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Feb 11, 2010

बूझे-अबूझे जीवन संसार

एक अति उत्साहित छात्र मेरे छात्र दिनों के बाबत कुछ सवाल पूछने आता है, मैं उसे कुछ शहरों के कुछ स्कूल और विश्वविधालयों के नाम बताती हूँ, कुछ तस्वीरे दिखाती हूँ फिर से अपनी स्टुडेंट लाईफ को याद करती हूँ, तो यही लगता है, कि जीवन का एक सान्द्र अनुभव था, खट्टा, मीठा, कड़वा और नमकीन और बहुत से आयाम एक साथ लिए, बहुत सी संभावना के द्वार खोले कितनी दिशाओं में, वही उसका मूल्य था उस तरह का बहुआयामी जीवन फिर कभी आयेगा, पता नहीं! एक लड़कियों का ग्रुप था "FLAME" कहाँ है वों सब मालूम नहीं जीवन ने उसमें रोशनी भरी या धुआं? मेरे दिल में बहुत देर तक "FLAME " की रोशनी कौंधती है, पर उसे इसके बारे में नहीं बताती...............


कई शहरों की, और कुछ बरोड़ा और लखनऊ की बेहद पुरानी खूबसूरत इमारतों की झलक, नैनीताल की हरियाली की झलक में छात्र अकबकाया हुया है, कि "स्लमडोग मिलिन्येर" वाले भारत से बहुत अलग कोई दूसरा भारत भी है? उसके अचरज़ से अचरज़ में पड़ी मैं खुद से पूछना चाहती हूँ कि सूचना और संचार के विस्फोटों से गूंजती इस दुनिया में क्या है जो हम ठीक-ठीक पहचानतें है? एक संसार के भीतर बंद, अटे-सटे हुए है कितने संसार, एक दूसरे से बेखबर, कभी उलझे हुए, और कभी आमने-सामने भी हाथापाई को तैयार, फिर भी क्या कोई रखता है ज़रा सी भी पहचान?.....................

फिर से छात्र दिनों पर लौट आती हूँ, कुछ मामला समझाती हूँ, कि भारत के हॉस्टल और अमेरिका के डोर्म्स में क्या रिश्ता है? हॉस्टल के नाम पर पहला बिम्ब ग्रिल वाले गेट का आता है, और एक छोटे बच्चे का को सांझ ढले अपनी मौसी को हॉस्टल में मिलने आया थागेट बंद हो चुका था, और ग्रिल के आर-पार जितना देखा जा सकता था, उतने में १५ मिनिट तक बात करता रहा और जाते जाते पूछ भी गया कि "मौसी क्या आप जू में रहती हो?" छात्र को मैंने जू में रहे जानवर की छटपटाहट के बारे नहीं बताया, नहीं ये कि लड़कियों के हॉस्टल में खूखार प्राणी नहीं निरीह जानवर बसतें हैखूंखार जानवर शहर भर में खुले घूमते है छात्र को बताया, एक सामूहिक खाने की मेस के बारे में। एक धोबी के बारे में और कुछ सामूहिक बाथरूम और टायलेट्स के बारें में......

छात्र मुझे अपने जीवन के बारे में अपने मित्रों और प्रेम प्रसंगों के बाबत भी कितना कुछ बिन पूछे बताता चलता है। उसकी इस बेबाकी से, उसकी और अपनी दुनिया के अंतरों में बिखर फिर सोचती हूँ कि एक मेज़ के आमने-समाने एक ही उम्र के दो लोग, दो अलग दुनिया, फिर इनके भीतर कितनी सारी दुनियाएं, कितनी तो बिलकुल कहीं गहरे भीतर दबी रहेंगी, उनका तो कभी कहीं ज़िक्र भी नहीं होगा। कितने ढ़ेर से संसार है इस एक ही संसार के भीतर, फिर उनके भीतर कुछ और...........फिर कुछ और भी होंगे। कुछ अचेत तरह से हम दोनों दूसरी दुनियाओं की मौजूदगी को अक्नोलेज करते है, ये जानते बूझते कि शायद कभी ठीक-ठीक कोई एक भी न समझ पाएं। पर ये ख्याल कि कई संसार है इसी संसार में, कई कई संभावनाएं है जीवन में मन को हर्षित करता है।

छात्र के जाने के बाद भी फिर से सोचती हूँ मेरे अपने ही कितने संसार थे छात्र जीवन में, एक घर का, माता-पिता, भाई-बहन का, दूसरा क्लास के संगीयों का, तीसरा हॉस्टल की दुनिया का, और फिर दूसरा सामाजिक सांस्कृतिक दुनिया की दोस्तियों का। एक साथ इतने संसारों के भीड़ में मैं थी, इन संसारों का आपस में सिर्फ दूर बहुत दूर की पहचान का रिश्ता था, और अकसर तो इनमे से एक दुनिया बाकी सारी दुनियों की मौजूदगी को सचेत तरह से शिनाख्त भी करती होगी इसकी संभावना भी नहीं है। और फिर इन सबसे अलग एक मन की अपनी दुनिया भी थी. कभी किसी से बातचीत में इतने अरसे के बाद फिर कुछ टुकड़े उभरते है इन्ही दुनियाओं के, अपने बच्चे को बीच-बीच में कुछ बताती हूँ, खुद भी सोचती हूँ बनेगी कोई तस्वीर टुकड़े-टुकड़े जोड़कर?

यूँ तो सभी संसारों में घूमते हुए गुमान में रहती थी कि सब कंहीं हूँ, सबकी पहचान है, सवाल फिर भी मुहँ बाए खड़े रहतें है किसे जानतें है ठीक-ठीक? और कौन जानता है हमें भी ठीक-ठीक? या फिर हम क्या रखते हैं अपने मन की ठीक-ठीक पहचान? जीवन फिर बड़ी गूढ़ किस्म की चीज़ है, जब तक रहेगा, अनजाना ही बना रहेगा, नहीं बूझ पाऊँगी, कि किस दिशा में जाना है आगे? और क्यूँ जाना है? जिस राह जीवन जाएगा मैं भी चल दूंगी पीछे-पीछे। जो बीता उसे पीछे पलट-पलट कर देखती भी रहूंगी, कि कहाँ पहुंचना हुआ है?..........

7 comments:

  1. आपके संस्मरणात्मक विवरण पढ़ते हुए लगता है की अरे ये दृश्य तो बहतबहुत जाने पहचाने हैं ,ये भावबोध तो जैसे अपने ही है ...आगे की पंक्तियों में क्या कुछ है इसका भी सहसा पूर्व बोधहोता जाता है ..मगर फिर भी एक एक शब्द को पढ़ लेने उन तक पहुंच जाने की कशिश बनी रहती है ....
    सच है एक ऐन्द्रजालिक मायाजाल ही है जीवन - परत दर परत इन्द्र्जालों का मोहपाश -एक काटो दूसरा मौजूद .सब काट डालो (.ऐसी कोई जुगत है क्या ?) तो नए इंद्रजाल सृजित होते हुए उभरते हुए लगते हैं -और ऐसी ही उधेड़बुन और आपा धापी के बीच एक दिन जीवन निशेष हो जाता है .......

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  2. जीवन की जद्दोजहद का एक सुन्दर शब्द-चित्र सुषमा जी। वाह।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. छात्र जीवन की याद होती ही है अविस्मरनीय , आपने मुझे भी अपने बीते दिनों की याद दिला दी !!

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  4. बीच बीच में पलट कर देखना सुखकर रहता है. अच्छा लगा पढ़कर.

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  5. ये यादों के ट्कडे भी जीवन मे अहम रोल निभाते हैं अच्छा लगा आपका ये चिन्तन । महाशिवरात्रि की बधाई एवं शुभकामनाएँ.

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  6. वक्क का पहिया ओर समाज का पहिया पर्पोश्नल है ....सो आदमी ओर उसकी सोच भी घूमेगी .....

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  7. अपने भीतर ही कितनी दुनिया होती है.क्यूँ किसी और दुनिया कि तलाश...

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