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Sep 20, 2010

२०१० पहाड़ डायरी -01


मेरे लिए पहाड़  लौटना सिर्फ किसी सुपरिचित भूगोल में लौटना नहीं होता, हमेशा किसी अहसास में, किसी खुशबू में, मन में दबी छिपी किसी लम्बी-संकरी, सांप सी बल खाती पगडंडी में होता है, जहाँ सपनो का एक बड़ा मेला लगा हो, और किसी छोटे बच्चे की तरह मैं चकमक हुयी जाती हूँ, रंग से, रोशनी से, उचाईयों से, डरती भी जाती हूँ गहराईयों से. दृष्टी हमेशा विराटता को समेट लेगी, कि   दिमाग सब केटालोगिंग कर ले, इसका होश नहीं बनता.  लगातार देखने की प्यास में बार-बार पहाड़ को देखना होता है एकटक.

कभी सचमुच जब पहाड़ लौटना होता है,  उत्सुकता हमेशा जस की तस बनी रहती है;  कि अगले मोड़ पर क्या होगा? कौन से फूल खिले है, किन वनस्पतियों  की गंध हवा में तैरती आती  है? आवाज  किसी नदी की है, किसी सदाबहार झरने का प्रपात है,  कि बरसाती गदेरे की किसी नाले  की छलछल है? कौन सी चिड़िया के बोल है?  कंड़ार के चौड़े पत्तों को देखकर बचपन के कतिपय दिनों में गाँव की दावत में खाये खुश्के की मिठास गले उतर जाती है,   हींग और जंबू की छोंक वाली दाल जो कभी पत्तल में खाई होगी, के लिए दिल हदसने लगता है.  नहीं तो कितने साल बीते, मोर  और लेस  खाने से स्वाद का रिश्ता रोज़-ब-रोज़ के जीवन में बचा नहीं है, बेलेंस डाईट, और समय बचाने की फ़िराक में कुछ इस्ट-वेस्ट मिक्स खाना खाने की भी वैसी ही आदत बन गयी है, जैसे किसी तयशुदा काम को ठीक से निपटा लेना. पर क्या होता है कि घर पहुचते ही माँ से कहना हो जाता है कि "आज कपिल बना दे, कल को चूर्काणी, परसों फांडू  शाम को मूली और गडेरी की भांग के बीजवाला साग, जाते-जाते स्वाल और कितना कुछ फिर भी छूट  ही जाता है, चाहे-अनचाहे फिर पीछे पहाड़  छूट जाता है".  कौन सी ऋतु है, किस ऊँचाई पर हूँ का पता चलता है इससे कि कैसे  हवा त्वचा को सहलाती है, या  तेज़ अंधड़ जिस तरह अपने बहाव  में मेरे रूखे, घुंघराले  बालों को  पटकते चलते है,  कि  हवा में तैरते पराग सांस लेना दूभर करते है. जी.पी.एस की ज़रुरत नहीं पड़ती, कलेंडर देखने का जी नहीं चाहता.  पहाड़ जाना समय  के पार जाना भी है,  बचपन की स्मृति को फिर से जी लेना है, किसी स्वाद में, किसी सुर में, किसी बोली में, बदन की सिहरन में, किटकिटाते दांतों में, ठण्ड से सुन्न हुये, जलते हाथ-पैरों में और नाक के टिप पर उपजे तीखे दर्द में, मुँह से निकलती भाप में,  नीली पडी नसों में, या सामने किसी चेहरे की लाली की रंगत में.  और फिर किसी स्टील के गिलास में चाय पी लेना, उसकी गर्माहट में अपनी किसी भूली  "चाह" की याद  पकड़ लेना भी होता है...

पहाड़ लौटना  एक बार फिर से मिलकर  आना है अपने देखे-अनदेखे पुरखों को जिन्होंने कभी बड़े जतन से बनाए होंगे पहाड़ काटकर सीढ़ीदार खेत, फिर कई पीढीयों ने उन्हें जतन से संजोया भी होगा, हर बरसात चिने  होंगे कई पगार, बचाए होंगे कई खेत,  उन मेहनतकश, मिट्टीसने, सख्त हाथों और बिवाईभरे पैरों को छूकर आना है, पहाड़ के गीतों और स्मृति में बसे सुरों को पहचान कर आना है.   पहाड़ पर होना प्रकृति के जड़-चेतन के साथ अपने दिल की धड़कन को सुनना भी है.   अपने जीवित होने की, अपनी सारी संवेदनाओं का लिटमस टेस्ट है, मेरे लिए पहाड़ पर होना.... फिर नष्ट, बंजर हुये इन खेतों को देखकर आना है, खाली पड़े, टूटते मकानों की शहतीरों पर उगते फफूंद और लाईकेन  की गंध अपनी नसिका  में भरकर लाना है, फिर सर  और समझ को धुनते जाना भी है कि क्यूं अपना घर-बार, खेत खलिहान, जानी पहचानी इतनी सुगंधी, मनभावन मौसम को छोड़कर दर-बदर हुये पहाड़ के लोग?  अपनी जमीन से क्यूं, कब और कैसे बेदखल हुये लोग...., बरसात में अचानक खुले रुँड में बह गए जैसे...

बाकी  जहाँ भी जाती हूँ, पहाड़ रेफेरेंस पॉइंट की तरह हमेशा साथ चलता है जागते भी, स्वपन में भी. पहाड़ की छाया में देश और दुनिया दिखती है. कुछ जंबू, कुछ क्वाद का आटा, कुछ भंग्जीरा, मेरे साथ पहुँच ही जाता है. न्यू जर्सी में अचानक तो किसी दोस्त के घर राई-हल्दी का रायता, या सूखे आम-गुड़-मेवे  की चटनी कुछ देर को ही सही मन को पहाड़ उड़ा ले जाती है. हँसते हुये फिर कोई नैनीताल के होस्टल में बिताये दिनों की याद में सिराक्यूज़, न्यूयोर्क  में चाय पकड़ाते हुये याद दिलाएगा; "चाह है, किसी राजकुमारी को भी कहां मिलती है, शुक्र मना ". मैं इथाका पहुँचते ही किसी दोस्त को खबर करूंगी, अरे नैनीताल जैसा, खिड़की से दूर कयुगा झील दिखती है, कोई दोस्त एइन्द्रिओनडेक  के लेंडस्केप में 'लेक जोर्ज'  पहुँचते ही घोषणा करेगा कि वही नैनीताल पा लिया. 'लेक जोर्ज' के किनारे आईसक्रीम का स्वाद वों नैनीताल के फ्लेट पर टहलते स्वाद जैसा है. फिर कोई सेंट-डियागो पहुँचते ही फ़ोन खटखटाएगा, असली नैनीताल यही है.  पता नहीं पहाड़ से निकले दुनिया के नक़्शे पर तितरबितर हम सब जहाँ जाते है,  कितने किस्म के  नैनीताल, अल्मोड़ा,  पौड़ी, उत्तरकाशी, चमौली, टेहरी,  रुद्रप्रयाग, बैजनाथ, पिथोरागढ़, बेरीनाग और जाने तो कितने कितने शहर, गाँव, क़स्बे  साथ लिए चलते है.  अजनबी जगह में प्रकृति का साम्य  ही होगा जो कुछ हदतक दिलासा देता है.

पहाड़ की कूदाफाँदी में कितनी चोट के निशाँ होंगे, आम के पेड़ से गिरकर हड्डी भी टूटी, पैर के बगल से एक बड़ा अजगर छूते हुये भी निकला, स्कूल जाने का जो दो घंटे का पैदल रास्ता था उससे जुड़े जंगल में रीछ अकसर दूर से दिखता था, और बचपन के भोले दिनों का भरोसा रहा होगा कि जब तब रीछ का डर लगता मेलू के  पेड़ को ढूंढकर उसके नीचे हम बच्चे दुबक जाते, जहन में पहला नक्शा रीछ के डर और मेलू के पेड़ों की छाया में अंकित हुआ.  बचपन के दिनों में कई आस-पास के गाँव में नरभक्षी बाघ का आतंक था.   इतने सबपर भी  तो दिल दहलने की अप्रीतिकर कोई याद नहीं है.  दिल दहलने की पहली याद 5 साल की उम्र की है,  रेल चढ़कर रूडकी-मुज़फरनगर की तरफ जाना हुआ था, तब की है, ऊपर की बर्थ पर सोयी, दर्द से बिलबिलाते उठी थी मैं, किसी ने एक भारी टोकरी मेरे सर पर रख दी थी.  दूसरी याद शहर में रह रहे अपनी एक कजिन के साथ लैंसडाउन बाज़ार जाने की है, जिसने अपनी एक दोस्त से ये कहकर मेरा परिचय कराया था कि गाँव के चचा की बेटी है.   शहर  की निर्ममता-परायेपन, और अचानक से अपनी झोली में  टपके  लाड़  के भी पहले, दूसरे, तीसरे और अनगिनत पाठ  बने, बिस्ताना गाँव से, भारत के महानगरों तक फिर अमरीका के कई शहरों में भी, परन्तु संवेदना का संस्कार हमेशा पहाड़ के छोटे गाँव का रहा. बेवकूफीपने की हद तक डूबी, इस गणित के हर नियम से पार लाटेपन वाली  संवेदना ने कई बार मन खराब किया, फिर इस लम्बे समय तक मुझे बचाए रखा भी, अजनबीपन की लम्बी यात्रा में कई सहृदय दोस्तियाँ भी दी. जितनी उम्र बढ़ती जाती है, सपनपने की सौ कहानियों के बीच, मन ऐसी ही किसी लाटेपन की निस्वार्थ, खुलेमन वाली किसी कहानी से सिंचित होता है.   बहुत पढेलिखे, रुआब-रुतबे वाले किसी  की याद से मन कब भीजता है?  याद रह जाती है एक मामूली बूढ़े सहृदय चौकीदार की, किसी दोस्त की रात १० से बारह के बीच ठण्ड में  लायब्रेरी के आगे खड़े होने की, १० साल बाद किसी दूसरे भूगोल में कोई पुराने कम पहचान की लड़की मुझे खोज लेती है, उसकी.  कोर्नेल में मेरा एक प्रोफेस्सर धीरे से पैर उठाकर नीचे स्टूल रख जाता है, और समझाईश देता है कि "प्रेग्नेंट अवस्था में अपना कुछ ख्याल करों लड़की!". किसी दोस्त के भी दोस्त का अचानक मिलने पर खिल उठना. ऑफिस की सेक्रेटरी का मेरे बच्चे को कुछ देर देख लेना, मुझे अपनी एक्सपेरिमेंट्स समेटने की सहूलियत  देना, बीच सड़क खराब हुयी कार को धकियाने को अचानक से उठे किसी अजनबी के हाथ.  बस-दुर्घटना के बाद एक अजनबी मुल्लाजी का मुझे और मेरी घायल दादी को सुरक्षित रातभर को पनाह देना, पिता तक खबर पहुंचाने में चार घंटे नगीना कचहरी के वायरलेस पर खराब करना, और सहृदय तहसीलदार की पत्नी का खाना खिलाना.   जीवन में यही सब बचा ले जाता है, ज़रा सी बिन गणित की संभावना, और संवेदना.  अठारह साल बाद ज़िक्र करते मेरा एम. एस. सी.  के दिनों का दोस्त कहता है कि "जो बुरा होता है, छल होता है उसके घाव गहरे ज़रूर होते है, उनकी उम्र छोटी होती है".  बहुत आगे किसे लेकर जाते है "शोर्टकट्स "?  पिछड़ेपन के दूसरे लक्षण भी चाहे अनचाहे साथ ही बने हुये है.  २० साल हुये पहाड़ छोड़े, अब भी लगता है कि जैसे वही हूँ, जब पहली बार पहुँची थी दिल्ली और सड़क पार करने में डर लगा था. ये डर अब भी लगता है, सिर्फ दिल्ली में नहीं, सारे बड़े, बेतरबीब फैले शहरों में. अब देहरादून में भी वैसे ही खौफज़दा होती हूँ कि घर सलामत पहुंचना होगा कि नहीं?

दो दशक तक पहाड़ को मन में लिए घूमती रही हूँ, इस बीच मन का पहाड़ ठीक-ठीक आज के पहाड़ का प्रतिबिम्ब तो नहीं रहा है, समय की छाप पहाड़ पर कई तरह से पडी है. नयी शक्ल के पहाड़ से मुलाक़ात का बहुत मौक़ा पिछले कई सालों में नहीं मिला, दूर से एक दूसरे को हाथ हिलाते रहे, उड़कर पहाड़ से आती खुशबू और दर्द दोनों को जहन में भरती रही. पहाड़ से अब फिर नयी तरह से पहचान करनी है. अब देश दुनिया के बदलते आयने में बदलते पहाड़, आगे बढे और पीछे छूटे पहाड़   को देखने की कोशिश  की भी शुरुआत भर है..
......जारी

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर शैली है , एक पूरे संसार को आपने एक ही लेख में उतार दिया है । सच कहा कि "जो बुरा होता है, छल होता है उसके घाव गहरे ज़रूर होते है, उनकी उम्र छोटी होती है"। हाँ ,यादों में तो उनकी उम्र भी लम्बी होती है , कब मिटते हैं उनके निशान ? बचपन तो न्यामत है , हमेशा हमारी मुट्ठी में ही रहेगा ।

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  2. लंबा आंतेराल होता है २० वर्ष का ...... और बदलाव के साथ साथ अब तो पधाड़ भी बदल गये हैं .... संवेदनाएँ भी .....बहुत ही उम्दा लिखा है ....

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  3. अच्छा लगा. आगे का इंतज़ार है....एक कसक वही कि मुलाक़ात नहीं हुई....

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  4. वाह।

    कैसा मिला आपको दो दशक पहले छूटा पहाड़ जानने की इच्छा है।

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  5. पहाड़! मन में कितने गहरे में रहता है पहाड़। नवीं मुम्बई के धरती के चेहरे पर उगे मस्सों से पहाड़, बोनसाई पहाड़ भी कितने अपने लगते हैं।
    लिखती जाइए, हम भी अपने मन के पहाड़ को जी लेंगे।
    घुघूती बासूती

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  6. सुषमा जी!
    सच कहूँ तो ये यादें एक अजीब सा अपनापन हैं ..पता नही कोई तार ऐसे जुड़ से जाते हैं फर्क नही पड़ता आप कहीं भी हों ! वो दिन वो पहाड़ों का जीवन सब कुछ... सबसे अलग... कुछ निराला ही है जो और कहीं नही मिलता सिवाय यादों के !
    मैं जब भी घर लौटता हूँ ...उन पहाड़ों को नीचे मैदान से बस देखने भर से ही मन सब कुछ भुला देता है ! एक अनूठी सी स्फूर्ति , आनंद समा जाता है अन्दर !
    आपने सब कुछ फिर याद दिला दिया ! इन शहरों की इस भागमभाग में वो डोर जो अक्सर ढीली सी पड़ने लगती है, आपको पढ़ कर फिर से तनी हुई सी मालूम दे रही है ! :)
    अगले महीने ही जाने का प्लान है घर, उन पहाड़ों पर ! पर अब रुका नही जा रहा .....

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  7. आज एक साथ आपकी पूरी पहाड़ डायरी पढ़ डाली। बेहद बेहद सुंदर। पहाडों से मेरे जन्‍म का कोई नाता नहीं और सच्‍चे अर्थों में पहाड़ पहली बार मैंने 25 की उम्र में देखा था। लेकिन वो छवि अब भी जेहन में ऐसा ताजा है, मानो कोई खिंचा हुआ चित्र चिपका दिया गया हो। सचमुच, पहाड़ के सौंदर्य की कोई तुलना नहीं। हिमालय के सामने खड़े होकर तो भव्‍यता की सारी परिभाषा और कल्‍पना फीकी पड़ जाती है। पहाड़ों से मुझे भी बहुत प्‍यार है। पहाड़ हैं ही मोहब्‍बत के काबिल।

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