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Dec 18, 2012

Union Home Ministry, Delhi government: Set up fast-track courts to hear rape/ gangrape cases

दिल्ली में चलती बस में 23 साल की लड़की के साथ बलात्कार के साथ दरिंदगी से उसकी हत्या का जो प्रयास हुआ,  वो मुझे बहुत दुःख, गुस्से और  हताशा से भर गया है, सुषमा स्वराज की तरह ये नहीं कहूंगी की वो लड़की जियेगी तो जीती जागती  लाश बन जायेगी, मेरी आशा है कि  वो लड़की जीवित  बचे, सकुशल रहे और अभी अपना लम्बा अर्थपूर्ण जीवन जिये.  बलात्कार एक एक्सीडेंट ही है, इससे उबरने की शक्ति वो लड़की जुटा सके...

सिर्फ दिल्ली ही नहीं पूरे देश में हर जगह बच्चों और औरतों पर हमले बढ़ रहे हैं, गोपाल कांडा  की वजह से एक इसी उम्र की लड़की की आत्महत्या का मामला हो, या सोनी सोरी की हिरासत में हालत, या बारह साल से धरने पर बैठी इरोम शर्मीला का मामला, ये सब एक ही कहानी के हिस्से हैं, जगह जगह से फटे कोलाज के टुकड़े हैं .   एक मित्र से बातचीत हुयी कि  ठीक दिल्ली के आस-पास के राज्य हरियाणा, राजस्थान आदि में इतनी बड़ी संख्या में मादा भ्रूण हत्याएं  (अमर्त्य सेन इसे नेतेलिटी कहते हैं, ख़ास हिन्दुस्तानी मामला) हुयी हैं,   कहीं लड़कियां बची ही नहीं है . दिल्ली में बलात्कार,  से लेकर छेड़छाड़ की घटनाओं  में इजाफा भी भारी संख्या में हुयी 'नेतेलिटी' का इफेक्ट है, जो भी है, स्त्री के लिए जीवित रहना, सम्मान के साथ रहना लगातार असंभव हुआ जाता है ..

हम सब मिलकर किसी तरह इस तरह का माहौल बना सके इस तरह की घटना फिर न हो, या अपवाद भर रह जाय— चाहे जिस भी तरह से, कुछ दूरगामी प्रयोग, कुछ जल्दबाजी की सावधानियाँ, कानून व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और जबाबदेह बनाकर, अपनी सरकारों और राजनितिक पार्टियों पर जनमत का दबाव बनकर, जैसे भी हो....

 बलात्कार और योन हिंसा के मामले में अगर जल्द कड़ी सजा नहीं होती तो , एक के बाद एक ऎसी घटनाएं बढ़ती हैं, देश की अमूमन सभी लड़कियों, उनके अभिभावकों का आत्म विश्वास कम होता है, ले देकर इतने संघर्ष के बाद आज जो जरा से शिक्षा और रोजगार के मौके लड़कियों के हाथ लगे हैं, वो भी छीन जायेंगे। किसी की सरकारी नौकरी का विवाद हो या जायजाद का झंझट या फिर कुछ चोरी आदि, ये सब किसी एक परिवार को ही प्रभावित करते हैं, ये अपेक्षाकृत इन्तजार कर सकते हैं, खासकर ऎसी हालत में जब अदालतों की संख्या कम हो ..  अच्छा हो की हर तरह के केस में जल्दी न्याय मिले, लेकिन वैसा संभव न हो, उसमें अगले बीस या 50 साल लग जाए, तब कुछ मामलों को प्रायरिटी देनी पड़ेगी ...

फिलहाल ये पिटीशन का लिंक है ,  इस पर हस्ताक्षर हम कर ही सकते हैं ...

http://www.change.org/petitions/union-home-ministry-delhi-government-set-up-fast-track-courts-to-hear-rape-gangrape-cases?utm_campaign=share_button_action_box&utm_medium=facebook&utm_source=share_petition&utm_term=36841248

Dec 14, 2012

पारा पारा होता मन—'क्रेटर लेक'


 "पातालस्वामी लाओ, जब-तब एक भूमिगत सुरंग के रस्ते लाओ-येना पर्वत (माउंट मेज़मा ) की चोटी पर, दुनिया देखने पहुँचता. एक दिन यहीं से  क्लामथ कबीले के मुखिया की सुन्दरी बेटी लोहा को उसने देखा और मोहित हो गया. लोहा ने बदसूरत लाओ को खरी -खोटी सुनायी,  तो उसने तिलमिलाकर क्लामथ कबीले को नष्ट करने की मंशा से आग और पत्थरों की बारिश शुरू कर दी.  विपत्ति देख क्लाम्थ के मुखिया ने आकाशस्वामी 'स्केल' से मदद मांगी.  स्केल 'माउंट  मेज़मा ' के ठीक सामने  'माउंट शास्ता' पर उतरकर लाओ का मुकाबिला करने लगा.  दोनों एक दुसरे पर आग के गोलों और पत्थरों से हमला करने लगे,  धीरे-धीरे आकाश, पृथ्वी और पातल की सभी आत्मायें  इस युद्ध में शामिल हो गयीं. स्केल और लाओ की गर्जना से धरती कांपने लगी, पहाड़ पिघलकर आग की  नदी बन गये. आग, पत्थरों, गर्द की बारिश के बीच पूरे इलाके में कई-कई दिनों तक अँधेरा छा गया.  बचाव का कोई रास्ता न देख कबीले के दो पुजारियों ने अपनी बलि दी, जिससे स्केल को ताकत मिली और उसने माउंट मेज़मा को हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया. माउंट मेज़मा के टूटने से जो विशाल गड्ढ़ा (क्रेटर) बना, स्केल ने वहाँ  लाओ को ले जाकर दफ़ना दिया, और फिर उस काले गड्ढ़े  को साफ़, नीले पानी से ढक दिया".
 ...................'क्रेटर लेक' बनने की 'क्लामथ कबीले' की दन्तकथा

नेटिव अमेरिकन  'क्लामथ कबीले' के मिथक में बसे पुरखे मालूम नहीं कि 'विज़न क्वेस्ट' के दरमियाँ पृथ्वी, आकाश, पाताल की आत्माओं से बातचीत करते रहे कि नहीं,  सचमुच कोई 'लोहा' थी कि  नहीं, कि कोई चोट खाया दैव 'लाओ' ही,  जिनकी वजह से माउंट मेज़मा ढह गया.  लेकिन ज्वालामुखी के मलबे के नीचे मिले अर्टीफेक्ट्स गवाही देतें हैं कि सचमुच क्लामथ कबीले के पुरखों ने 7700 वर्ष पहले ज्वालामुखी विस्फोटों, और 12,000 फीट ऊँचे माउंट मेज़मा को तहस-नहस होते देखा होगा.  ये भी सच है कि माउंट मेज़मा पर ज्वालामुखी फटने के बाद बने विशालकाय गड्ढ़े के भीतर सदियों की बारिश और ग्लेशियल जल के इक्ठ्ठा होने से क्रेटर लेक बनी है.  ये  अमेरिका की सबसे गहरी (1943 फुट) और दुनिया की तीसरी सबसे गहरी झील है.  शायद सबसे पारदर्शी झील भी, जिसके भीतर बहुत दूर तक झाँका जा सकता है.  इसका पानी ठंडा और बहुत मीठा है, गहरा नीला रंग यकीन से परे, जैसे कोई एनिमेटेड यथार्थ ...

 झीलें, नदियाँ और पहाड़,  मेरे मन का अन्तरंग हिस्सा हैं. नदियों की उत्पत्ति, उनके भूमिगत हो जाने, सूख जाने, पहाड़ों के बनने-बिगड़ने और ढह जाने के मिथकों ने मेरे अवचेतन की जमीन बुनी है.  घर की याद में झील, नदी और पहाड़ की याद बहुत इंटेंसिटी के साथ रहती हैं.  चालीस वर्ष के बाद अब आगे नौजवानी के समय की तरह खुला पसरा मैदान नहीं है. कहीं से कहीं पहुँच जाने की वैसी बैचैनी और भागने की वैसी जान भी नहीं है. अब आगे जाना पीछे को अपने साथ सहेज कर ले जाना है, नैनी झील जैसा प्रेम मुझे इथाका की 'बीबी लेक' और 'कायुगा लेक' से भी है.  मेरे घर के बगल से बहती विलामत नदी भी भागीरथी की कोई बिछड़ी बेटी ही लगती है,  वैसा ही मोह उसके लिए भी मेरे भीतर जागता है.   हरसी हैदर यंग जिस तरह 200 साल पहले, नैथाना गाँव और उत्तराखंड के गाँव-गाँव, नदी, पहाड़ों के बीच अपने ही दिल की धड़कन सुन विस्मित होता होगा,  उसी तरह बीहड़ और रूरल नार्थ अमेरिकी लैंडस्केप के साथ मेरा अपनापा बनता है, देश और काल की सीमा आड़े नहीं आती, फट से इन नदियों, पहाड़ों, दरख्तों से मोह हो जाता है...

खुशकिस्मती से  ऑरेगन  में भी बहुत ढ़ेर सारी,  हर मील दो मील पर झीलें और नदियाँ है, जिन्हें देखकर मन खुश होता है. सितम्बर 2012 में एक मित्र परिवार के साथ, पांच घंटे की ड्राइव में हरियाली के बीच 10-12 झीलें, दो बड़े बाँध और ऑरेगन  के  3-4 छोटे कस्बों के बीच से गुजरने के बाद हम 'क्रेटर लेक नेशनल पार्क' पहुंचे.  क्रेटर लेक से मीलों तक फैली लाल जमीन, लावा पत्थर और ज्वालामुखी की राख के निशाँ अब तक हैं,  उसी के ऊपर उग आये कुछ सेजब्रश की झाड़ियाँ रास्ते में दिखती हैं,  झील को चारों तरफ से घेरे घने ऊँचे दरख़्त भी दीखते हैं.  जीवन की तरह कोई भी विनाश, कैसी भी प्रलय शाश्वत नही ... 

सड़क से झील को देखना, याने नीले रंग के पारे से भरे किसी कटोरे की परिधि पर खड़ा होना है.  एक संकरी पगडंडी सड़क से तकरीबन 760 फुट नीचे झील की सतह तक पहुंचती है.  सांप की तरह बल खाती पगडंडी से 10 कि.मी. लम्बी और 8 कि.मी. चौड़ी, नीली झील कई एंगल से दिखती, नए भ्रम सिरजती है.  'क्रेटर लेक के भीतर पानी का कोई दूसरा स्रोत नहीं है, और न ही इस झील से बाहर किसी नदी-नहर के जरिये पानी की निकासी होती है,  गरमी में जो पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है, उसकी भरपायी बारिश और बर्फ से हो जाती है. इस चक्र के चलते ऐसा अनुमान है कि  लेक का सारा पानी हर 250 वर्षो में रिप्लेस हो जाता है.  इस तरह किसी भी बाहरी प्रदूषण से मुक्त दुनिया की सबसे साफ़ और शुद्ध पानी की ये झील है. इस पानी के बारे में कई किवदंतियां है, जैसे बद्रीनाथ के कुंड के जल के बारे में,  गंगाजल के बारे में. किवदंतियों से अलग एक कम्पनी इसके पानी को स्टेमसेल्स की रिसर्च में लगी कुछ लेब्स में बेचती है.  त्वचा पर पानी की छुअन, इस मीठे पानी का स्वाद अपनी याद में संजोती हूँ, एक बोतल में पानी भी भर लायी, इसी तरह से शायद लोग गंगा का पानी लाते रहे होंगे ...

झील के तल में अब तक एक सोया हुआ ज्वालामुखी है, बीच-बीच में ज्वालामुखी के छोटे विस्फोट झील के भीतर हुए हैं, दो छोटे टापू 'रेड कोन' और 'विज़र्ड आईलेंड' बने है.  नेटिव अमेरिकन क्लामथ ट्राईब के लोग अब भी एक सालाना उत्सव के मौके पर पूज्य भाव से इस झील तक आते ही हैं. कौन जानता है कि उनकी कथा का लाओ शायद करवट बदलता हो,  या फिर दुनिया देखने की उसकी हसरत ने ही शायद इन टापुओं को जन्म दिया हो ......



Oct 27, 2012

ऊँचे आखिर कितने ऊँचे पेड़


पिछले 3-4 महीनों में  लगभग 2500 मील ड्राइव करते, रुकते, टहलते  अमरीकी वेस्ट कोस्ट को नज़दीक से देखने के मौके बने. 
इस यात्रा की  दूसरी क़िस्त ......

पहली क़िस्त 

U.S. Route 101


अगला दिन हरियाली, धुंध और कुछ  गरमी की महक के बीच बैंडन से  U.S. Route 101 पर क्रिसेंट सिटी की तरफ ड्राइव करते बीता, दिनभर एक तरफ प्रशांत महासागर का तट बना रहा,  दूसरी तरफ डगलस फर, चिनार, चीड़ और रेडवुड के घने जंगलों से ढकी छोटी पहाड़ियों-टीलों का अनंत विस्तार. पहले दो घंटे तक हर दृश्य को कैमरे में कैद करने का मोह बना रहा, फिर ये भी समझ आता कि  प्रकृति का  विहंगम, विराट रूप किसी भी तरह के कैमरे से कैद नहीं हो सकेगा,  इस सबके बीच होने का जो सुख है, वो लम्बे समय तक स्मृति में छाया की तरह रहेगा,  शायद कभी सपने में इस सुख की आवृति हो.  बचपन के हिमालय में बीते कुछ वर्ष जब-तब सपनों का दरवाजा खटखटातें  हैं, शायद प्रशांत महासागर की याद और इन घने जंगलों की याद भी किसी दिन हिमालय की याद के साथ मिल कोई भरम मेरे लिए खड़ा करती फिरे.

 शाम पांच बजे के आसपास  जिस होटल में रहने की व्यवस्था है, वहां चेकइन किया, होटल मालिक हिन्दुस्तानी मूल का व्यक्ति है, किसी तरह का अपनापा उसकी तरफ से हमें महसूस नहीं हुआ,  उसने हमारी साझी हिन्दुस्तानी पहचान तक को अक्नॉलेज तक नहीं किया, हमने भी अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की. कमरे में किचन और खाना बनाने के बर्तन, फ्रिज आदि है, जरूरत हो तो खाना बनाया जा सकता है, बालकनी के ठीक 100 कदम  की दूरी पर समुद्र तट है,   बच्चे  थकान के बाद, बाथरूम में ज़कूज़ी को लेकर उत्साहित हैं.  इस बीच बगल के कमरे में घंटे भर पहले एक पुंक/पंक   किस्म का जोड़ा आया है,  उसका होटल के मालिक से उसका झगड़ा होता दिखा, फिर पुलिस आयी, और मामला रफ़ादफ़ा हुया. सबकुछ के बीच कमरे में दो क्वीन बेड की जगह एक किंग बेड है,  शिकायत करने पर  होटल मालिक की बीबी आयी, और हिन्दी में बातचीत के साथ  एक फोल्डिंग बेड लगाने का ऑफर  देने लगी, हमने बिना न नुकुर के उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, तो उसे तसल्ली मिली और फिर हालिया झगड़े का किस्सा बयान करने लगी. पता चला पुंक जोड़े ने दो कमरे बुक किये थे, जो  अगल-बगल नहीं मिले, दुसरे कमरे में वो 2-5 साल के बीच के दो बच्चे छोड़कर आये थे,   होटल मालिक ने इस पर आपत्ति जतायी, और पुलिस ने मालिक का पक्ष लिया, और वो लोग किसी दूसरी जगह की तलाश में निकले.  होटल की मालकिन  पाकिस्तान में पैदा हुयी हिन्दू है, जिसका परिवार सन 80 के आस-पास यहाँ आ गया था, और उसका मियाँ दिल्ली का पंजाबी है, रहन सहन बातचीत नैनीताल की तराई की कसी घरेलू पंजाबिन जैसा ही है, वैसा ही सहज अपनापा और बर्ताव भी.  जाते-जाते ये महिला अगले दिन के डिनर के लिए  कुछ सादा खाने का वादा और बच्चों को अपने बच्चों के साथ खेलने का निमंत्रण भी दे गयीं.  

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"रेडवुड नेशनल फारेस्ट " 


 कैलिफोर्निया राज्य में संरक्षित "रेडवुड नेशनल फारेस्ट "  के भीतर दुनियाभर में रेडवुड (शिकोया),  के सबसे बड़े जंगल हैं और दुनियाभर में  सबसे ऊँचें पेड़ भी हैं.   सड़क के किनारे ट्रेल में जाने के लिए जिस पेड़ के नीचे  अपनी कार खड़ी की है, उसके तने के सामने हमारी कार दूर से एक खिलौना नज़र आती है,  हम शायद चींटी! पता नहीं क्या होता है पेड़ होना? शायद देना ही इस विलक्षण जीव का स्वभाव है, फल, फूल, आश्रय, भोजन, सुरक्षा, ताप और छाया.  हवा , पानी , और इस पृथ्वी पर समस्त दूसरे जीवों के जीवन का आधार हैं पेड़....

जंगल के बीच गुजरते हुए जितनी उपर तक देखों दरख़्त ही दरख़्त और हरी-भूरी झिल्ली से झांकता आकाश, छन-छनकर आती सुनहली धूप.  नीचे मॉस, फर्न, हरी घास और सूखे गिरे पत्तों से ढकी हरियल जमीन,  ठंडी हवा में घुली ताजगी और पेड़ों की खुशबू.  मिट्टी सिर्फ रास्ते में दिखायी देती हैं,  नम मिट्टी में यदा-कदा कुछ पैरों के छूटे निशान,  कभी घंटे भर चलते हुए भी जंगल के बीच कोई नहीं दिखता, कभी  मिलते कुछ अजनबी लोग जो बिना हिचक, अपनी तस्वीर खींचनें का आग्रह करते हैं,  उनका कैमरा लेकर मैं कुछ क्लिक-क्लिक करती हूँ, फिर बाय-बाय, कभी किसी की तरफ अपना कैमरा भी बढ़ा देती हूँ, रास्ते पर अक्सर इतना ही संवाद.  बहुत कम लेकिन ये भी हुआ  कि 5-10 मिनट कुछ दूर तक बतियाते, जंगल के बीच अजनबी के साथ चलते रहे.  मेरा रवि  भागकर एक दुसरे रास्ते पर पहुँच गया है, और उसके पीछे-पीछे उसके पंकज. रोहन के साथ इन दरख्तों के बीच टहलते, अपने बचपन की कुछ याद साझा करते, बतियाते घंटा भर बीत गया फिर एक बड़े पेड़ की कोटर के भीतर मॉडलिंग करता, नाचता रवि मिला.  घने जंगल के बीच ऐसे कई पेड़ हैं, जो इतने पुराने और बड़े हैं की उनके तने का निचला हिस्सा पूरी तरह खोखला हो गया है, और जगह-जगह से टूट गया हैं, उनके भीतर 8-10 लोग खड़े हो सकते हैं, हम चारों लोग भी  इन प्राकृतिक घरों में खड़े होने का आनंद लिए कुछ देर को आदिमानव की अवस्था में को याद करते हैं, आखिरी तामाम जानवर, पशुपक्षी, आदिमानव और उसके पूर्वज सब लाखों सालों तक इन्हीं पेड़ों की शरण में रहे  हैं,


"सब्ज़:-ओ-गुल कहाँ से आये हैं , 
अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है ".... 


सहज सवाल मन में उठता है  ऊँचे आखिर कितने ऊँचे पेड़ .....
 चीड़, देवदार, डगलस फर, साइकेड्स, गिंको की तरह  रेडवुड (शिकोया) भी जिम्नोस्पर्म समूह का सदस्य है, और दुनिया में सबसे ऊँचे वृक्षों  में इस  जाति के वृक्ष भी शामिल हैं.  जिम्नोस्पर्म ठन्डे, शुष्क इलाकों में उगने के लिए अनुकूलित पेड़ हैं.  जिम्नोस्पर्म की उत्पत्ति फर्न जैसे पूर्वज से हुयी है, परन्तु पूर्णरूप से स्थलजीवी जीवन के लिए जरूरी सामर्थ्य इन पौधों के भीतर क्रमिक विकास के इतिहास में पहली बार पनपी; जैसे जमीन की गहराई से पानी सोखने वाली जड़,  हवा में  दूर तक बह सकने वाले हलके परागकण और बिना फल वाले बीज (अनावृतबीजी या जिम्नोस्पर्म) और विकसित वास्कुलर सिस्टम. परागण और बीजों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में इन पोधों ने जल की बजाय हवा का सहारा लिया और जमीन की गहराई से पानी सोखने वाली जड़ ने संभव बनाया कि ये पौधें अपेक्षाकृत सूखी जमीन पर उग सकें.  विकसित वास्कुलर सिस्टम जड़ों द्वारा सोखा हुया पानी और पत्तियों द्वारा फोटोसिन्थेसिस की प्रक्रिया में बना भोजन पोधे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचाता हैं.  वास्कुलर ट्रांसपोर्ट सिस्टम  और गहरी जड़ों की वजह से ही ये संभव हुया कि मॉस और फर्न की तरह ये पेड़ जमीन की सतह पर मौजूद नमी पर आश्रित नहीं रहते, और गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में बिना किसी भी तरह की ऊर्जा खर्च किये पानी पेड़ के शीर्ष तक पहुंचा देतें हैं,  पेड़ ऊँचे-ऊँचे और बहुत ऊँचे होते चले जातें हैं.  चूँकि उंचाई के साथ लगातार पत्तियों की  संख्या और आकार छोटा होता जाता है, और ये पत्तियां कम भोजन बना पाती है, अत: एक सीमा के बाद जब पेड़ के लिए गुरुत्त्वाकर्षण के विपरीत दिशा में  शीर्ष तक पानी पहुँचाना, फायदेमंद नहीं रहता, पेड़ का बढ़ना रुक जाता है, वर्तमान में दुनिया का सबसे ऊँचा पेड़, तकरीबन 113 मीटर लम्बा इन्हीं जंगलों में है. वैज्ञानिकों के अनुमान और पेड़ों की लम्बाई के पुराने रिकॉर्ड यही बतातें हैं कि  भरपूर उर्वर जमीन और आदर्श परिस्थिति में पेड़ की उंचाई 122 से 130 मीटर तक पहुंचती है. ये पेड़ कई सौ वर्षों से लेकर ४-५ हज़ार वर्ष तक जीवित रहतें हैं.

यूँ तो रेडवुड ऑरेगन और वाशिंगटन राज्य में भी हैं, परंतु इन राज्यों में बहुत ज्यादा जंगल-कटान के बाद, फिर नए सिरे से मैनेज्ड फोरेस्ट्री की नीती के तहत अपेक्षाकृत जल्दी बढ़ने वाले चीड़, डगलस फर, चिनार, पोपलर आदि को उगाया गया हैं, रेडवुड के छोटे झुरमुट और जगह-जगह उगे एकाधि पेड़ ही यहाँ नज़र आते हैं. अकेले उगे रेडवुड या किसी भी दूसरी जाति के पेड़ अपनी पूरी उंचाई प्राप्त करने से पहले ही टूट जाते हैं, भरपूर ऊँचाई तक पहुँचने और बचे रहने के लिए पेड़ों का चारों ओर से बड़े पेड़ों से घिरे रहना ज़रूरी हैं.  यहाँ  दुनिया के सबसे ऊँचे पेड़ों का बचा रहना भी इसीलिए संभव हुआ है क्यूंकि सैकड़ों मील के विस्तार में फैले जंगल बचे रह गए और समय रहते ही इन्हें संरक्षित करने की पहल हो सकी.......



Oct 22, 2012

आस मेरे मन की दिशा

पिछले 3-4 महीनों में  लगभग 2500 मील ड्राइव करते, रुकते, टहलते  अमरीकी वेस्ट कोस्ट को नज़दीक से देखने के मौके बने. 
इस यात्रा की पहली क़िस्त ....


आस मेरे मन की दिशा

आठ महीने की बारिश, धुन्ध, और सर्दी के बाद,  अब गरमी के लम्बे, उजास भरे दिन आयें हैं.  हालाँकि जून का महीना है, पर हवा में खुनकी है, पतला  स्वेटर पहनने की दरकार अब तक  बनी हुयी  है. बच्चों के स्कूल बंद हो गए हैं और समर कैम्प शुरू होने में दस दिन का समय है.  धूप और ताप की आस में कोरवालिस से दक्षिण की तरफ—कैलिफोर्निया जाना तय हुआ.


पांच घंटे की ड्राइव के बाद भी बारिश अब तक साथ लगी हुयी है, धूप का नामोनिशान नहीं है. रास्तेभर घने जंगलों के लैंडस्केप के बीच लकड़ी के बड़े बड़े टाल, आरा मशीने और कई जगह ड्रिफ्ट वुड के ढ़ेर के ढेर देखते आखिरकार शाम को बैंडन पहुंचे.  बैंडन प्रशांत महासागर के तट पर बसा एक छोटा सा कस्बा है.  हल्की ठण्ड के बावजूद यहाँ मौसम अच्छा  है.  तट पर 2 मील लम्बा डेक है, जिसपर  'ड्रैगन, समंदर और लाइट हॉउस' की थीम पर बनायी स्कूली बच्चों की पेन्टिंग्स लटकी है, वोटिंग कल तक जारी रहेगी.  सामने तीन छोटे रेस्टोरेंटस  में समन्दर से सीधे पकड़े  हुए मसल्स, क्रेब्स, सालमन मछली के व्यंजन बिक रहे हैं,  एक काउंटर पर आठ डॉलर में मछली पकड़ने का लायसेंस मिल रहा है,  डेक पर कई मछलीमार भी हैं.  कुछ दूरी पर पोर्ट ऑफिस है, अतीत की छूटी हुयी निशानी, एक गवाह कि उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में ये  तटवर्ती क़स्बा,  एक महत्तवपूर्ण पत्तन था.


इस बाज़ार में हाथ से बने काठ के खिलोनों की दूकान मिल जाने पर मेरे बच्चे खुश हैं और दुकानदार के साथ रंग-बिरंगी  चिड़िया और दुसरे खिलोनों को देखने में मशगूल हैं.  सिर्फ एक ही चिड़िया लेने की ताकीद है, तो बार बार पलट पलट कर दोनों भाई सलाह कर रहे हैं.  हमारी एक पड़ोसन बसंत के आते ही अपने घर की चारदीवारी पर इसी तरह की रंग-बिरंगी  चिड़िया टांग देती हैं, हवा से इनके हिलते पंख, बच्चों के लिए पिछले 3 वर्षों से विशेष आकर्षण हैं.  इस तरह की चिड़िया मुझे लोकल मार्किट में कहीं नहीं दिखी, एक दिन पूछने पर पता चला कि बैंडन के बाज़ार में एक छोटी सी दूकान में बिकती हैं.  अमेरिकी लोकल बाज़ार में, इस तरह की अच्छी कारीगरी के खिलोने मिलना अच्छी बात है, जो  वालमार्ट टाईप सुपरस्टोर के  मॉस प्रोडक्शन से अलहदा हैं. 


बच्चे एक लाल चिड़िया लेकर लौटे हैं.  कोई बड़ा होटल, बड़ी दूकान इस बाज़ार में नहीं है.  बैंडन की ये हमारी दूसरी यात्रा है, दो बरस पहले यहाँ कैम्पिंग के लिए आये थे और एक दिन समुद्रतट पर बिताया था. इस दफे यहीं बाज़ार में एक मोटेल में दो दिन रुकने का इंतजाम है, जिसे एक मियाँ-बीबी चलाते हैं, अपने घर के निचले हिस्से के कमरों को उन्होंने किराए पर उठाया हैं, और खुद दुमंजिले में  रह रहे हैं, किसी चीज़ की ज़रुरत हो तो उन्हें घंटी बजाकर बुलाया जा सकता है. इस तरह के इंतजाम में, एक अनजान शहर में रुकने का ये हमारा पहला अनुभव अच्छा रहा.   

अगला उजला दिन समंदर किनारे ड्राइव करने और जगह-जगह रुकते-टहलते बीता.  साफ़ रेतीले तट  से कुछ सौ मील की दूरी पर विशालकाय खड़ी चट्टानें या इनके समूह दिखतें हैं,  जो समुद्री पक्षियों के लिए आदर्श शरणस्थल हैं, अंडे और चूजे चट्टानों पर सुरक्षित रहते हैं, और चारों तरफ पानी में आहार प्रचुर मात्रा में मौजूद है. एक स्पॉट पर पार्क रैंज़रस की दूरबीन इस बीच रेत में घोंसला बनाने वाली एक छोटी सी चिड़िया स्नोवी प्लोवर पर केन्द्रित  है. पानी और आकाश के बीच विस्तार में उड़ते अनगिनत पक्षी. मेरे दोनों बच्चे पक्षियों को पहचानने और उनकी गिनती में अपनी तरह से मशगूल हैं, स्कूल से मिली नयी नयी छूट्टी को लेकर उल्लास हैं.



ऑरेगन का तट भुरभुरी रेत का बना हुया है और प्रशांत महासागर के पूरे तटवर्ती क्षेत्र में यहीं सबसे कम  चट्टाने हैं,   जिसकी वजह से यहाँ कई छोटे पत्तन बने, और बीसवीं सदी के कई दशकों तक यहाँ जहाजों की आवाजाही बनी रही.  पानी में खड़ी , काली सलेटी चट्टानें, सर्दी के महीनों में घने कोहरे के बीच अदृश्य हो जाती हैं,  और लहरों के  वेग और तेज हवा के बीच जूझते, जहाज़ बहुधा इन चट्टानों से टकराकर क्षतिग्रस्त हुये हैं,  इस क्षेत्र  को  "Graveyard of the Pacific." भी कहा जाता है.  वर्ष १७९२ से लेकर अब तक लगभग २००० से ज्यादा बड़े जहाज़ इन चट्टानों से टकराकर क्षतिग्रस्त हुये हैं, उन्नीसवीं  सदी के अंत में कई लाइट हॉऊस बनें, ताकि जहाजों को दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाया जा सके .  लाईट हॉऊस में अक्सर एक परिवार रहता जो करोसीन के लेम्प को रात भर रोशन रखने की ज़िम्मेदारी उठाता था. पिछले ३०-४० सालों में अब लाइट हॉऊस की कोई उपयोगिता नहीं बची, तो ये बंद हो गयें और इनमें से कुछ पर्यटन के लिए या  कुछ बच्चों के मनोरंजन के वास्ते पार्क का हिस्सा हैं.

प्रशांत महासागर के भीतर इसके थपेड़ों को झेलने का मेरा एक ही अनुभव है. दो बरस पहले व्हेल मछली को नज़दीक से देखने की  लालसा में  एक ट्रॉलर  में तीन घंटे गुजारे थे. ज़रा सी देर को ट्रॉलर  रुकता या इसकी गति धीमी होती, समन्दर की तेज़ लहरे उसे सूखे पत्ते की तरह कई फीट उछाल देती.  कुल मिलाकर कई दफे ऎसी स्थिति बनी कि शायद आखिरी दिन हो जीवन का, कुछ पलों के लिए समंदर के अप्रितम सौन्दर्य, वैभव,  के बीच प्रकृति की क्रूरता और अपने अदनेपन, असहायता का तीखा बोध तारी हुआ.  मेरे पति पूरे समय डेक पर उल्टियां रोकने की कोशिश करते रहे और मैं दो छोटे बच्चों के बीच घिरी केबिन में ही बैठी रही, दो बार खिडकी के बहुत पास से व्हेल मछली की छलांग हम देख सकें,  तकरीबन 10  मिनट के लिए डेक पर जाना हमारे लिए भी संभव हुआ.  डेक पर बच्चों ने दो क्रेब पकड़े फिर वापस पानी में फेंक  दिए . व्हेल, क्रेबस और ट्रोलर की याद बच्चों के मन में बहुत दिन तक खुशी बनकर रही, मेरे मन में सांत्वना बनकर... 
'बुलॉर्ड  स्टेट बीच' के कोने में बने  बैंडन लाईट की छोटी-संकरी सीढीयाँ चढ़कर लाईटहॉऊस की ऊपरी मंजिल तक पहुंचती हूँ, पूरा  तीन सौ साठ के कोण पर नज़र जाती है, 100 मीटर की दूरी पर एक दूसरा लाइटहॉऊस का होना अजीब लगता है.  टूरिस्ट गाइड ने 100 मीटर की दूरी पर बने दूसरे लाईटहॉउस का किस्सा कुछ यूँ  बयाँ किया "1910 के आस-पास किसी तूफानी रात में एक जहाज तट से सिर्फ सौ मीटर की दूरी पर एक चट्टान से टकराया. रात के समय जल्दबाजी में जहाज त्यागकर सब लोग एक चटान पर आ गए, सुबह पता चला की ये टक्कर समंदर के बीच  न होकर तट के बहुत  नज़दीक हुयी थी, जहाज को बचाया जा सकता था."  अंधेरी रात में कई महीनों के सफ़र के बाद थके और भ्रमित कप्तान की अवस्था का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. प्रकृति के विराट वैभव के बीच छिपी भयंकर क्रूरता का गवाह टूटे, दुर्घटनाग्रस्त जहाजों का म्यूजियम पास ही है.  एमिलिया एयरहार्ट समेत प्रशांत महासागर कितने जाँबाजों की कब्रगाह है?




Sep 16, 2012

होगा तो कैसे होगा जंगल से शहर लौटना

 

                           दान्तेवाड़ा उसी जमीन का हिस्सा
जिस पर मिट्टी हुए मेरे पूर्वज
क्यूं मुझे नहीं  मालूम कि कौन लोग
पीछे छूटे रहे, सभ्यता के निर्जन अंधेरे में
मेरी पहचानी दुनिया से बहिष्कृत, इतने सालों अकेले में
क्या है, ये शब्द  नेटिव..
आदिवासी..
दुनिया के भूगोल में फैले आदिम कटघरे

किवदंती है कि तीस हज़ार भूखे-नंगे
कलिंग के युद्धबंदी
आदमी—औरत—बच्चे
कभी धकियाये थे चक्रवर्ती अशोक ने घुप्प अँधेरे में
क्या है  भेद धम्म-अशोक और चंडअशोक में
कैसा होता है सभ्यता के बीच से बाहर हो‍कर जंगल जाना  
कैसी रही होगी जिजीविषा
जंगलीपन से निहत्थे जूझने का क्या होता है जीवट

अब जब सम्राट अशोक के वंशजों के लिए
अमूल्य हैं जंगल,  ज़रूरी जंगल से बेदखली
सोचती हूँ होगा तो कैसे होगा जंगल से शहर लौटना
किस शहर लौटना होगा...

                            ***
 दान्तेवाड़ा नाम से लिखी  एक पुरानी  कविता,  जिसका शीर्षक अब कोई भी जगह हो सकती है जहाँ विकास (मुनाफे) के पहुरुहे जल, जंगल, जीविका हड़पने के खेल में लगे हैं  

Jul 20, 2012

विनयर्ड्स & वाइन-मेकरस

"है यह बरसात वह मौसम , कि 'अज़ब क्या है, अगर
  मौज-ए-हस्ती को करे फैज़-ए-हवा, मौज-ए-शराब "
---मिर्ज़ा ग़ालिब  


ग्रेप जेनोमिक्स की मीटिंग के आखिरी दिन दो विनयर्ड्स  में जाने का मौका मिला. अभी ऑरेगन में एक तरह से गरमी शुरू ही हुयी है, और अंगूर की बेले फूलों से लदी हुयी हैं, इसके मुकाबिले यूरोप के अधिकतर विनयर्ड्स  में अंगूर के झुम्पे लदे होंगे, और जल्द ही उनके हारवेस्ट की तैयारी होगी. इन दोनों विनयर्ड्स में तरतीब से लगी  अंगूर की झाड़ियाँ मीलों मील फैली हैं, जिनके चारों तरफ खाली जगह, उसके बाद घने डगलसफर, रेडवूड, चिनार और चीड़ के पेड़ और उसके पार हरी पहाड़ियां. कुल मिलाकर एकान्तिक मनोरम लैंडस्केप. मैंने चूँकि विनयर्ड्स अमेरिका में ही देखे तो इसी तरह का साम्य मुझे ईस्ट कोस्ट के विनयर्ड्स में भी दिखता रहा है.  मेरे यूरोपीय मित्रों ने इस तरह के खुले, बहुत बड़े विनयर्ड्स नहीं देखे थे, और खासकर विनयर्ड्स के चारों तरफ वुडेड फोरेस्ट उनके लिए रूमानी बना.  उनके अनुसार यूरोप के अधिकतर विनयर्ड्स आपस में सटे हुये है, और अपेक्षाकृत बहुत छोटे हैं.  

इन्ही विनयर्ड्स के भीतर एक या अधिक इमारतें हैं, जहाँ वाइन बनती है, उसकी एजिंग होती है, फिर उसे पैक कर बाज़ार में भेजा जाता है. एक छोटे से कमरे में एक सेल काउंटर भी होता है, जहाँ से लोग अपनी पसंदीदा वाइन खरीद सकतें हैं. कमोबश हर वाइनरी साल में कई दफ़े पर्यटकों के लिए या विधार्थियों के  टूर करवाती है, जिसका अंत फिर कई तरह की वाइन टेस्टिंग के साथ होता है.  इसी तरह  सेब, नाशपाती, स्ट्राबेरी, और दूसरे बेरी के बगीचों के टूर भी अमरीका में आमचलन में हैं, जहाँ आप  भरपूर फल मुफ्त खा सकतें हैं, अलग-अलग वेरायटी चख सकतें हैं,  अधखाया फेंक सकतें हैं,  सिर्फ जितना अपने साथ ले जाना चाहे वही खरीदना पड़ता हैं. यही हाल ट्यूलिप के खेतों का हैं, लोग घूम फिर सकतें हैं, बच्चे मेले का आनंद  पा सकतें हैं, और फार्म की आमदनी फल-फूल के अलावा पाकिंग की कीमत, खान-पान, आइसक्रीम, और साज सामान के सामान की बिक्री से होती है. 
Oak barrels used for the aging of wine

चूँकि वाइन में अल्कोहल की मात्रा ३-१२.५% तक ही होती है, इसीलिए वाइन ड्रिंकिंग यूरोप और अमेरिका में नशे के लिए नहीं बल्कि मुख्यत: स्वाद के लिए, नेटवर्किंग या फिर सोशलाइजिंग के लिए है. इसीलिए वाइन में स्वाद, महक, और टेक्सचर प्रमुख है,  जो उसमें मौजूद अम्ल और सुगर के  अनुपात, फिनोलिक कंपाउन्ड्स की उपस्थिति से तय होती है,   और इसी तरह प्राकृतिक रंगत भी विशेष महत्त्व रखती हैं. वाइन मकिंग की प्रक्रिया में अंगूर के रस  में सबसे पहले यीस्ट मिलाया जाता है जो फर्मन्टेशन की प्रक्रिया के दौरान रस में मौजूद सुगर को एथेनॉल में बदल देता है, परन्तु १८% तक अल्कोहल की सांद्रता ही इस प्रक्रिया से प्राप्त की जाती है, बाक़ी सुगर बची रहती है, और स्वाद को प्रभावित करती है. सुगर की मात्रा अगर बहुत अधिक है तो वाइन की गुणवत्ता कम हो जाती है. इसके लिए अलग-अलग प्रजाति के अंगूर विशेष तरह की वाइन बनाने के लिए इस्तेमाल होते हैं. इसके साथ ही अपने अनुभव से वाइन मेकर सीखते जातें है कि पकने की किस स्टेज में अंगूर तोड़े जायें ताकि उनके मनमाफिक उत्पाद बन सके. फर्मेंटेशन की प्रक्रिया कुछ ही दिन की होती है, इसके बाद इसे बाँझ की लकड़ी के बने बड़े पीपों में भर दिया जाता है, और दो या अधिक वर्षों तक वाइन की एजिंग होती है, जिसमें फ्लेवर, महक और स्वाद, रंग और टेक्चर धीरे-धीरे विकसित होता है. लगभग हर वाइनरी के अपने सीक्रेट होते हैं, जो उनकी वाइन को ख़ास बनाते हैं.

इन दोनों वाइनरी में मुख्य वाइन मेकर औरतें ही थी. पहली वाइन मेकर की शिक्षा गणित और कम्प्यूटर की थी, सो उसका पूरा ध्यान इस बात पर था कि वाइन मेकिंग की प्रक्रिया को अब्सोल्युट गणितीय प्रक्रिया और प्रेडिक्टेबल कैसे बनाया जाय. दूसरी वाइनरी के लोग अपने यीस्ट के स्ट्रेन को लेकर ज्यादा सावधान थे, और बायोटेक की तकनीकी पी.सी.आर का इस्तेमाल माइक्रोब्स की शिनाख्त के लिए कर रहे हैं. शायद पी.सी.आर वाली ये दुनिया में पहली (अगर अकेली नहीं तो) वाइनरी होगी.

अपने अपने देशों के वाइन मेकिंग के अनुभव लोग सुनाते रहे, और वाइन टेस्टिंग के दौरान वाइन को कैसे परखा जाय और खासकर यूरोपीयन वाइन के बरख्स यहां की वाइन कहाँ स्टैंड करती है, को जानना रोचक रहा.  मुझसे भारत की वाइन के बारे में पूछा तो मेरी  मेरी अपनी परवरिश से इस तरह की कोई शिक्षा मेरे हिस्से नहीं आयी थी. एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने कुछ महीने केरल प्रवास  के समय ताड़ी पी थी, वही देर तक ताड़ी के बारे में और किंगफिशर के बारे में बताता रहा...

Jul 9, 2012

कथा में क्या चाहिए?

कला यथार्थ, और स्मृति को ही समग्र तरीके से समझने-गुनने उसके अंडर प्रोजेक्शन और ओवर प्रोजेक्शन का टूल है, जो यथार्थ को जड़ नहीं बने रहने देती, उससे पार पाने का सपना और संभावनाओं की खोज करती है, और उनका सृजन भी.   अकेले व्यक्ति के कुछ हद तक पूर्णता तक पहुँचने,  अनवरत का साध्य भर... 
 

 हालाँकि कहानी के सच होने का दावा कोई लेखक नहीं करता. पर कथाएँ विलक्षण रूप से जीवन के सच को उजागर करती हैं,  न देखे हुये,  न भोगे हुये दुःख-सुख को पाठक के जीवन का हिस्सा बना देती हैं, न देखी जगहों और न विचरे भूगोल के साथ अपनापा स्थापित करती हैं.  किसी दुसरे लोक, किसी दुसरे भूगोल,  किसी दूसरी जमीन में बसे  किरदार  बहुत-बहुत अलहदा होते हुये भी मनुष्य की तरह किसी साझी जमीन पर मिलते हैं.  पढ़ने वाले के मन में ही कल्पना, संवेदना, स्मृति और आशा के मिलेजुले रसायन की नदी बहती है जिसमें तैर कर पाठक किताब के भीतर एंट्री लेता है, और  अजानी दुनिया को एक्सप्लोर करता है.  और जब लौटता है तो अपना एक हिस्सा वहां छोड़ आता है, किताब का कुछ हिस्सा अपने भीतर सहेजकर लौटता है.  ऐसे ही कोई दोस्तोवस्की, ओसिमोव, चेखव, टॉलस्टाय, मार्खेज, टैगोर, ओस्त्रोवस्की, प्रेमचंद, रेणु, राँगेव राधव, विलियम सरोवन, पामुक के किरदार याद रहते हैं.      

कहानी से क्या चाहिए ?  कोई बनी बनायी अपेक्षा शायद नहीं रहती,  मैं किसी नए की उम्मीद में, अपने रूटीन से एस्केप के लिए  किताब की तरफ जाती हूँ. उन भूगोलों में टहलने जहाँ जाना सचमुच में संभव न रहा हो, उन नामों को सुनने जिनका सही उच्चारण न पता हो, अपने अंतरंग से बाहर किसी दुसरे अंतरंग स्पेस में किसी दुसरे समय में, किसी और टीस में.  और जब लौटी हूँ तो तो  दुःख और सुख में नहायी,  अपने जीवन और परिवेश  को किसी  नयी  नज़र से देखती, कई दिनों और कई सालों तक कुछ नशे में रहती, अच्छी कहानियां और उपन्यास यही करते हैं .

लेकिन फिर अच्छी कहानी को अपने सन्दर्भ, भूगोल में गहरे धंसा होना होता है, भले ही वो आज से दो हज़ार साल आगे की हो या पीछे की, तब भी जब किसी ऎसी जगह की हो, जो है ही नहीं, लेकिन ये दुनिया लेखक की अपनी होती है, या जिसे वो मन प्राण से समझता है, 


कहानी के लिए चैलेन्ज हमेशा कहन का और मौलिक कंटेंट का ही रहेगा.   कहानी यदि  सिर्फ इमिटेशन, और उथली कल्पना के ही सहारे खड़ी  है, तब कहानी का झूठ, जीवन के झूठ से ज्यादा आसानी से पकड़ में आ जाता है. 

और यदि कहानी कल्पनाशून्य हो, यथार्थ का एकहरा, उथला सिलसिलेवार किस्सा तब जुगुप्सा और फ्रस्टेशन के अलावा कुछ नया नहीं करती, कुछ नया अनुभव, ख़ुशी  पाठक के हिस्से नहीं आते. उसका समय नष्ट होता है.
.....

(खुद से एक वार्तालाप, कुछ नयी कहानियाँ पढ़ते हुये, और पुरानी कहानियों को याद करते हुये ... )

Jun 13, 2012

शोला था जल बुझा हूँ-मेहदी हसन

मेहदी हसन अब नहीं हैं...
बहुत से दिलों में हैं, और अभी न जाने कितने नए दिलों में उनकी जगह रोज़-रोज़ बननी बाक़ी है..


मेहदी हसन की मुलायम मखमली आवाज़ पहली बार नैनीताल के कंसल बुक डिपो में सुनी, आवाज़ के मोह में वहाँ घंटा भर बिताया. १६-१७ साल की उम्र की झेंप में पूछ न सकी कि किसकी आवाज़ है, कहां कैसेट मिलेगी. कुछ तबियत से फिर 88-89 में उनका पहला कैसेट "कहना उसे" हाथ लगा, फिर उन दिनों अक्सर हॉस्टल से सप्ताह के अंत में कभी डा. राजेश मिश्र के घर रहना होता, देर रात तक राजेश दा, शशि, के साथ साहित्य, राजनीति और समाजशास्त्र, सायंस  की बतकहियों के बीच मेहदी हसन को सुनना भी होता. राजेश दा  के पास संगीत का अपना खजाना था, काले तवे, पुराना ग्रामोफोन. उन दिनों मेहदी साहेब को सुनते कई बार लगा कि धीरे से लोबान-अगरबत्ती की  खुशबू के बीच धुनी रमाये एक संन्यासी बैठा है, दीन दुनिया से बेखबर, धीमें-धीमें  उठती मंद खुशबू,  मन का हर कोना महकता,  आवाज़ कभी पंख और कभी परवाज बन ले जाती हमें हमसे ही बहुत दूर, अदेखी जंगली फूलों की घाटी, सुरज की पहली किरण में नहायी दूब की नौक पर चमकती ओस की नन्ही बूँद के सलोनेपन में,  अँधेरे में डूबे काला डांडा के पार चांदी के ऊँचे हिमल पहाड़ तक. बरखा की हलकी झड़ी में भीगता कोई बंजर, न भोगी वेदना, और खुशी कहीं मेरे हिस्से आ जाती. गवैया जो इतने अपनेपन में बाँध रस की दुनिया में हमारी अगुआई करता, वैसे ही फिर आहिस्ता से संगीत के किसी महीन तार पर बिठा अपनी जमीन पर वापस सहेजकर बिठा देता और फिर निरासक्त, निसंग एक कोने धूनी में रमा ही दिखता.  उसका बहुत मतलब तब बनता न था पर कुछ उदासी, कुछ खुशी, नैनीताल की गुनगुनी धुप की तरह मेरे हिस्से में पहुंचती थी ....

 87-89 के बीच डी. एस. बी. कोलेज में अबरार हुसैन भी छात्र थे, मुझसे कुछ दो साल सीनियर. कोलेज के छात्र संघ के सांस्कृतिक कायर्क्रम हो या कोई दूसरी शिरकत अबरार मेहदी हसन की गायी  गजलों को गाने के लिए मशहूर थे. उनका गला अच्छा था,  एक दफे मंच पर पहुँचने के बाद बार-बार उन्हें बुलाया जाता.  कई दफ़ा  अबरार से सुनी ग़ज़लों के बाद असली मेहदी हसन की गयी ग़ज़ल की खोज होती. मालूम नहीं अब अबरार कहाँ हैं?  नैनीताल से जो कुछ चीज़े मेरे साथ-साथ कई जगह  गयीं और अभी तक बनी हुयी है, उनमें मेहदी हसन, गुलाम अली और फरीदा खानम के कुछ कैसेट भी हैं. बहुत समय तक किताबों की तरह संगीत भी काफी अदल-बदल कर दोस्तों के बीच सुना गया. संगीत को साथ सुनना और खुशी को दोस्तों के बीच बांटना. खुशी का एक नाम मेहदी हसन ...

मेहदी हसन और दुसरे प्यारे सुर देर रात तक कान में बजते सालों साल, फिलिप्स के ओटोरिवर्स पॉकेट प्लयेर पर, सीक्वेंसिंग की चलती घंटों लम्बी कसरत के बीच, 12-14 घंटे की मेहनत के बाद अचानक से बिजली गुल हो जाती, और 3-4 मिनट में वैक्यूम ड्राय होती जेल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते, भूख, थकान और दो दिन नष्ट,  नाकामी के अहसास के साथ महीने में कितने ही दिन लैब से हॉस्टल के कमरे तक लौटते हेडफ़ोन पर मेहदी का प्यारा, दिलासा भरा  स्वर होता. सबसे कठिन, और थकान भरे दिनों के बीच, उनींदे दिनों में कैफीन के दम पर खुली आँखों, चलते-उखड़ते पैरों में बीतते खड़े दिनों में यूफोरिया सिरजती मेहदी हसन की आवाज़....

अमेरिका पहुँचने के बाद पाकिस्तानी दोस्तों के साथ जो सहज आत्मीयता बनी उसमें  सरहद के पार से आते इन सुरों की भी अवचेतन में भूमिका रही होगी, मिलीजुली तहजीब इन चंद सुरों में, संगीत में, अपनी पूरी धमक के साथ बजती, दिल की हर धड़कन के साथ, हमारी शिराओं और धमनियों में बहती... भारत-पकिस्तान दिल तोड़ने की हद तक सांझापन और दूरी.  राजनीती ने तो सिर्फ इन दो देशों के बीच नफरत की खाई खोदी है, 60 साल में तीन लड़ाईयां, और कभी न ख़त्म होनेवाले आतंकवाद की जमीन बुनी, मौते और ज़ख्म दोनों तरफ दिए.  इन जख्मों पर जितनी भी मलहम संभव हुयी वो  सुरों की आवाजाही के जरिये ही हुयी, वही बार-बार हमें फिर से एक ज़मीन पर खडा करते हैं.  ये सुर हमारे दिलों में मुहब्बत की, इंसानियत की और भलेपन की ज़मीन को कुरेदते  रहते हैं, उसे भिगोते रहते हैं. भारत के न्यूक्लियर टेस्ट हों , कारगिल का युद्ध, कि  कश्मीर हो, राजनीति की छाँव यहाँ अमेरिका में भारत-पकिस्तान के प्रवासी दोस्तों के बीच बारबार अनमनेपन की लकीर खींचती हैं, घावों को ताजा करतीं, अविश्वास की जमीन बुनती हैं. परन्तु  कुछ दिन बीत जाते हैं, और फिर हमारी सांझी तहजीब एक मरहम भी लगा देती हैं, हमारी आत्मा में बजते सुर,  हिन्दी-उर्दू की मिलीजुली मिठास और एक सा भाव संसार फिर से हमें जोड़ देतें हैं.  पाकिस्तानी स्टुडेंट असोसिएशन बंसत आयोजन के समय ढेरों पतंगों के बीच पाकिस्तानी से ज्यादा हिन्दुस्तानी और उनके बच्चे पतंग लिए दौड़ते, इंडिया नाईट और  दिवाली नाईट के कार्यक्रम के बीच फिर पकिस्तान से घूम के आया बच्चा कुछ तस्वीरें, पावर पॉइंट चला देता, या एक छोटी सी फिल्म.  जगजीत सिंह, मेहदी हसन, गुलाम अली, लता मंगेशकर और आशा भोसलें के सुर आपस में सार्वजनिक माहौल में मिले रहते, और हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी पड़ोसियों के बीच हलीम, बिरियानी और कबाब  की खुशबू के साथ आवाजाही करते.  अपने अनुभवों से ही मुझे लगता है अगर इन दोनों देशों के लोगों को खुलकर मिलने का मौका मिले तो अब भी मुहब्बत की वजहें, नफरत की वजहों से कई गुना ज्यादा हैं.  दो देशों की सीमा के बावजूद दोनों देश के गायकों ने जिस तरह साथ साथ काम किया,  दोनों देशों की आवाम को अपनेपन और प्यार से सींचा, उसी तरह काश ये हो सकता  कि  हिन्दुस्तान और पकिस्तान के लोग भरोसे के साथ आपस में मिलते, साथ-साथ अदब की, संगीत और साहित्य की, कारोबार की नयी उंचाईयां तक पहुँचते. एक दुसरे से खौफज़दा न रहते होते, देश के बजट का बड़ा हिस्सा जो सीमा पर चौकसी के लिए खर्च होता, उसका निवेश सार्वजानिक शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी में होता...

एक आवाज़  ढ़ेर सी आश्वस्ति. उम्मीद को हमारे भीतर ज़िंदा रखती, सपने देखने का हौसला और ज़ज्बा बनाये रखती है...

**************

सुर और स्वर अब भी हमारे बीच हैं, दिल अज़ीज  हैं, मेहदी अब नहीं हैं...
हर किसी की मौत एक दिन निश्चित है,  हमेशा के लिए उसे रोका नहीं जा सकता था. परन्तु एक टीस के साथ उनकी याद आयेगी. एक दशक के ज्यादा समय से बीमारी और आर्थिक तंगी के बीच जूझते हुए हमारे समय के सबसे महान गायक, सबसे मीठे स्वर ने आखिरकार दम तोड़ दिया. भारतीय उपमहाद्वीप में इस शख्स से न सिर्फ करोड़ों लोग मुहब्बत करते रहे हैं, बल्कि शीर्ष पर बैठे, वर्तमान और भूतपूर्व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री भी इनके बरसों मुरीद रहे हैं, भारत और पकिस्तान के छोटे बड़े शहरों, से लेकर राष्ट्रपति भवन और इन देशों के सबसे प्रतिष्ठित मंचों पर चालीस सालों तक गूंजते गायक के आखिरी साल यूं  लाचारी के बीच बीतें. समुचित इलाज़ के आभाव में मौत हुयी.  ऐसी स्थिति न होती तो  उनका रचा हुया जो हमारे बीच बच गया, और उस जीवन की याद  जिसने उसे रचा, हमारी सामूहिक स्मृति में उत्सव होता....

मेहदी की याद और टीस शर्म बनकर भारतीय उपमहाद्वीप की छाती सवार रहे,  इन परिस्थितयों को बदलने का नया जज्बा दे, इसकी निष्पति कलाकारों, लेखकों, शायरों  की बेहतर सामाजिक आर्थिक सुरक्षा कैसे हो उस दिशा की तरफ जाय. ...

May 30, 2012

Emigrant’s Notes/ प्रवासी नोट्स

9.   Emigrant’s Notes  (translation was done with help of Prof. Tom Montgomery )
 

The home no longer exists
In any village
Or a town
Or a city
Not within boundaries of any nation
Only some trails of past events are left
And some scattered fragments of paper
The address of home will remain missing forever
Alienation spreads over entire earth
And people constantly in an unsettled state of mind
Displaced from their native land and home
Sons and daughters of Eve roving forever
Scattered like little straws in a savannah
Large populace is at halt
Their citizenship is at pause
In a twenty-first century democracies their voices are silent
Devoid of heritage
Devoid of identity
Not citizens anywhere year after year
Indeed free everywhere

Why do people emigrate?
Who knows if only hope is a driver?
Or it was simply despair
Some degree of exasperation
If someone was making a forlorn attempt to escape
To an unknown landscape
Having no voice in matters of being
While another heartbroken soul
Had no one left to console
And breaking ties, escaping from burden, shame and pain

The motherland increasingly becoming unfamiliar
The adopted land of dreams is still strange
The lost souls keep searching for
Familiar faces, voices, gestures a spark in someone’s eyes
An emigrant
When engrossed in routine chores rapt in reminiscence
When asleep delves in the past and dreams dead and forsaken
Suddenly awakes to an  illusion of some sweet voice
And consciousness returns slowly , rays spreading  at dawn
For some time, the heartbeats slow down
Emotions ebb and flow
And then spread like lava in all/eight directions
In the early morning doze eventually a thought comes
Wholeness can only be found in dreams now…

***


             प्रवासी नोट्स

घर नहीं है अब
गाँव-
शहर-
किसी देश में
कुछ तारीखें हैं
चिंदी-चिंदी कागज के टुकड़े
कहीं नही है घर का पता
पृथ्वी पर पसरा परायापन
मुसाफिर मन सालों-साल
घर ज़मीन से बेदख़ल हव्वा के बेटे बेटियों का हुजूम
छिन्न विछिन्न पहचानों के बीहड़ में गुम
तिनके-तिनके बिखरा है
इक्कीसवीं सदी में नये पुराने लोकतंत्रों के बीचोंबीच
स्थगित है जीवन
स्थगित नागरिकता..

जाने कैसी कौन सी आस रही
कि निपट निराशा थी
ऊलजलूल से ढका आसमान था
पहचाने दायरे से ही भागा था मन
और कुछ खीझ भी थी कि
हमारे होने से भी कब कुछ होना था
अजाने भूगोल में गुम होने का रोमान था
अनचाहे बंधों, बेबसी, शर्म से मुक्ति का कोई गान था

अजनबी है अब वो देश
यहां, ये देश भी
बौराया मन ढूंढता है परिचित
कोई चेहरा,आवाज़,पहचानी हंसी
आँखों में उतरती एक जानी सी चमक
रोजमर्रा की भागदौड़ के बीच
स्मृति की नदी में तैरता बीतता है कोई
मन चोर के मानिन्द नींद में करता है सेंधमारी
किसी आवाज के अंदेशे में चौंकती उलटती है नींद
छनती आती मद्धम रोशनी सी पसरती चेतना
कुछ देर को बैठता दिल
लावा सा आठ दिशाओं में पिघलता बहता है मन
अल्‍लसुबह की खुमारी में सोचता कि
अब सपनों की सरहद तक है अपना होना...

***

May 21, 2012

Translations of my poems-02

6.    तस्सव्वुर

जमीन पर नहीं  
हवा में नहीं  हूँ
पानी से पुरानी यारी है
जो भी है
उसकी सतह पर चित्रकारी है
रोशनी का है उधार
सूरज, चाँद, तारे साहूकार
रंग का नाता सबसे
जो घेरे हैं मुझे
कुछ उन्ही का प्रतिबिम्ब हूँ
तरंग बस अपनी है
भीतर से उठते बुलबुले है
हलचल अंतरंग है...
***


6.    Self-portrait

I am not earthbound
I am not completely ethereal
I have a longtime affection for water
And I like to create ripples
I am in debt of illumination
And the creditors are:
Sun, moon and stars without numbers
I am deeply imbued with colors
I mirror people around me
Only the impulse is mine
The stimuli arise from within
And I am my own muse...
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7.   बुराँश

करीने लगी कोई क्यारी
या सहेजा हुआ बाग़ नहीं होगा ये दिल
जब भी होगा बुराँश का घना दहकता जंगल होगा
फिर घेरेगा ताप
मनो बोझ से फिर भारी होंगी पलकें
मुश्किल होगा लेना साँस
मैं कहूंगी नही सुहाता मुझे बुराँश
नही चाहिए पराग

भागती फिरुंगी बाहर बाहर
एक छोर से दूसरे छोर
फैलता फैलेगा हौले हौले
धीमें धीमें भीतर कितना गहरे तक
बुराँश बुराँश... 
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7.    Rhododendrons

My heart will never be a well tended bed of flowers
Or a skillfully pruned orchard /or a grove
But like a wild dense forest of blooming rhododendrons
At times red flames would surround me
My eyelids could weigh a ton
And breathing would be hard
I would say, “I don't fancy rhododendrons
I do not want the pollen”.

I am a vagabond 
Roving from one end of earth to another
Within my heart rhododendrons blossom
Gradually, softly, silently
O lovely rhododendrons!
Lovely rhododendrons…
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8.    धूप

पतझड़ के बाद
शहर हुआ है सलेटी
सियाह
रंग रोशनी से महरूम
आह, कितना उदास
महीनों महीनों…

इस शहर सरीखे कई शहर
समयकाल से परे
सूरज की आस
धूप के ख्वाब में ऊंघते हैं
महीनों महीनों...

बारिश, बर्फ़,और धुंध के बीच
जो खिली आती है चटक धूप कभी
कनपटियाँ तपती
खिल उठती रूह
धूप का नाम होता
खुशी
हंसी
उम्मीद...
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8.  Sunshine

After autumn when all trees are naked
This town has become grey and dark
deprived of colors, devoid of light
O! how melancholic
month after month

Like this town many others
since time beyond measure
in hope of sun
and dreaming sunshine are somnolent
for month after month

In the midst of rain, fog and snow
if sun shines even momentarily
my temples feel warmth
my spirit revives
and I name sunshine
happiness
laughter
hope...
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(These translations were done with help of Prof. Tom Montgomery )