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Nov 24, 2024

विजय गौड़ (16 May-1968--20 November 2024 )

विजय गौड़ नहीं रहे। यह बात मेरे ख़याल में बैठ नहीं रही है कि विजय से अब फिर कभी मुलाक़ात नहीं हो सकेगी... विजय के कई रूप थे, लेखक, कवि, आलोचक, उपन्यासकार, ब्लॉगर, घुम्मक्कड़, और रंगकर्मी। कई मोर्चों पर सक्रिय और उत्साह से भरा हुआ. विजय से मेरा परिचय नवीन भाई ने करवाया था। विजय से मेरी पहली मुलाक़ात 2010 में देहरादून में हुई थी। विजय अपने ऑफिस के बाद शाम को मेरे घर मिलने के लिये आये थे, बाहर बारिश हो रही थी, लेकिन विजय ने कुछ भी परवाह न की थी। हम लोग बिना किसी औपचारिकता के साहित्य, समाज, पहाड़, घुमक्कड़ी आदि पर बात करते रहे। उसके बाद यदि मैं देहरादून जाती और विजय वहाँ होते तो ज़रूर हमारी मुलाक़ात होती थी, बीच में वह कलकत्ता में थे तो ईमेल से संवाद या फिर कभी कभार फ़ोन पर बात होती थी।
विजय से ऐसी सहज बातचीत, सीधी सटीक, शालीन, बिना किसी द्वन्द-फन्द के, बिना औपचारिकता के, बराबरी पर। गिनने लगूँ तो मेरे हमउम्रों में जिनकी हिन्दी साहित्य और समाज में रुचि है, चार लोग भी विजय जैसे मुझे नहीं मिले। विजय की मुझे दो तीन बातें याद आ रहीं है। वह पूछते थे कि अभी मैं क्या लिख रही हूँ। तो मैं विजय से कहती थी कि बच्चे बड़े हो जायें तो कुछ समय मिलेगा तो तब लिखूँगी, या फिर जल्दी क्या है रिटायर होने के बाद लिखूँगी। विजय इसका तीखा विरोध करता थे कि जो भी करना हो अभी करना चाहिये। नौकरी, बच्चे, जीवन, लेखन सब साथ-साथ चलना चाहिये। बाद का क्या भरोसा। अपनी इस बात पर विजय अमल करते थे। पचपन की उम्र में विजय ने दो कविता संग्रह:'सबसे ठीक नदी का रास्ता', 'मरम्मत से काम बनता नहीं'; दो कहानी संग्रह: खिलंदड ठाट, पोंचु, तीन अनूठे उपन्यास: 'भेटकी', फाँस', 'आलोकुठि', लिखे हैं। क़रीब पंद्रह वर्षों से अपने ब्लॉग 'लिखो यहाँ वहाँ' पर उसकी सक्रियता अलग से थी जिसमें कई लेख, अपने समकालीन विषयों और साहित्यकारों पर हैं। विजय ने लिखने में कोताही नहीं की। नौकरी, परिवार, सांस्कृतिक सक्रियता आदि के साथ लिखता रहा।
दूसरा मुझे विजय ब्लॉगर की सक्रियता याद आती है। विजय के ब्लॉग से मेरा परिचय बहुत शुरुआत के दिनों से हैं। विजय के ब्लॉग पर कई तरह की जानकारी तो मिलती ही थी, लेकिन वह ऐसे लेखकों से परिचय का मंच भी था जो मुख्य धारा से अलग, कहीं दूर कौनों अंतरों में छिपे रहते हैं। बाक़ी समकालीन रचनाओं और प्रसंगों पर विजय की बेबाक़ राय रहती थी और सोचने के लिए प्रेरित करती थी। बाद में मैंने 'भेटकी', फ'ाँस', पढ़े। और फाँस का डॉक्टर 'हो गया' का चरित्र और परिवेश में देहरादून की कैफ़ियत खूब दिखती है। यह उपन्यास हाशिये पर रहने वाली जनता से प्यार किये बिना नहीं लिखा जा सकता, उनके बीच जो एकमेक होकर न रहा हो वह इसे नहीं लिख सकता। विजय की आँख से देहरादून को देखने की यह एक नई नज़र मुझे और उसके पाठकों को मिली हैं। 'आलोकुठि' के लिखने और बंगाल के उसके अनुभव पर भी दो-तीन बार बात हुई। इस पर फिर अलग से विस्तार से कभी लिखूँगी। विजय और नवीन भाई से देहरादून के लेखकों, उनकी घुमक्कड़ी को लेकर भी बात होती रहती थी। विजय अपनी पत्नी पूर्ति के बनाये चित्रों को वह अकसर फ़ेसबुक पर शेयर करते थे, बेटी पवि के संगीत में रुचि और उसके शांतिनेकेतन की संगीत शिक्षा के बारे में भी चाव से बताते थे। इस साल फ़रवरी में मैं देहरादून गई तो एक दिन मैं विजय और पवि के साथ नवीन भाई के घर भोगपुर गई। हम लोगों ने धूप में बैठकर पूरा दिन गप्पसप में बिताया। बहुत दूर तक नहर के किनारे-किनारे चलकर आये। नवीन भाई का चाँद पत्थर देखा, उनका पुराना पुरखों का घर देखा, अपने बिस्ताना के घर को याद कर ठंडी आह भरी और फिर विस्थापन के क़िस्से साझा किये। मैं विजय को याद कर रही हूँ, देहरादून के तमाम संगी साथियों को याद कर रही हूँ, जिनका विजय से ज़्यादा लंबा और गहरा परिचय रहा होगा। लेकिन मन मान नहीं रहा कि विजय से अब फिर कभी मुलाक़ात नहीं हो सकेगी...

May 15, 2021

मंगलेश डबराल स्मृति: कवि के बस में था कि वह एक आत्मीय संसार रच दे


पब्लिक एजेंडा के ऑफ़िस में 2013 में मंगलेश जी के साथ 




मंगलेश जी की कविताओं से मेरा परिचय 


मंगलेश जी की कविताओं से मेरा परिचय  ‘पहाड़ पर लालटेन’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, 1981) के ज़रिये 1988 में हुआ था. नैनीताल की दुर्गालाल साह लायब्रेरी से यह कविता संग्रह लेकर आई थी, पढ़ते हुये अहसास हुआ कि आहिस्ता-आहिस्ता पुरानी अल्बम को देख रही हूँ, जिसमें मेरे ही घर-गाँव, रस्ते, नदी और पहाड़ की तस्वीरें हैं. घर-परिवेश के बिम्ब कविता में पाकर जी धक हुआ कि कैसे इन सब पर भी कोई कविता लिखी जा सकती है. 

‘काली काठ की दीवारों पर साँप बने हैं
जिन पर पीठ टेकने के निशान हैं” 

“इसमें काठ का एक संदूक है 
जिसके भीतर चीथडों और स्वप्नों का 
एक मिलाजुला संसार है”
  
इस संकलन की ‘अगले दिन’  कविता मेरे साथ सबसे ज़्यादा समय तक बनी रही, और बेचैन करती रही. एक पारम्परिक विवाह की वेदी पर स्त्री को देखने की करुणा से भरी यह कविता सोलह-सत्रह साल की महत्वाकांक्षी लड़की तक  एक सम्भावित दु:स्वप्न की तरह पहुँची. साल भर बाद, 1989 में एक दिन मैंने कवि मंगलेश डबराल को ज़हूर आलम की दुकान 'इंतख़ाब' में देखा. युगमंच ने नुक्कड़ नाटक समारोह का आयोजन किया था जिसमें अन्य शहरों से भी टीमें आईं थीं, और नीलाभ, मंगलेश डबराल, और वीरेन डंगवाल भी आये थे. मंगलेश जी से तब मेरी कोई बात नहीं हुई. मंगलेश जी के पहले संकलन की सभी महत्वपूर्ण कविताओं और उनके भाषिक सौंदर्य पर कई लोगों ने बात की है. मैं अपनी इस प्रिय कविता (जिस पर लोगों की कम नज़र गयी है) को सबके साथ साझा करना चाहती हूँ. 

अगले दिन
पहले उसकी सिहरती हुई पीठ दिखी
फिर दिखा चेहरा
पीठ जैसा ही निर्विकार 
कितने सारे चहरे लांघकर आया हुआ
वह चेहरा जिस पर दो आँखे थीं 
सिर्फ़ देखती हुईं कुछ न चाहती हुईं 

वह अकेली थी उस रात
वह कहीं जा रही थी अपना बचपन छोड़कर
कितने सारे लोगों द्वारा आतंकित
कितने सारे लोगों  द्वारा सम्मोहित
कितने सारे लोगो की तनी हुई आँखों के नीचे
कितनी झुकी हैं उसकी आँखे
कि  वह देख नहीं  पाती अपनी ओर  आती मृत्यु 

हर चीज़ के आख़िरी सिरे तक
वे उसके पीछे जायेंगे
जहाँ  से एक सुरंग शुरू होती है
सुरंग मे कई पेड़ों में से एक पेड़ तले
बैठा होता है उसका परिवार
माँ-बाप भाई बहन
और पोटलिया जिनमे भविष्य बंद है
सापों की तरह

वे  सारा कुछ सोच कर रखेंगे
पहले से दया पहले से प्रेम
पहले से तैयार थरथराते हाथ
वे उसे पा लेंगे बिना परिवार के
बिना बचपन के बिना भविष्य के
और खींच ले जायेंगे एक जगह
कोई नहीं  जान पायेगा किस जगह
डराते मंत्रमुग्ध करते हुए 

अगले दिन उसके भीतर
मिलेंगे कितने झड़े हुए पत्ते
अगले दिन मिलेगी खुरों की छाप
अगले दिन अपनी देह लगेगी बेकार
आत्मा हो जायेगी असमर्थ 
कितने कीचड़ कितने खून से भरी
रात होगी उसके भीतर अगले दिन

अनेक बार जीवन की जद्दोजहद के मौक़ों पर पितृसत्ता से संचालित परिवार-समाज-संस्थानों में इस कविता की पंक्तियाँ नये अर्थों में मेरे लिए खुलती रही ("वे सारा कुछ सोच कर रखेंगे / पहले से दया पहले से प्रेम") या कहा जाय तो सामाजिक संरचना के कई स्तरों पिरोई/ दबी-छिपी निर्दयता की यह चेतावनी देती रही, और मैंने यथासंभव सुरंग से बाहर आने का रास्ता खोज़ने में अपनी कुछ ऊर्जा लगाई. 2007 में नैनीताली ब्लॉग बनाया तो मंगलेश जी की यह कविता वहाँ पोस्ट की. सोचती रही कि मंगलेश जी ने कैसे लिखी होगी यह कविता? कदाचित वी. एस. नायपॉल के ‘हाउस ऑफ़ मिस्टर बिस्वास’ के  नायक मोहन की याद हो आती है जब वह अपनी बहन की शादी के बाद उसके घर जाता है. एक नये अजनबी माहौल में भाई-बहन का संकोच और दिल को कचोटता अटपटापन याद आता है. शायद उन्होंने पाँच बहनों की संगत के असर में स्त्री को देखने की ऐसी संवेदनशील नज़र और हर उम्र की स्त्रियों से मित्रवत, घरेलू और आत्मीय सम्बंध बना लेने की सहजता पाई होगी. तीन बड़ी बहनों (भुवनेश्वरी, जगदेश्वरी, राजलक्ष्मी) और दो छोटी बहनों (मालती और बसंती) के बीच में वह दुलारे भाई थे. उनकी कविता में जो संगीत है वह उन्हें अपने पिता मित्रानंद डबराल और स्वभाव की सरलता-तरलता माँ सत्येश्वरी से मिली होगी. कभी पराजित न होने वाला आशावाद अपने जन्म (16 मई 1948 को काफलपानी) के समय से ही टिहरी की मिट्टी से मिला होगा जहाँ राजनैतिक और मानवीय चेतना सम्पन्न पीढ़ी संघर्षरत थी जो समानता, सहिष्णुता, और सामाजिक न्याय की आग्रही थी और टिहरी रियासत को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए संकल्पशील.  

 ***

बात-मुलाक़ात

मेरे लिए स्कूल से कॉलेज के दिनों में लिखी कविता बेहद निजी बात रही. कभी प्रकाशित होने के लिए भेजने का ध्यान नहीं आया. 2007 के आसपास ब्लॉग पर हिंदी लिखने की सहूलियत बनी तो शायद प्रवासी जीवन की विकलता या नराई के असर में ब्लॉग लिखना शुरू किया, और हिंदी पढ़ने-लिखने वालों से परिचय हुआ. जनवरी 2010 में कवि शिरीष मौर्य ने अपने ब्लॉग ‘अनुनाद’ पर मेरी कुछ कवितायें प्रकाशित की थी जिनपर मंगलेश जी की संयोगवश नज़र पड़ी. इस तरह मेरी उनसे ईमेल से बातचीत शुरू हुई. गरमी की छुट्टी में अगस्त में जब भारत गई तो दिल्ली में मंगलेश जी से मेरी पहली मुलाक़ात पब्लिक एजेंडा के ऑफ़िस में हुई. मंगलेश जी ने पब्लिक एजेंडा के कुछ अंक निकाले थे जिनमें 2000 के बाद बने तीन नये राज्यों (उत्तराखंड, झारखंड, और छत्तीसगढ़) की एक दशक की समीक्षा थी. उत्तराखंड राज्य आंदोलन के कई एपिसोड और 2 अक्टूबर 1994 में हुए सरकारी दमन के समय मैं भारत में थी. 1998 में अमेरिका आ गई थी, तो लगभग दशक की दूरी पर उत्तराखंड के हालचाल जानने में मेरी दिलचस्पी थी. मंगलेश जी से इसपर बात हुई, और फिर घर-परिवार के सम्बंध आम बातचीत भी. मंगलेश जी ने बताया कि उनके पुरखे ‘डाबर’ गाँव से 'काफलपानी' आकर बसे थे, और उनकी दादी पौड़ी गढ़वाल के सुमाड़ी गाँव की थी. मेरी माँ भी डबराल है, डाबर गाँव की, तो मैं पहाड़ के रिश्ते से मंगलेश जी को मामा कह सकती थी. मैं उन्हें मंगलेश जी ही कहती थी. मुझे लोगों को उनके नाम से पुकारना ज़्यादा सम्मानीय और डेमोक्रेटिक लगता हैं. वह मुझे सुषमा या कभी सुषमा जी कहते थे. विदा के समय मंगलेश जी ने मुझे ‘एक बार आयोवा’ (13 अगस्त 2010 के दस्तखत हैं) भेंट दी. मैंने उनसे कहा कि यदि यह किताब 1997 में मिली होती तो कितना अच्छा होता. मैं 1998 मार्च में आयोवा पहुँची थी. उस वक़्त अमेरिका में किसी को नहीं जानती थी, आयोवा के सर्द तूफ़ानों के बारे में तो न पढ़ा था और न ही सुना था. मेरी पहली ठंड की कोई तैयारी नहीं थी. हाथ-पैर नीले पड़ जाते थे. मंगलेश जी ने कहा कि यह जानना दिलचस्प होगा कि मेरे संस्मरण और तुम्हारे अनुभव में  समानता है या नहीं.

‘एक बार आयोवा’ (आधार प्रकाशन, 1996) यात्रा वृतांत है. मंगलेश जी 1991 सितम्बर से दिसम्बर तक तीन महीने अमेरिका में थे, दो महीने यूनिवर्सिटी ऑफ़ आयोवा के अंतर्रास्ट्रीय राइटिंग प्रोग्राम फ़ेलो की तरह रहे, और लगभग चार हफ़्ते उन्होंने न्यू यॉर्क, वाशिंगटन डी॰सी॰, सैन फ़्रांसिस्को, सैंटा फ़े, न्यू ऑरलियंस की यात्रा की. इस किताब में मंगलेश जी की अमेरिकी समाज और शहरों पर रोचक टीपें हैं.

“ न्यू यॉर्क पहले भयभीत करता है, अगले दिन वह रहस्यपूर्ण लगता है और फिर शायद उसका अनवरत जीवन, अनंत जागरण, उसकी आपाधापी, उसकी सदा प्रज्ज्वलित रोशनियां और उसका अंधकार आपको सम्मोहित कर लेता है “

वह जब शिकागो होते हुए आयोवा पहुँचे तो उनका पहला इम्प्रेशन था 

“सुंदर कोमल धूप थी जो बीच-बीच में तीखी हवा से उड़ती हुई लगती थी”.

मंगलेश जी ने आयोवा में साथी लेखकों केरी कीज़, क्लार्क ब्लेज़, जेमिनो अबद, क्रिस्टी मेरल, हे रयोन-होम, पीटर नाज़रेथ, खोसे दोनोसो, रहमान बिन-शआरी, उर्षुला कोज़ीओव आदि और राइटिंग प्रोग्राम से जुड़े स्टाफ़, अमरीकी समाचारों/समाज/बाज़ार पर अपने इम्प्रेशन दर्ज किये हैं. सारी चहल-पहल, पार्टियों, बातचीत के बीच यह बात उनसे छूट  नहीं जाती कि दैनिक व्यवहार में बरती हुई सज्जनता और मित्रवत व्यवहार मित्रता नहीं होती. उन्होंने लिखा

“चाहे कितनी बार मिलें, हर बार लगता है नये सिरे से मुलाक़ात हो रही है, ऐसा क्यूँ है? हर बार कोई तार जैसे टूट जाता है, चीज़ें बेसुरी हो जातीं हैं. मित्रता के धागों को कोई मेरे हाथ में देता है और जब मुलाक़ात पूरी हो जाती है तो मैं देखता हूँ हाथ में वे धागे नहीं हैं. … मित्रता के धागे बहुत मोटे, रस्सियों जैसे मज़बूत और खुरदरे होने चाहिए, जैसे नावों और जहाज़ों को बाँधने के लिए होते हैं. पानी का स्पर्श और बँधने की प्रक्रिया उन्हें कोमल और चमकदार बनाती है.”

उन्होंने उस वक़्त चर्चित 'क्लेरेंस थोमस और अनिता हिल' के मुक़दमे पर ढाई पन्ने की टीप लिखी, उस बीच आयोवा यूनिवेर्सिटी कैंपस में हुई गन-वायलेंस का ज़िक्र किया, और आयोवा की शरद ऋतु और फिर नवम्बर-दिसम्बर की भीषण ठंड और बर्फ़बारी के भी चित्र खींचे हैं.

“पेड़ों के पत्ते जो पहले लाल हो गए थे, तेज़ी से पीले होकर गिर रहे थे, ….हवा पत्तों को कुछ देर उड़ाती है, फिर ज़मीन पर गिरा देती है, ...हवा में पत्ते चिड़ियों की तरह उड़ रहे हैं या चिड़िया पत्तों की तरह सड़क पर गिर रही हैं”

मंगलेश जी का आयोवा का भोगोलिक, सामाजिक, और सर्द मौसम की मार का अनुभव मेरे जैसा ही था. मैं 1998-99 के बीच डेढ़ साल एम्स शहर में रही थी जो आयोवा सिटी से 130 मील की दूरी पर है. एम्स में आयोवा स्टेट यूनिवर्सिटी है. लेकिन वह लेखकों के बीच आयोवा सिटी के मे-फ़्लावर होटल में दो महीने में रहे थे और विभागीय स्तर पर उन्हें घूमने-घुमाने और पार्टियों के सिलसिले थे जो विभाग की तरफ़ से आयोजित थे. मेरा अनुभव छात्र-छात्राओं और शोधार्थियों के बीच का है, शुरुआत में अकेलेपन की और किराए का फ़्लैट ढूँढना, ज़रूरत का सामान लाना, कैंपस में सामान्य बातचीत और मित्रता के सम्बंध बनाना, कार ड्राइव करना और लायसेंस आदि की जद्दोजहद रही. मुझे सामान्य सूचनाएँ सहेजने में, हिंदुस्तानी खाना बनाने लायक सामान ढूँढने में समय लगा. एम्स में सिर्फ़ एक तुर्की के बंदे अहमद की दुकान थी जहाँ हिंदुस्तानी मसाले, दाल, चावल, और आटा मिल जाता था. धीरे-धीरे हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, चीनी, रूसी, यूरोपियन रिसर्चर दोस्त बन गए. इस तरह मेरे लिए आयोवा जाकर दुनियाभर के लोगों से बातचीत का मौक़ा बना. मेरे एक शोधार्थी मित्र ने मुझे गुडविल स्टोर से डाउन का सेकंड हैंड जैकेट ख़रीदने में मदद की थी. मंगलेश जी ने बाद में बताया किसी ने उनको भी सेकेंड हैंड गरम कोट दिलवाया था. मंगलेश जी ने आयोवा में विभिन्न देशों के लेखकों से आत्मीय दोस्तियाँ बनाई. वह सहजता से लोगों को अप्रोच करते थे. अपने-पराये का बहुत भेद नहीं करते थे. एक मानवीय ऊष्मा, उत्साह, और ह्यूमर उनके व्यवहार का सहज हिस्सा था, तो यह सब उनके संस्मरण में ख़ूब दिखता है.

***

मेरी कविताएँ मंगलेश जी ने 2010 में ‘पब्लिक एजेंडा’ में छापी और 2011 में मेरा पहला कविता-संग्रह 'उड़ते हैं अबाबील’ (अंतिका प्रकाशन) का ब्लर्ब लिखा था. 2012 के बुक फ़ेयर में दिल्ली में मेरी मंगलेश जी से दूसरी (संक्षिप्त) मुलाक़ात हुई. मंगलेश जी ने मुझे 'दीवान-ए-ग़ालिब' भेंट किया. मैंने उनकी दो किताबें 'लेखक की रोटी' (आधार प्रकाशन, 1997) और ‘कवि ने कहा’ (किताबघर प्रकाशन 2008) ख़रीदी थी. कुछ देर बाद मैं जब कमल जोशी और शेखर पाठक से मिली तो कमल दा ने कहा “अरे ‘कवि ने कहा’ के कवर पर जो फ़ोटो है वह मैंने खींची है”. शेखर दा ने मुझे साहिर लुधियानवी का 'जाग उठे ख़्वाब कहीं’ भेंट किया था. प्रगति मैदान के उस धूप-नहाये 3 मार्च के दिन को याद करती हूँ, कैसा ख़ुशगवार दिन था. आज कमल जोशी और मंगलेश जी दोनों हमारे बीच नहीं हैं. 3 जुलाई 2018 को मंगलेश जी ने देहरादून में पहाड़ के विलक्षण फ़ोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी की पहली बरसी के दिन उनपर कविता सुनाई थी, वह भी याद आ रही है.

नवम्बर 2013 में ‘इंटरनेशनल राइस जेनोमिक्स कोंफ़्रेंस’ नई दिल्ली में हुई तो उसमें भाग लेने मैं और पंकज भी आये थे. वहाँ से लौटते समय थोड़ी देर को हम मंगलेश जी के ऑफ़िस में मिलने गये थे. आधा घंटा तो पब्लिक एजेंडा का ऑफ़िस ढूँढने में चला गया, जब पहुँचे तो मंगलेश जी ऑफ़िस से उतरकर नीचे सड़क पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे. हमारे साथ दोनों बच्चे भी थे. मंगलेश जी ने बच्चों के लिए ऑरीओज के बिस्किट मँगवाये, हमें ग्रीन-टी पिलाई और वहीं मदन कश्यप जी से भी मिलवाया. विदा के समय ताक़ीद की कविता लिखते रहने की और 'तुलसी चाय' और ‘नये युग में शत्रु’ कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2013) भेंट दिये. इस संग्रह की कविताओं में भूमंडलीकरण की बाद बदली दुनिया की कई मार्मिक तस्वीरें हैं, साम्प्रदायिक हिंसा के विरोध में मुखर स्वर हैं बची-खुची मनुष्यता को सम्बोधित. जीवन, दुःख, सुख, प्रेम, अच्छाई के सारांश पाठ हैं और फिर शरीर, चेहरा, त्वचा, आँख, बाल पर भी कवितायें हैं. कवि की शांति निकेतन पर रिपोर्ताज और कई संगीतज्ञों पर भी कवितायें हैं. 'पहाड़ पर लालटेन' से लेकर 'नये युग में शत्रु' तक कविता के शिल्प में परिवर्तन नहीं आया, उसमें हमेशा की तरह पंक्चुएशन ग़ायब है, और उनके पीछे का संगीत बरक़रार है. लेकिन पहले की कविताओं में जहाँ भावनात्मक इंटेंसिटी है, और हालिया कविताओं में राजनैतिक-वैचारिक स्वर प्रमुख है.

मंगलेश जी की छवि एक पहाड़ी कवि की ही रही है तो एक दफे मैंने उनसे उनके विस्थापन के अनुभव के बाबत पूछा. उत्तर में उन्होंने कहा कि यह भी सच है कि सभ्यता का केंद्र शहर ही हैं और उन्हें शहर बहुत आकर्षित करते रहे हैं. पहले संकलन में शहर के बारे में वह कहते हैं

"मैंने शहर को देखा
और मुस्कुराया
वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।"

फ़िलहाल चालीस साल दिल्ली में रहने और देश-दुनिया के कई-कई शहरों से गुज़रने के बाद कवि अपने शहर के अंतरविरोधों की शिनाख्त करता है, कि यह शहर वह नहीं था जिसमें वह एक बड़ी आशा और सपने के साथ आया था. किसी स्वपन-शहर की इच्छा उसमें अब भी हिलोर लेती है.

"उस शहर में अब भी पहुँचा जा सकता है 
जिसकी खोज में तुम यहाँ आए थे 
पहाड़ से एक पत्थर की तरह कहीं से लुड़कते हुये"

मंगलेश जी में पीछे पहाड़ लौटने की दृष्टि नहीं दिखती. पहाड़, जहाँ से वह आये थे, को वह याद करते रहते हैं, इस तरह कि शायद उनकी एक ख़ाली जगह होगी कहीं पहाड़ में भी, वैसे ही जैसे किसी बह गए कंकड़-पत्थर की बची रहती है. उलटा भी था, पहाड़ उनके भीतर आख़िर तक बचा रहा. लेकिन स्वप्न वह शहर का ही देखते थे, बेहतर शहर का, बेहतर सभ्यता का. 2014 में दो बार भारत गई, लेकिन मंगलेश जी से मुलाक़ात न हो सकी. 2015 में पता चला कि मंगलेश जी की हार्ट अटैक की बाद एंजियोप्लास्टी सफलतापूर्वक हुई. मेरे पिताजी भी इस समय अस्वस्थ थे. मैंने उन्हें लिखा कि 

“दूसरी सभी बीमारियों की अपेक्षा ह्रदय की बीमारी ऎसी है कि अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाने से उसमें फायदा होता है. मैं आशा करती हूँ कि आप जल्द ही स्वस्थ हो, और प्रसन्न रहे, सामाजिक और निजी जीवन के जो भी तनाव हों उनसे परे रहे, उन्हें कम कर सके. जीवन है अमूल्य है.”

उनका जबाब कुछ दिनों बाद आया 

“आपकी मेल के लिए बहुत धन्यवाद, सुषमा. अब मैं बेहतर हूँ और जैसे घोड़े बेचकर आराम फरमा रहा हूँ. एक धमनी में नब्बे फीसद अवरोध था, जिसमें स्टेंट लगा दिया गया है. समय पर इलाज हो गया. खानपान और दिनचर्या में भी परिवर्तन किया है, और सबसे अफ़सोस की बात यह कि तम्बाकू, जिससे मेरा  पचास साल पुराना लगाव था, छोड़ देना पड़ा है.आपके पिताजी अब पूरी तरह ठीक होंगे. उनके स्वास्थय की कामना करता हूँ.
नमस्ते,
मंगलेश डबराल.”

क्रमश: 2016, 2017, 2018, में मेरी मंगलेश जी से मुलाक़ातें हुईं, जो मेरी किताब ‘अन्न कहाँ से आता है’ पर केंद्रित रही. उनको किताब की रूपरेखा पसंद आई, उन्होंने मुझे विभिन्न चैप्टर्स के शीर्षक और उपशीर्षकों पर बेहद अच्छे सुझाव दिये. बात हुई कि अंग्रेज़ी के तकनीकी शब्दों को हिंदी में क्या लिखा जाय तथा / किस प्रकाशन से बात करे. 2017 में किताब पूरी की और तीन बार उसका रिवीज़न किया, इलस्ट्रेशन और फ़ोटो आदि व्यवस्थित किये. जून 2018 में मंगलेश जी के साथ जाकर वह पांडुलिपी एन॰बी॰टी॰ में ज़मा की. बड़े इंतजार के बाद यह किताब अभी हाल में (अक्टूबर 2020) में प्रकाशित हुई है. एन॰बी॰टी॰ से निकलकर हम जब बाहर जा रहे थे तो मंगलेश जी ने एक सिगरेट सुलगाई और फिर दो कश के बाद बुझाकर फेंक दी, वह बहुत थके हुए लग रहे थे, पूछने पर बताया कि सुबह से कुछ हल्की सी हरारत थी. मुझे इस बात का गिल्ट हुआ कि उन्हें इतनी दूर आना पड़ा, लेकिन फिर उन्होंने बताया कि जे॰एन॰यू॰ में भी कोई समारोह है जहाँ उन्हें जाना है. मुझे भी जे॰एन॰यू॰ जाना था अपने काम से तो हम साथ-साथ गए और फिर हम लोग कनाट प्लेस तक साथ आये और अलग-अलग दिशाओं में चले गये.

जुलाई 2019 में मेरी मंगलेश जी से आख़िरी मुलाक़ात हुई. मेरी किताब ‘अन्न कहाँ से आता है’ का दूसरा ड्राफ़्ट प्रूफ़-रीडींग की स्टेज पर था. महीनेभर देहरादून में रहकर मैंने प्रूफ़ को देखा था और वापस एन॰बी॰टी॰ को पोस्ट कर दिया था. मैं मंगलेश जी से मिलने के लिए सुबह 10 बजे गुड़गाँव से निकली तो वसुंधरा (ग़ाज़ियाबाद) तक पहुँचते-पहुँचते दो बज गए थे. मंगलेश जी और संयुक्ता जी लंच पर मेरा इंतज़ार कर रहे थे. हमने साथ में खाना खाया, इधर-उधर की बातचीत करते रहे. मंगलेश जी ने तब हाल में ही अरुंधती की किताब (The Ministry of Utmost Happiness) का हिंदी अनुवाद ‘अपार ख़ुशी का घराना’ (राजकमल प्रकाशन, 2019) के नाम से किया था. अरुंधती की किताब का वह अनुवाद कर रहे थे तो पहले भी उसके बारे में भी बात हुई थी. बहुत मेहनत का काम था, लेकिन वह इसे करके खुश थे. उसमें मौजूद प्रकृति के बिम्ब, विभिन्न चिड़िया, वनस्पति आदि की मौज़ूदगी, उर्दू शायरी उन्हें पसंद आई थी. मैंने अरुंधति का उपन्यास मूल अंग्रेज़ी में पढ़ रखा था. उन्होंने उपन्यास पर मेरी राय पूछी. तो मैंने कहा कि

"मुझे अरुंधति का पुरानी दिल्ली को शायरी के ज़रिये पकड़ने का तरीका बहुत पसंद आया. बाकी का कथानक  समसामयिक घटनाओं और सूचनाओं का संकलन था जिसे अरुंधति ने अपनी अर्किटेक्ट बुद्धि और लेखकीय प्रतिभा से उपन्यास की शक्ल में पिरोया है. मेरे लिये उसमें  बहुत रस नहीं है. शायद २०-२५ वर्ष बाद जब नए लोग इस उपन्यास को पढ़ेंगे तो उनके लिए कहानी का तत्व बढ़ जायेगा, हमारी याद में जो सुचनायें दर्ज़ हैं वे उनसे मुक्त होंगे. लेकिन यह उपन्यास के कवर में पोलिटिकल रिपोर्ट है"

मेरी यह सब बकवास सुनने के बाद मंगलेश जी ने कहा कि 

“दरअसल यह उपन्यास एक प्रेम कहानी है जिसका हीरो विप्लव दास गुप्ता/ Garson Hobart है”


एक कवि ही शायद उपन्यास का ऐसा पाठ कर सकता था. मैं लाज़बाब हुई और यह जाना कि शायद यह बात मेरे दिल की ही कोई छिपी हुई बात थी. विदा के समय जाने किस रौ में उन्होंने मुझे एक शाल (जो उन्हें उड़ीसा से किसी ने भेंट किया था) और अपना यात्रा संस्मरण “एक सड़क एक जगह’ (सेतु प्रकाशन, 2019) दिया. अपने अपार्टमेंट से निकलकर सड़क तक आये, और मैं टैक्सी लेकर गुड़गाँव की तरफ़ लौटी, जहाँ से रात को अमेरिका वापसी की फ़्लाइट लेनी थी. मेरे मन में कुछ वैसे ही मिलेजुले भाव आये जैसे अपने मातापिता का घर छोड़ते हुए देहरादून में आते हैं. आगे लगभग 40 घंटे का सफ़र था, किताब पढ़ी गई. ‘एक सड़क एक जगह’ यात्रा वृतांत के सभी चैप्टर स्वतंत्र पाठ होते हुए भी दो सूत्र में बँधे हैं, पहला सूत्र विश्व कविता का है, जिसके सहारे पाठक कविता के एक देश की यात्रा पर निकल जाता है. पहला चैप्टर 'कविता का शहरनामा' रोतरडम में हुए पोयट्री फ़ेस्टिवल पर है और छठा चैप्टर 'हाइकू के इर्दगिर्द' जापानी कविता के सौंदर्यबोध की समीक्षा है. कविता चाहनेवालों के लिए यह दो अध्याय बेशक़ीमती हैं. दूसरा सूत्र नई जगहों, और लोगों को बिना पूर्वग्रह के, खुले मन से दोस्त बना लेने की क़ाबिलियत रखने वाले मनुष्य का पता देता है, जो सब चकमक के बीच छिपी, गैर-बराबरी, उपभोक्तावाद, असली-नक़ली की पहचान सरलता से करता रहता है. सभ्यता का विद्रूप और मनुष्यता पूरा-अधूरा, अपने ख़ास मिज़ाज में पकड़ लेता है. 'अमेरिका' और 'पेरिस' सभ्यताओं के मेटानेरेटिव हैं. पेरिस में तो उन्होंने प्रतीकों के बरक्स रूपक खोजे की कोशिश की, जिसका भाषिक सौंदर्य देखते बनता है. मुझे उत्तरकाशी के समीप का 'हर्षिल', 'अंडमान' या यूरोप के 'उल्म' या 'आईस्लिंगेन' के वृतांत, पसंद आये. हर्षिल की यात्रा में वीरेन डंगवाल की एक कविता 'गंगा स्तवन' कितना कुछ जोड़ती-तोड़ती है.

"जिनसे मिलना संभव नहीं हुआ उनकी भी एक याद बनी रहती है जीवन में"


मंगलेश जी की पीढ़ी के, उनके अनन्य मित्र असद ज़ैदी, नलिनी तनेजा, वीरेन डंगवाल, शेखर पाठक, गिरदा, विद्या सागर नौटियाल, ज़हूर आलम से मेरा आत्मीय परिचय रहा है. असद ज़ैदी मंगलेश जी को ‘महाकवि’ कहते थे, और मंगलेश जी असद जी की बुझी हुई लौ की मानिंद फ़ेसबूक टीपों में प्राणवायु फूँकते रहते थे. शेखर दा कहते थे कि सुमित्रानंदन पंत के समकालीन कवि चंद्रकुँअर बर्त्वाल की कविताओं को हिंदी समाज के सामने लाने में मंगलेश जी का योगदान है. चंद्रकुँअर बर्त्वाल का 28 वर्ष अल्पायु में तपेदिक की बीमारी से देहांत हो गया था, और उनकी कवितायें बहुत वर्ष बाद ‘इतने फूल खिले’ शीर्षक से पहाड़ प्रकाशन, नैनीताल ने छापी थीं. मंगलेश जी ने उसकी भूमिका लिखी थी.

मैंने एक दफे मंगलेश जी को फ़ोन किया तो वहाँ वीरेन डंगवाल भी बैठे थे, मंगलेश जी ने फ़ोन उनकी तरफ़ बढ़ा दिया. मुझे पहले असमंजस हुआ लेकिन फिर जल्दी ही लगा किसी परिचित से बात कर रहे हैं. इसी तरह, असकोट-अराकोट की 2014 की यात्रा के समय, रोज़ ही वीरेन डंगवाल शेखर पाठक को फ़ोन करते थे और आसपास जो भी होता शेखर दा उसे फ़ोन पकड़ा देते. उस दरमियाँ मेरी भी वीरेन डंगवाल से बात हुई, वह कैंसर की बीमारी से जूझ रहे थे. सोचा था कि उनसे मिलने वापस लौटते समय जाऊँगी, लेकिन मिलना न हो सका. तीन महीने बाद 28 सितम्बर 2014 को वीरेन दा हमें छोड़ कर चले गये. पिछले कुछ सालों में मंगलेश जी के साले सुरेन्द्र जोशी (मशहूर पेंटर, जिन्होंने देहरादून में उत्तरा आर्ट संग्रहालय बनवाया और अपना कला संग्रह वहाँ दान किया), अल्मोड़ा के डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट, और हिंदी के वरिष्ठ लेखकों (विष्णु खरे, कैलाश वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, आदि) का देहांत हुआ. मंगलेश जी ने इन पर आत्मीय स्मृति लेख लिखे थे. एक मेसेज के जबाब में मंगलेश जी ने लिखा

“क्या कहें. एक सिलसिला सा चल पड़ा है मौतों का. जनसत्ता के दिनों में शमशेर से हर दो महीने में मिलना हो जाता था.हिंदी पर जैसे कोई साया आन पड़ा है. वीरेन, मेरे साले सुरेन्द्र, और विष्णुजी और शमशेर का जाना निजी आघात है. अब बड़ी आवाजें जा रही हैं. ज़रा सोचिये, मुझे विष्णु खरे पर पांच जगह लिखना पड़ा. लिखने वाले भी कितने कम रह गए हैं.”

कई वर्षों से मेरा फ़ेसबुक पर मंगलेश जी से एक जीवंत संवाद बना रहा. इस दुनिया में, दुनिया के लोगों में, विविध विषयों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी, हर चीज़ उन्हें गहरे छूती और विचलित करती थी. 21 मार्च 2020 को मंगलेश जी ने मुझे मेसेज किया.

"कोरोना के उद्गम और फैलाव के कारणों पर कोई प्रामाणिक रिपोर्ट उप्लब्ध हो तो भेजिये. चीन और अमेरिका वाक-युद्ध कर रहे हैं, लेकिन सच क्या है? क्या जैविक युद्ध के वायरस लीक हुये हैं? अमेरिका और रूस के पास ऐसे भयंकर विषाणु हैं जो दुनिया को नष्ट कर सकते हैं. क्या चीन भी उन्हें बना सकता है?"

कोविड-19, विषाणुओं, और सम्भावित समाधान पर उनसे हुई बातचीत के कारण ही मैंने तीन-चार लेख 2020 में इस ज़िम्मेदारी से लिखे कि हिंदी समाज में सही और तर्कसंगत सूचना सरल भाषा में पहुँच सके. अमेरिका के चुनाव में उन्हें बेहद दिलचस्पी थी और यह उन्हें काफ़ी संतोष दे गया कि लोकतंत्र ने ट्रम्प को शिकस्त दी. मंगलेश जी से आख़िरी बातचीत 28 नवम्बर को हुई. मैंने उन्हें मेसेज किया 

“आशा है आप ठीक हैं. शुभा जी का मेसेज आपकी वॉल पर देखा तो चिंता हुई.” 

मंगलेश जी ने लिखा “No. Covid. Not in good shape”.

लेकिन फिर कोविड की पुष्टि हुई, मंगलेश जी बराबर ध्यान में बने रहे, और उनकी कुछ सूचना आती रही, उम्मीद थी कि वह बच जायेंगे. मैंने उन्हें और परिवार को यह सोचकर फ़ोन नहीं किया कि इस मुसीबत के समय उनपर अतिरिक्त भार न बनूँ, लेकिन अल्मा को मेसेज करती रही. 9 दिसम्बर को उनके न रहने की सूचना असद जी की फ़ेसबुक पोस्ट से मिली. बहुत दिनों तक दिल यह मानने को तैयार नहीं हुआ. अब सोचती हूँ कि काश एक बार तो फ़ोन किया होता.

***

मैं पिछले दो महीने सोचती रही कि मंगलेश जी कौन थे? कैसे मनुष्य थे? 
वह क्या था जो उनके जाने के बाद दिल को ऐसा चीरता रहा?

जब वह जीवित थे तो उनके प्रति हमेशा सम्मान और अपनापन रहा. उनका जाना इस तरह सालता रहेगा यह नहीं सोचा था. मंगलेश जी के देहांत के बाद बहुत से लोगों ने उन्हें वेबिनार, ज़ूम मीटिंग, श्रदांजलि सभाओं में याद किया जिससे उनके जीवन, मददगार स्वभाव, और विनोदी वृत्ति और जीवन संघर्ष की कितनी गिरहें खुली. लेकिन एक बात जो बार बार कही गई वह यह थी कि अनजान व्यक्ति से भी पहली दफे वह प्यार से मिलते थे, और वह सहसा उनके वृहतर परिवार का हिस्सा हो जाता था. मंगलेश जी हमेशा पूछते रहते थे कि नई कविता क्या लिखी, और जब मैं कहती थी कि बहुत दिनों से नहीं लिखी तो उनका जबाब होता था कि "कविता छूटनी नहीं चाहिए". फ़ेसबुक पर या किसी ऑनलाइन पोर्टल पर कभी जो मेरी कविता पोस्ट होती तो मंगलेश जी उसे नोटिस करते और उनका कमेंट वहाँ मिलता था. उसकी वज़ह शायद यह भी थी कि वह कविता को एकाकीपन और विस्थापित मनुष्य के लिए एक दिलासा समझते थे, सबकी फ़िक्र करना और सौजन्यता उनका स्वभाव था. हिंदी संसार से बाहर स्थित मेरे जैसे लोग भी देर-सेबर जान जाते हैं कि हिंदी कविता के पाठक कहीं नहीं हैं, उनको सम्पादित और प्रकाशित करने वाले प्रकाशक अब नहीं हैं, और अमूमन हिंदी कविता को हिंदी कवि-लेखक ही परस्पर पढ़ते हैं. मंगलेश जी, हिंदी कविता के सबसे मुखर और हमारे समय के एक बड़े कवि थे जो हिंदी समाज और साहित्य में दशकों से धँसे थे, इस विडम्बना को गहरे से समझते थे. साहित्य अकादमी पुरस्कार (2001) मिलने पर अपने व्यक्तव्य में मंगलेश जी ने कहा था 

“मैंने हिंदी कवि का अकेलापन भी देखा है जो लिखने के शांत क्षणों में तो सुखद हो सकता है, लेकिन उससे बाहर सामाजिक समय में बहुत डरावना है। यह अकेलापन दूसरी भाषाओं के लेखकों से इस अर्थ में काफी अलग है कि उनके सामने एक समाज है, एक पाठक समुदाय है जो हमेशा दृश्यमान भले ही ना हो, लेकिन अदृश्य तरीके से उनके जीवन में अपनी उपस्थिति, अपना आभास बनाये रखता है और उसे दूर से ही सही, पुकारता रहता है। लेखक ही उसके प्रति जवाबदेह होता है और उसकी प्रसन्न या उदास धुँधली-सी शक्ल उसे दिखाई देती रहती है। इसके विपरीत हिंदी लेखक का साक्षात्कार या तो एक भीषण रूप से अशिक्षित और विपन्न रखे गये समाज से होता है या फिर उस मध्यवर्ग से, जो कविता के नाम पर चुटकुले और कहानी के नाम पर सस्ते यानी उपन्यासों के अलावा लगभग कुछ नहीं पहचानता।….. मैं एक ऐसे समाज का सदस्य हूं जहां भाषा और शिक्षा के प्रति बहुत कम सम्मान है, संस्कृति की सजगता बहुत कम हो चली है, पोषण और अवलंबन देने वाला, सावधान करने वाला पाठक समुदाय नहीं रह गया है और कुल मिलाकर भ्रष्ट सरकार सत्ता-राजनीति ही सबसे बड़ा रोज़गार है जिसमें लोग पूरी अश्लीलता से लगे हुए हैं। शायद इसीलिए साहित्यिकजन अपनी ही बिरादरी में गोल बनाकर किसी छोटे से कबीले की तरह रहते हैं जहां अनेक बार आपसी कलह और संवादहीनता दिखाई देती है तो इसलिए कि सभी अपनी-अपनी तरह से हताश और एकाकी और सभी उसे अपने से छुपाते रहते हैं।"

लेकिन वह निराश यथास्थिति की जड़ता को स्वीकार नहीं करते थे, यथासंभव उसे बदलने के लिए प्रयासरत रहते थे. नये-पुराने साथी कवियों को वह लगातार कविता के एक समांतर यूनिवर्स में खींचकर लाते रहते थे, कवितायें उत्साह से पढ़ते, और ब्लॉग, फ़ेसबूक, और ईमेल आदि पर यथासम्भव प्रोत्साहित करने वाली टीप लिखते. हमारी पीढ़ी के कई कवियों को सांत्वना रहती थी कि मंगलेश जी देखते रहते हैं एक कवि के बस में यह तो था ही कि वह अपने साथियों को आवाज़ दे और एक आत्मीय संसार खड़ा कर दें. जो यथार्थ था उसके बरक्स एक नया रचनात्मक प्रतिरोध और नया सृजनशील संसार खड़ा करने की कोशिश वह आख़िर तक करते रहे. मंगलेश जी हिंदी में अन्य भारतीय भाषाओं और कई वैश्विक कवियों को अनुवाद के ज़रिये लाये थे, और कई देशी-विदेशी भाषाओं में उनकी कविताओं का भी अनुवाद हुआ. हिंदी साहित्यिक समाज को वैश्विक कविता से जोड़ने का वह पुल बन गये थे. उनका रचनाकर्म  कविता के एक समांतर और स्वायत संसार को खड़ा करने का ही वृतांत है, जहाँ कई कवि हैं, कवितायें व पुष्तकें हैं, कवियों की दोस्तियाँ और जीवन की विडम्बनायें हैं. हमारा कवि नई जगहों, लोगों से संवाद के ज़रिए सोचने-विचारने के नवाचार की सौग़ात पाता रहता है, और उसे हम तक पहुँचाता है.

मंगलेश जी भावुक और संवेदनशील व्यक्ति थे लेकिन उनकी यह भावुकता भी अनवरत बौद्धिक परिश्रम और स्वअनुशासन में रूटेड थी. जीवनयापन के लिए वह पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक की तरह कई-कई घंटे काम करते थे, और फिर उसी के बीच विविध विषयों पर पढ़ते रहना, लगातार अपने को माँजते रहना, अपने समकालीनों और युवा पीढ़ी को प्रोत्साहित करना और सामाजिक सांस्कृतिक प्रतिरोध के फ़्रंट बने रहना सब साथ-साथ चलता था. पिछले कुछ सालों में कई बार वह कहते थे कि मैं आज बहुत थक गया हूँ, फिर भी ज़िम्मेदारी के तहत विभिन्न मोर्चों पर सक्रिय रहते थे. हल्का बुखार हो, गहरी थकान हो, तब भी वह किसी आयोजन/सभा में दिल्ली के पब्लिक ट्रांसपोर्ट की असुविधा को झेलते पहुँच जाते थे. 

कभी उन्हें लस्त-पस्त और लापरवाह नहीं देखा (ऐसी कोई उनकी तस्वीर भी नहीं दिखती), हमेशा वह सुरुचिपूर्ण और सादे कपड़ों में तैयार दिखते थे. अपने को घर-बाहर गरिमा के साथ प्रस्तुत करना भी उनके व्यक्तित्व का अंग था हालाँकि इसे वह 'एक ढकी हुई ग़रीबी' कहने से परहेज़ नहीं करते थे, और न ही सम्भ्रांत दिखने की कोशिश करते थे. उन्हें किसी बड़े संस्थान और नामी विश्वविद्यालय ने नहीं बनाया था, बल्कि संघर्षशील जीवन, सामाजिक सरोकारों और आत्मीय मित्रता के संसार ने बनाया था. उनका व्यक्तित्व सरलता, सहजता और सुरुचि से बना था. अपना स्व उन्होंने मेहनत, सुरुचि और गरिमा से अर्जित किया था, जिसका सिरा उनके बचपन और युवावस्था के पहाड़ी सरल संस्कार, और संगीत से जुड़ा था. उनके व्यवहार, जीवन, और कविता में जो सरल सहज रवानी दिखती थी, वह साधारण बात नहीं थी, भले ही लगती साधारण हो.

मंगलेश जी अपने लेखन और जीवन दोनों में लगातार एक पर्यावरण की रचना करते हैं जिसमें कोई कवि जीवित बचा रह सकता है, और दूसरों को जोड़ता रह सकता है. उनकी सब मित्रतायें हम तक पहुँचती हुई कहती हैं कि इस संसार का विस्तार ज़रूरी है, हमारी इस दुनिया में कोई हस्ती हो तो वह कविता की नागरिकता हो. शायद कविता के इस संसार की नैतिकता ने उन्हें समकालीन यथार्थ के निर्दयी, कठोर संसार के विद्रूप, मनुष्यता-विरोधी तत्वों, और विचारों की पहचान करने की ताब दी, और जूझते रहने की ताक़त भी. 

आख़िरी वर्षों में हम देखते रहे कि उन्होंने फ़ेसबुक पर ही सांस्कृतिक-राजनैतिक प्रतिरोध का मोर्चा खोलकर रखा था. लोग वहाँ द्वेष, वैचारिक घृणा से सनी ओछी टिप्पणियाँ करते थे, जिनमें हिंदी की दुनिया की कवि-लेखक भी शामिल थे. मंगलेश जी अनदेखा नहीं कर पाते थे, उससे अपने को एक बौद्धिक दूरी रखते हुए निसंग नहीं रह पाते थे. बल्कि जबाब में लम्बी टिप्पणियाँ और स्वतंत्र पोस्ट लिखते थे. ब्लाक करना, प्रतिकूल कमेंट को डिलीट करना, इग्नोर करना उनसे न हो सका, शायद इसलिए कि वह अपने विरोधी और मित्रों दोनों को सामान इज़्ज़त/अटेंशन देने की सरलता रखते थे. आशा रखते थे कि शायद बातचीत से भेद सुलझाये जा सकें. मैं हैरान होती थी कि ट्रोल आर्मी से संचालित सोशल मीडिया पर मनुष्यता और सौजन्यता के प्रति यह आशावाद कहाँ से उनके भीतर भरा था. दूसरे भी दुखी होते रहे होंगे कि वह क्यूँ अपना समय जाया करते हैं. 

लेकिन यही मंगलेश जी थे बिना अहम के, करुणा से भरे, भलाई में यक़ीन रखने वाले वल्नरेबल इंसान. मैं उन्हें याद करती हूँ, और एक गहरी उदासी से भर जाती हूँ. मेरा बेटा कहता है कि उसने मंगलेश जी जैसा विनम्र और सज्जन इंसान नहीं देखा. हमारी यादों में वह एक कम्पास की तरह भी रहेंगे. मुझे सब्र इस बात का होता है कि ऐसे इंसान को हम ज़रा सा जान सकें, बच्चों की स्मृति में एक ऐसे मनुष्य की याद इस बड़बोली दुनिया में उन्हें संजीदा बनाये रखेगी.

"अंतत: प्रेम ही है यातना का प्रतिकार 
अन्याय का प्रतिशोध" 



Mar 26, 2021

Night by Elie Wiesel

इलाई वेज़ल की 'नाइट' (Night by Elie Wiesel) में उनके 1944 से 1945 तक आउशवित्ज़ यातना शिविर में रहने की के अनुभव हैं. रोमानिया के ट्रांसलवेनिया में जन्मे इलाई 15 साल के थे जब उन्हें सपरिवार 1944 में यातना शिविर में ले जाया गया, जहाँ उनकी माँ, पिताजी और छोटी बहन की मृत्यु हुई. इलाई और उनकी दो बड़ी बहने बची रहीं. 'नाइट' एक तरह से एन फ़्रैंक की डायरी ऑफ़ ए यंग गर्ल' की मिरर इमेज है. एन फ़्रैंक की डायरी एक ऐसे परिवार की कथा कहती है जो पकड़े जाने से पहले दो साल तक नात्सियों से छिपा रहा. नाइट एक परिवार और यहूदी मोहल्ले की कथा है कि कैसे एक पूरा समुदाय खदेड़ कर यातना शिविर में भेजा जाता है, जाने वालों की मनोदशा कैसी थी, और फिर उनके डि-ह्यूमनाइज़ेशन का सिलसिला. यातना शिविर में पहुँचने के बाद की छँटाई में बहुत सम्भव था कि अन्य बच्चों की तरह इलाई भी सीधे भट्टी में फेंक दिए गए होते लेकिन रात को जब उनकी ट्रेन पहुँची और लाइन लगनी शुरू हुई तो यातना शिविर में काम कर रहे किसी ने उसे सलाह दी कि अपनी उम्र 15 न बताकर 18 बताना और उसके पिता को सलाह दी कि 50 न बताकर 45 बताना. इस सलाह की वजह से दोनों को जीने की कुछ मोहलत मिल गई.
मौत को छकाकर यातना शिविर में पहुँचे तो अपने नाम की बदले A-7713 हो गये. व्यक्ति, नाम, व्यक्तित्व, विभिन्नता, विविधता और बहुपरतीय पहचान फ़ासिस्टों के धंधे में बाधा डालती है. इसीलिए व्यक्ति को नम्बर में लोगों को संख्या में बदलने से उनका विमर्श, आसान हो जाता है. डेढ़ साल तक पिता-पुत्र किसी तरह समय-समय पर होने वाले 'सेलेक्सन' से बचे रहे. फिर पिता की साँस आख़िरी दिनों में टूट गई, लेकिन इलाई न सिर्फ़ बच गए बल्कि उन्होंने दुनिया को उस जहन्नुम और होलोकास्ट के बारे में शिक्षित किया, 1986 में नोबेल शांति पुरस्कार पाया और 2016 तक जीवित रहे.
अच्छी किताबें हमेशा कुछ जोड़ती है और हमें अपने पूर्वग्रहों पर सोचने को बाध्य भी करती है. दुनिया फिर से कई तरह के 'सेलेक्सन' के बीच खड़ी है.