क्या बदला सिनेमा ने उस उम्र में, मालूम नहीं, इतना तो हुआ कि एक खिड़की थी फिल्में, अजाने संसार में खुलती, डर, दर्द, जुगुप्सा और खुशी के कुछ कतरे वहां से बालमन में पैठ बनाते. हकीकत के साथ तालमेल की कोशिश अवचेतन में चलती. बाद के तीन सालों में अनगिनत फिल्में देखी. कुछ फिल्में आवश्यक रूप से दादी के साथ देखीं, सती अनुसूया, अहिल्या, बहुला टाईप, जिनका सारा खेल औरत की सती, और महासती होने और जीवन भर परीक्षा के नाम पर दुःख झेलने की लम्बी कहानियां थी. दादी से अकसर पूछा कि इन औरतों को क्यों इस तरह परीक्षा देनी पडी? दादी का ज़बाब होता कि “पुरुष की मूढमति के कारण जीवन के इतने संकट खड़े होते है”. टीवी पर उन दिनों नागिन फिल्म और चित्रहार में "मेरा मन डोले, तन डोले" छाया था, दूसरी भी कई नागिन टाईप की फिल्में. हमउम्र बच्चों के बीच ही नहीं बड़ों की बतकही में भी ये शुमार था कि सांप की आँखे कैमरा सरीखी होती है, और अगर नाग को मार दिया तो नागिन बदला लेती है. अपने परिवेश में जहां हर बरसात सांप ही सांप नज़र आते थे, स्कूल जाते समय सड़क पर, अचानक से रिक्शे के नीचे पिचकते, कभी लम्बे और अकसर कुण्डली मारे, किचन के पाईप से घुसकर दुमंजिले घर में भी पहुँचते और केले के तने में लिपटे बड़े-बड़े अजगर. ऊपर से नागिन जैसी फिल्मों के सबक थे कि कभी किसी ने नाग को मार दिया तो नागिन डस लेगी दोहरा भय जगाते थे. बचपन की एक बड़ी उलझन ये भी रहती थी, कि कैसे पहचाना जाय कि कौन वाकई नाग है, और दूसरे रेंगते सांप आखिर कौन से है? फिर ये भी कि नाग और नागिन की ठीक पहचान कैसे हो? क्यूंकि बदला सिर्फ नागिन ही लेती है, नाग बदला नहीं लेता, और क्यूं नहीं लेता? दादी कहती रही कि सिर्फ नागिन की ही स्मृति तेज़ होती है. नाग को कुछ कहां याद रहता है? नागिन की कहानी भी सावित्री, सती अनुसूया, बहुला की कहानी का का दूसरा पाठ था. नाग को भी कुछ उसी तरह की सहूलियत रही होगी जैसी अनगिनत सती स्त्रियों के पतियों को थी.
माँ और उनकी सहेलियों के साथ डकैतों-पुलिस वाली, अमिताभ की दीवार, ज़ंजीर, धर्मेन्द्र की क्रोधी या फिर मनोज कुमार की क्रांति, जितेन्दर की कव्वे उड़ाने वाला डांस से भरी फिल्में, शशि कपूर की चौर मचाये शोर, शोले. जीनत अमान और परवीन बाबी, हेमा मालिनी, रेखा. छोटे कस्बाई पहाडी शहरों में, जहां क़त्ल की कोई वारदात १०-२० सालों में एक बार होती थी, वहाँ की शब्दावली में "डान/ स्मगलर" तरह के शब्द किसी एलियन दुनिया की कहानी थे. आसपास उनके जैसा कभी कोई दिखता न था. क्रांति फिल्म देखकर देशभक्ती के ज्वार के चलते शहर में टहलते गोरी चमड़ी के टूरिस्ट पानी भरे गुब्बारों का टार्गेट बने. तब सारी गोरी चमड़ी वाले "अँगरेज़" थे. उनका और कोई देश, कोई नागरिकता, उनके देश भूगोल का हमारे बचपन के मन और आस-पास के बहुत से वयस्कों के मस्तिष्क में कोई साफ़ तस्वीर बनती नहीं थी. "एफिल टावर", वियना के ओपेरा हाऊस, लंडन ब्रिज, सब सिर्फ अपराध की लोकेशन थी, जिधर एलियन जीव "संगरीला" टाईप कोई गाना गाते. फिल्मों की दुनिया हमारी अपनी पहचानी दुनिया से इतनी अलग थी. सिनेमा हॉल से बाहर कोई और दुनिया थी, अच्छा था सुकूनभरी थी. उसमे वैसी हिंसा, चकमक और असुरक्षा नहीं थी. बचपन में बहुत सीमित गतिविधियाँ थी, अल्मोड़ा जैसे पहाडी शहर में कुल जमा दो सिनेमाहॉल, ऋषिकेश में तीन, और शायद नैनीताल में भी तीन ही थे, अब भी शायद इतने ही है. सिल्वर स्क्रीन पर देखी सूरतों के मिलान का कार्यकर्म घर में आये किसी मेहमान से लेकर, सड़क पर भीख माँगते भिखारी की सूरत तक से करने के खेल चलते रहते. सिनेमा हॉल में फिल्म देखना लगातार कम होता गया, उसका कोई आकर्षण नहीं बचा, सिर्फ साल में एक या दो. एक सालाना इम्तिहान के बाद , एक कभी बीच में. सिनेमा हॉल के बजाय टीवी फिल्में देखते रहे, राजकपूर की, गुरुदत्त की, विमल रॉय की, मनोज कुमार की, "मुगले आजम", "यहूदी" और दूसरी ऐतिहासिक फिल्मे भी, वही कुछ मन को अचीन्हे आनंद में भिगोतीं थी, इन फिल्मों के सुरीले गाने याद रहते.
देवानंद की २-४ फिल्मों की जगह जहन में बनी रहेगी, पर सबसे ज्यादा वो सुरीले गानों के मार्फ़त ही याद रहेंगे.