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Oct 17, 2010

ग्लोबल सिटीजंस

  

किसी शहर और देश में  नहीं
बसता घर
रिमझिम बारिश में निकली धूप और धुन्ध के बीच कहीं पसरा है,
छिन्न-विछिन्न पहचानों के मेले में
खंड-खंड बीहड़ में गुम, तिनके-तिनके बिखरा है
कुछ तारीखें है, कुछ चिंदी चिंदी कागज के टुकडे है
कुछ भूले-बिसरे शहर-दर-शहर है
नहीं है स्थायी घर  का पता.....


एक समंदर सा है आदमी, औरतों और बच्चों का
पृथ्वी के एक छोर से दुसरे तक बहता हुआ
मुसाफिर है मन सालों-साल
अटा-सटा है सामान एक दशक से
घर के इत्मीनान में नहीं
कुछ ऐसे कि गोया कल सफर पर फिर निकालना हो
अबाध गति से घूमती दुनिया के बीच स्थगित है जीवन .....

बहुत दूर तक धरती के कौने-कौने पसरी है अजनबीयत
कभी न छटने वाली धुन्ध के मानिंद
बौराया मन धुंधलके में ढूंढता है
परिचित पहचाना कोई चेहरा,
कोई आवाज़, कोई हंसी, कोई भूला इशारा
आँखों में उतर आयी जानी सी चमक
किसी आवाज के अंदेशे में चौंकती है नींद बार-बार
कोई नींद में रहता है सुकून से बरसों पीछे छूटे शहर में
और आँख खुलने पर कुछ देर को बैठता है दिल
रोजमर्रा की भागदौड़ में बीतता है दिन.....


जाने कौन सी आस थी धकेलती  रही जो एक छोर से दुसरे छोर
या अपने दायरे से ही भाग खड़ा हुआ था मन
या फिर बंद हवाएं थी, निपट निराशा थी
या हूलज़लूल के मलबे से ढका आसमान था
और कुछ खीझ भी कि हमारे होने न होने से कब कुछ होना था
अनजाने भूगोल में गुम हो जाने का अपना रोमान था
या अनचाहे बंधों, बेबसी और शर्म से मुक्ती का कोई गान था.....

बीते समय की तरह अब स्मृति में ही है घर, शहर,
और अजनबी है अब वों देश भी
अजनबी है ये शहर, ये देश भी 
अजनबी है मन, चोर के मानिन्द नींद में करता है सेंधमारी
उनींदेपन की मिठास में बौराया सुनता है
भूली-बिसरी आवाजे, आहें, कुछ धंसी हुयी खामोशियाँ
लावा सा आठ दिशाओं में पिघलता, बहता है मन.
मन की ज़मीन पर उगते है देखे और बहुत अनदेखे नाकनक्श
अकसर तो कभी न देखी जगहें, कहीं गहरे धंसे पड़े डर,
उम्र के बड़े क्षितिज पर फैले कई पड़ाव
जो नहीं है शामिल वों उनफती बैचैनिया है
कहीं दूर से छनती आती मद्धम रोशनी सी पसरती है चेतना
अचेत अँधेरे की खोह से अकबकाकर निकल भागती है नींद
अलसुबह की खुमारी में सोचता है मन
अब सपनों की सरहदों तक है अपना होना.....

2 comments:

  1. 6/10


    मन की वेदना रचना के माध्यम से बहुत सुन्दर अभिव्यक्त हुयी है.
    पठनीय

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  2. सबसे खूबसूरत पंक्तिया ....


    उम्र के बड़े क्षितिज पर फैले कई पड़ाव
    जो नहीं है शामिल वों उनफती बैचैनिया है
    कहीं दूर से छनती आती मद्धम रोशनी सी पसरती है चेतना
    अचेत अँधेरे की खोह से अकबकाकर निकल भागती है नींद
    अलसुबह की खुमारी में सोचता है मन
    अब सपनों की सरहदों तक है अपना होना.....


    जो नोस्टेलजिक होने की आदत का बचाव ढूंढती है.....जैसे कल ही कथादेश में एक पंक्ति पढ़ी थी ..अनुपम मिश्र की कही हुई..
    पानी की अपनी स्मृति होती है ,आप उसे जितना भी पीछे धकेले वह अपने घर जरूर लौटेगा"............लगता है मन की भी यही कैफियत है ....

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