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Jan 29, 2012

आयोवा-02

इस सर्दी में हिन्दुस्तान छोड़े हुये १५ साल पूरे हो जायेंगे. एम्स, आयोवा में बिताये हुये कुछ पहले महीनों की यादें अचानक फिर से जहन में उठ रही हैं. ये पोस्ट कभी Sep 7, २००९ में लिखी थी. फिर से पोस्ट कर रही हूँ...

आयोवा  की पहली सुबह, ठण्ड मे घुली हुयी और धुप-छाँव की आँख-मिचौली के साथ शुरू हुयी. लैब जाने के लिए एक मित्र ने राईड दी और दो चीजे जो रात के अंधेरे मे नही दिखी वों सुबह के उजाले मे हतप्रभ करनेवाली थी; एक तो १००% समतल लैंडस्केप, और दूसरा, चिनार के, ओक और  तकरीबन १५-२० अलग-अलग जातियों के पेड़, सब के सब अमूमन ३० फिट की ऊँचाई से ज्यादा नही. लगभग वीरानी से भरा शहर,  चारों तरफ  सिर्फ़ कार ही कार, लोग नही.  लोगो को देखना तब तक न हुआ , जब तक अपनी बिल्डिंग के अन्दर नही घुस गए. पहला दिन कई तरह की कागज़बाजी मे बीता और इस बहाने लगभग पुरे कैम्पस मे चक्कर लगाना पढ़ गया. बहुत जल्द सभी पेडो का ३० फिट से ऊंचा न होना मेरी समझ मे आ गया. आयोवा मे खासकर ठण्ड मे 50-६० किमी प्रति घंटा की रफ़्तार से बर्फीली हवा चलती है, जो पेडो को इस ऊंचाई से ज्यादा बढ़ने नही देती, पेड़ टूट जाते है। दूसरा, हवा की इतनी तेज़ रफ़्तार तापमान को -२० डिग्री से -४० डिग्री तक आसानी से पहुंचा देती है. मुझे इसका कोई पूर्वानुमान नही था. सिर्फ़ इतना पता था की बर्फ पड़ती है आयोवा मे। और लगा था, की पहाडी लड़की को बर्फ से क्या डरना? और इस लिहाज़ से जिस तरह के जैकेट की दरकार थी, वों मैं लेकर नही गयी थी। थोडा बहुत ढूढा था, लखनऊ , दिल्ली मे, पर कोई ठीकठाक जैकेट मिली नही, और अंत मे लखनऊ से एक कोट लिया. कोट देखने मे तो ठीक था, पर मौसम को झेलने की कुव्वत उसमे नही थी. हड्डी तो दूर, मज्जा को भी मजा चखाने के लिए चाकू सी तेज़ ठंडी हवा काफी थी. अपनी सीमित जानकारी के चलते, डॉन किहोते टाईप के एडवेंचर की ये शुरुआत भर थी....

दूसरे दिन एक लोकल कांफ्रेंस हमारी ही बिल्डिंग मे शुरू हो रही थी. एक एक करके लोगो से बतियाना शुरू किया, काम के बारे मे पूछा और कुछ अंदाज़ लगा की कैसे लोग है? क्या करते है? और "सायंस के मक्का" मे सायंस का क्या हाल-चाल है. पर अभी तक तो सबसे बड़ी दिक्कत थी घर ढूँढने की, कैसे ढूंढा जाय? कुछ लोकल अखबार ढूंढें, फ़िर अगले एक हफ्ते तक कई लोगो को फ़ोन किया, पर दिक्कत ये की शहर का कुछ नक्शा पता हो तो समझ मे आए. लैब के कुछ सहकर्मी मदद देने को तैयार थे (जिसमे सिर्फ़ कार राईड, और ग्रोसरी शोपिंग शामिल थी), कोई भी सीधी जानकारी देने की पहल नही कर रहा था. जिसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी, यानी किराए का मकान कैसे और कहाँ मिलेगा ?  कुछ मेरा अंतर्मुखी स्वभाव भी आड़े आया, और जितना कम हो सकता था उतनी ही मदद लेने का मेरा विचार था.  अगले दिन लिफ्ट मे एक हिन्दुस्तानी साहब नज़र आये, सोचा की इनसे पूछा जाय, कि लोकल ट्रांसपोर्ट क्या है? पर वों बोले के "मैं यहाँ बहुत अरसे से हूँ".  मतलब कि "अपना रास्ता नापो! यू आर फ्रेश आउट ऑफ़ बोट"  . इसी बीच जिन प्रोफ़ेसर के घर पर मेरा टेम्पररी रुकना था, वही पर तीन दिन के लिए, संतूरवाले शिवकुमार शर्मा जी, उनके बेटे राहुल और तबलावादक सफत अहमद खान आकर रुके. उठते-बैठते इन तीनो लोगो से काफी बातें हुयी. संगीत, खासकर सेमी-क्लासिकल, और वोकल को सुनने की आदत थी, पर विशुद्ध रूप से "इंस्ट्रुमेंटल" से मेरा परिचय यही से शुरू हुआ. शिवजी से पूछा कि गाने की तो थीम होती है, आप खाली इंस्ट्रुमेंटल परफोर्मेंस की थीम कैसे लिखते है? उनका सुझाव था कि शाम को उनका कंसर्ट सुना जाय, और मैं ख़ुद समझने की कोशिश करू कि क्या कहा जा रहा है? फ़िर अगले दिन इसके बारे मे बात की गयी. इंस्ट्रुमेंटल को समझने की शुरुआत शायद उसी दिन से हुयी.

तकरीबन तीसरे-चौथे दिन कॉफी मशीन के पास एक दूसरे सज्जन फिरोज़ ने बतियाना शुरू किया, पता चला वों उजबेकिस्तान के है, करीब साल भर पहले आए है. उसके बाद करीब १५-२० मिनट बातचीत होती रही. फिरोज़ ये जानकर खुश हुआ की मुझे समरकंद के बारे मे और उलूगबेग के बारे मे पता था. अगले दिन कुछ तस्वीरे उसने मुझे दिखाई, यशब  के प्यालों की, मेहराबदार घरों और गुम्बदों पर फिरोजी ही रंग के पत्थरों की सजावट, एक पुराना ज़रदोज़ी का कोट, अपनी मंगेतर और घर के लोगों की तसवीरें. फ़िरोज़ से ही लोकल ट्रांसपोर्ट और घर किराए पर कैसे ढूंढा जाय ये पूछा. उनकी एक मित्र हाल-फिलहाल मे कैलीफ़ोर्निया चली गयी थी और उसका अपार्टमेन्ट किराए पर उठाना फिरोज़ साहेब की जिम्मेदारी थी. सो फिलहाल तीन महीने के लिए घर का इन्तेजाम हो गया था, जुलाई के महीने में मेरे पास भरपूर चोयास होती क्यूंकि एम्स शहर में मकानों की लीज़ जुलाई से जून के बीच ही मिलती है. मेरे प्रोफेसर ने अपने घर से मेरा समान अपार्टमेन्ट तक पहुंचाया, और कुछ समान खरीदवाने के लिए ग्रोसरी स्टोर लेकर गए. जितना भी हो सकता था, समान लिया, और यही पर मुझे बस का पास, और शहर का नक्शा जो निहायत ज़रूरी था, वों भी मिला.

ऐम्स एक बेहद छोटा शहर है, अप्रेल पहले-दूसरे हफ्ते के बाद मौसम कुछ खुल गया, और अक्सर पैदल चलने की वजह से शहर के बारे मे मेरा एक अनुमान बन गया. करीब एक हफ्ते के बाद लौंड्री रूम मे जो अपार्टमेन्ट मे साझा था, हैदराबाद से आए एक तेलगु परिवार से जान-पहचान हुयी, राव भी सीनीयर पोस्टडोक थे, और उनकी पत्नी और दो साल का बच्चा, ये लोग मेरे ही अपार्टमेन्ट मे रहते थे. उसी वक़्त इसरार करके वों लोग मुझे अपने घर ले गए, खाना खिलाया, और एक बेहद आत्मीयता के माहौल से मैंने कुछ घंटो के बाद विदा ली.

लंच के वक़्त अक्सर फिरोज़ से और कुछ दिन बाद उसके रूसी दोस्तों से बात होती थी और बातें दुनिया जहान की.  मजे की बात ये थी कि रूस के १६ टुकड़े अस्सी दशक के आख़िरी सालो मे हुए थे, उन सभी देशो के लोग एम्स मे एक ही ग्रुप मे रहते थे, सभी अपनी भाषा के अलावा रूसी बोलते थे, आपस में गहरे सूत्र मे बंधे लगते थे. मैं अक्सर सोचती थी, कि भारत और पाकिस्तान के बीच इतनी दुश्मनी क्यो है? कुछ महीनों के बाद कुछ पाकिस्तानी दोस्त बने तब मैंने जाना की हमारे बीच में भी खान-पान, भाषा और संस्कृति के वैसे ही सूत्र है, परन्तु हमारे देशों की राजनीती हमारी संस्कृति और साझेपन पर सवार हो जाती है.

रूसी साहित्य को पढ़कर जो कुछ समझ बनी थी, उसका फायदा ये हुया कि मैं लगभग सभी रूसी नामो को सही उच्चारण करती थी, और अक्सर तो कई शहर जिनके बारे मे सिर्फ़ पढा था, रूसी क्रांती के बारे मे भी सिर्फ़ पढा ही था, पर काफी देर तक बातें होती थी. उस ग्रुप के अधिकतर दोस्तों के परिवार भयंकर आर्थिक संकट के समय से गुजर रहे थे. फ़िर भी जितना हो सकता था, भाई-बहन, दोस्त, नाते रिश्तेदार एक दूसरे की भरपूर मदद करते थे. इसी बीच एक लड़की उक्रेन से आयी, और फ़िर उसकी मकान ढूँढने की फजीहत को देखते हुए, मैंने उसे अपने अपार्टमेन्ट मे रहने के लिए कह दिया.  उसे अंगरेजी बहुत कम आती थी और अक्सर बात करते समय उसके हाथ मे डिक्शनरी होती थी. उसके साथ बड़ी आत्मीयता बनी. लेरेसा जितनी बढिया इंसान थी, उतनी ही आला दर्जे की वैज्ञानिक भी, और वैसी ही मेहनत और रुची के साथ खाना भी बनाती थी. उसका बेहद महीन किस्म के काम को लैब मे देखकर  और उसका धैर्य देख कर मुझे बहुत राहत मिलती थी. लेरेसा के मार्फ़त उन दिनों और उससे पहले के रूस के बारे मे मुझे काफी कुछ समझने का मौका मिला, उस भूभाग के साहित्य और संगीत, खानपान, और लोगो के बारे मे पता चला.

पहला भाग यहाँ पढ़े

Jan 20, 2012

सायंस और सोसायटी

सेन डियागो में प्लांटस  एंड एनिमल जेनोम की सालाना मीटींग है,  अच्छी किस्मत रही की मीटिंग के दिनों पूरी फुर्सत से मीटिंग अटेंड की, होटल में एक अच्छी बेबी-सिटर मिल गयी, एक दादी की उम्र की महिला, जिसके अपने नाती-पोते हैं. एक स्कूल की रिटायर्ड टीचर, जल्दी ही बच्चों के साथ घुल मिल गयी है.  छोटे बच्चों की माँ के लिए १२-१४ घंटे चलने वाली मीटींग में शिरकत करना लगातार ३-५ दिन तक आसन नहीं होता, खासकर जब पति-पत्नी एक ही चरखे पर दौड़ रहे हो. पिछले कई सालों में बहुत सी ऎसी मीटिंग्स हम लोग साथ साथ नहीं अटेंड कर सके. अमेरिकन सोसायटी फॉर प्लांट बायलोजी ने कुछ वर्ष पहले एक नीती बनायी थी कि यदि पति-पत्नी मीटिंग अटेंड कर रहे हैं, उनके बच्चों की देखरेख के लिए वो इंतजाम करेंगे. किन्हीं वजहों से ये अब तक मुमकिन नहीं हो सका, क्यूंकि मीटिंग के कांफेरेंस सेंटर की  बीमा पालिसी इसके आड़े आती रही. फिर भी अगर हमने व्यक्तिगत रूप से किसी को बेबी सीटिंग के लिए रखा तो उसकी कीमत का कुछ हिस्सा उन्होंने वापस किया हैं. इस तरह के सरोकारों का किसी पालिसी में तब्दील होना बहुत से वैज्ञानिकों जिनके छोटे बच्चे है, उन्हें कुछ तसल्ली के साथ काम करने का माहौल देता है. कोर्नेल के पोस्टडोक दिनों में मेरी सेलरी का ८०% भाग दो बच्चों की देखरेख में चला जाता था. हाथ में बहुत कम पैसे आते थे, पर ८ घंटे का समय मिलता था जिसमे कुछ काम किया जा सकता था. आर्थिक फायदे नुकसान  से बहुत ऊपर कुछ रचात्मकता का सुख और नए सीखने की चाह बनी रहती थी. एक दशक पहले  कोर्नेल ने अपने पी. एच. डी. छात्रों और पोस्टडोक माताओं के लिए एक बड़ी मामूली से पहल की थी, चाइल्ड केयर ग्रांट की. उस ग्रांट में से दो दफे कुछ एक एक महीने की चाइल्ड केयर की फीस रिफंड हुयी. इतने सालों के बाद भी मुझे उसे अक्नोलेज करते हुए खुशी होती है. बहुत सी दूसरी जगहों में इस तरह का ख्याल अभी बना नहीं है, और उस ग्रांट के बारे में सुनते हुए भद्र वैज्ञानिकों की तिरछी मुस्कान भी दिखती है, फिर कोई ऐसा स्वर भी जो इस ग्रांट के महत्तव को समझता है. इतने दिनों बाद कल एक पुराने कोर्नेल के डिपार्टमेंट हेड से बात करते हुए मैंने इस ग्रांट को याद किया और एक नयी ग्रांट के बारे में पता चला की अब इस तरह की मीटिंग में जाने के लिए कोर्नेल की फेकल्टी को अपने साथ बेबी सिटर को लेजाने और उसके समय की कीमत को कवर करती नयी फेलोशिप अस्तित्व में आयी है. सायंस और टेक्नोलोजी  में औरतों की कम भागीदारी, और पलायन के रोने-गाने से बहुत बहुत अच्छी ये छोटी छोटी पहल है, जो उन्हें सक्षम बनाती है.
पुराने कई परिचित मिले. पुराने दिनों के  की संगत के बीच फैले स्नेह सूत्र भी फिर से दिखे. उस भोली उम्र के उत्साह की यादें,  कुछ मामूली महीन जानकारियों के बीच टांग खींचने के अवसर और लुत्फ़ बचे रह गए है. कोर्नेल के बहुत से पुराने परिचित फिर से मिले, उनसे फिर अब ३-४ साल बाद मिलना अच्छा लगा, नए लोगों से बात हुयी, बहुत सी नयी जानकारियों के बीच लगता है कितने पीछे छूटती चली जा रही हूँ.
पिछले दशक की सायंस हाईथ्रूपुट टेक्नोलोजी से ड्रिवन रही है, इतना डाटा, कि उसका ठीक ठीक ज्ञान और सूचना में तब्दीली कठिन काम है,  ली हूड अपने प्लेनरी लेक्चर  में आने वाले दस सालों में हेल्थ इंडस्ट्री के बारे में कई अनुमान प्रोजेक्ट करते हुये ये भी कहते है कि हर परिवार का जीनोम सीक्वेंस हो जाएगा, मेडिसिन और ट्रीटमेंट्स बेहद व्यक्ति केन्द्रित हो जायेंगे. बहुत सी नयी डायग्नोसिस की बात करते है. उन्हें सुनते हुये मुझे "Gattaca" की याद आती है. टेक्नोलोजी ड्रिवन समाज की सोच कर कुछ सिहरन होती है.
भारत में अब पिछले २०-२५ साल वाली आर्थिक स्थिति नहीं है कि रिसर्च के लिए सामान और पैसा न हो. आज कई नए इंस्टीटयूट बने है, महल सरीखे, ऐसी सजधज के साथ नए यूरोपीयन और अमेरिकी इंस्टीटयूट भी नही बने है पिछले दशक में, हर नए से नए मॉडल का इंस्ट्रूमेंट वहां है, अगर कोई काम करना चाहे तो किसी तरह की भौतिक सीमा काम करने के आड़े नहीं है. रिसर्च के लिए आज कई गुना बड़ा बजट है. परन्तु, कोई बड़ा विजन सायंस और सायंस की नीती को गवरन करता नही  दिखता. तुगलकशाही और मठ तो हिन्दुस्तानी सायंस में बहुत पहले से थे, अब दुसरे विद्रूप भी पैठ बना चुके है. 
बहुत से भारतीय वैज्ञानिक भी मिले, उनमे से कुछ स्वदेश लौटने की कशमकश के बीच थे, कुछ वहां जाकर फिर वापस लौट आयें है, बहुत बुरे अनुभव और अपमान साथ लेकर लौटें हैं. अयादुरई की कहानी तो पब्लिक डोमेन में है ही. शिवा के किसी फेन का ब्लॉग है "freedom for science"   . जहां इस बहस के कई बिंदु समझ में आते हैं. ये एक वीडियो भी है. शिवा की कहानी और ढेर से दुसरे वैज्ञानिकों की व्यक्तिगत कहानियों की तरह ये चीज़े ख़त्म न हो, हमारे समाज की चेतना का भी ये हिस्सा बने. समाज के खून पसीने की कमाई से भारत में विज्ञान का कारोबार चलता है, इसीलिए सायंस कोई टापू नहीं है, समाज के साथ, समाज की स्वतंत्रा और संस्कृति के साथ उसका गहरा रिश्ता है, और उसकी अकाउंटेबिलिटी पारदर्शी हो, ये प्रक्रिया स्वस्थ दिशा में बढे इस उम्मीद में ये वीडियों  चस्पा कर रही हूँ.


बहुत सी कहानियां, और बहुत बुरी कहानियां मिडिल और एंट्री लेवल के वैज्ञानिकों के अनुभव की हैं, जो शायद ही कभी पब्लिक डोमेन में आयें, हमारी सामाजिक स्मृति और समय का हिस्सा बनें. पोपुलर मीडीया  भारत से ब्रेनड्रेन की उथली कहानी को बेच कर अपना सुख पाता है. जबकि सच्चाई  ये भी है कि सायंस का भी एक प्रभु वर्ग है, जिसके हाथों में सारे संसाधन, और ताकत, अकूत तुगलकी सत्ता है, बहुत बहुत पैसा है, और उसके पैरों के नीचे दबी लाखों गरदनें है. ब्रेन-ड्रेन में वैज्ञानिकों का कुछ डालर कमा लेने की आकांशा से कई अधिक प्रतिशत देश में काम करने के समुचित अवसरों का न मिलना है, और अगर मिल भी गया तो वहां का दमघोटू सामंती कामकाज का माहौल है. बकौल अयादुरई के "Our interaction with CSIR scientists revealed that they work in a medieval, feudal environment," says Ayyadurai. "Our report said the system required a major overhaul because innovation cannot take place in this environment.". 
ये कहानी वैसे भी एक बहुत टॉप लेवल के अमेरिका में शिक्षित और पले-बढे वैज्ञानिक मर्द की है, जिसकी योग्यता और ट्रेनिंग पर कोई प्रश्नचिन्ह नही है. इसे कोई ऐसे ही खारिज नहीं कर सकता. औरतों की समान्तर कहानियाँ अभी हालिया एक सर्वेक्षण में आयी है की भारत में ६०% पी एच डी महिला वैज्ञानिक बेरोजगार है, उन्हें नौकरियां नही मिलीं. सायंस और सोसायटी के बीच का जो आयरन कर्टन है, उसे अब हटना ही है, धीरे-धीरे ही सही, तभी सायंस की उन्मुक्त रचनाशीलता को भी तभी रास्ता मिलेगा...

Jan 18, 2012

सेन डियागो-02 ( zoo)

चिड़ियाघर मुझे बचपन के बचे रह गये उत्साह से अलग इसीलिए भी आकर्षित करते हैं कि वहां जाकर अहसास गहराता है कि प्रकृति में मनुष्य के अलावा भी कितने कितने विचित्र प्राणी है, और मनुष्य इन सबके बीच का हिस्सा है, वरना  आपाधापी में उम्र बीत जाती है, कुछ पालतू पशुओं के अलावा हमारे परिवेश में  जीवों की कोई उपस्थिति नहीं है. विकास के मौजूदा खांचे में जितनी इमारतें, मॉल, मल्टीप्लेक्स बढ़ते जा रहे है, जिस तरह से दुनिया अर्बनाइजेशन की दौड़ में शामिल है, उसकी एक बड़ी कीमत पशुओं की प्रजातियों का विलुप्त होते जाना भी है.  दुनिया में  रेड लिस्ट हर साल बढी दर से भरी जाती है, अकेले भारत में करीब ५६९ सिर्फ पशुओं की जातियां इस लिस्ट में है। जानवर प्रेमियों के पास अपनी अपनी तरह की संवेदनाएं है. हमारे समय में पश्चिम में शाकाहार के पक्ष में मजबूत राय बनती दिखती है, इतनी कि पहले कभी ऎसी चेतना न थी और लगभग पूर्व की ही तरह अबकी बार इसका आधार अहिंसा के नैतिक मूल्य भी है. कुछ लोग दूध  और उससे बनी चीज़े भी छोड़ चुके है. जानवर प्रेमियों की अपनी अतिरेक कहानियाँ हैं. 

पिछले हफ्ते दोपहर बाद एक दिन कुछ समय मिला तो बच्चों को लेकर का चिड़ियाघर जाना हुआ, चिड़ियाघर के खुले रहने में सिर्फ घंटाभर बचा था, लेकिन टिकट पूरा लेना पड़ता, मेरे अंदाज़ से तीन गुना ज्यादा महंगा. इसीलिए अगले दिन पर छोड़कर समुद्रतट पर जाना तय किया. दो दफे चिड़ियाघर के टिकट खरीदना मेरे लिए संभव नहीं था. बच्चे कुछ रुआंसा हुए, फिर वहीँ  चिड़ियाघर के बाहर एक मोर चलता हुआ दिखा और उसके पीछे भागते उनके कुछ जानवर देखने की मुराद पूरी हुयी. ..

अगली सुबह से दोपहर तक जितना संभव  हुआ सेन डियागो का जू  देखा. एक तरह से अब तक देखे लगभग २० से ज्यादा चिड़ियाघरों में से सेन डियागो का चिड़ियाघर सबसे ज्यादा व्यवस्थित, पैदल घूमने, बस से या ट्राली से भी घूमने की व्यवस्था, सभी तरह की शारीरिक क्षमता के लोग चाहे छोटे बच्चों के साथ उलझे माता-पिता हो, बूढ़े असहाय लोग, किसी तरह से अपाहिज लोग या  पैदल घूमने दौड़ने वाले धावक , सभी एक सामान रूप से इस बड़े चिड़ियाघर का आनद ले सकते है.  इस एक चिड़ियाघर के भीतर बहुत परिश्रम और सूझबूझ से कई तरह के प्राकृतिक जंगलों की नक़ल है, सघन वर्षावन के भीतर बहुत घने बांस के जंगल, अलपाइन फोरेस्ट, रेगिस्तान, आर्कटिक है. इन  सभी परिवेशों में  जानवर स्वस्थ दीखते है, अपने प्राकृतिक वातावरण में उन्हें देखने का भरम होता है. सिर्फ चिड़ियाघर ही नहीं वरन ये वन्य जीव संरक्षण की रिसर्च का भी एक केंद्र है. दुनिया के कई हिस्सों से जानवरों को यंहा लाया गया है, और उनके व्यवहार का अध्ययन  किया जाता है. इस जगह ६५ साल से हाथी है, और उनकी रीसर्च से ही हाथी के बारे में कुछ ख़ास बात पता चली, की हाथी की उम्र ६५-९० साल तक हो सकती है. २४ घंटों में हाथी सिर्फ २०-२५ मिनट की नींद खड़े-खड़े लेता है. ९०% समय से ज्यादा अपने पैरों पर खडा रहता है. इसी चिड़ियाघर के भीतर "लाइन किंग" बनाने से पहले डिज़नी की टीम ६ महीने तक रिसर्च करती रही और अपनी कहानी, उनके चरित्र गढ़ती रही. कुछ समय पहले ही इस चिड़ियाघर में कौन्डोर की प्रजाति को सुरक्षित करने और फिर से जंगल में इन पक्षियों को छोड़ने  में सफलता मिली है. तो इस मायने में चिड़ियाघर वाकई विलुप्त प्रजातियों को फिर से कंजर्व करने में सहायक हो सकते है. चिड़ियाघर को देखकर ख़ुशी होती है कि मनुष्य की सकारात्मक सोच और सृजन के ज़रिये क्या क्या संभव हो सकता है अगर इसके लिए संसाधन हो, आर्थिक आधार हो और इमानदार तरीके से काम करने का, रिसर्च का माहौल हो तभी....

यहीं एक कोने मुझे  विलियम सरोयन की कहानी "Tracy's Tiger" दिखता  है, ये ब्लेक पैंथर कभी भूले से भी मारा न जाय. सरोवान की अटपटी, पगलेटी भरी कहानियों सा जीवीत रहे. भूले से भी किसी जानवर का वैसा अंजाम न हो जैसा  "टेरी थोमसन"  के प्राइवेट चिड़ियाघर के जानवरों का कुछ महीने पहले जेनेसविल, ओहायो में हुआ. टेरी थोमसन की कहानी, या कि न्यूयॉर्क के किसी फ्लेट में पाये गए  शेर की कहानी इसी बात का सबक है कि व्यक्तिगत प्रयास और सिर्फ व्यक्तियों का अपने स्तर पर जानवर प्रेम नाकाफी है कम से कम जानवरों की खुशहाली और संरक्षण के लिए. ये सामूहिक बड़ी जिम्मेदारी है.

चिड़ियाघर की उत्सुकता और देखने का रोमान कुछ घंटों में ही ध्वस्त हुआ, शाम तक का एक चर्चित वीडियो भारत के एक शहर जोधपुर के  सरकारी अस्पताल की आइ.सी.यु. का देखने को मिला, जिसमे भर्ती एक सत्तर साल के लकवाग्रस्त  मरीज़ को  चूहे नोचकर खा रहे है.   शाम को  एक पुराना मित्र कहता है कि "जो लोग देश से बाहर आ गए है, उन्हें पलटकर भारत के बारे में बुरी बातें नहीं कहनी चाहिए, सवाल खड़े नहीं करने चाहिए. इससे देश की इमेज खराब होती है". देश में रह रहे कितने-कितने दोस्त कहते है, कि "विरोध करने और सवाल उठाने की जगहें भारत के भीतर भी बची नहीं रह पा रही है. यहाँ रहना है तो बहुत चुप होकर रहना है, भले लोगों को, काम करने की चाहत रखने वाले नौजवानों को बहुत ज़िल्लत के साथ जीते रहना है.".

कहने की आजादी सो इन्टरनेट और सोशल नेट-वर्किंग साइट्स पर अभी हालिया सालों में आयी, उसके भी पर कतरने की कवायद दुनिया भर में अलग अलग तरह से शुरू हो गयी है. चीन में जहां इन्टरनेट एक तरह से पूरी निगरानी में है, कपिल सिब्बल भी भारत को उसी रास्ते ले जाना चाहते हैं, अमेरिकी सीनेट में आज इसी आज़ादी पर प्रतिबन्ध के लिए दो बिल बहस के लिए है..


Jan 12, 2012

कोरोनेडो आईलैंड

किसी शहर को जानने के लिए हफ्ता भर काफी नहीं होता कुछ महीने,  कुछ साल वहां रहने  की ज़रुरत बनती है, कि शहर आत्मा के भीतर किसी हिस्से में धडकता रहे, थोड़ी अपनी बैचैनी और ख़ुशी हम शहर के किसी हिस्से में छोड़ आयें. फिर भी किसी जगह होता है, बहुत थोड़ी देर को रहना, जानने की फुर्सत नहीं बनती, सिर्फ  वहां होना  हमारी आत्मा को कुछ शांत करता है. कुछ देर को दिमाग खाली हो जाता है, हर तरह के बोझ से मुक्त , उन्मुक्त, तसल्लीबख्श. डाउनटाउन सेन डियागो से करीब पांच मील की दूरी पर बसा  कोरोनेडो आईलैंड ऎसी ही जगह है. साफ़सुथरा, और खासकर जनवरी के इस महीने में बहुत कम भीड़ भरा, समुद्र तट मीलों तक फैला हुआ, बहुत महीन-मुलायम रेत, बरबस दौड़ाने का मन करता है, दूर तक देर तक. अब तक देखे सभी समुद्रतटों  में सबसे खूबसूरत...

जगह-जगह पर बड़ी चट्टानें इकठ्ठा है और उन्ही के बीच एक लड़की किसी किताब में डूबी है. बीच समंदर में दो घंटे से कोई आदमी एक ही जगह खडा-खडा क्लैम्स इकठ्ठा कर रहा है. मेरे दो बच्चों समेत चार पांच दुसरे बच्चें हैं, रेत और पानी के बीच दौड़ते-भागते-भीगते, पंख फैलाये कई सीगल गीली रेत में अपनी परछाइयों के साथ चलते, और आकाश में रह-रह कर मंडराता पुलिस का हेलिकोप्टर. रवि ने रेत पर अपना नाम लिखा है, "R"    मिरर  इमेज में, और पैर रेत में धंसाये समंदर से खेल करता है, तट पर लौटती लहरों के आगे भागता खुश-खुश. कुछ देर में एक सीपी लेकर आया है, जिसके भीतर जीवित मोलस्क है, सीपी को हाथ में पकड़कर इल्म होता है कि कोई हलचल है इसके भीतर, कोई नन्हा सा जीव सांस ले रहा है. जैसे ही इस जीव का ज़रा सा हिस्सा बाहर आता है, इसकी हरकत से सीपी के दो बंद कपाट बहुत हल्के से बस ज़रा से खुलते है, अच्चके में सीपी रवि के हाथ से गिरती है, फिर बंद हो जाती है, कुछ देर इसे लिए लिए घूमने के बाद समंदर की सौगात उसी को वापस. समंदर से झोला भर सीपीयाँ इकठ्ठा कर वो आदमी, इक्कीसवीं सदी का हंटर-गैदरर, अमेरिका के सबसे अभिजात्य इलाकों में शामिल इस एक इलाके से वापस घर लौट रहा है, उसके झोले में कितनी बड़ी-बड़ी सीपीयाँ, मन में ख़ुशी कितनी, क्या मालूम?