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Aug 30, 2018

कई चाँद थे सरे आसमां

शम्सुर्ररहमान फारुकी का उपन्यास 'कई चाँद थे सरे आसमां' पढ़कर पिछले 3-4 दिन में ख़त्म किया. एक बार जो उठाई तो फिर छूटी नहीं. बहुत मुद्दत बाद हिंदी-उर्दू की की किसी किताब को पढ़कर मन इतना लाज़बाब हुआ...
यूँ 3 सालों से 750 पन्नों की इस किताब को हसरत से देख रही थी और मुनासिब मौक़ा लग नहीं रहा था. अच्छा होता कि कुछ फ़ारसी आती तो मज़ा कुछ और रहता, फ़िलहाल फ़ारसी से लबालब शेरों-शायरी को समझने की क़ाबिलयत का न होना कचोट रहा है.
किताब में १७ वीं-१९वीं सदी के बीच हिन्दुस्तानी इल्म, शायरी, चित्रकारी की दुनिया का तसव्वुर और उस समय की रिवायतों को सघन किस्सागोई में गूँथा हुआ है. मशहूर शायर नबाब मिर्ज़ा खां 'दाग़' की माँ, खूबसूरत वज़ीर खानम इस उपंन्यास की नायिका हैं, जिनका जी शेरो-शायरी में न सिर्फ धंसा रहता था, बल्कि खुद आला दर्ज़े की शायरा थीं. दिल्ली-जयपुर-दिल्ली-रामपुर-दिल्ली में उनकी चार अलग-अलग तरह की घर गृहस्थी और फिर बादशाह जफ़र की बहु तक का सफर बेहद दिलचस्प है. तमाम आफ़तों के बीच भी, बेहद खुद्दार और समय से आगे की इस औरत ने बार-बार बर्बादी के बाद फिर-फिर अपने बूते बुलंदी हासिल की, और उसके जीवन जीने में उसकी मर्ज़ी शामिल रही. औरत का इस तरह का समृद्ध अनुभवों का जीवन किस्से कहानियों में भी अपवाद ही है.
वज़ीर खानम का ऐसा जीवन उनकी व्यक्तिगत खासियत के अलावा इसलिए भी संभव हुआ क्यूंकि मुसलामानों में शादी के लिए औरत की मंजूरी, मेहर का रिवाज़ और क़ानून में औरत के नाम पर जायजाद का होना, और विधवा के लिए फिर-फिर घर बसा लेने का विकल्प समाज में स्वीकृत था.
बरबस ओरहान पामुक की 'माई नेम इज़ रेड' की याद आती है. वहाँ जैसी महीन गुफ़्तगू पेंटिंग्स पर है, उसी दर्जे की बारीक गुफ़्तगू शायरी पर शम्सुर्ररहमान फारुकी ने 'कई चाँद थे सरे आसमां' में बुनी है. और ओरहान की शक़ूर और फारुकी की वज़ीर खानम एक जैसी नहीं तो बहने ज़रूर लगती हैं. दोनों में ख़ुद्दारी, और सेल्फ़ डिटरमिनेशन की जो लौ है लगभग एक जैसी है.
उस जमाने को याद करते हुए, सतही तौर पर 'गोन विद द विंड' की नायिका स्कार्लेट ओ' हारा की बरबस याद आती है, लेकिन स्कार्लेट वज़ीर खानम के २०-३० वर्ष बाद हुई. अपनी खूबसूरती और हिम्मत में भले ही दोनों के किरदार में समानता हो, ज़हनियत में कोई समानता नहीं है. स्कार्लेट जहाँ लिटरल और गहरी गुफ़्तगू में नाक़ाम और सौंदर्यबोध में पैदल दिखतीं हैं वहीँ वज़ीर खानम आला दर्ज़े की नफ़ासतपसंद, और बौद्धिक रूप से बेहद संजीदा व भरपूर हैं. हालाँकि स्कार्लेट जैसी इंटरप्राइज़िंग वज़ीर नहीं थी. शायद इस तुलना का कोई बहुत मतलब नहीं हैं, चूँकि दोनों दो अलग-अलग सभ्यताओं की उपज थीं.
अच्छी किताबें पाठक को एक से निकल कर दूसरी में और फिर तीसरी में और चौथी में धकेलने का सिलसिला चलाए रखती हैं जैसे वो एक ही शहर की गलियों में रास्ता भूला घूमता फिरे. मेरा मन भी अभी जाने कहाँ -कहाँ किन भूली गलियों में मुझे लेकर जाएगा.