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Jun 1, 2013

आम के नाम


गाँव के बीचों बीच आम का बगीचा था— पुराना, पुराने पेड़ों, पुरानी मिट्टी और पूर्वजों के श्रम से सींचा हुआ, सुगन्धित , क्रिस्पी, खट्टे, मीठे, कितने-कितने स्वाद; लँगड़ा, दशहरी, चौसा, हिमसागर, मालदा, तोतापरी, रसालू, नीलम, फज़ली, सलीम, बम्बईयाँ, रतौल, केसर, रानीपसन्द,  सफेदा, सौरभ ..., 

गाँव का साँझा बगीचा,  जैसे जोत के बाहर डांडा की जमीन पर पसरा चारागाह, जैसे ढलानों पर घना जंगल, और बरसाती छोहों से फूटते पानी को इक्कठा करने वाली एक छोटी सी पत्थर मिट्टी की कूड़ी 'नाव'. ...

अमराई के झुरमुट में स्कूल की छुट्टी के दिनों, स्कूल से आने के बाद, गर्मियों के लम्बे दिनों में,  धुंधलके तक बच्चे खेलते. बसंत में आम की बौर आती और उसकी खुशबू में पूरा गाँव नहाया रहता, कोयल, पपीहा, और करेंत ... जाने किन किन चिड़ियों के बोल से अमराई के साथ पूरा गाँव गूंजता .. ,

कच्चे आम और सचमुच के खट्टे दांत, गुड़  की कट्की काटने में भी तकलीफ होती .. ..होती खुशी भी ..., क्या सेंसेशन था वो ?   महीने भर तक कच्चे आम की चटनी बनती, अचार बनता. भूनी हुयी कच्ची अमिया का पना,  कच्चे आमों के टुकड़ों की धूप में सूखती मालाएं,  आम का  छिलका और बीज सुखाकर चूर्ण बनता ...

पत् ....पत् ...पत्  आम गिरते, लपक लपक कर अपनी फ्रॉक और कुर्तों, कमीजों में अगोरकर बच्चे घर लाते. ठंडे पानी की बाल्टी में डुबोते,  आम चूसते,  आम की सख्त गुठली चूसते,  फिर आम की इस हड्डी पर कोयले से आँख मुंह बनाते, कभी एक छेद बना कर डंडी फंसा कर खड़ा करते, माँ की किसी फट गयी साड़ी के टुकड़े से  लपेटते और बनाते गुड्डे, गुड़िया, चोर, सिपाही, नट, नटनी ... 


गाँव-गाँव घूमकर आम की खरीदारी का सौदा पटाते कुंजड़े, बगीचे के आम खच्चरों पर लादकर ले जाते कुंजड़े, कोन लोग थे, कहाँ के थे . ...

बरसात के बाद  आम से बिघ्लाण पड़  जाती, स्वाद ख़त्म हो जाता,  फिर इतने झड़ते आम, झड़ते रहते बेख्याली में,  उन पर मक्खियाँ भिनभिनाती, आम सड़ते, बगीचे में केंचुएं रेंगते,  किसी कोने अजगर पसरा दिखता या सरसराता हुआ सांप.

 महीने भर बाद आम की सिर्फ गुठलियाँ नज़र आती, हर तरफ, फिर एक दिन इसी हड्डी  के बीच में एक सुराख से एक नन्हा हरा पोधा  झांकता, तब पता चलता की हड्डी नहीं थी आम की गुठली! ,  सीपी का खोल की दो परते थी,  उसमें भीतर भी एक नन्हा जीव था !


समय की किस बोतल में बंद ये  कौन देश के बिम्ब ........

5 comments:

  1. बड़ा ख़ास सा आम......

    सुन्दर!!!

    अनु

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  2. जीवन ऐसे ही झंकृत होता रहता है -यादें ताज़ा हुईं

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  3. आपकी पोस्ट पढ़कर स्व.सुमन सरीन की कवितायें याद आ गयीं:


    १.तितली के दिन,फूलों के दिन
    गुड़ियों के दिन,झूलों के दिन
    उम्र पा गये,प्रौढ़ हो गये
    आटे सनी हथेली में।

    बच्चों के कोलाहल में
    जाने कैसे खोये,छूटे
    चिट्ठी के दिन,भूलों के दिन।

    २.नंगे पांव सघन अमराई
    बूँदा-बांदी वाले दिन
    रिबन लगाने,उड़ने-फिरने
    झिलमिल सपनों वाले दिन।

    अब बारिश में छत पर
    भीगा-भागी जैसे कथा हुई
    पाहुन बन बैठे पोखर में
    पाँव भिगोने वाले दिन।

    ३.इमली की कच्ची फलियों से
    भरी हुई फ्राकों के दिन
    मोती-मनकों-कौड़ी
    टूटी चूड़ी की थाकों के दिन।

    अम्मा संझा-बाती करतीं
    भउजी बैठक धोती थीं
    बाबा की खटिया पर
    मुनुआ राजा की धाकों के दिन।

    वो दिन मनुहारों के
    झूलों पर झूले और चले गये
    वो सोने से मंडित दिन थे
    ये नक्सों-खाकों के दिन।

    -सुमन सरीन

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  4. अनुप जी आपका शुक्रिया, कविता के लिये दुबारा से शुक्रिया!

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