अफलातून जी के ब्लॉग पर फिलहाल उनके शशी थरूर वाले लेख पर ये मूलत: एक असहमति के साथ लिखी टिप्पणी है। मेरा शशी थरूर या फ़िर कोंग्रेस से कुछ लेना देना नही है। पर एक नागरिक के बतौर जिसका आने वाले चुनाओ मे बस इतना योगदान है की वों अधिकतर नागनाथ और सापनाथ मे चुनाव करने के लिए ही स्वतंत्र है, और एक अरब की जनसंख्या मे उस वोट का भी सिम्बोलिक मूल्य के अलावा कोई मूल्य नही है। पर फ़िर भी इस बारे मे ख़ुद को सोचने से नही रोक सकी कि क्या वाकई शशि थरूर और उनके जैसे लोग, बाहुबली विधायको, अपराधी विधायको, उनकी अगूठा-छाप पत्नियों, या फ़िर पारिवारिक " जलजले चिरागों" के आगे खारिज कर देने लायक है?
शशि के विरोध की वजह अगर ये है.....
“बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पे रोल पर रहे अथवा अन्तरराष्ट्रीय संगठनों से पेंशनयाफ़्ता ऐसे लोगों का आयात करना पड़ेगा जिनका दिल-दिमाग पूरी तरह पश्चिमीकृत हो चुका है और जो अपनी पश्चिमपरस्त नीतियों की वजह से अन्ततः बाहुबलियों से ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकते हैं ।”
इस बारे मे फ़िर से अपनी असहमति दर्ज करना चाहती हूँ। दिल का मुझे नही पता की शशि का हिन्दुस्तानी है या नही। वैसे भी दिल का काम सोचने का नही है। दिल का सोच से रिश्ता सिर्फ़ कविता मे एक रूपक की तरह है। असल जीवन मे उसका काम सिर्फ़ इतना है, की खून लगातार परिशोधित होता रहे और शरीर के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचता रहे।
दिमाग का पश्चिमीकृत या पूर्वीकृत होना भी मेरी समझ से बाहर है। सोच मे रेशनलिटी या फ़िर सुब्जेक्टिविटी
पूर्व और पश्चिम दोनों ही संस्कृति मे पायी गयी है। इतना ज़रूर है की पिछली दो -तीन सदियों मे तकनीक और विज्ञान, और बाज़ार की समझ पश्चिम मे ही परवान चड़ी है, उसके अपने ऐतिहासिक और सामाजिक कारण है।
और निश्चित रूप से उसका असर जन जीवन की सोच पर भी है। पर सब पर एकसार है, ये मुझे अपने लंबे प्रवास मे नही लगता।
पूर्व के जितने भी देश है, उन्होंने भी विज्ञान, दर्शन, राजनीती, और बाज़ार का और आधुनिक शिक्षा का प्रारूप पश्चिम से उधार लिया है। कितना भी मन कड़वा करे, या अपने गोरवमय अतीत पर मुग्ध होवे, इस सच्च से हम मुकर नही सकते। भारत का जनमानस अपनी शिक्षा मे और नयी पीढी, और हमारी अधेड़ पीढी अपनी महत्त्वाकांक्षा मे जो खाका लिए घुमते है, वों पश्चिम की संस्कृति मे और सोच मे कितनी सरोबार है, इस पर भी सोचने की ज़रूरत है। और क्या ये सम्भव है की लगातार कम होती दूरियों की इस दूनिया कोई भी पश्चिम के प्रभाव से या पूरब के प्रभाव से बचा रहेगा? थरूर के बारे मे मेरी अपनी जानकारी सीमित है, पर सिर्फ़ इसीलिये की उन्होंने UN मे नौकरी की है, या पश्चिम का एक्स्पोसर है, उनका विरोध की हल्की वजह है।
देश की समझ, जन आंदोलनों की समझ और हिस्सा होना जननेता के लिए ज़रूरी है। पर ये भी ज़रूरी है की संसद मे इस समझ के लोग भी जाय जिन्हें इल्म हो की भारत आज के समय मे अंतररास्ट्रीय स्तर पर कहा खडा है ? जिसे अनुभव हो कई देशो के लोगो से नेगोशिएट करने का. समझ हो पश्चिमी संस्कृति और भाषा की भी ताकी उनके आर्गुमेंट्स के सन्दर्भ और उपज को समझ सके, और ज्यादा सशक्त तरीके से किसी भी सौदे को भारत के पक्ष मे कर सके। बाहुबली या नितांत जनान्दोलनों से आए ईमानदार नेताओं (जिनकी संसद मे जाने की संभावना वैसे भी कम है) को निश्चित रूप से इस समझ की कमी होती है। वैरायटी मिक्स संसद मे भी चाहिए, ताकी कई तरह की दृष्टी और समझ वहा भी हो। कभी -कभी किसी जगह से दूरी अच्छी होती है। distant view पूरे परिद्र्स्य को समग्र मे देखने की छूट देता है। और माईक्रोस्कोपिक view उसके भीतर एक स्थिति या स्थानीयता की गहनता को। भारत जैसे देश को समझने के लिए और खासकर नीती निरधाराको की फोज़ मे दोनों तरह के लोगो का होना ज़रूरी है। भारत को समझने की distant view वाली एक समग्र दृष्टी थरूर से ज्यादा आज की संसद मे किसके पास है?
ये भी मेरे लिए समझ से बाहर है, कि आरिफ ज़कारिया, शशि थरूर, जैसे लोग बाहुबली से ज्यादा खतरनाक है? या फ़िर UN मे नौकरी करने वाला या MNC मे नौकरी करने वाले, या विदेशी यूनिवर्सिटी मे कार्यरत हमारे जैसे लोग उन लोगो से बेईमान है जो सहारा , रिलायंस, इत्यादि या जोड़ जुगत करके नौकरी पाये सरकारी संस्थानों/हिन्दुस्तान के विश्व्विध्लायो मे काम करते है?
"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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Mar 31, 2009
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विदेशी कंपनियों में नौकरी करना गलत क्यों?
ReplyDeleteस्वप्नदर्शी के बेहतरीन रिजॉइन्डर में विचार करने योग्य कई बातें हैं . जैसे यह कि :
ReplyDelete” देश की समझ, जन आंदोलनों की समझ और हिस्सा होना जननेता के लिए ज़रूरी है। पर ये भी ज़रूरी है की संसद मे इस समझ के लोग भी जाय जिन्हें इल्म हो की भारत आज के समय मे अंतररास्ट्रीय स्तर पर कहा खडा है ? जिसे अनुभव हो कई देशो के लोगो से नेगोशिएट करने का. समझ हो पश्चिमी संस्कृति और भाषा की भी ताकी उनके सन्दर्भ और उपज को देख सके, और ज्यादा सशक्त तरीके से किसी भी सौदे को भारत के पक्ष मे कर सके.”
पर उन्होंने कई मुद्दों को घुला-मिला दिया है . जिन पर एक-एक कर विचार करना उचित होगा .
१. दिल-दिमाग का सवाल सिर्फ़ जैववैज्ञानिक आधारों पर नहीं समझा जा सकता . कोई व्यक्ति या समाज पश्चिमीकृत कैसे होता है इसे थोड़ा बहुत सब समझते हैं . सही-सही समझा जा सकता है धर्मपाल और किशन पटनायक को पढकर . धर्मपाल का एक लेख स्वप्नदर्शी को भेजना चाहूंगा . भरोसा है उन्हें ज़रूर अच्छा लगेगा . ऐसे हर व्यक्ति को अच्छा लगेगा जो अपने देश को लेकर चिंतित और चिंतनशील है .
२. इसमें क्या दो राय हो सकती है कि ’रैशनैलिटी’ और ’ऑब्जेक्टिविटी’ पूर्व और पश्चिम दोनों जगह पाई जाती है . पर जब भी हम पश्चिम की बात करते हैं तो हमारे जेहन में वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं जिनका लक्ष्य सिर्फ़ नए बाज़ार खोजकर अपना मुनाफ़ा बढाना होता है . स्वप्नदर्शी ने इनमें भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों/देशी पूंजीपतियों को भी शामिल कर लिया. मुझे अच्छा लगा . कुल-गोत्र इनका एक ही है . मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने पद्मावत में पंडित की एक सर्वथा मौलिक परिभाषा दी है : ’पंडित होई सो हाट न चढा’ . यानी पंडित वही है जो बाजार में बिकने के लिए नहीं बैठा है या जिसे बाज़ार खरीद नहीं सका है .
मैं इसे बुद्धिजीवी की परिभाषा के रूप में लेता हूं . बुद्धिजीवी वह है जिसका ज्ञान सिर्फ़ खुले बाज़ार में ’हाइएस्ट बिडर’ को सुलभ नहीं है, उसे अपने देश-समाज-समुदाय की प्राथमिकताओं की भी चिंता है . वे मेधावी व्यक्ति जो अपनी समूची मेधा का उपयोग बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए कर रहे हैं, क्या उनके सामने ’रैशनैलिटी’ या ’ऑब्जेक्टिविटी’ जैसे मूल्यों का कोई महत्व है . यह नहीं कि वे इनसे अपरिचित हैं, पर उनकी आर्थिक गुलामी,मिलनेवाला बड़ा पैसा उन्हें ऐसा नहीं करने देता . वे उपकरण मात्र होते हैं . कोएस्लर ने इस प्रकार के बुद्धिजीवियों को कॉलगर्ल्स — ’बौद्धिक मुजरेवालियां’ — ऐसे ही थोड़े कहा है .
पश्चिम से हमने विज्ञान, दर्शन, राजनीति और शिक्षा में बहुत कुछ लिया है लेने में कुछ बुराई भी नहीं है . गांधी जी ने इसे खिड़की और दरवाजे के रूपक के जरिए बेहतरीन ढंग से समझाया है . पर विकास का पूरा का पूरा ढांचा ही ले लें यह कतई ज़रूरी नहीं है .
शशि थरूर से मेरी भी कोई जाती दुश्मनी नहीं है . विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके लिखे कॉलम्स खूब रुचि के साथ पढता रहा हूं . उनके मेधावी होने को लेकर भी कोई शक मन में नहीं है . वे तनख्वाह/पेंशन डॉलर में पाते हैं या पाउंड्स में इससे भी कोई ईर्ष्या नहीं है,पर उनकी पृष्ठभूमि के चलते उनकी प्राथमिकताओं के प्रति एक संशय मन में ज़रूर है . बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने पक्ष में इनसे बयान दिलवाती रही हैं . इसकी क्या गारंटी है कि इनकी उमीदवारी के पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रणनीति नहीं है ? इसी संदर्भ में मैंने कहा है कि ये बाहुबलियों से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं . इसे बाहुबलियों का समर्थन कतई न माना जाए .
वैसे भी मैं पैराशूट से उतारे गए नेताओं का और जमीनी कार्यकर्ताओं को पीछे धकेल कर पार्टियों द्वारा नेताओं को पैराशूट से उतारने की प्रवृत्ति का विरोधी हूं. तब चाहे ऐसे नेता मुम्बई या दिल्ली से लदवा कर उतारे जा रहे हों अथवा न्यूयॉर्क या वाशिंगटन से . कारकुनों/करिंदों में लम्बे अरसे तक पराधीनता में काम के बाद एक किस्म की परवशता आ जाती है . जब हमारे प्रधानमंत्री, जिनकी प्रतिभा और ईमानदारी के लिए मेरे मन में सम्मान है,इस परवशता से नहीं बच सके तो शशि थरूर क्या खाकर बचेंगे .
जहां तक विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले विशेषज्ञों के संसद में जाने का सवाल है, इसकी व्यवस्था हमारी संसदीय प्रणाली में है . और यह व्यवस्था इसीलिए की गई है(जिसकी चिंता स्वप्नदर्शी ने व्यक्त की है) चूंकि ऐसे लोगों के चुनावी दंगल के जरिए चुनकर आने की संभावना बहुत कम है . अगर शशि थरूर सचमुच इतने ही अपरिहार्य हैं तो कांग्रेस उन्हें बाद में नामित करने के लिए स्वतंत्र है .
यू एन या अमेरिकी विश्वविद्यालय से आना न तो कोई ’डिस्क्वालिफ़िकेशन’ है और न ही ’क्वालिफ़िकेशन’ . वहां भी एडवर्ड सईद और नॉम चॉम्स्की जैसे लोग हैं और भारत में भी हर डाल पर हज़ारों शशि थरूर हैं .
फ़रीद ज़करिया (स्वप्नदर्शी शायद इन्हीं का नाम लेना चाहती थीं, पर भूल से आरिफ़ लिख गईं) के अध्यवसाय को लेकर मन में बहुत सम्मान भाव है . ’धर्म,आतंकवाद और आज़ादी’ पर काम करते समय उनकी किताब ’द राइज़ ऑफ़ इल्लिबरल डिमॉक्रसी’ पढने का मौका मिला था . इधर कम ही किताबों से इतना प्रभावित हुआ हूं जितना इस किताब से , तब भी मेरे इस विश्वास में कोई कमी नहीं आई है कि उनके स्व. पिता रफ़ीक ज़करिया भारतीय संसद के लिए ज्यादा उपयुक्त व्यक्ति थे .
शशि थरूर और फ़रीद ज़करिया अगर सचमुच भारत के लिए बहुत चिंतित हैं तो वे अमेरिका में रहते हुए,बल्कि ओबामा की सलाहकार मंडली के रूप में इस देश के लिए ज्यादा कुछ ’नेगोशिएट’ कर सकते हैं,जैसी की चर्चा सुनाई पड़ती है .
स्वप्नदर्शी की इस बात से पूरी सहमति है कि भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपतियों के अधीन काम करने वाले योग्य किंतु पराधीन व्यक्ति और जोड़-जुगत से सरकारी संस्थानों में/विश्वविद्यालयों में टिक्कड़ तोड़ रहे अयोग्य व्यक्ति उतने ही खतरनाक हैं जितने किसी अन्य देश या विश्वविद्यालय के .
मैं अपनी पिछली राय पर कायम हूं और भाई अफ़लातून के ’शशि थरूर हराओ अभियान’ का समर्थन करता हूं और बहस को आगे बढाने के लिए स्वनदर्शी के प्रति आभार व्यक्त करता हूं .
well ! we all want talented people & intellectuals to take part in active politics & to work for common man . From Gandhi to Rammanohar Lohia , there is a long list of intellectuals who sacrificed their personal career for the sake of this country . Even now we have the example of Ajit Singh, Omar Abdulla,Sachin Pilot & Manavendra Singh etc etc. , but they all belong to political families .
ReplyDeleteI am all for Swapnadarshi's demand that educated people should join politics & they must be given a chance to get elected , but they have to toil for that -- they should earn their candidature . generally they don't seem to do it . They are parashooted by a party & it looks that they buy their candidature with the money earned from/provided by this or that multi-national & that also at the cost of some grassroot level worker/leader .
Who is there to stop these gentlemen from having direct exposure to the masses, but for that they have to forgo comforts , stay with the common people & win their faith . Is that possible for these people ? if it is so, why Aflatoon is worried about Shashi Tharoor's candidature ?
I'll be the happiest man to see honourable gentlemen sitting over there in parliament , but gentlemen in true sense , not the gentlemen hobnobbing with multi-nationals .