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Sep 30, 2010

2010 पहाड़ डायरी -02

आत्मीय रिश्तों की संगत में इत्मीनान होता है, कुछ अपने को फिर से पा लेना होता है, ज़रूरी नहीं कि मतभेद न हो, समझ में आयें सब कुछ ठीक-ठीक, परन्तु न समझ सकने की कसक या समझ लेने की कोशिश का भी अंत नहीं होता. पहाड़ किसी छूट गए आत्मीयजन सा है, मन के बहुत पास, वास्तविकता में बहुत दूर, जिसे  जानने का खुमार है, उसका होना, उसके दुःख-सुख, बहुत कुछ, स्मृति (जो यूं भी समझ के आयने में रोज़ बदलती है) पर ही टिके है. वास्तविकता में पहाड़ कितना बदला उसका अनुमान कुछ व्यक्तिगत स्तर की कही-सुनी-लिखी  बातों, कुछ सार्वजनिक उद्वघोषणाओं, कुछ पढ़कर, या फिर साल-दो साल में दो हफ्ते की छुट्टी बिताने के बीच लगता रहा है, इस बार सीमित समय की कुछ प्लानिंग थी पहाड़ को  कुछ पास से देख लेने की, सुन लेने की, छू भर लेने की. फिर अकसर जैसे होता ही है, जीवन अपने तरह से हमें प्लान कर लेता है, और प्लानिग के बारे में सिर्फ एक ही निश्चिंतता बची रहती है कि कुछ न कुछ गड़बड़ होती जायेगी. इस बार इसके कंट्रोल पैनल पर मौसम सवार था. हर बार कोई दूसरी चीज़ होगी, अपनी अपनी तरह से हम सभी कहेंगे...
"Once a journey is designed, equipped, and put in process, a new factor enters and takes over. A trip, a safari, an exploration, is an entity, different from all other journeys. It has personality, temperament, individuality, uniqueness. A journey is a person in itself, no two are alike. And all plans, safeguards, policing, and coercion are fruitless. We find after year of struggle that we do not take a trip; a trip takes us."
 John Steinback (1962)




 पिछले 13 बरसों में  बरसात में कभी भारत आना हुआ नहीं था.  इस बार एक  महीने  के लिए माँ मेरे साथ थी,  ये तय हुआ कि  माँ के वापस लौटने के साथ मुझे भी कुछ दिनों के लिए जाना है पहाड़. माँ  कहती भी रही कि बरसात में छोटे बच्चों के साथ कई मुश्किलें होंगी, और पहाड़ के भीतर जाना लगभग नामुमकिन है. फिर भी एक बार रस्ते  लग गए तो फिर पहुँच  भी गए, हालांकि मुश्किल की शुरुआत भारत पहुँचने से पहले ही हो गयी.  यूजीन से प्लेन जब सेन-फ्रांसिस्को पहुंचा, उसे उतरने की जगह नहीं मिली कुछ २० मिनट तक और जब तक भागकर इंटरनेशनल टर्मिनल तक पहुंचे,  फ्रेंकफर्ट के प्लेन का दरवाजा बंद हो चुका था, अपने सामने उसे छूटते  देखा, फिर २ घंटे की कोशिश के बाद तय हुया कि हम लोग २४ घंटे के लिए सेन-फ्रांसिस्को में अटक गए है.  बच्चों और माँ के साथ एक रात La Quinta Inn, में बिताई. ये भी संयोंग ही था   कि डेस्क पर हिन्दी बोलने वाला अमित नाम का लड़का मिला, जो करेबियन आईलेंड का था, और उसने बताया कि हिंदी उसने अपने पिता से सीखी है, जो वहां रेडियो नवरंग चलाते है.  किसी तरह तीन दिन बाद दिल्ली पहुँचना हुआ, और टर्मिनल तीन जो उसी दिन खुला था, को देखना सुखद अनुभव रहा. तीन घंटे एयरपोर्ट पर बीतने के बाद एक घंटा नई दिल्ली स्टेशन पर बीता.  मैं उम्मीद कर रही थी कि "कोमनवेल्थ गेम्स" के चक्कर में कुछ फ़ायदा दिल्ली के रेलवे स्टेशन के हिस्से भी आयेगा, जो  नहीं ही आया था.  इस बीच  मेरा  एक  बेटा लगातार मक्खियों के पीछे भागते हुये और दूसरा तरह-तरह के लोगो को देखते हुये अपना मन बहलाते रहा.  बचपन में  भोलापन और ख़ास तरह की अपेक्षा  का न होना संभवत: उनकी खुशी का राज़ रहा होगा .

दिल्ली से देहरादून का सफ़र हरियाली की लम्बी पट्टी से गुजरते हुये जाना है,  बरसात में हरे रंग के सारे संभव शेड्स दिखते है,  रिमझिम पानी में नहाई प्रकृति तृप्त दिखती है.  खेतों और हरियाली के बीच  कुछ पुराने बहुत से नए ईंट के भट्टे खड़े मिलते  है, गहरे खुदे हुये  खेतों  पर नज़र जाती है, मिट्टी ईंट के  भट्टों की तरफ जाते भी दिखती है.  जिस गति से हर छोटे बड़े गाँव, शहर, और महानगरों में कभी न ख़त्म होनेवाला कंस्ट्रक्शन चल रहा है, सोचती हूँ, कितने वर्ष और कि सारी की सारी top soil, को इंटों में बदल जाना है,  कितना और समय है इस हरियाली का, खेती  का, खुशहाली का?.  मिट्टी के ईंट में बदलते ही  वापस फिर मिट्टी बनने की  संभावना  कहां  बचती है, या इसकी ही कि मैं ही  फिर वापस आ सकूंगी इसी मिट्टी में लौटकर किसी दिन  ....

 आम का सीजन लगभग ख़त्म होने को था, लीची का ख़त्म हो चुका था. पिता ने आम-लीची दोनों को फ्रिज और फ्रीज़र में भरकर रखा था. चार दिन लगातार  बच्चे दिन में सोये, रात में उठे  रहते और मैं  इधर उधर कुछ काम करती, फिर रात में जागना होता, फिर कभी दिन में भी झपकी,  माँ भी मेरी तरह नींद से जूझती है, दिन में और रात में भी.  बुआ जी  और पिताजी की बाते, उत्सुकता, और प्यार हमें बीच में खड़े होने का, नींद से लड़ने का संबल देता है. हमारी एक भली पड़ोस की आंटी जी, रोज़ सुबह बहुत दिनों तक दूध लाती है, ताकि माँ की कुछ मदद हो सके.  धोबी जी को बुलाकर में घर के परदे, चादर और दरियां देती हूँ, जो एक महीने बाद तक भी वापस नहीं आयी.  बारिश में हाल बेहाल रहा, देहरादून के कुछ इलाकों में बार-बार पानी भरता रहा, कपड़े धोने और उन्हें सुखाने की सहूलियत उन्हें न मिली. माँ कहती रही कि "धीरे-धीरे खुद ही धो लेते, पर तुझे अक्ल है कहाँ? किसी की सुनती कहाँ है?".  बारिश अब तक रुकी नहीं है, पता नहीं अब भी वों कपडे घर वापस आये या नहीं? 

जितने दिन रही वहाँ, लगातार बारिश, बाढ़, भूधसांव, बादल और जमीन फटने की खबरे आती रही, कपकोट के स्कूल में छत के ढहने से १८ बच्चों की मौत की खबर चल रही है. कई पुल टूटे हुये है. रात को दो बजे पता चलता है कि देहरादून के माजरा वाले इलाके में घरों के भीतर पानी आ गया है. लगातार बरसात है, बरसात की खबर है, और बच्चे चिंतित है कि हमारे घर तक कब बाढ़ पहुँच रही है. अपने गाँव जाने की कोई सूरत महीने भर में नहीं बन पायी. हनुमंती का पुल टूटा रहा. खबर ये भी है कि ३०० सालों से खड़ा घर जो था गाँव में, उसका आधा हिस्सा टूट गया है. शेषहाल अभी पता लगना बाकी है.  नैनीताल और हल्द्वानी का रास्ता भी टूटा रहा, अल्मोड़ा में तहस नहस अब तक जारी है...

इस सबके बीच फिर कुछ देर को धूप खिली, बारिश रुकी, बन्दर आते जाते रहे, घर के बाहर ही नहीं, रसोई के  भीतर तक और एक दो बार कपडे उठाकर भी ले गए. बंदरों की इस कदर बढ़ी आवाजाही की वजह कुम्भ मेले के प्रबंधन से जुडा भी बताया गया कि हरिद्वार के बन्दर भी अब देहरादून और दूसरे शहरों में है. पिता के पास बन्दर को दूर से भागने के लिए एक गुलेल है, पिता कहते है कि "देहरादून के बन्दर औरतों से नहीं डरते, इसीलिए उनके पीछे नहीं दौड़ना"


 मैं हैरान होती हूँ कि उत्तराखंड की भूमी का ८०% वन विभाग के कब्ज़े में है,  पहाड़ में  सिर्फ ७% खेती की जमीन है.    कभी सोचती हूँ कि ब्रिटिश भारत और  आज़ाद भारत की सरकार का उत्तराखंड की जमीन पर जो कब्ज़ा गहराता रहा है,  पीढी दर-पीढी लोगों के पास खेती और मेहनत करके गुजारे का अकेला संसाधन जो ज़मीन थी, कम होती गयी.  फारेस्ट रीसर्च इंस्टिट्यूट के सामने से, इसके भीतर, और बाहर गलियारों  में गुजरते हुये ख्याल आता है कि फारेस्ट रीसर्च इंस्टिट्यूट की देहरादून में स्थापना का कोई सीधा सिरा  अंग्रेजों के  जल, जंगल और जमीन की  हडपने की नीती से न रहा हो ये कैसे मुमकिन है? क्या  विस्थापन की एक एतिहासिक वजह ये रही होगी?. उसके कुछ तार भी कहीं जुड़ते होंगे कि क्यूं विकास की परिधि के बाहर छूटा  रहा पहाड़? या सिर्फ ये मान  लिया जाय कि  जो पहाड़ के गाँव के गाँव खाली हो गए है, वों सिर्फ अपनी सरल भूगोल में बस जाने की चाह में खाली हुये है,  और साल, सागौन, शीशम,चीड़    की लकड़ी और भी कितनी बहुमूल्य अकूत वन संपदा है उत्तराखंड में वों कोई  प्रत्यक्ष और परोक्ष वजह न रही होगी.
 वन प्रबंधन की जो भी नीतियाँ है, उससे उपजे जो  परिणाम है,  उनके असर पहाड़ के जन जीवन पर बहुत गहरे पड़ते है,  चाहे वन पंचायत की जमीन से अंतत: गाँव के लोगों के हक ख़त्म होने की बात हो, या घास और लकड़ी को जंगल से लाने पर प्रतिबन्ध हो, या फिर जंगली जानवरों की संख्या में अनियंत्रित तरीके से बढे और वों जंगल की सीमा के  बाहर खेती के लिए, मनुष्य और पालतू जानवरों के लिए खतरा बन जाय. उससे पार पाना पहाड़ के लोगों के बस में नहीं है, बस में पहाड़ के किसानों के  सिर्फ इतना है कि इस मार और उस मार को सहते रहे, और पहला मौक़ा जो भी मिले जीविका के लिए दर-ब-दर घुमते फिरे.  बंदरों का आतंक सिर्फ देहरादून में ही नहीं दिखा, बल्कि बाद में ये भी पता चला की बंदरों और जंगली सूअरों की संख्या पहाड़ में इस कदर बढ़ चुकी है, कि जो बहुत थोड़े से लोग गाँव में बचे रह गए है, उनके लिए खेती करना असंभव हो गया है. बाद के दिनों कुछ  गाँवों  के रास्ते, लोग हमें दिन दहाड़े खेतों की रखवाली करते दिखे. एक ९५ से १०० साल की दादी मिली जो सुबह ६ बजे से दिन १ बजे तक खेत में इसीलिये बैठी थी कि बन्दर भगाने है. एक प्रायमरी स्कूल के रिटायर प्रिंसिपल भी खेत में रखवाली के दौरान ही मिले. गाँव के आस-पास बाघ के मंडराने की भी खबरे मिली, और ये भी कि किस तरह से आये दिन कुछ गाय, कुछ बछड़े, बकरियां बाघ उठाकर ले जाता रहा है. ये भी कि जंगली सूअर को फांसने को जो घात किसी ने गाँव में लगाई थी, उसमे एक बाघ फंसकर मर गया, और दो ग्रामीण छ: महीने से जेल में है.  तीन साल पहले अस्कोट-आराकोट की यात्रा के अनुभव सुनाते हुये, डाक्टर शेखर पाठक ने दूर दराज़ की एक महिला का किस्सा सुनाया कि कैसे भालू के हाथ पेड़ की ओट से पकड़कर उसने भालू की छाँ कर दी, और एक ग्रामीण का पूरा चेहरा भालू के हमले में घायल हुया.   इस बीच मोबाईल फ़ोन ने कई तरह के नुकसान के बावजूद इनकी पहुँच गाँव तक और गरीब तबकों तक भी हुयी है, एक मज़ाक के किस्से की तरह ये भी पता चला कि पेड़ पर जंगल में चढी एक ग्रामीण महिला ने मोबाईल से घर फ़ोन किया, कि पेड़ के नीचे भालू खड़ा है, और वक़्त पर मदद उस तक पहुँची.
 जिन लोगों का जीवन बन्दर, भालू और बाघ के डर   और गतिविधियों से प्रभावित है, या होता है, उनकी भरपाई या समाधान की चिंता शहरी मीडीयां या फिर उत्तराखंड की दससाला  सरकार की चिंता का कभी सबब बनेगी? अमेरिका में भी हिरणों की संख्या हर साल बढ़ जाती है, और उसे नियंत्रित करने के लिए शिकार की अनुमति दी जाती है. बड़ी संख्या में घरेलू कुत्ते, बिल्ली आदि को स्टरलाइज किया जाता है. बंदरों की समस्या के लिए शायद ये एक मानवीय तरीका हो सकता है, कोई अन्य समाधान हो तो उसे भी ढूंढा जाना चाहिए, मसलन जंगल की सीमा पर कुछ ultrasonic या फिर infra-red घेरा भी बनाया जा सकता है कि जन जीवन और वन्य जीवों के बीच कोई संतुलन हो सके. इस तरह की तकनीकी का इस्तेमाल रोज़ के जीवन में अमेरिका में देखते आयी हूँ. घरो की छोटे शहरों में अकसर कोई बाउंडरी नहीं होती, और कुत्ते बिल्लियों को अपने घर की सीमा में रखने के लिए इस तरह की तकनीकी का इस्तेमाल किया जाता है. अकसर कार पर लगाने के लिए भी कुछ बहुत सस्ती डिवाईस आती है, जो ख़ास किस्म की ध्वनी संचारित करती है, जिसे सिर्फ जानवर सुन सकते है, मनुष्य नहीं, और इसी लिए चलती कार से १० फीट की दूरी रखते है. चूँकि ८०% की उत्तराखंड की भूमी सरकारी नियंत्रण में है, तो किसी भी तरह से लोगों के पास इस तरह के अधिकार और रिसोर्सेस नहीं है कि जंगल की इस तरह की घेराबंदी करे. सरकार की ज़रूर इस दिशा में सचेत पहल की जिम्मेदारी बनती है, वन्य जीवों के प्रति भी और उस भूखंड में रहने वाले लोगों के प्रति भी....,

पता नहीं ख्यालों की दुनिया में उत्तराखंड घुमते हुये, दुनिया के नक़्शे के दूसरे भूखंड बार-बार तुलना के लिए मानस में आते है, कि ज़रा सी पहल से, किसी सूचना और तकनीक से यहां का जीवन भी कुछ कम कष्टभरा  हो सकता है.  उत्तराखंड से बाहर रहती हूँ, तो लगातार उत्तराखंड जहन में बना रहता है.  पिछले महीने कोबरा पर काम करने वाली एलिस से माईनोट में मिलना हुआ था. बहुत देर तक हम सांप, कोबरा, अजगर पर बात करते रहे. एलिस , जर्मनी में पली बढ़ी थी,  एक तरह से सांप का आकर्षण  यूनिवर्सिटी  तक खींच कर लाया था उसे और अब दुनिया भर के जहरीली साँपों की बनावट पर उनकी गति पर रिसर्च करती है. बिन -हाथ पैरों वाला सांप कैसे दुनिया में जीता होगा उसकी अपने जीवन की एक मुख्य चिंता बन गया.  उसी से पता चलता है कि दरअसल सांप के लिए जहर बेशकीमती है, और अगर जरूरत न हो तो उसे सांप जाया नहीं करता. ५०% कोबरा का डंक जहर लिए नहीं होता. सिर्फ डराने के लिए ही होता है. एलिस से बातचीत करते हुये मैं लगातार  उत्तराखंड के पहाड़ और तराई में बीते दिनों में लौटती रही.  हर बरसात पहाड़ और खासकर तराई में कितने बच्चे, कितनी औरते सांप के काटने से मर जाते है, कही मीलों दूर तक भी एंटी-वीनोम के इंजेक्शन नहीं मिलते.  बचपन के दिनों में जब कितने कितने लोग सांप के काटे हुये, मेरे दादाजी के पास आते थे, और कितनी बार तो होता था कि दिन में रात के किसी भी पहर वों किसी को बचाने एक गाँव से दूसरे में अस्सी साल की उम्र में भी जाया करते थे.  कितनी बार तो होता कि दादी और माँ उन्हें कहते कि इस उम्र में मत भागो, बीमार हो जाओंगे, कहीं गिर पड़ोगे, किसी तरह की कोई कमाई कभी की नहीं तो जो पुण्य हुआ  अब बहुत हुआ. दादाजी ने कभी सुनी नहीं, उनका विश्वास बना रहा कि अगर अपनी सेवा के बदले उन्होंने पैसे लिए तो उनका मन्त्र काम करना बंद कर देगा.  प्रेमचंद की मन्त्र कहानी कुछ अपनी जानी पहचानी कहानी लगती थी.  एलिस से बात करते हुये कितनी बार सोचती हूँ कि क्या ये महज इत्तेफाक रहा होगा, कि सांप के काटे दादाजी के पास जितने लोग आये होंगे, वों सब वही होंगे जिनके भीतर कोबरा ने ज़हर नहीं उडेला था.या फिर कुछ पारंपरिक तरीके कई पीढीयों ने खोजे थे, वों भी खो गए है, और नया अभी पूरी तरह पसरा नहीं है.


 देहरादून में एक डॉक्टर से दूसरे, फिर इस टेस्ट के बाद दूसरे पथोलोजी में चक्कर काटते माँ को लेकर एक पूरा दिन बीतता है. आधा दिन अपने बेटे के साथ एक डाक्टर की दुकान पर भी बीतता है.  सुबह ग्यारह बजे से पहले किसी भी डाक्टर का मिलना असंभव है.  हर जगह लम्बी कतारे है, कतार के बीचों बीच चेहरे पर बदहवासी और नींद लिए दो औरते छोटे बच्चों को लेकर खड़ी है, शायद बहुत लंबा सफ़र तय करके देहरादून पहुँची थी.  हर डॉक्टर के घर में एक दुकान  है, वहाँ भीड़ है, दो-तीन लोग किसी पेथोलोजी के बैठे है, जो बिना दस्ताने पहने लोगों का खून जांच के लिए निकाल रहे है, मळ-मूत्र के सेम्पल इकठ्ठा कर रहे है, २००-३०० रूपये की पर्ची कटा रहे है.  एक स्किन स्पेशलिस्ट के यहां प्रमोद के साथ जाती हूँ, प्रमोद से बीच बातचीत में रहा नहीं जाता, और धीरे से फुसफुसाते है कि डॉक्टर के नाखूनों की तरफ देखकर कहते है " कितने सलीकेदार हाथ है, मेनिक्युर्ड!".  मेरा ध्यान हाथ में फंसी तीन डायमंड की बड़ी अंगूठीयों और एयररिंग्स की तरफ जाता है.  स्किन स्पेलिस्ट की दुकान में सबसे बड़ा विज्ञापन, लेज़र से चेहरे के और भी बाकी शरीर के बालों को स्थाई रूप से कैसे निजात पायी जाय, इसका है.  मैं बाद में प्रमोद से कहती हूँ कि यूं ही तो नहीं होगा कि एक औसत दिन में इतने ताम-झाम के साथ, इतनी कीमत के पांच हीरों में सजकर एक छोटे क्लिनिक की डॉक्टर आती है?  है कोई सम्बन्ध  जिस तरह की केयर मरीज़ को मिलती है, और जितने पैसे वों दिनभर में इस डॉक्टर, उस डॉक्टर, इस पेथोलोजी, से दूसरी तक फूंकता है?  सिर्फ डाक्टरों की दुकाने है, इतने सारे डाक्टर, पथोलोजी, और अल्ट्रा-साउंड की दुकाने ही है, अस्पताल एक तरह से इस पूरी राजधानी में मुझे ढूंढें नहीं मिलते, जहाँ एक बार कोई बीमारे में जाय और  ठीक से दवाई लेकर घर लौट जाय या ठीक डायग्नोसिस का इत्मीनान लिए लौट जाय.

हर बार माँ और पिता को डांटती रहती हूँ कि बीमार पड़ने पर किसी ठीक-ठाक डॉक्टर को दिखाकर आओ. खुद जाकर पता चलता है कि किसी सटीक डायग्नोसिस की गुंजाईश उत्तराखंड की राजधानी में भी कितनी मुश्किल है? बीमार आदमी शायद कुछ आराम से ठीक हो जाय पर बीमारी में पूरे-पूरे दिन यूं भटकने का बोझ जब तक संभव हो नहीं उठाना चाहता. पिता ने रामदेव के योग के असर में अपना वजन और स्वास्थ्य काफी हद तक ठीक किया है, और एक चलती फिरती रामदेव की डिस्पेंसरी उनका बेडरूम है.  सायंस की समझ मुझे उनकी तरह सहज विश्वासी नहीं बनाती, अब लगता है कि विरोध से भी क्या हासिल होना है?  किसी बहुत छोटी सी बीमारी के लिए भी अगर देहरादून जैसे शहर में किसी डॉक्टर तक पहुँचने में इतनी बड़ी झंझट हो, तो फिर लोगों के पास क्या चारा है, बाबा रामदेव के अलावा, या फिर सदूर देहातों में भी किसी वैध, किसी झाडफूंक करने वाले, या किसी फार्मेसिस्ट, किसी झोलाछाप नकली डाक्टर से इलाज़ कराने के अलावा? बिना विकल्प के किसी भी चीज़ को कोसने का मुझे हक भी क्यूं  हो?
फिर से मन किसी दूसरे छोर पहुँच जाता है. दुनिया के सबसे ज्यादा डाक्टर इस देश में ट्रेन होते है, अच्छे दिमाग और ट्रेनिंग वाले डाक्टर है. विकसित देशों में भी हिन्दुस्तानी डाक्टरों की अच्छी खपत है, इतनी बड़ी जनसंख्या  वाले देश में, बावजूद पिछले दो दशक में इतने पैसे की भरमार हुयी है, फिर भी स्वास्थ्य सेवाएं क्यूं बदतर हुयी है? पब्लिक सेक्टर के अस्पतालों का ढांचा और विश्वशनीयता  क्यूं  चरमरा रही है? प्राइवेट सेक्टर भी इतनी बढ़त के बाद भी, बुनियादी किस्म की सुविधा क्यूं नहीं व्यवस्थित कर पा रहा है? बार-बार उत्तराखंड से भागकर मन ग्लोबभर में घूमता रहेगा फिर वापस आयेगा यंही,  इसी झाड़-झखाड के बीच, उसी खुशबू, उसी बीहड़ की तरफ...

करीने लगी कोई क्यारी
या सहेजा हुआ बाग़ नहीं होगा ये दिल
जब भी होगा बुराँश का घना दहकता जंगल ही होगा
फिर घेरेगा ताप,
मनो बोझ से फिर भारी होंगी पलके
मुश्किल होगा लेना सांस
मैं कहूंगी नहीं सुहाता मुझे बुराँश,
नहीं चाहिए पराग....
भागती फिरुंगी, बाहर-बाहर,
एक छोर से दूसरे छोर
फैलता फैलेगा हौले हौले,
धीमे-धीमे भीतर कितना गहरे तक
बुराँश बुराँश ...
 
जारी ..............

Sep 20, 2010

२०१० पहाड़ डायरी -01


मेरे लिए पहाड़  लौटना सिर्फ किसी सुपरिचित भूगोल में लौटना नहीं होता, हमेशा किसी अहसास में, किसी खुशबू में, मन में दबी छिपी किसी लम्बी-संकरी, सांप सी बल खाती पगडंडी में होता है, जहाँ सपनो का एक बड़ा मेला लगा हो, और किसी छोटे बच्चे की तरह मैं चकमक हुयी जाती हूँ, रंग से, रोशनी से, उचाईयों से, डरती भी जाती हूँ गहराईयों से. दृष्टी हमेशा विराटता को समेट लेगी, कि   दिमाग सब केटालोगिंग कर ले, इसका होश नहीं बनता.  लगातार देखने की प्यास में बार-बार पहाड़ को देखना होता है एकटक.

कभी सचमुच जब पहाड़ लौटना होता है,  उत्सुकता हमेशा जस की तस बनी रहती है;  कि अगले मोड़ पर क्या होगा? कौन से फूल खिले है, किन वनस्पतियों  की गंध हवा में तैरती आती  है? आवाज  किसी नदी की है, किसी सदाबहार झरने का प्रपात है,  कि बरसाती गदेरे की किसी नाले  की छलछल है? कौन सी चिड़िया के बोल है?  कंड़ार के चौड़े पत्तों को देखकर बचपन के कतिपय दिनों में गाँव की दावत में खाये खुश्के की मिठास गले उतर जाती है,   हींग और जंबू की छोंक वाली दाल जो कभी पत्तल में खाई होगी, के लिए दिल हदसने लगता है.  नहीं तो कितने साल बीते, मोर  और लेस  खाने से स्वाद का रिश्ता रोज़-ब-रोज़ के जीवन में बचा नहीं है, बेलेंस डाईट, और समय बचाने की फ़िराक में कुछ इस्ट-वेस्ट मिक्स खाना खाने की भी वैसी ही आदत बन गयी है, जैसे किसी तयशुदा काम को ठीक से निपटा लेना. पर क्या होता है कि घर पहुचते ही माँ से कहना हो जाता है कि "आज कपिल बना दे, कल को चूर्काणी, परसों फांडू  शाम को मूली और गडेरी की भांग के बीजवाला साग, जाते-जाते स्वाल और कितना कुछ फिर भी छूट  ही जाता है, चाहे-अनचाहे फिर पीछे पहाड़  छूट जाता है".  कौन सी ऋतु है, किस ऊँचाई पर हूँ का पता चलता है इससे कि कैसे  हवा त्वचा को सहलाती है, या  तेज़ अंधड़ जिस तरह अपने बहाव  में मेरे रूखे, घुंघराले  बालों को  पटकते चलते है,  कि  हवा में तैरते पराग सांस लेना दूभर करते है. जी.पी.एस की ज़रुरत नहीं पड़ती, कलेंडर देखने का जी नहीं चाहता.  पहाड़ जाना समय  के पार जाना भी है,  बचपन की स्मृति को फिर से जी लेना है, किसी स्वाद में, किसी सुर में, किसी बोली में, बदन की सिहरन में, किटकिटाते दांतों में, ठण्ड से सुन्न हुये, जलते हाथ-पैरों में और नाक के टिप पर उपजे तीखे दर्द में, मुँह से निकलती भाप में,  नीली पडी नसों में, या सामने किसी चेहरे की लाली की रंगत में.  और फिर किसी स्टील के गिलास में चाय पी लेना, उसकी गर्माहट में अपनी किसी भूली  "चाह" की याद  पकड़ लेना भी होता है...

पहाड़ लौटना  एक बार फिर से मिलकर  आना है अपने देखे-अनदेखे पुरखों को जिन्होंने कभी बड़े जतन से बनाए होंगे पहाड़ काटकर सीढ़ीदार खेत, फिर कई पीढीयों ने उन्हें जतन से संजोया भी होगा, हर बरसात चिने  होंगे कई पगार, बचाए होंगे कई खेत,  उन मेहनतकश, मिट्टीसने, सख्त हाथों और बिवाईभरे पैरों को छूकर आना है, पहाड़ के गीतों और स्मृति में बसे सुरों को पहचान कर आना है.   पहाड़ पर होना प्रकृति के जड़-चेतन के साथ अपने दिल की धड़कन को सुनना भी है.   अपने जीवित होने की, अपनी सारी संवेदनाओं का लिटमस टेस्ट है, मेरे लिए पहाड़ पर होना.... फिर नष्ट, बंजर हुये इन खेतों को देखकर आना है, खाली पड़े, टूटते मकानों की शहतीरों पर उगते फफूंद और लाईकेन  की गंध अपनी नसिका  में भरकर लाना है, फिर सर  और समझ को धुनते जाना भी है कि क्यूं अपना घर-बार, खेत खलिहान, जानी पहचानी इतनी सुगंधी, मनभावन मौसम को छोड़कर दर-बदर हुये पहाड़ के लोग?  अपनी जमीन से क्यूं, कब और कैसे बेदखल हुये लोग...., बरसात में अचानक खुले रुँड में बह गए जैसे...

बाकी  जहाँ भी जाती हूँ, पहाड़ रेफेरेंस पॉइंट की तरह हमेशा साथ चलता है जागते भी, स्वपन में भी. पहाड़ की छाया में देश और दुनिया दिखती है. कुछ जंबू, कुछ क्वाद का आटा, कुछ भंग्जीरा, मेरे साथ पहुँच ही जाता है. न्यू जर्सी में अचानक तो किसी दोस्त के घर राई-हल्दी का रायता, या सूखे आम-गुड़-मेवे  की चटनी कुछ देर को ही सही मन को पहाड़ उड़ा ले जाती है. हँसते हुये फिर कोई नैनीताल के होस्टल में बिताये दिनों की याद में सिराक्यूज़, न्यूयोर्क  में चाय पकड़ाते हुये याद दिलाएगा; "चाह है, किसी राजकुमारी को भी कहां मिलती है, शुक्र मना ". मैं इथाका पहुँचते ही किसी दोस्त को खबर करूंगी, अरे नैनीताल जैसा, खिड़की से दूर कयुगा झील दिखती है, कोई दोस्त एइन्द्रिओनडेक  के लेंडस्केप में 'लेक जोर्ज'  पहुँचते ही घोषणा करेगा कि वही नैनीताल पा लिया. 'लेक जोर्ज' के किनारे आईसक्रीम का स्वाद वों नैनीताल के फ्लेट पर टहलते स्वाद जैसा है. फिर कोई सेंट-डियागो पहुँचते ही फ़ोन खटखटाएगा, असली नैनीताल यही है.  पता नहीं पहाड़ से निकले दुनिया के नक़्शे पर तितरबितर हम सब जहाँ जाते है,  कितने किस्म के  नैनीताल, अल्मोड़ा,  पौड़ी, उत्तरकाशी, चमौली, टेहरी,  रुद्रप्रयाग, बैजनाथ, पिथोरागढ़, बेरीनाग और जाने तो कितने कितने शहर, गाँव, क़स्बे  साथ लिए चलते है.  अजनबी जगह में प्रकृति का साम्य  ही होगा जो कुछ हदतक दिलासा देता है.

पहाड़ की कूदाफाँदी में कितनी चोट के निशाँ होंगे, आम के पेड़ से गिरकर हड्डी भी टूटी, पैर के बगल से एक बड़ा अजगर छूते हुये भी निकला, स्कूल जाने का जो दो घंटे का पैदल रास्ता था उससे जुड़े जंगल में रीछ अकसर दूर से दिखता था, और बचपन के भोले दिनों का भरोसा रहा होगा कि जब तब रीछ का डर लगता मेलू के  पेड़ को ढूंढकर उसके नीचे हम बच्चे दुबक जाते, जहन में पहला नक्शा रीछ के डर और मेलू के पेड़ों की छाया में अंकित हुआ.  बचपन के दिनों में कई आस-पास के गाँव में नरभक्षी बाघ का आतंक था.   इतने सबपर भी  तो दिल दहलने की अप्रीतिकर कोई याद नहीं है.  दिल दहलने की पहली याद 5 साल की उम्र की है,  रेल चढ़कर रूडकी-मुज़फरनगर की तरफ जाना हुआ था, तब की है, ऊपर की बर्थ पर सोयी, दर्द से बिलबिलाते उठी थी मैं, किसी ने एक भारी टोकरी मेरे सर पर रख दी थी.  दूसरी याद शहर में रह रहे अपनी एक कजिन के साथ लैंसडाउन बाज़ार जाने की है, जिसने अपनी एक दोस्त से ये कहकर मेरा परिचय कराया था कि गाँव के चचा की बेटी है.   शहर  की निर्ममता-परायेपन, और अचानक से अपनी झोली में  टपके  लाड़  के भी पहले, दूसरे, तीसरे और अनगिनत पाठ  बने, बिस्ताना गाँव से, भारत के महानगरों तक फिर अमरीका के कई शहरों में भी, परन्तु संवेदना का संस्कार हमेशा पहाड़ के छोटे गाँव का रहा. बेवकूफीपने की हद तक डूबी, इस गणित के हर नियम से पार लाटेपन वाली  संवेदना ने कई बार मन खराब किया, फिर इस लम्बे समय तक मुझे बचाए रखा भी, अजनबीपन की लम्बी यात्रा में कई सहृदय दोस्तियाँ भी दी. जितनी उम्र बढ़ती जाती है, सपनपने की सौ कहानियों के बीच, मन ऐसी ही किसी लाटेपन की निस्वार्थ, खुलेमन वाली किसी कहानी से सिंचित होता है.   बहुत पढेलिखे, रुआब-रुतबे वाले किसी  की याद से मन कब भीजता है?  याद रह जाती है एक मामूली बूढ़े सहृदय चौकीदार की, किसी दोस्त की रात १० से बारह के बीच ठण्ड में  लायब्रेरी के आगे खड़े होने की, १० साल बाद किसी दूसरे भूगोल में कोई पुराने कम पहचान की लड़की मुझे खोज लेती है, उसकी.  कोर्नेल में मेरा एक प्रोफेस्सर धीरे से पैर उठाकर नीचे स्टूल रख जाता है, और समझाईश देता है कि "प्रेग्नेंट अवस्था में अपना कुछ ख्याल करों लड़की!". किसी दोस्त के भी दोस्त का अचानक मिलने पर खिल उठना. ऑफिस की सेक्रेटरी का मेरे बच्चे को कुछ देर देख लेना, मुझे अपनी एक्सपेरिमेंट्स समेटने की सहूलियत  देना, बीच सड़क खराब हुयी कार को धकियाने को अचानक से उठे किसी अजनबी के हाथ.  बस-दुर्घटना के बाद एक अजनबी मुल्लाजी का मुझे और मेरी घायल दादी को सुरक्षित रातभर को पनाह देना, पिता तक खबर पहुंचाने में चार घंटे नगीना कचहरी के वायरलेस पर खराब करना, और सहृदय तहसीलदार की पत्नी का खाना खिलाना.   जीवन में यही सब बचा ले जाता है, ज़रा सी बिन गणित की संभावना, और संवेदना.  अठारह साल बाद ज़िक्र करते मेरा एम. एस. सी.  के दिनों का दोस्त कहता है कि "जो बुरा होता है, छल होता है उसके घाव गहरे ज़रूर होते है, उनकी उम्र छोटी होती है".  बहुत आगे किसे लेकर जाते है "शोर्टकट्स "?  पिछड़ेपन के दूसरे लक्षण भी चाहे अनचाहे साथ ही बने हुये है.  २० साल हुये पहाड़ छोड़े, अब भी लगता है कि जैसे वही हूँ, जब पहली बार पहुँची थी दिल्ली और सड़क पार करने में डर लगा था. ये डर अब भी लगता है, सिर्फ दिल्ली में नहीं, सारे बड़े, बेतरबीब फैले शहरों में. अब देहरादून में भी वैसे ही खौफज़दा होती हूँ कि घर सलामत पहुंचना होगा कि नहीं?

दो दशक तक पहाड़ को मन में लिए घूमती रही हूँ, इस बीच मन का पहाड़ ठीक-ठीक आज के पहाड़ का प्रतिबिम्ब तो नहीं रहा है, समय की छाप पहाड़ पर कई तरह से पडी है. नयी शक्ल के पहाड़ से मुलाक़ात का बहुत मौक़ा पिछले कई सालों में नहीं मिला, दूर से एक दूसरे को हाथ हिलाते रहे, उड़कर पहाड़ से आती खुशबू और दर्द दोनों को जहन में भरती रही. पहाड़ से अब फिर नयी तरह से पहचान करनी है. अब देश दुनिया के बदलते आयने में बदलते पहाड़, आगे बढे और पीछे छूटे पहाड़   को देखने की कोशिश  की भी शुरुआत भर है..
......जारी

Sep 16, 2010

सिमोन शाहीन का संगीत : स्वर और सपनों के मेले में गुजरना.....

सिमोन शाहीन,   फिलिस्तीनी  संगीतकार है, कुछ दो बार सिमोन को रूबरू सुनने का मौक़ा मिला, और अकसर तो होता ये है कि किसी लम्बे, थकाने वाले सफ़र पर निकला जाय और कुछ दिन से ठीक से नींद न मिली हो तो, सिमोन के कम्पोजीशन, धुनों से अच्छा साथी फिर कौन..?  सिमोन का अपना एक ग्रुप है जिसमे अधिकतर कुछ ख़ास किस्म के अरबी इंस्ट्रूमेंट की संगत पर रहते है, और एक मुख्य गायक भी कभी कभी होता है, अरबी और वेस्ट्रन क्लासिक म्यूजिक के मिलाप से सिमोन अद्भुत संगीत रचते है, जो कर्णप्रिय होते हुये भी जाने किन किन यात्राओं पर मन उडाये जाता है, और अपनी अरब की मिट्टी की महक बनाए रखता है. . सुनते हुये अकसर तो लगता है, कि मध्य-युग की किसी  कथा में भटकते, किसी मेले में, किसी पुराने बग़दाद की गली में, काहिरा के किसी भीड़ भरे  रंग बिरंगे बाज़ार में पहुँच गए हो, इस्तांबूल के किसी मेले में भटक गए हो...या कभी कभी भारत के ही किसी शहर में १५वी शताब्दी में चले गए हो. हर बार सिमोन के ग्रुप को सुनते हुये संगीत से ज्यादा इन अचीन्ही, अपहचानी दुनिया में भटकना होता है, कुछ अजनबीयत  के बीच बेख़ौफ़ घूमना होता है, किसी मेले में जैसे कोई खो जाए और घर लौटने और खो जाने की सुध भी न बचे, लगातार जैसे कोई बच्चा चकमक हुया जाय, इस रंग पर, उस रोशनी पर, उस मिठाई  पर, और जाने तो किन किन खेल तमाशों पर...