घुघूती जी ने छद्मनाम से लिखने पर एक बेहतरीन पोस्ट लिखी है।
परन्तु छद्मनाम से लिखने की परम्परा पुरानी और हिन्दी और संस्कृत मे तो और भी ज्यादा पुरानी है।
जरा इन नामो पर गौर फरमाए और बताये की इन लेखको/साहित्यकारों का असली नाम क्या था?
१। कालिदास
२। तुलसीदास
३.मुंशी प्रेमचंद (नबाबराय)
४। घाघ
५। सुमित्रानंदन पन्त
६। निराला
७। अज्ञेय
८। मुद्राराक्षस
९। अश्वघोष
१०। महाकवि भृत हरी
११। बाण भट्ट
१२। राहुल सान्कार्तायन
"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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Apr 25, 2009
Apr 22, 2009
पृथ्वी दिवस:,निकोलाई को श्रदांजली/ असफल स्टालिन ,
पिछले चार दिनों से "पृथ्वी दिवस" यानी अर्थ डे मनाया जा रहा है अपने-अपने तरीके से। हमारी इस प्यारी धरती की एक बड़ी सौगात है जीवन की उत्पत्ति और उसकी विविधता, वों भी इतनी की आजतक इस सारी विविधता को मनुष्य समेट नही सका है। इतना ज़रूर है की दिन-प्रतिदिन, मुनाफाखोरी की फितरत मे ये विविधता रोज़ कुछ कम हो जाती है। आधुनिक खेती के तरीके ले-दे कर पूरी दूनिया मे एक से होते जा रहे है, जो प्रकृति के सम्पूर्ण दोहन पर आधारित है। और इस अनमोल खजाने मे से केवल उन्ही जीवो की जाती बची रह जायेगी जिससे मनुष्य को तात्कालिक और ज्यादा मात्रा मे फायदा हो।
इस दिन दिमाग मे एक मनुष्य जो बार-बार याद आता है वों है निकोलाई वाविलोव और उसके तमाम दूसरे साथी, जिन्होंने १०० साल पहले दूनिया के विभिन्न हिस्सों से बीज संग्रहित किए, पहला "सीड बैंक" बनाया और अपनीजान देकर भी पृथ्वी की एक अमूल्य धरोहर २००,००० बीजो को बचाया। निकोलाई ने जिस समय बीजो को ईकठ्ठा करना शुरू किया उस वक़्त तक genetics जानकारी बहुत सीमित थी. कुछ ही वर्ष हुए थे मेंडल की खोजो को मान्यता मिले हुए. और उसके करीब ४० साल के बाद डीएनए की जेनेटिक मटेरिअल सिद्द होने तक निकोलाई की मौत हो चुकी थी।
पर निकोलाई पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने जैव विविधता को मनुष्य मात्र की अमूल्य धरोहर के बतौर पहचाना, विभिन्न फसलो के उदय और दूनिया के उन हिस्सों की शिनाक्त की जहा ये फासले मानव ने पहले पहल उगाई और लगातार अचेतन रूप से ऐसे गुणों के लिए चुना पीढी दर पीडी की इन फसलो का मजुदा रूप सामने आया। दूनिया के इन हिस्सों को जह्ना कोई फसल domesticate हुयी वहा उसका उत्पत्ति केन्द्र माना जाता है। निकोलाई ने विभिन्न फसलो के उत्त्पती केन्द्रों को सूचीबद्ध किया, और बहुत से 'वीड और वाईल्ड प्रजातियों के बीजों को भी संगृहीत किया। आज यही संग्रह हमारी फसलो को बदलते पर्यावरण, रोज़-ब-रोज़ बदलते हुए जीवाणु व् दूसरे परजीवियों से बचने की राह बन गए है।
निकोलाई जिन दिनों ये महत्त्वपूर्ण काम कर रहे थे वों रूस की सर्वहारा क्रांती और दो विश्व्युद्दो के बीच उथल-पुथल का ज़माना था। स्टालिन के सत्तासीन होने के बाद, रूसी विज्ञान की अपूरणीय क्षति हुयी। युद्द और अकाल से घिरे रूस मे स्टालिन विज्ञान मे चमत्कार जैसा कुछ चाहता था। Trofim Lysenko ने झूठ की बुनियाद पर हवामहल खड़े किए और स्टालिन को जो चमत्कार चाहिए थे, उनका वादा किया। उसका दावा था की बीजों को बोने से पहले ठंडे पानी मे भीगाकर उन्हें इस लायक बनाया जा सकता है की वों कड़क ठण्ड मे उग सके। और सिर्फ़ भोगोलिक बदलाव पोधो की उपज को बढ़ाने के लिए काफी है। वविलोव और उनके सहयोगियों ने ल्य्सेंको के इन झूठो का प्रतिकार किया, और इस एवज मे कई प्रतिभावान वैज्ञानिक, और वविलोव को देशद्रोह के आरोप मे जेल, प्रताड़ना, और मौत मिली। ये एक ऐसे वैज्नानिक की कहानी है, जिसने सत्य के लिए, प्रोफेशनल इंटीग्रिटी के लिए और मानव मात्र की भलाई के लिए अपने प्राण दाव पर लगाए।
वोविलोव का एक दुर्लभ वीडियो अपलोड कराने की कोशिश कर रही हूँ। फिलहाल सफलता नही मिल रही है। .....
इस दिन दिमाग मे एक मनुष्य जो बार-बार याद आता है वों है निकोलाई वाविलोव और उसके तमाम दूसरे साथी, जिन्होंने १०० साल पहले दूनिया के विभिन्न हिस्सों से बीज संग्रहित किए, पहला "सीड बैंक" बनाया और अपनीजान देकर भी पृथ्वी की एक अमूल्य धरोहर २००,००० बीजो को बचाया। निकोलाई ने जिस समय बीजो को ईकठ्ठा करना शुरू किया उस वक़्त तक genetics जानकारी बहुत सीमित थी. कुछ ही वर्ष हुए थे मेंडल की खोजो को मान्यता मिले हुए. और उसके करीब ४० साल के बाद डीएनए की जेनेटिक मटेरिअल सिद्द होने तक निकोलाई की मौत हो चुकी थी।
पर निकोलाई पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने जैव विविधता को मनुष्य मात्र की अमूल्य धरोहर के बतौर पहचाना, विभिन्न फसलो के उदय और दूनिया के उन हिस्सों की शिनाक्त की जहा ये फासले मानव ने पहले पहल उगाई और लगातार अचेतन रूप से ऐसे गुणों के लिए चुना पीढी दर पीडी की इन फसलो का मजुदा रूप सामने आया। दूनिया के इन हिस्सों को जह्ना कोई फसल domesticate हुयी वहा उसका उत्पत्ति केन्द्र माना जाता है। निकोलाई ने विभिन्न फसलो के उत्त्पती केन्द्रों को सूचीबद्ध किया, और बहुत से 'वीड और वाईल्ड प्रजातियों के बीजों को भी संगृहीत किया। आज यही संग्रह हमारी फसलो को बदलते पर्यावरण, रोज़-ब-रोज़ बदलते हुए जीवाणु व् दूसरे परजीवियों से बचने की राह बन गए है।
निकोलाई जिन दिनों ये महत्त्वपूर्ण काम कर रहे थे वों रूस की सर्वहारा क्रांती और दो विश्व्युद्दो के बीच उथल-पुथल का ज़माना था। स्टालिन के सत्तासीन होने के बाद, रूसी विज्ञान की अपूरणीय क्षति हुयी। युद्द और अकाल से घिरे रूस मे स्टालिन विज्ञान मे चमत्कार जैसा कुछ चाहता था। Trofim Lysenko ने झूठ की बुनियाद पर हवामहल खड़े किए और स्टालिन को जो चमत्कार चाहिए थे, उनका वादा किया। उसका दावा था की बीजों को बोने से पहले ठंडे पानी मे भीगाकर उन्हें इस लायक बनाया जा सकता है की वों कड़क ठण्ड मे उग सके। और सिर्फ़ भोगोलिक बदलाव पोधो की उपज को बढ़ाने के लिए काफी है। वविलोव और उनके सहयोगियों ने ल्य्सेंको के इन झूठो का प्रतिकार किया, और इस एवज मे कई प्रतिभावान वैज्ञानिक, और वविलोव को देशद्रोह के आरोप मे जेल, प्रताड़ना, और मौत मिली। ये एक ऐसे वैज्नानिक की कहानी है, जिसने सत्य के लिए, प्रोफेशनल इंटीग्रिटी के लिए और मानव मात्र की भलाई के लिए अपने प्राण दाव पर लगाए।
वोविलोव का एक दुर्लभ वीडियो अपलोड कराने की कोशिश कर रही हूँ। फिलहाल सफलता नही मिल रही है। .....
Apr 19, 2009
Apr 2, 2009
यादो के झरोखे से हॉस्टल एक बार फ़िर
कभी-कभी दिल यु भी उजाड़ होता है, और स्मृति के झरोखों से रह-रह कर , बात-बेबात कितने तो लोग याद आते है। स्मृतिया एक दूसरे मे गड्ड -मड हो जाती है, जैसे सबको बहुत जल्दी है दिमाग के मर्तबान से बाहर निकलने की। जीवन का एक बड़ा वक़्त हॉस्टल मे गुजरा है, और कई चहरे आज भी जस के तस् याद है। एक मुद्दत के बाद इल्म होता है की अपने बनने-बिगड़ने की ज़द्दोजहद मे अचानक ही आए और गुम हो गए इन चेहरों का भी चाहे अनचाहे कुछ तो योगदान है।
वडोदरा प्रवास के दिनों मे हमारे १४ सहपाठियों मे सिर्फ़ एक ही थी जिसका घर था, बाकी सब होस्ट्लर्स। हम १३ उसकी तरफ़ (बल्कि उसके घर की तरफ़) बड़ी हसरत से देखते थे और वों घर से निकलकर हॉस्टल मे रहने के अवसर. गरमी की दोपहरों मे जब बत्ती गुल हो जाती थी, और इम्तेहान सर पर हॉस्टल मे रहना बेहद मुश्किल हो जता था। बरोड़ा की एकमात्र नेमत कमाटी बाग़ ऐसे दिनों मे एक मात्र जगह होती थी हॉस्टल के पास जह्ना जाकर चैन से बैठा जा सकता था। पढा भी जा सकता था। और हिन्दी हार्टलैंड की तरह शोहदों का डर नही सताता था। हमारी वों मित्र जिनका घर शहर मे था, अक्सर मेरे कमरे मे आकर रहती थी, खासतौर पर घर के अकेलेपन से ऊबकर शायद। और मै हॉस्टल की भीड़ और कुछ हद तक अनियंत्रित भीड़ जो बिन बुलाए मेरे कमरे मे आवाजाही करती थी, किसी भी पहर से पीछा छुडाने की फिराक मे रहती थी। ऐसे दिनों मे जब हम दोनों कमाटी बाग़ मे अपनी किताबे और नोट्स लेकर रटने बैठते, तो मुझे दीवार या झाडी की तरफ़ देखना होता, ताकी कोई न दिखे, और मेरी मित्र को काला घोडा के चौराहे की आवाजाही। इतने विपरीत होते हुए भी गजब का याराना था ओर कंट्रास्ट भी। मेरी मित्र भीड़ को देखना पसंद करती थी, पर भीतर से अपने को जैसे एक शीशे की दीवार मैं कैद रखती थी। लोगो से एक भावनात्मक जुडाव उनके लिए सहज नही था। मेरे जैसे अंतर्मुखी लोग जो बेवजह दखल-अंदाजी नही करते थे, उनके लिए सेफ डोमेन थे। मेरा स्वभाव उन दिनों बिल्कुल उलट था। बहुत कम लोगो से जुडाव होता था, पर अपनी तरफ़ से बहुत गहरा। भीतरी और बाहरी दूनिया का सामंजस्य बिठाने के लंबे प्रयास/प्रयोग मे मेरी मित्र मेरे लिए अवचेतन मे एक ध्रुव का (कंट्रोल) काम अब भी करती है।
बरोड़ा मे ही हॉस्टल मे कुछ ऐसे लोगो से भी दोस्ती हुयी, अक्सर तो खाने की मेज़ पर या टीवी रूम मे, जिनका दिल बड़ी ईमानदारी से सामाजिक सरोकारों से जुड़ा था। कुछ न कुछ करने का एक जनून हमेशा बना रहता था। कुछ फाइन आर्ट्स वाले विधार्थी भी थे, जिनका बेहतरीन काम और उसको करते हुए देखने का सौभाग्य भी शायद हॉस्टल मे रहने की वजह से ही मिला। कभी-कभी दिल यु भी उजाड़ होता था और सहपाठियों के साथ एक cut throat कम्पीटीशन के दिनों सहज आत्मीयता और विश्वाश भी किनारे लग जाता था, ऐसे दिनों मे दूसरे फील्ड के दोस्त बड़े सुकूनदेह होते थे।
सहपाठियों से कुछ हद तक उस जमाने लगता था की रिश्तेदारी सी है. मानो न मानो निजात नही मिलने वाली. उनके साथ दोस्ती और उसकी गहराई की समझ बरोड़ा छोड़ने के एक अरसे के बाद हुयी।, और सिबलिंग इफेक्ट इतने दिनों बाद फ़िर सर उठा देता है. पर इन्ही के साथ औरतपने और मर्द्पने से ऊपर उठकर एक व्यक्ति के बतौर दोस्ती और उसका मान भी मिला। एक मर्तबा रिसर्च थीसिस पर काम करने के चक्कर मे हमारे विभाग की लड़कियों ने कई दिनों तक देर रात गए लौटने की लगातार परमीशन ली, जो बड़ी ओफ्फिशियल होती थी, और विभागाद्यक्ष के हस्ताक्षर उसमे होते थे। और घर जाने से पहले हमारे गुरूजी ये तय करके जाते थे, की देर रात गए लड़कियों को हॉस्टल छोड़ने कोन जायेगा। पर हॉस्टल के वार्डन ठनक गए। अगले दिन तय हुया की सभी छात्राए चीफ वार्डन के ऑफिस मे जाकर धरना देंगी। हम लोग सुबह-सुबह लाइन मे खड़े चीफ वार्डन का इंतज़ार कर ही रहे थे। कि हमारे सहपाठी लडके भी साथ मे आकर खड़े हो गए। उन्होंने वार्डन के उस रिमार्क को व्यक्तिगत अपमान की तरह लिया कि सारी परेशानी ये है कि लड़कियों को रात गए लडके हॉस्टल पहुंचाने आते है। इस घटना को आज भी बेहद मान के साथ हम लोग याद करते है। कईलगातार मलेरिया की चपेट मे आकर बारी-बारी कई सहपाठी अस्पताल मे दाखिल हुए, और घर-परिवार से बहुत दूर सिर्फ़ अपने सहपाठी या जूनियर या सीनियर काम आए। कभी बहुत खुशी का मौका हुया तो केम्पस कोर्नर का नीबू-पानी चलते-चलते.
वों भरोसा और वों दोस्ती ही है, कि कभी किसी शहर मे जाना हुया तो भले ही १०-२० मिन लेकिन उन दोस्तों से मिलना टॉप प्राथिमिकता लिए रहता है।
वडोदरा प्रवास के दिनों मे हमारे १४ सहपाठियों मे सिर्फ़ एक ही थी जिसका घर था, बाकी सब होस्ट्लर्स। हम १३ उसकी तरफ़ (बल्कि उसके घर की तरफ़) बड़ी हसरत से देखते थे और वों घर से निकलकर हॉस्टल मे रहने के अवसर. गरमी की दोपहरों मे जब बत्ती गुल हो जाती थी, और इम्तेहान सर पर हॉस्टल मे रहना बेहद मुश्किल हो जता था। बरोड़ा की एकमात्र नेमत कमाटी बाग़ ऐसे दिनों मे एक मात्र जगह होती थी हॉस्टल के पास जह्ना जाकर चैन से बैठा जा सकता था। पढा भी जा सकता था। और हिन्दी हार्टलैंड की तरह शोहदों का डर नही सताता था। हमारी वों मित्र जिनका घर शहर मे था, अक्सर मेरे कमरे मे आकर रहती थी, खासतौर पर घर के अकेलेपन से ऊबकर शायद। और मै हॉस्टल की भीड़ और कुछ हद तक अनियंत्रित भीड़ जो बिन बुलाए मेरे कमरे मे आवाजाही करती थी, किसी भी पहर से पीछा छुडाने की फिराक मे रहती थी। ऐसे दिनों मे जब हम दोनों कमाटी बाग़ मे अपनी किताबे और नोट्स लेकर रटने बैठते, तो मुझे दीवार या झाडी की तरफ़ देखना होता, ताकी कोई न दिखे, और मेरी मित्र को काला घोडा के चौराहे की आवाजाही। इतने विपरीत होते हुए भी गजब का याराना था ओर कंट्रास्ट भी। मेरी मित्र भीड़ को देखना पसंद करती थी, पर भीतर से अपने को जैसे एक शीशे की दीवार मैं कैद रखती थी। लोगो से एक भावनात्मक जुडाव उनके लिए सहज नही था। मेरे जैसे अंतर्मुखी लोग जो बेवजह दखल-अंदाजी नही करते थे, उनके लिए सेफ डोमेन थे। मेरा स्वभाव उन दिनों बिल्कुल उलट था। बहुत कम लोगो से जुडाव होता था, पर अपनी तरफ़ से बहुत गहरा। भीतरी और बाहरी दूनिया का सामंजस्य बिठाने के लंबे प्रयास/प्रयोग मे मेरी मित्र मेरे लिए अवचेतन मे एक ध्रुव का (कंट्रोल) काम अब भी करती है।
बरोड़ा मे ही हॉस्टल मे कुछ ऐसे लोगो से भी दोस्ती हुयी, अक्सर तो खाने की मेज़ पर या टीवी रूम मे, जिनका दिल बड़ी ईमानदारी से सामाजिक सरोकारों से जुड़ा था। कुछ न कुछ करने का एक जनून हमेशा बना रहता था। कुछ फाइन आर्ट्स वाले विधार्थी भी थे, जिनका बेहतरीन काम और उसको करते हुए देखने का सौभाग्य भी शायद हॉस्टल मे रहने की वजह से ही मिला। कभी-कभी दिल यु भी उजाड़ होता था और सहपाठियों के साथ एक cut throat कम्पीटीशन के दिनों सहज आत्मीयता और विश्वाश भी किनारे लग जाता था, ऐसे दिनों मे दूसरे फील्ड के दोस्त बड़े सुकूनदेह होते थे।
सहपाठियों से कुछ हद तक उस जमाने लगता था की रिश्तेदारी सी है. मानो न मानो निजात नही मिलने वाली. उनके साथ दोस्ती और उसकी गहराई की समझ बरोड़ा छोड़ने के एक अरसे के बाद हुयी।, और सिबलिंग इफेक्ट इतने दिनों बाद फ़िर सर उठा देता है. पर इन्ही के साथ औरतपने और मर्द्पने से ऊपर उठकर एक व्यक्ति के बतौर दोस्ती और उसका मान भी मिला। एक मर्तबा रिसर्च थीसिस पर काम करने के चक्कर मे हमारे विभाग की लड़कियों ने कई दिनों तक देर रात गए लौटने की लगातार परमीशन ली, जो बड़ी ओफ्फिशियल होती थी, और विभागाद्यक्ष के हस्ताक्षर उसमे होते थे। और घर जाने से पहले हमारे गुरूजी ये तय करके जाते थे, की देर रात गए लड़कियों को हॉस्टल छोड़ने कोन जायेगा। पर हॉस्टल के वार्डन ठनक गए। अगले दिन तय हुया की सभी छात्राए चीफ वार्डन के ऑफिस मे जाकर धरना देंगी। हम लोग सुबह-सुबह लाइन मे खड़े चीफ वार्डन का इंतज़ार कर ही रहे थे। कि हमारे सहपाठी लडके भी साथ मे आकर खड़े हो गए। उन्होंने वार्डन के उस रिमार्क को व्यक्तिगत अपमान की तरह लिया कि सारी परेशानी ये है कि लड़कियों को रात गए लडके हॉस्टल पहुंचाने आते है। इस घटना को आज भी बेहद मान के साथ हम लोग याद करते है। कईलगातार मलेरिया की चपेट मे आकर बारी-बारी कई सहपाठी अस्पताल मे दाखिल हुए, और घर-परिवार से बहुत दूर सिर्फ़ अपने सहपाठी या जूनियर या सीनियर काम आए। कभी बहुत खुशी का मौका हुया तो केम्पस कोर्नर का नीबू-पानी चलते-चलते.
वों भरोसा और वों दोस्ती ही है, कि कभी किसी शहर मे जाना हुया तो भले ही १०-२० मिन लेकिन उन दोस्तों से मिलना टॉप प्राथिमिकता लिए रहता है।
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