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Apr 9, 2008

खांचे मे बन्द चिड़चिड़ी औरत और समाज की सुविधा

सुन्दर, सलौनी, लड्किया के एक चिड़चिड़ी औरत मे बदलना, एक सामाजिक परिघ्टना है। जीवनसाथी का ज़बरन थोप दिया जाना, लागातार एक विस्थापित व्यक्ति की तरह ससुराल मे रहना, लगातार, मेहनत वाले, उबाऊ काम, जीवन मे एकरसता, सन्युक्त परिवार के दबाव, आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा, ये सब मिलकर बनाते है एक चिड़चिड़ी औरत.


सुजाता ने भारतीय समाज की पारिवारिक संरचना पर कुछ सवाल उठाये है, गृहस्थी का बोझ और उसका संत्रास भी स्त्री के हिस्से मे ज्यादा क्यो है? स्त्री चाहे काम् काज़ी हो य फिर ग्रिहस्तन, घर के काम उसके लिये ओप्शनल नही

एक मत यह भी आया कि अगर स्त्री घर सम्भालने मे नाकाबिल है तभी परेशानी होती है, और इसका एक उपाय एक नौकरानी रख लेना हो सकता है। इस तरह की प्रतिकिर्या, एक सिरे से हमारे समाज मे स्त्री-पुरुश की असमानता को जायज़ ठहराती है, य्थास्थिति की पक्षधर होती है और एक सामाजिक संरचना और इतिहासिक प्रिष्ठ्भूमी से उपजी मानवीय समस्याओ को निहायत व्यक्तिगत स्तर पर लाकर खारिज कर देती है.

रचना की तिप्पणी वही कथनी और करनी को मिलाने की ख्वाहिश को अभिव्यक्त करती है, और कहती है कि जितना भी ज़ोर लगेगी ये सुरत बदलनी चाहिये. और महिलाये, खासतौर से सिर्फ बात की बात बनाने तक सीमीत न रह जाय.

मुझे लगता है कि सुजाता और रचना दोनो की बाते, दो ज़रूरी बाते है, और एक मायने मे एक दूसरे की पूरक भी. सुविधासम्पन्न, और पढी-लिखी महिलाये, आज जहा पहुंची है, जितनी भी मोल-भाव की ताकत हासिल कर सकी है, सिर्फ व्यक्तिगत स्तर् पर ही स्त्री-मुक्ती का सवाल खत्म नही हो सकता. व्यक्तिगत स्तर पर ही मुक्ती की बात करना, और सिर्फ व्यक्ति को ही उसकी गुलामी, उसकी किस्मत, उसके दुख के लिये जिम्मेदार बना देना, एक मायने मे स्त्री-मुक्ति के सवाल् को बेमानी करार देना भी है. इसमे कोई दुविधा नही है कि ये एक बडा सामाजिक सवाल है, और समाज की संरचना को प्रश्न के दायरे मे लाना निहायत ज़रूरी भी है।

मनुष्य की सही मायने मे मुक्ती, चाहे वो स्त्री हो, पुरुष हो, और इस प्रिथ्वी के दूसरे प्राणी और यन्हा तक कि हवा-पानी भी प्रदूषण मुक्त तभी हो सकते है, जब इस धरती के बाशिन्दो मे एक समंवय हो, और किसी का अस्तित्व, किसी का सुख किसी दूसरे के दुख के एवज मे न मिला हो।
चुंकि हम एक ऐसे समाज मे रहते है, जो आज स्त्री के पक्ष मे नही है, और यहा रहने न रहने का चुनाव भी हमारा नही है. हम सिर्फ इतना कर सकते है, कि एक घेरे को और एक बन्द कमरे को जहा हमने, कुछ सामान जुटा लिया है, अपनी अनंत आज़ादी का आकाश समझ कर इतरा सकते है, जहा कभी सुरज की रोशनी नही आती।

दूसरा रास्ता ये हो सकता है, कि हम से जो भी बन पडे, इस समाज के समीकरण बदलने के लिये, वो करे. ज़ितना बन सके उतना करे. हर एक व्यक्ति की अपनी सुविधा और सीमा हो सकती है। इस दूसरे रास्ते की तलाश मे एक चीज़ जो अहम है, वो है इमानदारी, कथनी और करनी मे. और जो भी इन समीकरणो को बदलने की कोशिश करेगा, उसे गजालत तो उठानी ही पडेगी, कोई उसे सर -आंखो पर नही बिठाने वाला।

और जो लोग इन खतरो को जानकर, सचेत तरीके से उठाते है, वही समाजिक चेतना की अगुवाई भी करते है. मानव समाज पाषाण-युग से यहा तक इन्ही धीमे बद्लाओ के बाद पहुंचा है, और लगातार बदलेगा. एक समय् का लांछन दूसरे समय और काल मे उपाधि बन सकता है। और संकर्मण के दर्मियान बदलाव से ज्यादा कभी -कभी बद्लाव की बाते सुविधाजनक हो जाती है, क्योंकि उनके लिये कोई कीमत नही चुकानी पड्ती. और इसीलिये, इस पहलू पर रचना की बाते, बहुत ज़रूरी है

2 comments:

  1. आप उत्तेजक और अराजक से लेकर तमाम तरह के 'क्लिशे' से भरे-पूरे बासी किस्म के स्टीरियोटाइप नारीवादी लेखों को भी अपनी हिकमत और संवेदनशीलता से ग्राह्य बना देती हैं .

    मुख्य बात यह है कि अगर आप भीतर से ठोस और सुलझे हुए होते हैं तो आपकी मद्धम आवाज भी सुनी जाती है . और अगर भीतर तत्व नहीं है तो फोकटिया नारीवादी गलाफाड़ भाषण प्रतियोगिता से भी क्या होना-जाना है .

    ठोस स्त्री-विमर्श ठोस ज़मीन पर होता है . मजबूती से पैर जमाकर . नकली विमर्श हवाई होता है . निजी महत्वाकांक्षा के प्रेशर कुकर में पका हुआ . आज नारीवादी ब्लॉग शुरु होता है . कल दो अखबारों में प्रायोजित चर्चा होती है और परसों पर्चे में उसे ऐतिहासिक ठहरा दिया जाता है . सब काम एक ही कुटीर उद्योग के तहत संचालित होते हैं . इक्की-दुक्की स्त्रियों का बायोडाटा स्वस्थ व बेहतर होता है और औसत काम-काजी स्त्री के कष्ट उसी अनुपात में बढते चले जाते हैं .

    क्या इतिहास इस तरह बनता है ? नारीमुक्ति इस तरह होती है ? नहीं बल्कि नारियां इस प्रक्रिया में एक बने हुए तंत्र को 'मैनिपुलेट' करने के चक्कर में प्रकारांतर में खुद 'मैनिपुलेट' होती हैं . इस तात्कालिक लाभ का सामूहिक नुकसान स्थायी है .

    आप जैसी प्रबुद्ध और संवेदनशील नारियों के सामने मुख्य मुद्दा यही है कि नारीमुक्ति का देशज स्वर व स्वरूप कैसे अधिक ज़मीनी और कारगर हो ? आखिर मुक्ति को इसी समवाय,इसी समुदाय -- इसी दुनिया -- में संभव होना है,किसी मंगल ग्रह पर नहीं .

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  2. ब्लॉगों के गाड़-गधेरे पार करता आज आपके आंगण में आ पहुंचा। स्वप्नदर्शी की अतीतजीविता पर क्योंकर न मुग्ध हुआ जाय। आज अतीत ही ज्यादा आकर्षक जो हुआ। लेकिन आपके भविष्य के स्वप्नों में विज्ञान पर आम भाषा में लेखन शामिल हो जाय, तो शानदार काम हो सकता है, आपका ब्लॉग ऐसा दिवास्वप्न देखने को बार-बार मजबूर कर रहा ठहरा। छोटे-छोटे लेख, बच्चों को ध्यान में रखते हुए, नियमित लिखें। हिन्दी में। भले ही इसके लिए एक नया ब्लॉग शुरू कर दें।

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