दूसरे शहर होते हुए एक देश से दूसरे, दूसरे से तीसरे, चौथे, लगातार किसी नए देश की तलाश में भट्कुंगी? जहाँ पूरी पहचान के साथ जिया जा सके, खंड-खंड मे पहचान न हो, शहर उसी का आँगन हो, और देश एक अमूर्त बीहड़ जंगल से कुछ ज्यादा जिसे याद करने के लिए सिर्फ़ उसकी भोगौलिक चारदीवारी का रोमानियत मे लिखा गाना न गाना पड़े.......

7 comments:

  1. ऐसे देश की तलाश जहा खंड खंड ना जीना पड़े ....पूरी होगी ..?? सोचने पर विवश हूँ ....!!

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  2. बढियां म्यूजिंग -मनुष्य स्वयंपूर्ण है ! जरूरत नहीं उसे कही अन्यत्र जाने की ! खुद में खुद को ढूंढ लो सब कुछ वही हैं ! क्योकि स्थूल प्रतीकों की उम्र भी क्या है ? वे तो अबधूल धूश्रित भी हो गए !

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  3. बहत अच्छी लगी यह पोस्ट...... बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया........ .

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  4. आपका प्रोफाइल और ब्लॉग पहली बार देखा बहुत अच्छा लगा......

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  5. क्या भूलूं क्या याद रखूं
    इस शहर को भूलूं या उस शहर को याद रखूं ।
    या फिर कुछ न भूलूं कुछ न याद रखूँ ।

    पहली बार यहाँ आया और यकीन मानिये यहीं का होकर रह गया ।

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  6. आप सब की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
    @मिश्राजी,
    कभी कभी आश्चर्य में डूब जाती हूँ, और अपनी अभिव्यक्ति की सीमाओं से भी हतप्रभ होती हूँ, कि कभी-कभी इस लिखे का पर्सेप्सन १८० डिग्री विलोम भी हो सकता है.

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  7. गुज़री हुई यादों से इंसान का रिश्ता है,
    पत्थर की इमारत में दिल भी तो धड़कता है ।

    पर अब उस गांव,उन कस्बों और शहरों में जाता हूं जहां पुराने मित्र-प्रियजन अब नहीं रहते तो वे अपरिचित से लगते हैं और मन में बसी वह मूर्ति खंडित हो जाती है . उनका स्वरूप भी बहुत बदल गया है . रूमान की रक्षा वहां न जाने में ही है .

    प्रतीक स्थूल या सूक्ष्म जैसे भी हों उनकी जीवन्तता अन्ततः साथ और साहचर्य की जुगाली -- उसके पुनःस्मरण और पुनर्रचना से ही संभव हो पाती है . स्मृति के इकतारे का संगीत एक के भीतर बज सकता है पर उस संगीत की भौतिक या बाह्य पुनर्रचना एकतार से नहीं हो सकती . कई तार चाहिए और स्वर-संगति भी .

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