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Mar 14, 2010

सपने में बातचीत-02

मन के पैर नहीं होते
बस जब-तब पंख उग आतें है, हरे-नीले-लाल,
मन
उड़ जाता है अपरिमेय पहाड़ों को फांदता,
समन्दर
लांघता, समयकाल से बेपरवाह कंही भी...

लाता
है सपेरें सा पोटली बांधे सौगाते,
कभी
देखी गयी, कभी सुनी गयी,
पकड़
में आने वाले सुगंधियों सी,
मचलती
मछली सी....

झिलमिल करते है सुरज से छिटके सात रंग
उसी में खोजती हूं मन का रंग,
जब तक है रोशनी तब तक है रंग
जब-तब जलती हूं मैं, रोशनी के लिए
जारी रहता है, रंगों का नृत्य,
मन
का सपेरा धीमे-धीमे खोलता है बंद पोटली........

महकती
है एक पूरी अमराई,
सपने
में बहती है कंही एक मटमैली बरसाती नदी,
उठी है फिर से बरसात
और अमराई की मिली-जुली सुगंध
अभी रचे बसे है रंग, रोशनी, गंध और स्वाद
अभी बची है आदिम स्मृति
फिर
एक बार जीवित हूं मैं......................

5 comments:

  1. महकती है एक पूरी अमराई,
    सपने में बहती है कंही एक मटमैली बरसाती नदी,
    उठी है फिर से बरसात और अमराई की मिली-जुली सुगंध
    अभी रचे बसे है रंग, रोशनी, गंध और स्वाद
    अभी बची है आदिम स्मृति
    फिर एक बार जीवित हूं मैं......................




    -अद्भुत...वाह!

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  2. बिना पैरो के........... फिर भी कितनी लम्बी छलांगे है ......कितनी ऊँची उड़ाने ....

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  3. मन का सपेरा खोलता है बंद पोटली ...
    मटमैली नदी ...अमराई ...
    मन के पैर नहीं होते ...पंख तो होते हैं ...!!

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  4. अभी बची है आदिम स्मृति
    फिर एक बार जीवित हूं मैं......................

    जी हाँ जीवित होने के प्रमाण मे आदिम स्मृतियाँ सुरक्षित रखनी ही होगी.
    नायाब रचना

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  5. मन के कितने भाव, कितने रंग सपनों की इस बातचीत के बहाने कविता की पेशानी पर बिखर गये हैं..और यह मुझे सबसे जुदा लगा
    मन का सपेरा धीमे-धीमे खोलता है बंद पोटली........
    सपने भी ऐसी ही जादुई, मिस्टीरियस अन्छुई पोटली की तरह होते हैं..खुलते हुई..गिरह-दर-गिरह!!

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