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Nov 24, 2024

विजय गौड़ (16 May-1968--20 November 2024 )

विजय गौड़ नहीं रहे। यह बात मेरे ख़याल में बैठ नहीं रही है कि विजय से अब फिर कभी मुलाक़ात नहीं हो सकेगी... विजय के कई रूप थे, लेखक, कवि, आलोचक, उपन्यासकार, ब्लॉगर, घुम्मक्कड़, और रंगकर्मी। कई मोर्चों पर सक्रिय और उत्साह से भरा हुआ. विजय से मेरा परिचय नवीन भाई ने करवाया था। विजय से मेरी पहली मुलाक़ात 2010 में देहरादून में हुई थी। विजय अपने ऑफिस के बाद शाम को मेरे घर मिलने के लिये आये थे, बाहर बारिश हो रही थी, लेकिन विजय ने कुछ भी परवाह न की थी। हम लोग बिना किसी औपचारिकता के साहित्य, समाज, पहाड़, घुमक्कड़ी आदि पर बात करते रहे। उसके बाद यदि मैं देहरादून जाती और विजय वहाँ होते तो ज़रूर हमारी मुलाक़ात होती थी, बीच में वह कलकत्ता में थे तो ईमेल से संवाद या फिर कभी कभार फ़ोन पर बात होती थी।
विजय से ऐसी सहज बातचीत, सीधी सटीक, शालीन, बिना किसी द्वन्द-फन्द के, बिना औपचारिकता के, बराबरी पर। गिनने लगूँ तो मेरे हमउम्रों में जिनकी हिन्दी साहित्य और समाज में रुचि है, चार लोग भी विजय जैसे मुझे नहीं मिले। विजय की मुझे दो तीन बातें याद आ रहीं है। वह पूछते थे कि अभी मैं क्या लिख रही हूँ। तो मैं विजय से कहती थी कि बच्चे बड़े हो जायें तो कुछ समय मिलेगा तो तब लिखूँगी, या फिर जल्दी क्या है रिटायर होने के बाद लिखूँगी। विजय इसका तीखा विरोध करता थे कि जो भी करना हो अभी करना चाहिये। नौकरी, बच्चे, जीवन, लेखन सब साथ-साथ चलना चाहिये। बाद का क्या भरोसा। अपनी इस बात पर विजय अमल करते थे। पचपन की उम्र में विजय ने दो कविता संग्रह:'सबसे ठीक नदी का रास्ता', 'मरम्मत से काम बनता नहीं'; दो कहानी संग्रह: खिलंदड ठाट, पोंचु, तीन अनूठे उपन्यास: 'भेटकी', फाँस', 'आलोकुठि', लिखे हैं। क़रीब पंद्रह वर्षों से अपने ब्लॉग 'लिखो यहाँ वहाँ' पर उसकी सक्रियता अलग से थी जिसमें कई लेख, अपने समकालीन विषयों और साहित्यकारों पर हैं। विजय ने लिखने में कोताही नहीं की। नौकरी, परिवार, सांस्कृतिक सक्रियता आदि के साथ लिखता रहा।
दूसरा मुझे विजय ब्लॉगर की सक्रियता याद आती है। विजय के ब्लॉग से मेरा परिचय बहुत शुरुआत के दिनों से हैं। विजय के ब्लॉग पर कई तरह की जानकारी तो मिलती ही थी, लेकिन वह ऐसे लेखकों से परिचय का मंच भी था जो मुख्य धारा से अलग, कहीं दूर कौनों अंतरों में छिपे रहते हैं। बाक़ी समकालीन रचनाओं और प्रसंगों पर विजय की बेबाक़ राय रहती थी और सोचने के लिए प्रेरित करती थी। बाद में मैंने 'भेटकी', फ'ाँस', पढ़े। और फाँस का डॉक्टर 'हो गया' का चरित्र और परिवेश में देहरादून की कैफ़ियत खूब दिखती है। यह उपन्यास हाशिये पर रहने वाली जनता से प्यार किये बिना नहीं लिखा जा सकता, उनके बीच जो एकमेक होकर न रहा हो वह इसे नहीं लिख सकता। विजय की आँख से देहरादून को देखने की यह एक नई नज़र मुझे और उसके पाठकों को मिली हैं। 'आलोकुठि' के लिखने और बंगाल के उसके अनुभव पर भी दो-तीन बार बात हुई। इस पर फिर अलग से विस्तार से कभी लिखूँगी। विजय और नवीन भाई से देहरादून के लेखकों, उनकी घुमक्कड़ी को लेकर भी बात होती रहती थी। विजय अपनी पत्नी पूर्ति के बनाये चित्रों को वह अकसर फ़ेसबुक पर शेयर करते थे, बेटी पवि के संगीत में रुचि और उसके शांतिनेकेतन की संगीत शिक्षा के बारे में भी चाव से बताते थे। इस साल फ़रवरी में मैं देहरादून गई तो एक दिन मैं विजय और पवि के साथ नवीन भाई के घर भोगपुर गई। हम लोगों ने धूप में बैठकर पूरा दिन गप्पसप में बिताया। बहुत दूर तक नहर के किनारे-किनारे चलकर आये। नवीन भाई का चाँद पत्थर देखा, उनका पुराना पुरखों का घर देखा, अपने बिस्ताना के घर को याद कर ठंडी आह भरी और फिर विस्थापन के क़िस्से साझा किये। मैं विजय को याद कर रही हूँ, देहरादून के तमाम संगी साथियों को याद कर रही हूँ, जिनका विजय से ज़्यादा लंबा और गहरा परिचय रहा होगा। लेकिन मन मान नहीं रहा कि विजय से अब फिर कभी मुलाक़ात नहीं हो सकेगी...