"When we use our native language, a torrent of words flows into and out of brain. The occasional frustration of having a word stuck on the tip of the tongue, the slow ordeal of composing a passage in a foreign language, and the agony of a stroke victim struggling to answer a question reminds us that our ordinary fluency with language is a precious gift."-- in 'Words and Rules' ----Steven Pinker
घर की दहलीज़ के भीतर बोलना गढ़वाली में सीखा, हिन्दी भी वहीं थी आँगन में खड़ी, बारादरी की बहसों के बीच, पड़ोस के घर में, रेडियो पर बजती. फिर लिखना-पढ़ना, ठीक से सोचना इसी हिन्दी भाषा में सीखा, गढ़वाली घर के भीतरी कोनों में खिसकती चली गयी, कहीं याद में बिना शब्दों के मीठी तान बजती, स्वर धीरे से खो गए. इतना याद रहा क़ि इस भाषा को सुनते हुए लगता कि स्वर और शब्द साथ-साथ रोतें है, हँसतें है, गढ़वाली में बात करना ऐसे, जैसे कोई लगातार गाने का रियाज़ हो, उसकी लय में ही उदासी, उल्लास, बैचैनी सारे भाव इतनी आसानी से घुले रहते की शब्दों को भी पकड़ने की ज़रुरत नहीं पड़ती. शब्द और भावों की भिडंत न होती, आर-पार सब पारदर्शी .....
हिंदी की मुख्यधारा का दबाव होगा, या सबके बीच घुलमिल जाने की चाह, भीड़ के बीच अलग से इंगित होने का डर, या सबका मिला जुला असर, गढ़वाली भाषा का संगीत मेरे स्वर से हमेशा के लिए जुदा हो गया, उसकी जगह सपाट, बिना उतार चढ़ाव वाली, खड़ी बोली घर कर गयी. कोई उतार चढ़ाव स्वर में नहीं, निस्संग भाषाई संस्कार, जैसे बात करने वाला जो है, उसकी अपनी कही बात के साथ ही कोई रिश्ता नही. वापस पलटकर गढ़वाली बोलने की कोशिश करती हूँ तो सबसे पहले मेरी माँ को अटपटा लगता है, ये स्वर गढ़वाली नहीं रहे, रूखे है, लय से इनका सामंजस्य नहीं है. वो मुझसे कहती है, तू हिंदी ही बोल...
पिछले वर्ष देहरादून के आस-पास के गाँवों में गयी तो कुछ गढ़वाली गाँवों में सभी बच्चे हिंदी बोलते दिखे, किसी को गढ़वाली नहीं आती थी. देहरादून की नजदीकी बसावट के ये गाँव शायद कई पीढ़ी पहले अपनी भाषा भूल गए होंगे. इनके लिए कठ्मोली या इसी तरह का कोई शब्द चलन में है. भाषा हिन्दी है, पर इन सबके स्वर न खड़ी बोली वाले है, न ही गढ़वाली की मिठास है कहीं, बरेली, सहारनपुर के चूड़ी बेचनेवालों, और गरीब मुसलमान कारीगर तबके के स्वर इनकी भाषा में बजते हैं.
पिछले वर्ष देहरादून के आस-पास के गाँवों में गयी तो कुछ गढ़वाली गाँवों में सभी बच्चे हिंदी बोलते दिखे, किसी को गढ़वाली नहीं आती थी. देहरादून की नजदीकी बसावट के ये गाँव शायद कई पीढ़ी पहले अपनी भाषा भूल गए होंगे. इनके लिए कठ्मोली या इसी तरह का कोई शब्द चलन में है. भाषा हिन्दी है, पर इन सबके स्वर न खड़ी बोली वाले है, न ही गढ़वाली की मिठास है कहीं, बरेली, सहारनपुर के चूड़ी बेचनेवालों, और गरीब मुसलमान कारीगर तबके के स्वर इनकी भाषा में बजते हैं.
अंग्रेजी जीवन में सबसे बाद में दाख़िल हुयी, एक तरह से कॉलेज़ पहुँचने के बाद की भाषा, ज़रूरी भाषा, वो परिवेश की भाषा न थी, बर्ताव की भी नहीं, लगातार रट लेने वाली भाषा थी. सिर्फ स्मृति की भाषा, बाद में परिवेश की, काम-काज की भाषा बनी. खड़ी बोली का सपाटपन अंग्रेजी के पाश्र्व में मौजूद रहता है. और सहमापन, अटपटापन भी किसी कोने छिपा रहता है, जो हाव-भाव के साथ सहजता बनने नहीं देता, अचानक से इस भाषा में कोई चुहल नही सूझती, कोई मुहावरा, कोई कहावत, कोई लोकोक्ति यूं ही नहीं टपकती. इन सबका रियाज़ करना पड़ता है. मेरे स्वर, शब्द और भाव तीनों में कोई भीतरी, आत्मीय संगत नही है. अंग्रेजी पर सचेत और अचेत दोनों तरह से अमेरिकनाइज़्ड एक्सेन्ट की परत चढ़ गयी है, लेकिन मूल हाव-भाव के साथ उसका सहज मिलाप नहीं ही हुआ है.
अब इतने बरसों बाद भी, न पढ़ी और लिखी गयी और न बरती गयी गढ़वाली भाषा की मिठास जबकि अब भी मेरे चेतन अवचेतन में बसती है. पहली भाषा, परिवार की और विरासत की अंतरंग भाषा और मादरीजबां इतनी आसानी से नहीं छूटती ....
भाषाओँ की सहज संगत होना सिर्फ भाषा का मामला भर नहीं है, सभ्यता का मामला है, सत्तातंत्र के भीतर भाषाओं की हायरार्की का मसला है, एक समान्तर जाति-व्यवस्था, समाजशास्त्र की बात है. किसी भी भाषा के साथ दोस्ती होने के पहले ही आम लोग सत्ता के समीकरणों से सहम जाते है. क्षेत्रीय भाषा हिंदी के आगे, हिंदी अंग्रेजी के सामने. हमारी शिक्षा प्रणाली सिर्फ इस व्यवस्था को बनाए रखने का, इन मूल्यों की कन्फरमिटी का टूल है. शिक्षा हमें सिर्फ जो भी चालू व्यवस्था है उसीके बीच पैठ बना लेने की समझ देती है, आजादी और जनतांत्रिक तरीके से कुछ नया सीखने-रचने का शऊर, सहज बने रहने का हौसला, नहीं देती.
मेरे लिए हिन्दी ही पढने लिखने की सीखने की, सोचने की पहली भाषा रही, इस लिहाज़ से सारी बाक़ी भाषाओँ से मेरी नजदीकी भाषा है. हिंदी फिर रोज़गार की भाषा न रही, काम की भाषा भी नहीं, और पिछले कई सालों से परिवेश की भाषा भी नहीं. हिंदी में गाहे-बगाहे लिखते रहना, हिंदी पढ़ते रहना भाषा के साथ अपनी आत्मीयता को बचाए रखने की कोशिश है. इस कोशिश इतर भी कोशिश है कि किसी तरह से शब्द, स्वर और लय की संगत भी इसी भाषा में ठीक से ढूंढी जाय.
खड़ी बोली इतनी सपाट है, हमेशा लय के खो जाने का अहसास बना रहता है, हमेशा लगता है कोई सुरीली संगत काश इस भाषा में संभव हो. सिर्फ गढ़वाली ही नहीं, शायद सभी क्षेत्रीय बोलियाँ हिन्दी में कुछ सुरीलेपन को घोल सकती है. इसे कुछ जीवंत बना सकती है. कुछ सहोदर रिश्ता हिन्दी का बोलियों के साथ हो, दूसरी भारतीय भाषाओँ के साथ हो...