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Manila |
फिलीपींस से कई रिसर्चर्स कॉर्नेल आते रहते थे, हमारा अपार्टमेंट
एयरपोर्ट के पास था तो अक्सर लोगों को वहाँ से रीसीव करना और छोड़ने का मौका
रहा, बहुत से लोगों से बातें हुयीं. फिलीपींस से इस बार जब मुझे निमंत्रण
मिला तो वहाँ जाने का उत्साह कुछ वैसे ही था जैसे किसी परिचित जगह जाना
हो. हमेशा से जानती थी कि फिलीपींस के लोग बहुत मीठे और मित्रवत होते हैं,
अनौपचारिक और सह्रदय भी, लेकिन उनके सरकारी काम और ब्यूरोक्रेसी भी इससे
अछूती नहीं है, ये बात मुझे फिलीपींस के वीसा लेते समय महसूस हुयी.
फिलीपीनी सरकार ऍक्सपैट्रियेटस को दुसरे देशों के नागरिक बन जाने के बाद भी
अपने यहाँ पूर्ण
नागरिक अधिकार देती हैं, और उनके साथ अपने दूतावास के जरिये जीवंत सम्बंध
बनाये रखती है. पास के ही शहर में रहने वाले एक एक्सपेट्रियट फिलिपिनो
डॉक्टर फिलीपींस एम्बेसी के लिए डोक्युमेन्ट्स की जाँच करते है. मैंने
उन्हें फोन किया तो उन्होंने मुझे तीन दिन इंतज़ार करने की बजाय शनिवार को
घर पर ही बुला लिया. मैं फ़ाइल लेकर उनके घर पहुंची, डाइनिंग टेबल पर बैठकर
अप्लिकेशन को नोटराइज़ किया और तीस डालर की फीस के साथ फिलीपींस की
एम्बेसी भेज दिया. जब उन्हें पता चला कि मेरे पति और बच्चे बाहर कार में
बैठे हैं, तो उन्हें बुला लाये, और फिर बहुत देर तक दोनों पति,पत्नी पुराने
परिचितों की तरह बात करते रहे, आस-पास के शहरो के बीसीयों एशियन
ओर्गनज़ाइजेशनस में अपनी शिरकतों के बारे में बताते रहे.
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rice cakes |
मनीला
मेरा मनीला पहुंचना देर दोपहर में हुआ, मैंने एयरपोर्ट पर कुछ पेसो
खरीदे, और बाहर निकलते ही दो स्टूडेंट्स मिले जो मुझे लेने के लिए आये
थे. एयरपोर्ट से मेट्रो मनीला करीब घंटे भर का सफ़र था. शहर में खूब अच्छी
धूप थी, हवा में ट्रॉपिक की खुशबू भरी थी. शहर का बाहरी हिस्सा छोटे छोटे
घरों वाला कुछ हद तक भारत के किसी छोटे शहर के मानिंद कच्चे पक्के मकानों
से ठसाठस था, कहीं पलस्तर था, कहीं नहीं भी, मध्यवर्गीय, गरीब तबके की
रिहायश की ये मिलीजुली झांकी. इस सबके बीच फिर विनम्रता, सज्जनता की
लोगों पर छाप दिखती रही. एक तरह से ये भारत का ही कोई शहर हो सकता है,
गरीबी ने उनको अग्रेसिव नहीं बनाया, अपनी मनुष्यता को और सज्जनता को लोगों
ने और शायद इस पूरी संस्कृति ने बचा कर रखा है जो एक मायने में ठेठ एशियन
है. वो पश्चिमी परिष्कार नहीं है. भारत के पहाड़ों को जितना पहचानती हूँ,
गरीबी के बीच के इस परिष्कार को, इस सजन्नता को नजदीक से पहचानती हूँ.
यदा-कदा मेरा इससे लखनऊ में, गुजरात में भी सामना हुआ है और साऊथ इण्डिया
में भी.
लेकिन मनीला का दिल्ली से कोई साम्य नहीं है. दिल्ली बहुत उज्जड़ शहर है,
दिल्ली में (उसी तर्ज़ पर बाकी दुसरे उत्तर भारतीय शहरों में) टैक्सी वाले,
सामान उठाने वाले, सड़क पर सामान बेचनेवाले जिस तरह से टूरिस्टों,
यात्रियों और लोकल लोगों को तंग करते हैं, वैसा शायद दुनियाभर में कहीं
नहीं है, उस रेचेडनेस का ऑरिजिन गरीबी के अलावा जरूर कुछ दूसरी चीज़ है,
डेसपरेटनेस की परमानेंट छाप दिल्ली पर पड़ गयी है.
मेट्रो मनीला, जहाँ कोन्फेरेंस थी, एक दूसरी दुनिया थी, जैसे दूसरा मैनहैटन
या शिकागो डाउनटाउन, या फिर दुनिया का कोई भी धड़कता हुआ अमीर कोना,
बहुमंजिली इमारतों और रोशनी का अनवरत सिलसिला. पूरी दुनिया का बाज़ार, महंगे
होटलों, बिजनेस, और रेस्ट्रोरेन्स और मॉल की दुनिया. भारत समेत कई
दुसरे देशों से वैज्ञानिक बड़ी संख्या में मनीला आये थे, बहुत बड़ी संख्या
में एशियाई चहरे थे, इस लिहाज़ से भी ये मेरे लिए ये अलग अनुभव बना. बहुत से
लोगों के काम के बारे में जाना, दुनिया भर में उगाई जाने वाली धान की
प्रजातियों, उनकी खासियत, और समस्याओं के बारे में भी.
यहीं मुझे जे एन यु के भूतपूर्व प्रोफेसर प्रसन्ना मोहंती की मृत्यु के
बारे में पता चला. मन में एक उदासी भर गयी . भारत में जिन वैज्ञानिकों के
प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान रहा है, उनमें स्व. प्रसन्ना मोहंती का नाम
सबसे पहले आता है. एम. एस. सी. प्रथम वर्ष में उनसे हुयी एक दो
मुलाकातों का ही असर था कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच मेरा पी. एच.
डी. करने का इरादा बना, और बहुत बाद तक वो प्रेरणा सोत्र रहे. वो जितने
अच्छे वैज्ञानिक थे, उससे लाख गुना अच्छे इंसान भी थे. कुछ दिनों पहले
उन्हें जानने वाले दुसरे दोस्तों से मैंने बात की तो एक ने कहा वो एक 'मेल
एंजेल' थे. बहुत बड़ी छाया थी उनके स्नेह की, सब पर सामान. हालिया कुछ
वर्षों में उनसे मिलने के बारे में सोचती रही, लेकिन फिर भुवनेश्वर जाना
नहीं हुआ. शायद भारत में रहती तो उनसे कुछ और मुलाकातें मेरी होती, बहुत
से दुसरे मित्र सम्बन्धियों से भी होती रहती. अब सब्र कर जाती हूँ.
जलावतनी की कुछ कड़ी कीमत होती है.
कॉन्फ्रेंस में लगभग सौ से ज्यादा
खाने के आइटम रहते थे. जो बात थोडा मुझे चकित करती रही, कि सुबह के
नाश्ते
के समय, दाल-भात, रोटी, और कई तरह की वेजिटेरियन करी, मछली और मीटकरी भी
रहती थी. अमूमन ऑफिस निकलने के पहले लोग पूरा खाना खाते हैं. लंच
कुछ नास्ते की तरह करते हैं और फिर रात का खाना. एक भूला हुआ स्वाद
भी मिला,
बड़ा नीबू जिसे गढ़वाल में में चकोतरा और कुमायूं में गलगल कहते हैं,
कुछ मसालों के साथ सना हुआ मिला, भांग और भंगजीरे की जगह यहाँ मूंगफली थी.
मैंने हर दिन नास्ते में ये सना
नीबू खाया. डिनर का इंतज़ाम खुद करना होता था, तो लगभग हर शाम कुछ
पुरानी और कुछ नयी जान पहचान के लोगों के साथ मेट्रों मनीला के
रेस्ट्रोरेन्स में जाना हुआ. बहुत स्वादिस्ट खाना, प्लेट की जगह केले के
पत्ते पर परोसा हुआ, बहुत सफ़ाई और सुरुची के साथ मिला, और बहुत महंगा
नहीं, अलग अलग आर्डर के बजाय हम लोगों ने बहुत सी चीज़े मंगायी, मिलबाँट
कर खायी, हालाँकि मुझे जूठे से हमेशा परहेज रहा है, और जब
मेरे एक पुराने अमेरिकी दोस्त ने मेरा नारियल का पानी चखने के लिए माँगा,
तो मुझे उसे अपना जूठा न खाने का कॉन्सेप्ट बताना पड़ा, खूब मेरी टांग
खिंचायी हुयी, लेकिन फिर आप जो है, वो होते ही हैं, उसके साथ जब तक
इमेरजेंसी न हो क्यूँ कम्प्रोमाइज़ करना. पहले भी पुराने दोस्त कहते
थे
"चल तू पहले पी ले, फिर हमें दे देना'. उसने भी वही कहा.
कॉन्फ्रेंस के बाद, शुक्रवार की सुबह, ०५ नवम्बर को लगूना का
टूर था, सुबह साढ़े पांच बजे बस को रवाना होना था. देर रात तक कुछ
काम करती रही, फिर नींद नहीं आयी. सुबह पांच बजे तैयार होकर होटल
की लॉउंज में
पहुंची तो टूर कैंसिल हो गया था. घंटे भर दो तीन लोगों के साथ वहीँ बैठ कर
कुछ बात करती रही, मौसम का हालचाल और 'आई ऑफ ह्ययान' को फिलीपींस की
तरफ मूव होते देखती रही. फिर कुछ होश आया तो लगा कि कुछ देर सो जाऊं, कौन
जाने शाम तक क्या हो? कमरे में वापस गयी और दो घंटे के लिए सो गयी. उठी तो
पंकज का ईमेल था, और भी कुछ दोस्तों का जिन्हे मेरे मनीला में होने कि
जानकारी थी कि जल्दी से वहाँ से बाहर निकलो. वापस होटल के रेसेप्शन पर
पहुंची और उन्हें पूछा कि अगर तीन दिन के बाद तूफ़ान की वजह से यहाँ से
निकलना सम्भव न हुआ तो मेरी बुकिंग बढ़ा दें, या इसका प्रोविजन
रखे. होटल अगले दिन से किसी दूसरी कॉन्फ्रेंस के लिए बुक था. होटेल के
लोगों के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. पूरी शांति थी. वो इस इलाके में सेफ
थे.
फिलीपींस
घूमना नहीं हुआ, बल्कि घूम सकने की कोई सूरत बनती उससे पहले ही
समुद्री तूफ़ान हयान ने फीलीपींस को तहस नहस करने की ठान ली. ट्रेवल
एजेंट ढूँढा, किसी तरह हॉंगकांग की फ्लाइट बुक करायी. तूफ़ान के
मनीला पहुँचने के दो तीन घंटे पहले हॉंगकांग की फ्लाइट मिली. मेट्रो मनीला
से एयरपोर्ट जाते हुए टैक्सी से फिर मनीला देखा, टैक्सी ड्राईवर लोकल है ,
वो फिलीपींस के कई इलाकों के नाम लेता है जहाँ तहस नहस ज्यादा होगी,
लेकिन बहुत अधीरता और बैचैनी मुझे उसमें नज़र नहीं आती. उसे उम्मीद है कि
एयरपोर्ट के आसपास के इलाके में पानी भर जाएगा, कुछ दिन के लिए शायद
रास्ता बंद हो , लेकिन बड़ा नुकसान मनीला में नहीं होगा, एयरपोर्ट
पहुँचते-पहुँचते बारिश और तेज़ अंधड़ शुरू हो गया. एयरपोर्ट पर बड़ी भीड़
थी, मेरे आगे तीन बच्चे अपनी नानी के साथ, लगभग एक ही तरह के कपडे पहने,
खड़े थे. नानी को उम्मीद थी कि भीड़ में बच्चों को इस तरह पहचानने में उसे
सुविधा होगी, इन बच्चों की माँ सिंगापुर में काम करती है और हर हफ्ते
मनीला परिवार से मिलने आती है. आज नानी इन बच्चों के साथ सिंगापुर जा रही
है, और भी बहुत से बूढ़े लोग है जो लाइन में हैं, इनके बच्चे हांगकांग,
सिंगापुर में काम करते हैं.
बाहर हो रही बारिश और घिर रहे तूफ़ान से निसंग, एयरपोर्ट के भीतर सब
शांत था, फिलीपींस के हैंडीक्राफ्ट, लकड़ी का सामान, खस की बुनी हुयी
टोकरियाँ और मैट्स , सूखे आम, कटहल और केले की चिप्स थे, मूंगे और सीपी की ज्वैलरी
की दुकानें थी.
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Rice cake and rice balls |
अखबार से पता चला कि वर्ष २०१३ में १५ से ज्यादा तूफ़ान
फिलीपींस में आ चुके थे, ये शायद अठारहवाँ तूफ़ान था. समुद्री तूफानों से
सामना करना और फिर फिर लोगों का बस जाना वहाँ लगातार चलने वाली
प्रक्रिया है. अखबार पूरे साल में अब तक आये तूफानों से हुए नुकसान और
रिहेबलिटेशन के ब्योरों से भरा पड़ा था. फिर किसी फैशन शो की खबर थी, किसी
महिला राजनैतिज्ञ पर करप्शन का आरोप था, आरोप और प्रति आरोपों का सिलसिला
था.
हॉंगकांग
हॉंगकांग
रात नौ बजे पहुंची, करीब दो घंटे टर्मिनल एक से टर्मिनल दो के
बीच घूमती रही, कि वहाँ से घर जाने की सूरत निकले, या रात में किसी होटल
में रुकने की व्यवस्था हो सके. फ्रीपोर्ट पर
बिना वीसा के शहर में चले जाने के ख्याल से कुछ बैचैनी हुयी, एयरपोर्ट से
चीन के लिए सीधे ट्रैन खडी थी कुछ वैसे ही जैसे दिल्ली से देहरादून जाना
हो, गलती से सिटी ट्रेन में बैठने की बजाय चीन वाली ट्रैन में बैठने की
सम्भावना एक बार दिल में आयी. इस तरह की गलतियां जीवन में कुछ बार हो
चुकीं हैं, एक दफे दिल्ली से बरोड़ा जाने वाली जम्मूतवी एक्सप्रेस में
बैठने की बजाय प्लेटफॉर्म के दूसरी तरफ लगी जम्मू जाने वाली
जम्मूतवी एक्सप्रेस में बैठ ही गयी थी, गाड़ी चले के २ मिनट के भीतर ये
अंदाज हुआ कि गलती हुयी, ऑलमोस्ट धीमे चलती गाड़ी से अपने दो अटैचियों के
साथ छलांग लगायी ही थी. अब बीस वर्ष बाद किसी अनजान देश में इस तरह की हरकत
की सोचते भी दिल दहल जाता है.