एक दिन अचानक मुहँ बिरायेगा आयना, चांदी के तार झलकेंगे कपास की खेती में बदलने से पहले, तुम फिर फ़िराक में रहोगे, अभी भी पकड़ में है वक़्त, कुछ और दिन के लिए मुब्तिला कर दोगे खुद की तलाश. वक़्त के बदलते घोड़े की घुड़सवारी नहीं करोगे, उसकी थापों की थाह लोगे, तब जब वों एक फासले तक गुजर चुकी होंगी. फिर सुनोगे उसे एक भूली तान के भ्रम में, या किसी आहट के अंदेशे में। दुनिया बदलने की खुमारी में डूबे तुम, एक कोने दुबके रहे और उतनी देर में बदल गया है दुनिया का धरातल, कुछ वैसे नहीं जैसे चाहा था तुमने, जैसा अंदेशा था दन्त कथाओं में, जैसी उम्मीद कायम थी कत्लो-गारद की भरी पिछली सदी में.
फिर अकबका कर पूछोगे एक दिन क्या यही थे हम? बस इतने भर? ऐसे ही डूबे उतरोगे भीतर ही भीतर विषाद के विष में, और बाहर जो आयेगा वों धिक्कार होगा, दूसरों से ज्यादा अपने लिए, अपने होने के मायने खारिज़ करता. वों कहाँ होगा जो थे तुम, कहाँ होगी वों संभावना जो हो सकते थे तुम? हकबक में, फिर उठोगे तुम खुद को दुरुस्त करते, फिसलती जमीन पर, बिन शऊर सौदा करने, फिर से क़त्ल होगा एक दिन, बेबस होगी एक रात, और अंतहीन होगा ये सिलसिला. जमाने की आँख से खुद को देखोगे और ज़माना भी देखेगा सिर्फ सफलता के ब्लैक एंड व्हाईट सिनेमा की तरह तुम्हे. अंतर्मन का धन, सपनों की उड़ान को पकड़ सकेगा कोई कैमरा?
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पथराये सपनों में, उलटे रास्ते दिखेगा कोई घुड़सवार, पलटकर पीछे लुढकता, गिरता, संभलता, पत्थर किसी टीले से, घर को तोड़ता, अनजाने सरों पर अचानक से बरसता, फिर से ढूंढता भटकता पुराना रास्ता, पुराना शहर, और जीने के पुराने ढंग. वों भी कुछ देर में समझेगा कि रास्ता अब एकतरफा हो गया है, पलटकर वापस नहीं ले जाएगा वहाँ, जो छूट गया था. अब चांदनी चौक नहीं जाएगा रास्ता, और जाएगा भी तो चाईना के रास्ते. वक़्त से पहले निढाल होंगे इसी आपा-धापी में, हम में से बहुत से लोग. फिर एक दिन हिसाब लगायेंगे, अपने हिस्से के सुरज का, रोशनी का, याद करेंगे नाज़ुक अनार की डाल और घनी अखरोट की छाँव को, बौरायी आम की, और किसी पहाड़ की गुनगुनी धुप में उठी संतरे की खुशबू की. पर तब पहाड़ जैसा पहाड़ न होगा, पहाड़ चढ़ने का हौसला भी न होगा, जीवन ही पसर जाएगा पहाड़ बनकर न हिलने के लिए.
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पीछे मुड़ते और आगे बढ़ते कदम, दोनों होंगे दिशाहारे, बिना नक़्शे के गोल गोल घूमेंगे दूनिया के एक छोर से दूसरे तक, फिर से काटेंगे चक्कर उन्ही रास्तों पर गोल-गोल, दोहरायेगे फिर से आदिम यात्रा पीढी दर पीढी, फिर सोचेंगे क्यूँ निकल आया आदिमानव अफ्रीका से, कितना घूमा पैदल, वों भी फैला सात भूखंडों में। सवाल वही होगा, जीने के संसाधन, और अपने संसाधन में बदलने की सहूलियत का, बाज़ार की ज़रुरत का और मुनाफे का समीकरण भी, इसी के बीच डोलते, मिलेंगे आगे जाते और पीछे लौटते लोग अपनी खुमारी में, भीड़ से अटे, सटे, लदर-बदर, बेहाल एयरपोर्ट पर और ऐसे ही जाने कैसे कैसे पोर्ट पर, बदहवास, बैचैन, बदशक्ल. बीच बीच में ठोर मिलेगा, दुरुस्त करेंगे कपडे लत्ते, चहरे और बाल, और हदर-बदर देखेंगे दूसरे की आँखों से अपनी शक्ल. और धीरे से मुस्कराकर कहेंगे, नया साल , नयी यात्रा मुबारक. कुछ और रास्ते मिले, कुछ और रास्ते खुले......
"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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Dec 31, 2009
Dec 17, 2009
जीवन: क्या बनोगे तुम?
जिज्ञासावश नहीं आता सवाल कि बच्चे क्या बनोगे तुम? सवाल हमेशा मुखर हो ये ज़रूरी नहीं, सवाल का उत्तर भी ठीक-ठीक मिले ये भी ज़रूरी नहीं। ज़रूरी जो है वों है उसका ज़बाब जो बिन ज़बान, चुपके से, चालाकी से उकेर दिया जाता है, कोमल कोरे मन की तहों पर अचानक से खिलानों के बीच खेलते हुए, किसी रंगीन लुभावनी किताब को पलटते हुए, सीधे-सीधे नहाकर कपडे पहनते हुए भी, एक बड़े की आशीष के बीच, कि कुछ एक होने के लिए, कुछ एक बनने के लिए ही है जीवन!
क्या बनना है बच्चे को? बच्चा अभी कहाँ जान पायेगा कि ये कुछ एक बनने की लहरदार सीढ़ी, चुनाव और रुझान से ज्यादा, कब एक जुए की शक्ल ले लेगा, जो भाग्य, भविष्य, और बदलते बाज़ार की ज़रुरत के दांव से खेला जाएगा। बच्चा दूसरे के देखे सपने में अचानक दाखिल होगा, कभी एक डॉक्टर बनकर दिन भर घिरा रहेगा, बीमारी, बेबसी, और व्यापार के बीच। कभी एक डेंटिस्ट की शक्ल में अपने ८-१० घंटे बिताएगा, सड़े दांतों, और बदबू मारती साँसों के बीच। कभी एक बेबस-फटेहाल, टीचर की शक्ल में जो अपने जीवन के सबसे ज़रूरी पाठों को पढने से रह गया। कभी नींद में बौखलाए पायलेट की तरह, जिसका जीवन एक रुकी हुयी, ख़त्म न होने वाली, बिन मंजिल की यात्रा में बदल गया है। कभी किसी एयरहोस्टेस की शक्ल में, जिसके लिए हवाई उड़ान के रोमाच और ग्लैमर की ठीक बीचों बीच जूठी प्लेटों के ढ़ेर में है जीवन। कभी इन्ही सपनों में दाखिल होंगे निर्वासित वैज्ञानिक और इंजीनियर, जो एक लम्बी दिमागी कसरत के बाद बस हाथ बनकर रह गए है, और जिनका दिमाग भी हाथ का ही विस्तार है, कुछ ज्यादा कठिन कसरतों के लिए, ये दिमाग एक बंद खांचे से बाहर, जीवन से ज़िरह के लिए नहीं है, सवाल के लिए नहीं है, एक प्रोजेक्ट से दूसरे को बिन रुके निपटाने के लिए है। कभी आयेगा किसी दूसरी शक्ल में एक पत्रकार के लिए, टीवी पर लहकते-बहकते लड़के लड़कियों के लिए, और भी कई शक्लों में आयेगा उन सब बच्चों के जीवन में जिनसे बड़े लाड से कभी पूछा जाता रहा, कि क्या बनोगे बच्चे?
क्या बनना है बच्चे को? बच्चा अभी कहाँ जान पायेगा कि ये कुछ एक बनने की लहरदार सीढ़ी, चुनाव और रुझान से ज्यादा, कब एक जुए की शक्ल ले लेगा, जो भाग्य, भविष्य, और बदलते बाज़ार की ज़रुरत के दांव से खेला जाएगा। बच्चा दूसरे के देखे सपने में अचानक दाखिल होगा, कभी एक डॉक्टर बनकर दिन भर घिरा रहेगा, बीमारी, बेबसी, और व्यापार के बीच। कभी एक डेंटिस्ट की शक्ल में अपने ८-१० घंटे बिताएगा, सड़े दांतों, और बदबू मारती साँसों के बीच। कभी एक बेबस-फटेहाल, टीचर की शक्ल में जो अपने जीवन के सबसे ज़रूरी पाठों को पढने से रह गया। कभी नींद में बौखलाए पायलेट की तरह, जिसका जीवन एक रुकी हुयी, ख़त्म न होने वाली, बिन मंजिल की यात्रा में बदल गया है। कभी किसी एयरहोस्टेस की शक्ल में, जिसके लिए हवाई उड़ान के रोमाच और ग्लैमर की ठीक बीचों बीच जूठी प्लेटों के ढ़ेर में है जीवन। कभी इन्ही सपनों में दाखिल होंगे निर्वासित वैज्ञानिक और इंजीनियर, जो एक लम्बी दिमागी कसरत के बाद बस हाथ बनकर रह गए है, और जिनका दिमाग भी हाथ का ही विस्तार है, कुछ ज्यादा कठिन कसरतों के लिए, ये दिमाग एक बंद खांचे से बाहर, जीवन से ज़िरह के लिए नहीं है, सवाल के लिए नहीं है, एक प्रोजेक्ट से दूसरे को बिन रुके निपटाने के लिए है। कभी आयेगा किसी दूसरी शक्ल में एक पत्रकार के लिए, टीवी पर लहकते-बहकते लड़के लड़कियों के लिए, और भी कई शक्लों में आयेगा उन सब बच्चों के जीवन में जिनसे बड़े लाड से कभी पूछा जाता रहा, कि क्या बनोगे बच्चे?
Dec 5, 2009
नही है देश जैसा कोई देश, शहर जैसा कोई शहर
कहीं दूर से एक भूली पुरानी धुन के संगीत में आह सुनाई देती है, घर लौट आओ......
मै अकबक ढूंढती हूँ घर का पता, शहर का पता, देश का पता, बहुत टटोलने पर भी ठीक ठीक शिनाख्त नही कर पाती उस जगह की। यायावरी में एक शहर से दुसरे, दूसरे से तीसरे, और फ़िर लगभग चार दशक की यात्रा में जहाँ हर २-३ साल में शहर बदले हो, और बेहिसाब सरकारी मकान, किराए के मकान, और हॉस्टल की दूनिया में जीवन बीता हो तो किसी एक जगह उंगली रखकर ये कह देना की ये मेरा घर है, ये मेरा घर था, ये मेरा शहर था, दीवानेपन के अलावा और क्या है? किसी दरवाजे पर जो नींद की सी रोमानियत में जाकर खड़ी हो जाऊं तो कौन पहचानेगा? पीछे छुटे शहर जिस गति से बदल गए है, वहाँ कही खड़े हो जाए तो बीते दिनों की ही तरह हमारी स्मृति के वों शहर भी बीत गए है, अब ये कोई और ज़मीन है, ये कोई और लोग है, इनकी दूनिया से हम, और हमारी दूनिया से बेदखल है ये लोग!
कहने वाले फ़िर भी कहेंगे, दीवानापन छोड़ो, शहर के चेहरे पर क्या कोई घर के निशान ढूंढता है? यहाँ रहने को एक कमरा मुहय्या नही और मैडम को पूरा शहर चाहिए, घर के लोग ठीक-ठाक पहचान ले तो गनीमत है, शहर से पहचान भी कोई बात हुयी? शहर, देश, सब घर की चारदीवारी के भीतर है, दहलीज़ से बाहर निकलते ही अनजानेपन की मारा-मारी है, लौटकर साबुत आ सकेंगे इस चारदीवारी के भीतर शाम को, इस बात की भी क्या कोई गारंटी है? बाकी सब किताबी बातें है, कहने, सुनाने और गाने के लिए है, जीने के लिए शहर नही, देश नही, बस निजी, बन्द, दड़बे है, बाकी कुछ और कहाँ है?
इस बात से भी निश्चिन्त कहाँ हो पाती हूँ कि किसी चारदीवारी के भीतर ही मनुष्य की पूरी पहचान अट सकती है? न इस बात का धीरज बाँध पाती हूँ कि चारदीवारी के बाहर फैले डर भी घबराकर हमारे साथ घरों के अन्दर ही घुसे चले नही आयेंगे? मनुष्य भले ही शिष्टता में रहे, डर तो खेल खेलने को स्वतंत्र है। क्या मालूम कि उन्ही का साम्राज्य और गहराता जाएगा अंधेरे बंद कमरों के भीतर भी। डरो के साम्राज्य में, अपने-अपने सुकून ढूंढते लोग, किस किसको पहचानेगे? पहचान सकेंगे? या फ़िर अपने अपह्चाने मन और हारी इच्छाओं के आयने में एक दूसरे को निहारेंगे? एक दुसरे की शिनाख्त करेंगे? और फ़िर बिलबिलाकर मैं चारदीवारी से बाहर सड़क पर निकलूंगी, शहर से दूसरे शहर होते हुए एक देश से दूसरे, दूसरे से तीसरे, चौथे, लगातार किसी नए देश की तलाश में भट्कुंगी? जहाँ पूरी पहचान के साथ जिया जा सके, खंड-खंड मे पहचान न हो, शहर उसी का आँगन हो, और देश एक अमूर्त बीहड़ जंगल से कुछ ज्यादा जिसे याद करने के लिए सिर्फ़ उसकी भोगौलिक चारदीवारी का रोमानियत मे लिखा गाना न गाना पड़े.......
मै अकबक ढूंढती हूँ घर का पता, शहर का पता, देश का पता, बहुत टटोलने पर भी ठीक ठीक शिनाख्त नही कर पाती उस जगह की। यायावरी में एक शहर से दुसरे, दूसरे से तीसरे, और फ़िर लगभग चार दशक की यात्रा में जहाँ हर २-३ साल में शहर बदले हो, और बेहिसाब सरकारी मकान, किराए के मकान, और हॉस्टल की दूनिया में जीवन बीता हो तो किसी एक जगह उंगली रखकर ये कह देना की ये मेरा घर है, ये मेरा घर था, ये मेरा शहर था, दीवानेपन के अलावा और क्या है? किसी दरवाजे पर जो नींद की सी रोमानियत में जाकर खड़ी हो जाऊं तो कौन पहचानेगा? पीछे छुटे शहर जिस गति से बदल गए है, वहाँ कही खड़े हो जाए तो बीते दिनों की ही तरह हमारी स्मृति के वों शहर भी बीत गए है, अब ये कोई और ज़मीन है, ये कोई और लोग है, इनकी दूनिया से हम, और हमारी दूनिया से बेदखल है ये लोग!
कहने वाले फ़िर भी कहेंगे, दीवानापन छोड़ो, शहर के चेहरे पर क्या कोई घर के निशान ढूंढता है? यहाँ रहने को एक कमरा मुहय्या नही और मैडम को पूरा शहर चाहिए, घर के लोग ठीक-ठाक पहचान ले तो गनीमत है, शहर से पहचान भी कोई बात हुयी? शहर, देश, सब घर की चारदीवारी के भीतर है, दहलीज़ से बाहर निकलते ही अनजानेपन की मारा-मारी है, लौटकर साबुत आ सकेंगे इस चारदीवारी के भीतर शाम को, इस बात की भी क्या कोई गारंटी है? बाकी सब किताबी बातें है, कहने, सुनाने और गाने के लिए है, जीने के लिए शहर नही, देश नही, बस निजी, बन्द, दड़बे है, बाकी कुछ और कहाँ है?
इस बात से भी निश्चिन्त कहाँ हो पाती हूँ कि किसी चारदीवारी के भीतर ही मनुष्य की पूरी पहचान अट सकती है? न इस बात का धीरज बाँध पाती हूँ कि चारदीवारी के बाहर फैले डर भी घबराकर हमारे साथ घरों के अन्दर ही घुसे चले नही आयेंगे? मनुष्य भले ही शिष्टता में रहे, डर तो खेल खेलने को स्वतंत्र है। क्या मालूम कि उन्ही का साम्राज्य और गहराता जाएगा अंधेरे बंद कमरों के भीतर भी। डरो के साम्राज्य में, अपने-अपने सुकून ढूंढते लोग, किस किसको पहचानेगे? पहचान सकेंगे? या फ़िर अपने अपह्चाने मन और हारी इच्छाओं के आयने में एक दूसरे को निहारेंगे? एक दुसरे की शिनाख्त करेंगे? और फ़िर बिलबिलाकर मैं चारदीवारी से बाहर सड़क पर निकलूंगी, शहर से दूसरे शहर होते हुए एक देश से दूसरे, दूसरे से तीसरे, चौथे, लगातार किसी नए देश की तलाश में भट्कुंगी? जहाँ पूरी पहचान के साथ जिया जा सके, खंड-खंड मे पहचान न हो, शहर उसी का आँगन हो, और देश एक अमूर्त बीहड़ जंगल से कुछ ज्यादा जिसे याद करने के लिए सिर्फ़ उसकी भोगौलिक चारदीवारी का रोमानियत मे लिखा गाना न गाना पड़े.......
Dec 2, 2009
This Land is Your Land - Woody Guthrie
वूडी गुथरी के गाने और जीवन दोनों मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे। पिछले कुछ सालो में भूल गयी थी। पर कुछ इतफ़ाक से मेरे ५ साल के बेटे को गुथरी का एक गाना जो अमेरिका का एक तरह का लोकगीत है इतना भाया है, कि जब तक गाता है, और एक जगह स्टेज पर गा चुका है। उसी के दोस्तों के लिए,
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