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Apr 28, 2010

मैं नदिया फिर भी प्यासी


भूपेन सिंह का ये लेख "हिमालय के घाव" उनके ब्लॉग कॉफी हाउस से साभार लिया गया है.
प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड धीरे-धीरे पारिस्थिक तौर पर खोखला बनता जा रहा है. ऐसा करने का काम जनता का कोई घोषित दुश्मन नहीं बल्कि चुनी हुई सरकारें कर रही है. राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने का दावा करने वाली उत्तराखंड सरकार ने केंद्र के साथ मिलकर वहां पर सैंकड़ों छोटी-बड़ी विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं. बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है. अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा.
एक तरफ़ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाड़ी घाटियों में ही ख़त्म होती जा रही है. अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है. गंगोत्री के कुछ क़रीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व ख़त्म सा हो गया है. उस इलाक़े में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाक़ी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी. मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ़ कंकड़ दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है. लामबगड़ में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी ज़रूर दिखाई देने लगता है.
ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है. उत्तराखंड से निकलने वाली बाक़ी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाड़ों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज़ से शुष्क होता जा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ़ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मज़ाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना ज़रूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बड़ी छेड़छाड़ को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.
इस बात का अनुमान कोई भी साधारण बुद्धि का इंसान लगा सकता है कि अगर पहाड़ी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं. पानी के नैसर्गिक स्रोत ग़ायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर ज़मीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं.
जिन पहाड़ियों में सुरंग बन रही हैं. वहां बड़े पैमाने पर बारूदी विस्फोट किए जा रहे हैं. जिससे वहां भूस्खलन का ख़तरा बढ़ गया है. जोशीमठ जैसा ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व का नगर भी पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड़ की वजह से ख़तरे में आ गया है. उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगाड़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है. डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं. लेकिन उनकी मांग सुनने के लिए सरकार के पास वक़्त नहीं है. कुमाऊं के बागेश्वर ज़िले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है. ग्रामीण इसके खिलाफ़ आंदोलन चला रहे हैं. ज़िले के मुनार से सलिंग के बीच का ये इलाक़ा उन्नीस सौ सत्तावन में भूकंप से बड़ी तबाही झेल चुका है. इसलिए यहां के ग्रामीण किसी भी हालत में सरयू नदी को सुरंग में नहीं डालने देना चाहते. यहां भी जनता के पास अपने विकास के रास्ते चुनने का अधिकार नहीं है.
उत्तराखंड में नदियों को सुरंग में डालने का विरोध कई तरह से देखने को मिल रहा है. एक तो इससे सीधे प्रभावित लोग और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. दूसरा उत्तराखंड की नदियों को पवित्र और मिथकीय नदियां मानने वाले धार्मिक लोग भी विरोध में उतरे हैं. मसलन हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ के दौरान साधुओं ने भी गंगा पर बांध बनाने का विरोध किया है. उनके मुताबिक़ गंगा पर बांध बनाना हिंदुओं की आस्था के ख़िलाफ़ है. इसलिए वे गंगा को अविरल बहने देने की वकालत कर रहे हैं. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने गंगा पर बांध बनाने की हालत में महाकुंभ का वहिष्कार करने और हरिद्वार छोड़कर चले जाने की धमकी दी. इस धमकी की वजह से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री निशंक को साधुओं से मिलना पड़ा. लेकिन बांध बनाने का काम शुरू कर चुकी सरकार किसी भी हालत में पीछे हटने को तैयार नहीं लगती. इसकी एक बड़ी वजह सरकार में निजी ठेकेदारों की गहरी बैठ है. अंदर खाने उत्तराखंड की भाजपा सरकार साधुओं को मनाने की पूरी कोशिश में जुटी है, क्योंकि साधु-संन्यासी उसका एक बड़ा आधार हैं. लेकिन अपने क़रीबी ठेकेदारों को उपकृत करने से वो किसी भी हालत में पीछे नहीं हटना चाहती. साधुओं की मांग पर सोचते हुए इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये मामला सिर्फ़ धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा उत्तराखंड के लोगों के भौतिक अस्तित्व से जुड़ा है.
उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए क़रीब दस साल हो गए हैं. लेकिन आज भी वहां पर लोगों के पीने के पानी की समस्या हल नहीं हो पाई है. ये हाल तब है जब उत्तराखंड पानी के लिहाज़ से सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है. ठीक यही हाल बिजली का भी है. उत्तराखंड में बनने वाली बिजली राज्य से बाहर सस्ती दरों पर उद्योगपतियों को तो मिलती है लेकिन राज्य के ज़्यादातर गांवों में आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंच पाई है. वहां एक पुरानी कहावत प्रचलित रही है कि पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी कभी उसके काम नहीं आता. उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे लोगों की अपेक्षा जुड़ी थी कि एक दिन उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार मिल पाएगा, विकास का नया मॉडल सामने आएगा और युवाओं का पलायन रुकेगा. लेकिन हक़ीक़त में इसका बिल्कुल उल्टा हो रहा है.
उत्तराखंड या मध्य हिमालय दुनिया के पहाड़ों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत नया और कच्चा पहाड़ है. इसलिए वहां हर साल बड़े पैमाने पर भूस्खलन होते रहते हैं. भूकंपीय क्षेत्र होने की वजह से भूकंप का ख़तरा भी हमेशा बना रहता है. ऐसे में विकास योजनाओं को आगे बढ़ाते हुए इन बातों की अनदेखी जारी रही तो वहां पर आने वाले दिन तबाही के हो सकते हैं, जिसकी सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हमारी सरकारें होंगी. हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में पांच सौ अठावन छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है. उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पर्यावरण के खिलवाड़ के ख़िलाफ़ आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है. चाहे वो चिपको आंदोलन हो या टिहरी बांध विरोधी आंदोलन. लेकिन राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है. सरकारी ज़िद की वजह से टिहरी में बड़ा बांध बनकर तैयार हो गया है. लेकिन आज तक वहां के विस्थापितों का पुनर्वास ठीक से नहीं हो पाया है. जिन लोगों की सरकार और प्रशासन में कुछ पहुंच थी वे तो कई तरह से फ़ायदे उठा चुके हैं लेकिन बड़ी संख्या में ग्रामीणों और ग़रीबों को उचित मुआवजा़ नहीं मिल पाया है. ये भी नहीं भूला जा सकता कि इस बांध ने टिहरी जैसे एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को भी डुबाया है. यहां के कई विस्थापितों को तराई की गर्मी और समतल ज़मीन पर विस्थापित किया गया. पहाड़ी लोगों को इस तरह उनकी इच्छा के विपरीत एक बिल्कुल ही विपरीत आबो-हवा में भेज देना कहां तक जायज था इस पर विचार करने की ज़रूरत कभी हमारी सरकारों ने नहीं समझी. सरकारों ने जितने बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन के दावे किए थे वे सब खोखने साबित हुए हैं. वहां सिर्फ़ एक हज़ार मेगावॉट ही बिजली पैदा हो पा रही है. जबिक योजना दो हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की थी. सबसे बड़ी बात कि इससे राज्य के लोगों की ज़रूरत पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास अधिकार भी नहीं हैं.
दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज़्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज़्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं. लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं. कुछ वक़्त पहले हिमालयी राज्यों के कुछ सांसदों ने मिलकर लोकसभा में एक अलग हिमालयी नीति बनाने को लेकर आवाज़ उठाई थी लेकिन उसका भी कोई असर कहीं दिखाई नहीं देता. हिमालय के लिए विकास की अलग नीति की वकालत करने वालों में से एक महत्वपूर्ण सांसद प्रदीप टम्टा उत्तराखंड के अल्मोडा-पिथौरागढ़ सीट से चुने गए हैं. कांग्रेस के नेता बनने से पहले वे चिपको और उत्तराखंड के जनआंदोलनों से जुड़े रहे, लेकिन अब वे भी अपने पार्टी हितों को तरजीह देते हुए राज्य में पर्यावरण से हो रहे खिलवाड़ के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल पा रहे हैं.
आज पहाड़ी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की ज़रूरत है. जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्वीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है. इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफ़ा दबाव नहीं पड़ेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खड़ा कर विकास का भ्रम खड़ा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की क़ीमत आने वाली पीढ़ियों को ज़रूर चुकानी होगी. आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीक़े से खड़िया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज़्यादा बुरा असर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ ज़िलों में पड़ा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ़ रहे हैं. नैनीताल में भी बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं. पर्यारण से हो रही इस छेड़छाड़ की वजह से ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीक़े से घट-बढ़ रहा है. ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इस सिलसिले में पिछले दिनों राजेंद्र पचौरी की संस्था टेरी और पर्यावरण मंत्रालय के बीच हुआ विवाद का़फी चर्चा में रहा. वे इस बात पर उलझे रहे कि हिमालयी ग्लेशियर कब तक पिघल जाएंगे. लेकिन इसकी तारीख़ या साल जो भी हो इतना तय है कि सुरक्षा के उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में ग्लेशियर ज़रूर लापता हो जाएंगे. तब उत्तर भारत की खेती के लिए बरदान माने जाने वाली नदियों का नामो-निशान भी ग़ायब हो सकता है. तब सरकारें जलवायु परिवर्तन पर घड़ियाली आंसू बहाती रहेगी.
टिहरी बांध का दंश राज्य के ग़रीब लोग पहले ही देख चुके हैं। अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है. ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा. ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं. इससे छह हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है. इसमें भी बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ़ जमीन बांध में समा जानी है. इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है. सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे. नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे। तब पहाड़ों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे.



Apr 23, 2010

धरती का बचना तभी संभव है जब मनुष्यों के बीच समानता बनेगी

२२ अप्रैल और ये पूरा महीना धरती दिवस, कविता माह के रूप में साल के कलेंडर पर जगह पाता है. हमारी संवेदनशीलता, ह्रदय और जनतंत्र में चुनी हुयी सरकारों की नीतियों और जन के सरोकारों में कितनी जगह पाता है? अगर होती कोई जगह, और सोच तो भूपेन को हिमालय के घाव लिखने की ज़रुरत नहीं होती. हमारी भोगौलिक , सांस्कृतिक, अस्मिता के प्रतीक हिमालय को लेकर हमारी कुछ सोच होती, सिर्फ हिमालय गानों में जगह न पाता. और हनीमून स्पोट के इतर उसके कुछ और बिम्ब भारत के जन के मन में होते, कुछ जुड़ाव होता.

उत्तर भारत को जल और जीवन दायिनी नदियों, गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी का इस तरह दोहन न होता। और जल, जीवन और जन के बीच सम्बन्ध कुछ हारमोनी लिए विकास की राह चलतें होते. एक जमीन से जुड़े गढ़वाली कवि, गीतकार और गायक को ये गाने और लिखने की ज़रुरत न होती.


"कख लगाण छ्वीं, कैमा लगाण छ्वीं
ये पहाड़ की, कुमौ-गढ़वाल की
सर्ग तेरी आसा, कब आलू चौमासा
गंगा जमुना जी का मुल्क मनखी गोर प्यासा
क्य रूड क्य हयून्द, पानी नीछ बूँद
फिर ब्णीछ योजना, देखा तब क्य हूंद"
.........नरेन्द्र सिंह नेगी

और भी बहुत कुछ नहीं होता, दुनिया में इस तरह की रेड लिस्ट हर साल नहीं बनानी पड़ती, कि कैसे जीवन के विविध रूप धीरे -धीरे विलुप्त हो रहे. अकेले भारत में करीब ५६९ सिर्फ पशुओं की जातियां इस लिस्ट में है। हिमालय को जिस तरह ऊर्जा के लिए दोहना जारी है, बहुत कुछ जो पौधों और पशुओं की जातियां है, जल्द ही इस लिस्ट में शामिल होंगी। मनुष्य वैसे भी अब उत्तराखंड के गाँव से तेजी से बह चुके है, और जो बचें है वों भी चंद बरसातों की बात है, बहतें हुये उन्हें भी नीचे ही आना है। पहाड़ का लगातार दुष्कर होता जीवन उन्हें या तो ख़त्म करेगा या दर-बदर भटकाएगा ही।
अपनी तरफ से चीन एवरेस्ट के बेस केम्प तक सैलानियों की सहूलियत और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सड़क बना चुका होगा। इस पार और उस पार से हिमालय पर कई कई घाव हो ही रहे है। अमूमन यही हाल दुनिया के कई दूसरे देशों का है।
चॉम्‍स्‍की ऐसे ही घबराये नहीं है, कि अभी तक इतना देखा, पर जो हो रहा है फिर भी अनदेखा अनचीन्हा रहा गया।
ऐसे ही नहीं बोलिविया के राष्‍ट्रपति ने एवो मोरालेस ने कहा कि "धरती और मौत में से अब सिर्फ एक का चुनाव बचा है". और धरती का बचना तब तक संभव नहीं है जब तक लोगों के बीच कोई आपसी तारतम्य, समानता नहीं बनती.
"Without equilibrium between people, there will be no equilibrium between humans and nature।"

सिर्फ लैटिन अमेरिकी देशो और अफ्रीका की सरकारे ही विकास की लूट-खसौट वाली नीतियों पर नहीं चल रही है। पूंजीवाद के केंद्र में भी कुछ वैसे ही भ्रम फैले है, कि दुनिया की हालत एक सी ही है,। और इन हालातों से निपटने के लिए जैसे माओवादियों द्वारा सत्तापलट के भ्रम हिन्दुस्तान में फैले है। कुछ उसी टोन पर ये भ्रम भी कि "सफ़ेद घर" भी समाजवादी लालरंग में पुत्ता जा रहा है.


Apr 20, 2010

बुरांश के कुछ और रंग





करीने लगी कोई क्यारी
या सहेजा हुआ बाग़ नहीं होगा ये दिल
जब भी होगा बुराँश का घना दहकता जंगल ही होगा
फिर घेरेगा ताप,
मनो बोझ से फिर भारी होंगी पलके
मुश्किल होगा लेना सांस
मैं कहूंगी नहीं सुहाता मुझे बुराँश,
नहीं चाहिए पराग....
भागती फिरुंगी, बाहर-बाहर,
एक छोर से दूसरे छोर
फैलता फैलेगा हौले हौले,
धीमे-धीमे भीतर कितना गहरे तक
बुराँश बुराँश ...

Apr 19, 2010

संस्थागत पूंजीवादी लूट खसौट

मुझे अर्थशास्त्र में कोई रुची नहीं रही, न कभी समझ रही। फिर भी अब जबकि नाकामयाब अर्थ-नीतियों और अनगिनत घोटालों ने आम आदमी को कहीं का नहीं छोड़ा, और इनके परिणाम रोज़-रोज़ कुछ और हमें चपटें में लिए जातें है बिना हमारी अनुमति के, बिना रूचि-अरुचि के तो इस तरह आँख चुराना भी अब संभव नहीं बचा है। मुझे हमेशा से लगता रहा कि ये जो इतनी बड़ी मंदी की मार है, उसकी वजह क्या है? कहां गया आखिर पैसा? हवा में गुम तो नहीं ही हुआ होगा। हो सकता है पब्लिक डोमेन से निकल कर किसी निजी कौने में जमा हो गया हो, पर कपूर की तरह हवा नहीं ही हुआ होगा।
ये कुछ , और लेख है, लम्बे है, और अंगरेजी में ही है। शायद ये समझने में कुछ मदद करते है कि पैसा आखिर हवा हुआ तो कहां हुआ?

Apr 4, 2010

फिर बनेगें आशना कितनी बरसातों के बाद

सुनना. फिर.. फिर..वही भूली बिसरी धुनें, कभी कुछ दिनों बाद, कभी महीनो और फिर कभी सालों बाद भी, फिर से डूबना, फिर से लौटना अपने पास ही. भटकना फिर एक बार धूप और बूंदाबांदी में एक साथ. सपनों के भीतर जगते रहना देर रात तक, अलसुबह तक. भरी दोपहरी भीड़ के बीच धीरे से मुस्काना, कहना खुद से उठ जा अब.., काम..काम... काम... है, दिन है...... दिन है......... दिन के दस्तूर है..

फैज़ साहेब की आवाज़ में एक और यहां है