एकनिष्ठा, अनन्यता पर स्त्री-पुरूष के सन्दर्भ मे राजकिशोर जी ने पिछले लेख मे शरतचंद्र के बहाने कुछ सवाल उठाये है, उन सवालों पर कुछ यथासंभव कच्चे-पके जबाब की तरह इस पोस्ट को देखा जाय।
"स्त्री-पुरुष संबंध का शायद ही कोई आयाम हो जिस पर इस विचार-प्रधान, पर अत्यंत पठनीय उपन्यास में कुछ न कुछ नहीं कहा गया हो। और, जो भी कहा गया है, वह इतना ठोस है कि आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है जितना 1931 में, जब यह पहली बार प्रकाशित हुआ था। हैरत होती है कि हिन्दी की स्त्रीवादी लेखिकाएँ शरत चंद्र को उद्धृत क्यों नहीं करतीं। क्या इसलिए कि वे स्त्री नहीं, पुरुष थे ?"
शरतचन्द्र की आज हमारे लिए प्रासंगिकता
ये आग्रह भारतीय समाज मे बहुत गहरे बैठा हुया है, कि शरत स्त्री मनोविज्ञान की कुंजी दे गए है और वही पर सारी उलझनों का आदि और अंत है, शायद इसीलिये राज किशोर जी भी कह गए "जैसे उत्तर भारत के समाज को समझने के लिए प्रेमचंद को बार-बार पढ़ने की जरूरत है, वैसे ही स्त्री-पुरुष संबंध के यथार्थ पर विचार करने के लिए शरत चंद्र को बार-बार पढ़ना चाहिए।"
शरत को पढा ज़रूर जाना चाहिए, पर आज के स्त्री-पुरूष सम्बन्ध बहुमुखी हो चुके है, शरत चन्द्र के समय का यथार्थ हमारा भूतकाल है, वर्तमान नहीं है, और हमारे भविष्य की दिशा का निर्णायक भी नहीं है। शरत की आज के समय कितनी प्रासंगिकता है, उसके लिए एक कसौटी ये हो सकती है कि पिछले १०० सालो में औरत की स्थिति में देश के भीतर और बाहर कितना बदलाव आ चुका है। अगर ये बदलाव अभूतपूर्व है, तो शरतचंद्र की १०० साल पुरानी कुंजी नहीं चल सकती है। हमारी-सामजिक /ऐतिहासिक यात्रा के एक पड़ाव की पड़ताल ही उससे हो सकती है, उनके समाज मे सिर्फ कुछ संभ्रांत स्त्रियों को शिक्षा के नए अवसर मिले थे, वो चारदीवारी के भीतर पति-पिता के सरक्षण मे अक्षरज्ञान सीख रही थी, और भद्र बंगाली पुरूष के लिए एक कोतुहल भरा आकर्षण था कि अरे स्त्री सोच सकती है? उनकी समझ का कोई सामाजिक-आर्थिक मूल्य नहीं था, इसीलिये वों कटघरे मे छटपटाती आत्मायें है, जिन पर पुरूष लेखक लगातार अपने फैसले देते हैं. ये सीमित पर्यावरण ही है जो स्त्रीयों की समूची सोच और शरत बाबू के पूरे उपन्यास का आधार सिर्फ़ स्त्री पुरूष के संबंधो पर ही "एक अंधेरे बंद कमरे" मे घूमता है।
स्त्री के सारे प्रश्नों और समूची प्रतिभा और जीवन का निचोड़ सिर्फ़ अगर प्रेम संबंधो के विश्लेषण ही रह जाय तो ये सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस परिवेश मे स्त्री का अपना स्वायत्त अस्तित्व नहीं, जो भी है, सिर्फ़ पुरूष के इर्द-गिर्द है।
पिछले १०० साल मे आज़ादी मिल चुकी है, और स्त्री घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर सामाजिक और राजनैतिक जीवन में ख़ुद को स्थापित कर चुकी है. स्त्री पुरूष मे बीच व्यक्तिगत प्रेम संबंधो से आगे बहुत से नए सम्बन्ध भी जुड़ गए हैं, मित्रवत, सहकर्मियों, प्रतिद्वंदियों, भीड़ से रोज-ब-रोज का exposure,, जो शरत के समाज मे नहीं थे । हमारे समाज मे आज स्त्री के लिए अपार सम्भावनाये हैं, शरत की नायिका की तुलना में आज स्त्री के प्रश्न अनेक हैं, संघर्ष बहुमुखी हैं, प्रेम सम्बन्ध स्त्री जीवन का केन्द्र बिन्दु न होकर सिर्फ एक निजी डोमेन है. इसीलिए शरत की आज हमारे लिए प्रासंगिकता नहीं बची। उनकी रचनात्मकता और उस समयकाल मे स्त्री को समझने के उनके ज़ज्बे को भी सलाम है, पर उनके आगे पूरी-तरह नतमस्तक हो कर ये स्वीकारना की स्त्री के सारे महत्वपूर्ण सवाल यही खत्म हो गए हैं, सम्भव नहीं है। इसे २१वी सदी मे होने के व्यक्तिगत घमंड, या फ़िर शरत को कूड़े में फेंक देने की बात नहीं है, क्यूंकि वो पुरुष थे, उनकी जगह कोई स्त्री लेखिका होती तो उसका भी यही हश्र होता, पुरूष लेखन से स्त्रियों का कोई बैर नही है।
"शरत आज होते तो क्या लिखते?"सवाल ये होना चाहिए कि स्त्री के आज के सवाल क्या है?
कोई भी समकालीन लेखक-लेखिका आज स्त्री के सामाजिक संघर्षो के बारे मे, नयी चुनौती के बारे मे लिखेंगे, पुरूष सत्ता को चुनौती उनकी सिर्फ़, पौराणिक कथाओं के बूते नही बल्कि जनवादी आधार पर, सामाजिक न्याय की जमीन पर खडे होकर दी जायेगी. बाकी की दीन-दुनिया से संवाद और इसी की रोशनी मे स्त्री-पुरूष के रिश्ते का भी संवाद आज का सच है । आज शरत होते तो बहुत सम्भव है की, एकनिष्ठा के संवाद की जगह "रसोई संवाद होता" , परिवार को जनतांत्रिक बनाने का संवाद होता।
२-दूसरा प्रश्न एकनिष्ठा को वों भी विधुर/विधवा के लिए एक नैतिक मूल्य की तरह मानने और न मानने का या आग्रह का है।
मेरी नज़र मे शादी-शुदा लोगो के लिए एक निष्ठा इस रिश्ते(सिविल contract) की इमानदारी है। पर आपकी परिभाषा ये है ....
"एकनिष्ठता कुछ अलग ही चीज है। इसका सहोदर शब्द है, अनन्यता। कोई स्त्री या पुरुष जब अपने प्रेम पात्र के साथ इतनी शिद्दत से बँध जाए कि न केवल उसके जीवन काल में, बल्कि उसके गुजर जाने के बाद भी कोई अन्य पुरुष या स्त्री उसे आकर्षित न कर सके, तो इस भाव स्थिति को अनन्यता कहा जाएगा। यही एकनिष्ठता है। आज भी इसे एक महान गुण माना जाता है और ऐसे व्यक्तियों की पूजा होती है।"
ये एकनिष्ठा का मूल्य सदियों से भारतीय स्त्री के ऊपर "नैतिकता " का पाठ पढा कर थोपा गया है, जिसकी क्रूरतम अभिव्यक्ति "सती-प्रथा" और "सती-पूजन" मे जाकर होती है। स्त्री को एक पुरूष की "सर्वाधिकार" सम्पति जीवन-पर्यंत और मृत्यु के बाद भी हमारी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था ने बना कर रखा है। पुरूष के लिए सिर्फ़ शरत बाबू ने अपने उटोपियां ग्रस्त उपन्न्यासो चरित्रहीन के "उपेन्द्र बाबू" और शेष प्रश्न के "आशु बाबु" के लिए सृजित किया है, और इसका महिमा मंडन भी एक तरह से। उसी रोमांटिसिज्म की छाया आपके इस लेख पर भी है। जब किसी व्यहवार के साथ मूल्य और नैतिकता का आग्रह जैसे शब्द जुड़ते है, तो चाहे -अनचाहे , वृहतर समाज के लिए इसे एक मानक की तरह स्वीकृति की इच्छा छिपी रहती है।
राज किशोर जी २१वी सदी मे भी इस एकनिस्ठा पर सवाल उठाने से हैरत मे है!!! और लिखते है॥
"हैरत की बात यह है कि शेष प्रश्न की नायिका कमल, जो लेखक की बौद्धिक प्रतिनिधि है, एकनिष्ठता के मूल्य को चुनौती देती है।"
किसी भी संवेदनशील इंसान के लिए, इसमे हैरत मे पड़ने की कोई वजह नही है, और इसीलिये एकनिष्ठता को प्रिय मूल्य की तरह सहेजने की भी ज़रूरत नही है. इसे एक व्यक्तिगत फैसला मानना ज़रूरी है, और ऐसे लोगो की पूजा की कोई आवश्यकता नही है। कमल या किसी और की तरह इन्हे बुड्डा या मृत मानना जरूरी नही है। विधुर, तलाकशुदा के लिए ये एक नैतिक मूल्य से ज्यादा "चोयस" का मामला ज़रूर है, क्योंकि नए रिश्ते बनाने मे बहुत ऊर्जा लगती है, समय लगता है, और इतना आसान शायद हर व्यक्ति के लिए नही होता। हो सकता है कुछ लोग अपनी इस ऊर्जा का कही और इस्तेमाल करना चाहते हो। इसीलिये कम से कम आज के दौर मे इस पर एक रोमांटिसिज्म का वैसा आवरण नही है, जैसे शरत ने अपने समय मे किया है, कि ये एक नैतिक मूल्य है।
पुनश्च: वों कौन से कारण है की ब्लॉग जगत के पुरूष लेखक इस बात का रोना रोते है, की स्त्रीया ये नही लिखती? इसका प्रतिरोध नही करती? अमुक का समर्थन नही करती? फला लेखक को कोट नही करती? क्या स्त्री को मानसिक रूप से वयस्क मानने की रिवायत नही है यह्ना? हर वक़्त कोई "अभिवाहक " चाहिए ? जो निर्देश देता रहे, की ये न किया? वों न हुया? और ये क्यों न हुआ का समाधान और उत्तर भी ख़ुद ही देता फिरे? स्त्रियों के उत्तर की प्रतीक्षा भी न करे?
"स्त्री-पुरुष संबंध का शायद ही कोई आयाम हो जिस पर इस विचार-प्रधान, पर अत्यंत पठनीय उपन्यास में कुछ न कुछ नहीं कहा गया हो। और, जो भी कहा गया है, वह इतना ठोस है कि आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है जितना 1931 में, जब यह पहली बार प्रकाशित हुआ था। हैरत होती है कि हिन्दी की स्त्रीवादी लेखिकाएँ शरत चंद्र को उद्धृत क्यों नहीं करतीं। क्या इसलिए कि वे स्त्री नहीं, पुरुष थे ?"
शरतचन्द्र की आज हमारे लिए प्रासंगिकता
ये आग्रह भारतीय समाज मे बहुत गहरे बैठा हुया है, कि शरत स्त्री मनोविज्ञान की कुंजी दे गए है और वही पर सारी उलझनों का आदि और अंत है, शायद इसीलिये राज किशोर जी भी कह गए "जैसे उत्तर भारत के समाज को समझने के लिए प्रेमचंद को बार-बार पढ़ने की जरूरत है, वैसे ही स्त्री-पुरुष संबंध के यथार्थ पर विचार करने के लिए शरत चंद्र को बार-बार पढ़ना चाहिए।"
शरत को पढा ज़रूर जाना चाहिए, पर आज के स्त्री-पुरूष सम्बन्ध बहुमुखी हो चुके है, शरत चन्द्र के समय का यथार्थ हमारा भूतकाल है, वर्तमान नहीं है, और हमारे भविष्य की दिशा का निर्णायक भी नहीं है। शरत की आज के समय कितनी प्रासंगिकता है, उसके लिए एक कसौटी ये हो सकती है कि पिछले १०० सालो में औरत की स्थिति में देश के भीतर और बाहर कितना बदलाव आ चुका है। अगर ये बदलाव अभूतपूर्व है, तो शरतचंद्र की १०० साल पुरानी कुंजी नहीं चल सकती है। हमारी-सामजिक /ऐतिहासिक यात्रा के एक पड़ाव की पड़ताल ही उससे हो सकती है, उनके समाज मे सिर्फ कुछ संभ्रांत स्त्रियों को शिक्षा के नए अवसर मिले थे, वो चारदीवारी के भीतर पति-पिता के सरक्षण मे अक्षरज्ञान सीख रही थी, और भद्र बंगाली पुरूष के लिए एक कोतुहल भरा आकर्षण था कि अरे स्त्री सोच सकती है? उनकी समझ का कोई सामाजिक-आर्थिक मूल्य नहीं था, इसीलिये वों कटघरे मे छटपटाती आत्मायें है, जिन पर पुरूष लेखक लगातार अपने फैसले देते हैं. ये सीमित पर्यावरण ही है जो स्त्रीयों की समूची सोच और शरत बाबू के पूरे उपन्यास का आधार सिर्फ़ स्त्री पुरूष के संबंधो पर ही "एक अंधेरे बंद कमरे" मे घूमता है।
स्त्री के सारे प्रश्नों और समूची प्रतिभा और जीवन का निचोड़ सिर्फ़ अगर प्रेम संबंधो के विश्लेषण ही रह जाय तो ये सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस परिवेश मे स्त्री का अपना स्वायत्त अस्तित्व नहीं, जो भी है, सिर्फ़ पुरूष के इर्द-गिर्द है।
पिछले १०० साल मे आज़ादी मिल चुकी है, और स्त्री घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर सामाजिक और राजनैतिक जीवन में ख़ुद को स्थापित कर चुकी है. स्त्री पुरूष मे बीच व्यक्तिगत प्रेम संबंधो से आगे बहुत से नए सम्बन्ध भी जुड़ गए हैं, मित्रवत, सहकर्मियों, प्रतिद्वंदियों, भीड़ से रोज-ब-रोज का exposure,, जो शरत के समाज मे नहीं थे । हमारे समाज मे आज स्त्री के लिए अपार सम्भावनाये हैं, शरत की नायिका की तुलना में आज स्त्री के प्रश्न अनेक हैं, संघर्ष बहुमुखी हैं, प्रेम सम्बन्ध स्त्री जीवन का केन्द्र बिन्दु न होकर सिर्फ एक निजी डोमेन है. इसीलिए शरत की आज हमारे लिए प्रासंगिकता नहीं बची। उनकी रचनात्मकता और उस समयकाल मे स्त्री को समझने के उनके ज़ज्बे को भी सलाम है, पर उनके आगे पूरी-तरह नतमस्तक हो कर ये स्वीकारना की स्त्री के सारे महत्वपूर्ण सवाल यही खत्म हो गए हैं, सम्भव नहीं है। इसे २१वी सदी मे होने के व्यक्तिगत घमंड, या फ़िर शरत को कूड़े में फेंक देने की बात नहीं है, क्यूंकि वो पुरुष थे, उनकी जगह कोई स्त्री लेखिका होती तो उसका भी यही हश्र होता, पुरूष लेखन से स्त्रियों का कोई बैर नही है।
"शरत आज होते तो क्या लिखते?"सवाल ये होना चाहिए कि स्त्री के आज के सवाल क्या है?
कोई भी समकालीन लेखक-लेखिका आज स्त्री के सामाजिक संघर्षो के बारे मे, नयी चुनौती के बारे मे लिखेंगे, पुरूष सत्ता को चुनौती उनकी सिर्फ़, पौराणिक कथाओं के बूते नही बल्कि जनवादी आधार पर, सामाजिक न्याय की जमीन पर खडे होकर दी जायेगी. बाकी की दीन-दुनिया से संवाद और इसी की रोशनी मे स्त्री-पुरूष के रिश्ते का भी संवाद आज का सच है । आज शरत होते तो बहुत सम्भव है की, एकनिष्ठा के संवाद की जगह "रसोई संवाद होता" , परिवार को जनतांत्रिक बनाने का संवाद होता।
२-दूसरा प्रश्न एकनिष्ठा को वों भी विधुर/विधवा के लिए एक नैतिक मूल्य की तरह मानने और न मानने का या आग्रह का है।
मेरी नज़र मे शादी-शुदा लोगो के लिए एक निष्ठा इस रिश्ते(सिविल contract) की इमानदारी है। पर आपकी परिभाषा ये है ....
"एकनिष्ठता कुछ अलग ही चीज है। इसका सहोदर शब्द है, अनन्यता। कोई स्त्री या पुरुष जब अपने प्रेम पात्र के साथ इतनी शिद्दत से बँध जाए कि न केवल उसके जीवन काल में, बल्कि उसके गुजर जाने के बाद भी कोई अन्य पुरुष या स्त्री उसे आकर्षित न कर सके, तो इस भाव स्थिति को अनन्यता कहा जाएगा। यही एकनिष्ठता है। आज भी इसे एक महान गुण माना जाता है और ऐसे व्यक्तियों की पूजा होती है।"
ये एकनिष्ठा का मूल्य सदियों से भारतीय स्त्री के ऊपर "नैतिकता " का पाठ पढा कर थोपा गया है, जिसकी क्रूरतम अभिव्यक्ति "सती-प्रथा" और "सती-पूजन" मे जाकर होती है। स्त्री को एक पुरूष की "सर्वाधिकार" सम्पति जीवन-पर्यंत और मृत्यु के बाद भी हमारी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था ने बना कर रखा है। पुरूष के लिए सिर्फ़ शरत बाबू ने अपने उटोपियां ग्रस्त उपन्न्यासो चरित्रहीन के "उपेन्द्र बाबू" और शेष प्रश्न के "आशु बाबु" के लिए सृजित किया है, और इसका महिमा मंडन भी एक तरह से। उसी रोमांटिसिज्म की छाया आपके इस लेख पर भी है। जब किसी व्यहवार के साथ मूल्य और नैतिकता का आग्रह जैसे शब्द जुड़ते है, तो चाहे -अनचाहे , वृहतर समाज के लिए इसे एक मानक की तरह स्वीकृति की इच्छा छिपी रहती है।
राज किशोर जी २१वी सदी मे भी इस एकनिस्ठा पर सवाल उठाने से हैरत मे है!!! और लिखते है॥
"हैरत की बात यह है कि शेष प्रश्न की नायिका कमल, जो लेखक की बौद्धिक प्रतिनिधि है, एकनिष्ठता के मूल्य को चुनौती देती है।"
किसी भी संवेदनशील इंसान के लिए, इसमे हैरत मे पड़ने की कोई वजह नही है, और इसीलिये एकनिष्ठता को प्रिय मूल्य की तरह सहेजने की भी ज़रूरत नही है. इसे एक व्यक्तिगत फैसला मानना ज़रूरी है, और ऐसे लोगो की पूजा की कोई आवश्यकता नही है। कमल या किसी और की तरह इन्हे बुड्डा या मृत मानना जरूरी नही है। विधुर, तलाकशुदा के लिए ये एक नैतिक मूल्य से ज्यादा "चोयस" का मामला ज़रूर है, क्योंकि नए रिश्ते बनाने मे बहुत ऊर्जा लगती है, समय लगता है, और इतना आसान शायद हर व्यक्ति के लिए नही होता। हो सकता है कुछ लोग अपनी इस ऊर्जा का कही और इस्तेमाल करना चाहते हो। इसीलिये कम से कम आज के दौर मे इस पर एक रोमांटिसिज्म का वैसा आवरण नही है, जैसे शरत ने अपने समय मे किया है, कि ये एक नैतिक मूल्य है।
पुनश्च: वों कौन से कारण है की ब्लॉग जगत के पुरूष लेखक इस बात का रोना रोते है, की स्त्रीया ये नही लिखती? इसका प्रतिरोध नही करती? अमुक का समर्थन नही करती? फला लेखक को कोट नही करती? क्या स्त्री को मानसिक रूप से वयस्क मानने की रिवायत नही है यह्ना? हर वक़्त कोई "अभिवाहक " चाहिए ? जो निर्देश देता रहे, की ये न किया? वों न हुया? और ये क्यों न हुआ का समाधान और उत्तर भी ख़ुद ही देता फिरे? स्त्रियों के उत्तर की प्रतीक्षा भी न करे?
स्त्रियों के उत्तर की प्रतीक्षा क्यों कर हो ...जवाब मिल तो गए हैं .. आपने दे तो दिए हैं !!
ReplyDeleteहमने तो ऐसा नहीं सुना//// कहाँ पर किसने कहा?
ReplyDeleteमुझे आपका यह लेख बहुत अच्छा लगा....
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ReplyDeleteकुछ कहानिया उपन्यास अपने वक़्त का दस्तावेज होते है ..ओर अपने वक़्त के लिए प्रासंगिक भी .....निसंदेह उस वक़्त ओर लेखक की अपनी सीमा होती है जो शायद लेखक स्वंय जानता है..शरत चन्द्र की भी कुछ सीमाये होगी ..
ReplyDelete"स्त्री के सारे प्रश्नों और समूची प्रतिभा और जीवन का निचोड़ सिर्फ़ अगर प्रेम संबंधो के विश्लेषण ही रह जाय तो "
दरअसल इस बात में ही शरत चन्द्र को स्त्री विमर्श से ना जोड़ने के सवाल का उत्तर मिल जाता है ....
आज की स्त्री के सवाल बदल गए है ...उन्होंने न केवल अपनी शक्ल बदली है ....अलबत्ता वे बढ़कर ओर ज्यादा हो गए है ...आर्थिक रूप से आत्म निर्भर स्त्री के सवाल जुदा है ओर घर की "अच्छी बहु "के जुदा ...सोच ओर समाज की उन्नति भी दुर्भाग्य से आरक्षित होकर अपने एक दायरे में ही बढ़ रही है ...
रोमांटिसिज्म अब सिर्फ बाकी चीजो के साथ चलने वाला एक हिस्सा है....रोमांटिसिज्म अब भागीदारी भी है ..
एक गंभीर आलेख