"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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Feb 19, 2008
क्या जूते मारना छेड़छाड़ रोकने का सही समाधान है ?
पारुल ने गाहे-बगाहे बच्चियों और औरतों को जिस तरह, verbal, physical, emotional, ताडन रोज़-रोज़ झेलना पड़ता है, उसी पर मन की बात लिखी। मुझे नही लगता की कोई भी इस ताडन से बच निकलने का अपवाद है। उत्तर भारत मे ये बहुत ज्यादा है, पर बाकी हिस्सों मे भी है। कही कम कही ज्यादा। औरतों के प्रति इस तरह की हिंसा मे समाज के हर वर्ग के पुरुष शामिल है, इसमे पढाई-लिखाई, जाती-धर्म, कोई बाधा नही।इसी मुद्दे पर मेने पहले भी अपने कोलेज के दिनों के संस्मरण किस्साये-कैंटीन-३ मे ज़िक्र किया है, और इसी असुरक्षा के माहौल मे किस तरह से हमारे सभ्य कहे जाने वाले ज्ञान के मंदिरों, विश्व्विधालयों मे भी लड़किया वहा alien बनी रहती है। कैंटीन जैसी सार्वजनिक जगह से भी निष्कासित रहती है। प्रेमचंद की लिखी पार्क वाली कहानी आज ५०-६० साल बाद भी समसामायिक है.हम मे से हर कोई अपने अपने समाधान निकलता है, जैसे पारुल ने निकाला, एक ऐसे जानवर को पीट कर, इस भरोसे की पीछे पति खडा है, बात बिगडी तो संभाल लेगा। अधिकतर लड़कियों के पीछे कोई खडा नही होता, बात संभालने के लिए। फ़िर आप शहर के हर नुक्कड़ पर अपने साथ किसी bodyguaard को लेकर घूम नही सकते। अब अगर साथ मे दो दो bodyguard भी हो तो बचना मुश्किल है, ये हमे नए साल मे हुयी मुम्बई की घटना ने बता दिया है। अब लड़कियों को छुप के छेडने kaa samay बीत गया है। भारत प्रगति पर है, अब ये एक सामूहिक आयोजन है। आसाम की राजधानी की सड़को पर भी दिन दहाड़े इस तरह की हरकत होती है, सरे आम। बुद्धीजीवी मीडीया कर्मी निर्वस्त्र भागती एक बच्ची की तसवीर खींचते है, आख़िर कैसे बनेगे अच्छे पत्रकार ? यही तो मौका है। मदद करने जायेंगे तो फोटो कैसे खीचेंगे, सुर्खियों मे कैसे आयेंगे, उनके चैनल्स किस तरह सफल होंगे? इसीलिए अपने भीतर के एक जिम्मेदार शहरी को मारकर, एक ऐसे इंसान को मारकर जो दूसरे के लिए मदद का हाथ बढ़ा सकता है, ही तो सफलता मिलाती है। पलएन एंड सिमपल .......हमारे समाज की नैतिकता यही पर उलझी है, की जिन महिलाओं के साथ इस तरह की हरकत होती है, वों अपने पहनावे से, अपने हाव-भाव से, इस हादसे के लिए कितनी जिम्मेदार थी? क़ानून, पुलिस, कोर्ट ये बाद की बातें है.पर आम लोगो मे , और एक बड़े समाज के हिस्से मे , इन हरकतों को अपराध न मानना और उसके लिए तर्क कुतर्क इस हद तक ढूंढ निकालना की पुरुषो के होर्मोनेस उनके वश मे नही, स्त्रिया उदीपन के लिए जिम्मेदार है, हमारे महान भारतीय संस्कृति का काला चेहरा दिखाने के लिए काफी है। जानवरों मे कभी किसी मादा के सामूहिक बलात्कार की कोई घटना, फिलहाल तो मेने न कभी पढी न नेशनलजेओग्रफिक पर आज तक देखी है।क्या जानवरों के नर अपने होर्मोनेस पर आदमी से ज्यादा वश रखते है ? प्रकृति मे हर जाती का नर यहां तक की फूल -पोधे भी बड़ी रचनात्मक तरीके से मादा को लुभाते है। इसीलिए कम से कम होर्मोनेस वाला समीकरण तो बहुत ही हास्यास्पद है। इसीलिए बात को आगे बढाते हुए मैं फ़िर से कहूंगी की ये एक ख़ास तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक समीकरणों से उपजी समस्या है, और इसका अन्तिम समाधान भी एक सजग समाज की भागीदारी और सक्षम क़ानून से ही सम्भव है। जब तक लोग खंड-खंड मे व्यक्तिगत समाधान ढूँढने के लिए अभिशप्त है, और हमारे समाज मे किसी तरह का सपोर्ट सिस्टम नही है, हर तरह के व्यक्तिगत समाधान सही ही है, जिनमे इग्नोर करना , रास्ता बदलना भी है। जिस तरह के परिवेश मे हम लोग बड़े होते है, अक्सर इस तरह की हिंसा की शिकार लड़की, को उनका परिवार, और समाज बार -बार कटघरे मे खडा करता आया है, और एक व्यक्तिगत परेशानी मे तब्दील कर देता है। हालाकि एक बड़े सामाजिक स्तर पर ये घटना रोज़ होती है। ये सब मैं अपनी व्यक्तिगत कायरता, या कम हिम्मत की वजह से नही कह रही हूँ। और सिर्फ़ व्यक्तिगत अनुभव के धरातल से ऊपर उठकर कह रही हूँ।
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