"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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May 5, 2010
निरुपमा पाठक ........................................
निरुपमा पाठक के मामले पर कई लेख बहुत से मित्रों ने लिखे, चोखेर बाली पर, नारी पर और अलग से भी. तथ्य दुहराने की और केस के ट्रायल करने की ज़रुरत मुझे यहां नहीं लगती. ये मेरा काम नहीं, तथ्य मेरे पास सभी पक्षों के है नही.
निरुपमा के बहाने क्या लिखूं?
एक परिवार, एक जाति, और वर्ण-व्यवस्था पर गरियाती रहूँ?
जब कि स्त्री किसी भी जाति की हो, किसी भी धर्म की हो, किसी भी देश की हो, एक सम्पूर्ण व्यक्ति के अधिकार उसकी पहुँच में नहीं है। सामाजिक प्रक्रिया में सीमित या नामात्र की भागीदारी है. रोज़-रोज़ सचेत प्रक्रिया से कुछ बदलाव आयेंगे ही और अलग-अलग समाजो की फांस और अपनी ख़ास तरह की अनूठी जीवन रचने की जो शक्ती स्त्री के पास है, उसकी समझ कुछ हद तक स्त्री को सशक्त बना सकती है. ताकि निरुपमा का हश्र बहुत सी लड़कियों का न हो. जाति -व्यवस्था बहुत दिन तक टिकने वाली है नहीं, फिर भी स्त्री के स्वास्थ्य, सेक्सुअलिटी पर पितृसत्ताक, नजरिया बहुत लम्बे समय तक रहेगा, स्त्री का सामाजिक अनुकूलन भी नित नए रूप में सामने आयेगा. इन सबके बीच स्त्री तभी पार पा सकती है जब उसके पास आधुनिक नजरिया हो कि किस तरह स्त्री अपने शरीर, अपनी इच्छाओं, को देखे समझे ( Our Bodies, Ourselves: A New Edition for a New Era, Boston Women's Health Book Collective), और सामाजिक अनुकूलन की प्रक्रिया को समझते हुये उससे उलझे। समाज बदलने के साथ साथ स्त्री की अपने बारे में और अपने समाज के बारे में एक सचेत राजनैतिक शिक्षा की ज़रुरत लगातार बनी रहेगी. इस मायने में स्त्रीत्व की लड़ाई सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं है, अलग-अलग तरह से दूसरे समाजो में भी है।। अमरीकी समाज में एक बड़ी होती लड़की अपनी इस यात्रा को किस तरह से देखती है, नोमी वूल्फ की ये किताब कुछ कठिन सवालों से रूबरू होती है.
ये सिर्फ एक व्यक्ति का मामला नहीं है, एक परिवार का मामला भी नहीं...., एक बड़ी सामाजिक सोच का मामला है। जब तक वों नहीं बदलती स्त्री का आत्मसम्मान के साथ जीना संभव नहीं है, विवाह,जाति-प्रथा और यौन शुचिता आदि पर बहुसंख्यक समाज के जो विचार है उन्हें इतने सालों बाद भी लोहिया जी की तरह बार-बार कटघरे में खड़े किये जाने की ज़रुरत है. कम से कम स्त्री का माँ बनना या न बनना, विवाह के भीतर या बाहर बनना सिर्फ उसकी ही मर्जी होनी चाहिए। स्त्री का अपने शरीर, अपने स्वास्थ्य और कोख पर अपना ही हक हो, इस तरह का समाज जब तक नहीं बनता, एक नए तरह की नैतिकता जब तक समाज में नहीं बनती, निरुपमा जैसी मौत को रोका जाना संभव नहीं है. तब तक स्त्री का एक सम्पूर्ण मानव की गरिमा के साथ जीवन भी संभव नहीं है.
स्त्री की समस्या फिर भी इस तरह का समाज या क़ानून मात्र बनने से ही नही सुलझती. पर इतना तो होता है कि स्त्री के लिए मातृत्व अपमान का सबब नहीं बनता, उसे आत्महत्या की तरफ नहीं धकेलता, और कोई माँ-बाप अपनी संतान की ह्त्या के लिए मजबूर नहीं होते, सामाजिक दबाव के चलते. शायद अपनी औलाद के साथ खड़ा होना उनके लिए आसान हो जाता है.
निरुपमा पाठक की अगर ह्त्या उसके परिवारजन ने की है, तो ये माफी के लायक अपराध नहीं है. उन्हें ज़रूर कड़े से कडा दंड मिलना चाहिए. पर अगर समाज में कुछ बड़ी हलचल होती, अविवाहित पुत्री का मात्र्तव अगर अपमान का सामाजिक विषय न होता तो ये न होता. जिस तरह से आज सती होना स्त्री और परिवार की प्रतिष्ठा से जुडा नहीं है तो विधवा को जबरन नहीं मरना. कुछ हद तक विधवा विवाह भी स्वीकृत है व्यापक स्तर पर. और ये सब ऐसे ही नहीं हुया, ये सामाजिक चेतना में आये परिवर्तन की देन है। लम्बे संघर्षों की भी। स्त्री का अपने शरीर और अपनी कोख पर अधिकार भी किसी दिन आयेगा ही. इसीलिए ये मामला एक दकियानूसी परिवार, एक धर्म और एक जाति का मामला मात्र नहीं है. स्त्री के प्रति जो दकियानूसी सोच है, वों समाज मैं बहुत व्यापक है, और वों बदलेगी तभी, जब समाज में व्यापक हलचले हो। सामूहिक चेतना में बड़े बदलाव आयें. इस तरह की स्थिति बने की स्त्री एक सम्पूर्ण मानव का दर्ज़ा पाए, और बिना पुरुष के भी एक माँ की, एक अभिभावक का सम्मान पाए. स्त्री का अविवाहित माँ बनना एक दुर्घटना हो न हो, और अगर बन भी जाय तो अपमान का सबब न हो. स्त्री के पास सिर्फ आत्महत्या, गर्भपात, और प्रायोजित शादियों से बेहतर विकल्प हो. उसी तरह विवाहित स्त्री का माँ बनना या न बनना भी सामाजिक दबाव का परिणाम न हो. माँ और बच्चे का जो सम्बन्ध है वों सिर्फ उनकी अपनी भावना से ही तय हो, और वों उनके जीवन सबसे बड़ा उत्सव हो.
चोखेर बाली पर अनुराधा पूछती है निरुपमा के बहाने अब एक बार अपने भीतर झांकें, प्लीज़! और कहीं से फेसबुक के हवाले ये कहती है कि शायद निरुपमा के लिए मात्र्तव एक चुना हुआ फैसला न था, और उसे किस तरह से हेंडल किया जाय इसकी समझ न थी, और आस-पास इस तरह का कोई सपोर्ट सिस्टम भी नहीं रहा होगा, झूठ सच जो भी हो अगर उसने अपने प्रेमी को भी अपनी स्थिति नहीं बतायी तो ये कुछ गहरे सवाल ज़रूर खड़े करता है। वों सवाल है स्त्री की सामाजिक शिक्षा का, स्त्री कैसे सशक्त हो, उसे ठीक समझ हो अपने शरीर की, अपनी इच्छाओं की भी और इसके लिए हमारे समाज में सार्वजानिक संसाधन हो जहां कोई मदद के लिए जा सके, या फिर स्त्री शिक्षित हो, अपने बारे में. मात्र्तव उसके लिए दुर्घटना न बने, माता बनने और माँ न बनने के जो पारिवारिक और सामाजिक दबाव स्त्री पर लगातार बने रहते है, उनसे पार पाए. कम से कम इस बहस और ब्लॉग की बहसों से इतना तो समझ में आता है कि योन शुचिता की एक विचार के बतौर सामाजिक सोच पर कुछ पकड़ कम हुयी है। और दकियानूसी, स्त्री विरोधी, लोग भी आज गर्भ-निरोधक उपायों के इस्तेमाल को, अनचाहे मातृत्व से बेहतर मानते है. सवाल लेकिन सिर्फ माँ बनने और नहीं बनने का नहीं है, सवाल ये है कि क्या स्त्री एक सम्पूर्ण मनुष्य है? या उसका शरीर और उसकी योनिकता का मालिक कोई दूसरा है? पिता, पुरुष या समाज? और जब तक ये सवाल नहीं सुलझाया जाएगा, स्त्री को एक सम्पूर्ण मनुष्य की गरिमा नहीं मिल सकती.
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क्या स्त्री एक सम्पूर्ण मनुष्य है? या उसका शरीर और उसकी योनिकता का मालिक कोई दूसरा है? पिता, पुरुष या समाज? और जब तक ये सवाल नहीं सुलझाया जाएगा, स्त्री को एक सम्पूर्ण मनुष्य की गरिमा नहीं मिल सकती.
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शत प्रतिशत सहमत !
सहमत।
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