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Oct 31, 2010

अरुंधती राय की विच हंटिंग

आज हालोवीन है, विच हंटिंग के विरोध का भी एक सिम्बोलिक दिन.  अरुंधती राय ने  कश्मीर  के सवाल को पब्लिक डोमेन में लाने की जो कोशिश की है, पता नहीं कश्मीर को लेकर संजीदा संवेदनशीलता कितनो में जागी है, पर अरुंधती कि विच हंटिंग जबरदस्त तरीके से शुरू हो गयी है. अरुंधती को गोली मारने से लेकर, उनके बलात्कार तक की कामना लोग अपनी टिप्पणियों में बेहद बेशर्मी से छोड़ रहे है. सार्वजानिक जीवन में, विरोध की असहमति की कितनी जगह है?
शोमा चौधरी का एक ये लेख है,  लंबा है, पर उम्मीद है कि आप में से कुछ लोग इसे पढ़ लेंगे. दूसरा अरुंधती का इंटरव्यू है, उन सब सवालों को लेकर, जिनसे कई लोगो के मन बेचैन है.  अरुंधती के बारे में सही राय बनाने से पहले इससे भी कुछ मदद मिलेगी.

मेरी अरुंधती से कई मामलों में असहमति के बावजूद, उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में ही मेरी राय है.
कश्मीर का मुद्दा सिर्फ इतने तक सीमित नहीं है कि लोगो को आज़ादी का हक होना चाहिए, अलहदा होने के लिए, या कोई बड़ी मुसलमान आबादी पड़ोसी देश में मिल जाय. फिर खुश रहेगी या फिर सैनिक शासन में खुश रहेगी. उसके बहु आयाम है, और सिर्फ हिन्दुस्तान पाकिस्तान ही नहीं है, ग्लोबल राजनीती के बड़े तार भी होंगे, और आतंकवाद के भी है. सामरिक दृष्टी से भी भारत के लिए कश्मीर का महत्तव है. और इन सबके मद्दे नज़र संजीदा तरीके से लोगो के लिए कोई पालिसी होनी चाहिए, मुख्यधारा में उनके मिलने के प्रयास होने चाहिए. ये जो देश है इसका विकास इस तरह का है कि सभी सीमावर्ती राज्य, दूर दराज़ के देहात, और सबसे गरीब लोग इसकी परिधि के बाहर है, और जनतंत्र के पास उन्हें देने के लिए सैनिक शासन से बेहतर कुछ होना चाहिए.

कश्मीर के अलगाव का मुद्ददा जटिल है, पर उसका सही हल राजनितिक ही होना चाहिए, या उसकी जमीन बनने के संजीदा प्रयास होने चाहिए. अरुंधती से असहमति के बाद भी, उनकी आवाज़ , विरोध और असहमति की आवाज, एक स्वस्थ जनतंत्र के लिए ज़रूरी है. अरुंधती की जुमलेबाजी भी अगर लोगों को 60 साल की लम्बी चुप्पी के बाद कश्मीर के राजनैतिक समाधान की तरफ सक्रिय करती है तो ये पोजिटिव बात होगी. इतना तो निश्चित है कि पुराने जोड़तोड़ के फैसले, राजनैतिक अवसरवाद, और सैनिक शासन का फोर्मुला बर्बादी और आतंकवाद ही लाया है. संजीदे पन से जब हिन्दुस्तान के नागरिक सोचेंगे, तभी जो सरकार है, नीती नियंता है, किसी संजीदा दिशा में जायेंगे.  रास्ट्रवाद की छतरी के नीचे अरुंधती की बैशिंग से समाधान नहीं निकलने वाला है,

Oct 23, 2010

२०१० पहाड़ डायरी -03

देहरादून जाकर पहले हफ्ते में विद्यासागर नौटियाल जी से मिलना हुया. उनकी सहृदयता रही कि कुछ दिन पहले ही अस्पताल से घर लौटे थे, आराम की हिदायत के बीच भी सिर्फ एक इमेल के बदले उन्होंने घर आने को कहा, कुछ तीन घंटे तक उनसे बातचीत होती रही, फिर आने से पहले दो और मुलाकाते, तीसरी वाली खासकर उनकी पत्नी से. उनसे मिलना ही बेशक इस पूरी यात्रा का  सबसे बड़ा सबब बना. उनसे मिलने से पहले उनकी किताब, "सुरज सबका है" पढी. कई सालों से सुने लोकगीत "बीरू-भड़ू क देश, बावन गढ़ु क देश" का कुछ मतलब इसी किताब से मिला, "गोर्ख्याणी " के पुराने भूले किस्से समय के नक़्शे में फिर कहीं अपनी जगह पाए. फिर तीस साल पहले अपने बचपन के दिनों में भी लौटे, अंगीठी को तापते सुने किस्सों कहानियों की साँझ-और रातों में लौटे.  उसके बाद फिर "फट जा पंचधार" "मेरी कथा यात्रा", "सरोज का सन्निपात" पढी.  जो अब  भी बची है वों  "उत्तर बायाँ है" और "देशभक्तों की कैद में", "मोहन गाता है".,  बाकी पुस्तकों तक पहुँचने का भी कभी मौक़ा बनेगा ऐसी उम्मीद है.  उनके पास बेहद अच्छी स्मृति है, जिया हुया एक गरिमापूर्ण सामाजिक और बेहद सादा व्यक्तिगत जीवन का खजाना है, बहुत सी नयी किताबे अभी लिखी जानी भी बाकी है......

बहुत सी बातें गढ़वाल के बारे में उनसे पता चली, कुछ मोटी बातें भी मुझे मालूम न थी, जैसे कि टेहरी रियासत १९६० तक बनी ही रही, बाकी देश से अलग यहां रियासत का कानून चलता था, और राजशाही के दमन,मनमाने पने की और बहुत सी बाते भी, मसलन लोगो के लिए रामलीला खेलना एक अपराध हुआ, क्यूंकि राजा की एक रानी इस दरमियान मर गयी थी. फ़िल्मी गाने की सख्त मनाही, हाथ से सिले कपड़ों का लम्बे समय तक चलन.., फिर बहुत कुछ प्रजामंडल आन्दोलन के बारे में, टेहरी बाँध के चलते गाँव, घर डूब जाने की बातें, और अब नए टेहरी तक की भी. उनके चुनाव जीतने की बातें बिना पैसे खर्च किये, दूर दराज़ के देहातों तक की लम्बी पद-यात्राएं.   एक व्यक्ति इतनी आसानी से सुलभ, निष्कपट, एक जीवन इतना सादा पर कितना विराट.
उनसे हर बात सुनने जान लेने का इतना मोह था, कि जिस छोटी सी फिल्म के लिए उनसे मिलना हुआ, बातचीत उसके दायरे के बाहर ही होती रही. फिल्म और जीवन की वैसे भी  क्या तुलना? फिल्मे जीवन से निकलती है, फिल्मों से जीवन निकले ये होता नहीं....

पहले हफ्ते में ही सुदर्शन जुयाल जी से भी मुलाक़ात हुयी, जो फिल्मकार है, और कुछ महीनों पहले १८ साल बंबई में रहने के बाद देहरादून वापस आये थे. उनके बारे में नैनीताल में ज़हूर दा और कुछ दोस्तों से  सुनती रही थी,२० साल पहले, कभी मुलाक़ात नहीं हुयी थी. अवस्थी मास्साब से कई बार बात हुयी थी,  ये कुछ अजब संयोग ही है कि उनकी फ़ाकामस्ती की कुछ झलक सुदर्शन जो दामाद है उनके, उनमे झलकती है. सुदर्शन लगभग हमारे साथ ही रहे जब भी बाहर निकलने के मौके बने, और घर पर भी कई बार लम्बी बात हुयी. सबसे अच्छी तस्वीरे और कुछ वीडीयो उन्होंने ही बनाए अपने मार्क II 5D से,  उनसे मेरी खूब जोर-शोर से बहसे हुयी, बहुत अच्छी बातचीत हुयी, और बच्चे मेरे उनके गेजेट्स को देखकर जब तब कैमरामैन बन जाने और फिल्म बनाने के आईडिया से उत्साहित होते रहे. सुदर्शन कैमरे के प्रयोगों के साथ मोर्छंग की धुनें भी निकालते रहे. गाँव में बच्चों के बीच खिलोने की तरह कैमरे को ले जाते रहे, बहुत आसानी से खासकर बच्चों के साथ बिना किसी प्रयास के सम्बन्ध बना लेना, और बातचीत में हास्य की छटा भी उनकी ख़ास बात है. ...........

 देहरादून के पहले हफ्ते के इतवार को डाकपत्थर निकलना हुआ, जहाँ कुछ देर नवीन कुमार नैथानी जी के घर पर, साहित्य भाषा, पहाड़ पर बातचीत हुयी. उनसे कभी ५ साल पहले पत्राचार हुआ था, मिलने का पहला मौक़ा था. नवीन ने मुझे ज्ञानपीठ से हाल में ही आयी "सौरी की कहानिया"  भेट की, और "कथा में पहाड़ " मेरे हाथ अभी तक लगी नहीं. भौतिक विज्ञान के व्याख्याता नवीन की कहानिया, कल्पना की दुनिया सौरी में जिस सहजता से मन को लिए जाती है, वों विलक्षण है और नवीन उतने ही सरल, तरल, अपने.......

नवीन के यहां ही कुछ जौनसार के विधार्थी मिले, जिनसे बातचीत हुयी, एक लड़का जो कोलेज के चुनाव में सक्रीय था, हमारे साथ सहिया तक गया, कुछ लगातार रोचक बातचीत उससे होती रही, कुछ जौनसारी गानों को भी उसने प्रमोद से कुछ प्रोत्साहन के बाद गाया. सहिया तक का खूबसूरत पहाडी रास्ता, पहाड़ों के बीच बहती नदी लागातार साथ ही बनी रहे. एक पुरानी ब्रिटिश आऊटपोस्ट के खंडर पर रुके, जहाँ कुछ औरते बैठी थी, नीचे ढलान पर उनकी बकरियां चर रही थी.   वहीं ज़मीन पर एक बुजुर्ग महिला थी, युं ही बैठी, पता चला कुछ सवा लाख कीमत की अकेली उनकी बकरियां है. मेहनत से तपे खूबसूरत चेहरे. तीन जवान औरते थी, सुदर्शन और प्रमोद काफी देर कुछ बातचीत की कोशिश करते रहे, सबके एवज में ज़बाब उन बुज़ुर्ग महिला से ही मिले, अचानक से दख़ल देते अजनबी मर्दों के बीच वों ढाल सी तनी रही.....


उसको कुछ हल्का करने की कोशिश में और कुछ नदी को पास से देख लेने के मोह में राजीव (जिसने बीच बीच में कचहरी छोड़कर ड्राईवर का रोल निभाया),  को लेकर ढलान पर उतरी. चमकती पारे की नदी खिली धूप में, बरसात की हरियाली, क्यूँ कहीं जाऊ यहाँ से, यही बैठी रहूँ कुछ बकरियां चराते तो भी जीवन में क्या बिगड जाएगा? रोजी-रोटी तो चल ही जायेगी..., राजीव की सोच दूसरी दिशा में है, राजीव कहता है दीदी ऊपर बैठी दोनों लडकियां कितनी खूबसूरत है, कुछ पढाई-लिखाई होती, बड़े शहरों के अवसर होते, तो ये भी मिस-इंडिया, मिस यूनिवर्स क्या नहीं हो सकती थी?  कुछ दिन पहले कश्मीर की किसी फिल्म के शूट के कुछ किल्प्स जो प्रमोद की नज़र चढ़े थे का ज़िक्र करते प्रमोद ने कहा था लडकियां, इतनी खूबसूरत, बिना सोचे यूँ ही मर-कट जाय लोग.  पहाड़ी लडकियां मिस इंडिया/मिस यूनिवर्स की दौड से बेदखल, पूरे के पूरे गाँवभर की खूबसूरत लडकियां औरते, इस खूबसूरत, जटिल और दुरूह भूगोल में अकली मरती-कटती भी, बच्चों और बूढों का संबल, औरतपने के साथ गायब मर्दों के हिस्से का काम  करती, सिर्फ उनके गोरे रंग वाले चेहरे ही नहीं, मेहनत से  दमकती आत्मा भी, पर वहाँ नज़र किसकी जायेगी.....      

Oct 17, 2010

ग्लोबल सिटीजंस

  

किसी शहर और देश में  नहीं
बसता घर
रिमझिम बारिश में निकली धूप और धुन्ध के बीच कहीं पसरा है,
छिन्न-विछिन्न पहचानों के मेले में
खंड-खंड बीहड़ में गुम, तिनके-तिनके बिखरा है
कुछ तारीखें है, कुछ चिंदी चिंदी कागज के टुकडे है
कुछ भूले-बिसरे शहर-दर-शहर है
नहीं है स्थायी घर  का पता.....


एक समंदर सा है आदमी, औरतों और बच्चों का
पृथ्वी के एक छोर से दुसरे तक बहता हुआ
मुसाफिर है मन सालों-साल
अटा-सटा है सामान एक दशक से
घर के इत्मीनान में नहीं
कुछ ऐसे कि गोया कल सफर पर फिर निकालना हो
अबाध गति से घूमती दुनिया के बीच स्थगित है जीवन .....

बहुत दूर तक धरती के कौने-कौने पसरी है अजनबीयत
कभी न छटने वाली धुन्ध के मानिंद
बौराया मन धुंधलके में ढूंढता है
परिचित पहचाना कोई चेहरा,
कोई आवाज़, कोई हंसी, कोई भूला इशारा
आँखों में उतर आयी जानी सी चमक
किसी आवाज के अंदेशे में चौंकती है नींद बार-बार
कोई नींद में रहता है सुकून से बरसों पीछे छूटे शहर में
और आँख खुलने पर कुछ देर को बैठता है दिल
रोजमर्रा की भागदौड़ में बीतता है दिन.....


जाने कौन सी आस थी धकेलती  रही जो एक छोर से दुसरे छोर
या अपने दायरे से ही भाग खड़ा हुआ था मन
या फिर बंद हवाएं थी, निपट निराशा थी
या हूलज़लूल के मलबे से ढका आसमान था
और कुछ खीझ भी कि हमारे होने न होने से कब कुछ होना था
अनजाने भूगोल में गुम हो जाने का अपना रोमान था
या अनचाहे बंधों, बेबसी और शर्म से मुक्ती का कोई गान था.....

बीते समय की तरह अब स्मृति में ही है घर, शहर,
और अजनबी है अब वों देश भी
अजनबी है ये शहर, ये देश भी 
अजनबी है मन, चोर के मानिन्द नींद में करता है सेंधमारी
उनींदेपन की मिठास में बौराया सुनता है
भूली-बिसरी आवाजे, आहें, कुछ धंसी हुयी खामोशियाँ
लावा सा आठ दिशाओं में पिघलता, बहता है मन.
मन की ज़मीन पर उगते है देखे और बहुत अनदेखे नाकनक्श
अकसर तो कभी न देखी जगहें, कहीं गहरे धंसे पड़े डर,
उम्र के बड़े क्षितिज पर फैले कई पड़ाव
जो नहीं है शामिल वों उनफती बैचैनिया है
कहीं दूर से छनती आती मद्धम रोशनी सी पसरती है चेतना
अचेत अँधेरे की खोह से अकबकाकर निकल भागती है नींद
अलसुबह की खुमारी में सोचता है मन
अब सपनों की सरहदों तक है अपना होना.....