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Feb 25, 2009

स्मृति के जंगल मे-जिंदगी से रूबरू ...............

रात के ग्यारह बजे है और लोस एंजेल्स के भीड़-भाड़ वाले एयरपोर्ट मे अपनी फ़्लायट आने तक तीन घंटे काटने है। तीन-४ दिन की १०-१२ घंटे की मीटिग के बाद दिमाग वैसे भी उचटा हुआ है, और कुछ पढ़ने का मन नही है। किसी तरह से अपने लिए एक सीट मिलती है खिड़की के पास, और लगता है की क्या किया जाय। लैपटॉप निकाल कर देखा जाय की ब्लॉगजगत मे क्या चल रहा है? हिन्दुस्तान मे क्या हो रहा है? किसी को फ़ोन किया जाय इतनी रात गए? बच्चे सो चुके होंगे, बेवजह नींद ख़राब होगी। फ़िर दिमाग घूमता है, की दूनिया के दूसरे हिस्सों मे क्या वक़्त होगा? पर बात भी की जाय तो क्या?

अचानक मेरा ध्यान सामने से आती एक वृद्ध महिला पर जाता है, जिसकी उम्र तकरीबन ८० के ऊपर होगी, और चहरे पर कुछ ऐसे भाव जैसे कोई किसी मेले मे खो गया है, या फ़िर किसी आदिम गुफा से निकल कर इस अपरिचित जगह पर आ गया है। उसके पीछे एक अधेड़ उम्र की औरत और एक किशोरी, जो उसकी बेटी और नातिन है। बातचीत मे पता लगता है की वृद्धा को भी उसी जगह जाना है, जहाँ मेरी मंजिल है। और उसकी बेटी बताती है की किसी मित्र-परिवार से मिलने उसकी माँ अकेली जा रही है। वों परिवार एयरपोर्ट से उन्हें रिसीव कर लेगा। एक चिंता और एक संशय लगातार हावी है इन लोगो की बातचीत मे। और मेरे लिए बहुत कुछ अंदाजा लगाना सम्भव नही हुया की माजरा क्या है? सिवाय इसके की इतनी बूजूर्ग महिला का अकेले सफर करना परिवारजनों के लिए वैसे भी चिंता का कारण होता है। मैं भी अपनी माँ को दादी को शायद ऐसे ही हिदायत देती।

विमान चलने को है और वों वृद्धा मुझसे दो सीट छोड़कर आगे बैठी है। विमान बीच मे मेडफोर्ड मे रुकता है २० मिनिट के लिए, पर कोई उतरता नही है, और वृद्धा उतरने को बैचैन है। एयर होस्टेस उन्हें मना करती है, और एक बेबस विलाप, शुरू हो जाता है। उठकर पास जाती हूँ और पूछती हूँ की माजरा क्या है ? और पता लगता है, की ये वृद्धा पूरी तरह से भूल चुकी है की उसे कहाँ जाना है। और उसे लगता है की उसे मेडफोर्ड मे उतरना है, यहाँ उसे लेने उसकी बेटी आयेगी। पर मेडफोर्ड उतरने के बारे मे भी वों संशय मे है, और इतने लोगो के बीच उसे पता नही की उसे कहाँ जाना है, वों भीड़ मे खोया हुया एक बच्चा बन जाती है।
इस पूरे वाकये के बाद मुझे लोस एंजेलेस मे हुयी बातो और लगातार हिदायतों का कारण समझ मे आता है, और वृद्ध स्त्री अल्जाईमर से पीडीत थी। यानी उनकी स्मरण शक्ति जबाब दे चुकी थी। किसी तरह से उन्हें चुप कराया और बताया की उन्हें मेरे साथ जाना है, और जब तक उनके पारिवारिक मित्र नही आयेंगे, मैं उनके साथ रहूंगी। और अगर नही आए तो वों मेरे साथ मेरे घर आ सकती है।

किसी तरह से जब अपने शहर पहुंचे और वों मित्र आए, तो वों महिला ऐ घंटे तक रोती रही। और मैं अपने रास्ते निकल आयी हूँ। .....
पहली बार मेरा वास्ता अल्जाईमर के मरीज़ से इस तरह पडा है, और फ़िर लगता है की मनुष्य जीवन का सार क्या है, इतनी जद्दोजहद , इतनी पढाई -लिखायी, भागमभाग आख़िर किस मतलब की है ? इन अनुभवों का मेरे लिए या किसी के लिए भी क्या मायने है? जीवन के अंत मे अगर इस जद्दोजहद की स्मृति भी नही बची तो .................

Feb 20, 2009

चार्ल्स डार्विन और जिंदगी के खटके-01

चाल्र्स डार्विन का नाम पहली बार नवीं कक्षा मे सुना, और सवाल जबाब वाले अंदाज़ मे ३-४ सूत्रों मे डार्विनवाद, लेमार्क वाद और उसके बाद के सारे वाद भी रट लिए। जिस तरह से हमारी किताब मे ये सारे वाद आए, और जिस तरह से हमें पढाये गए, उनसे इन सभी वादों का जो सूत्रीकरण हुया, उसमे इस महान वैज्ञानिक के निष्कर्षो का सन्धर्भ और महत्व खो गया और उनका मानवीय सभ्यता, दर्शन, और राजनीती पर कितना असर पढा, ये सूत्र कही खो गए। इसके अलावा भी जो सूत्र डार्विन ने खोजे, उनका अर्थ बिना जैविक विविधता के साक्षात्कार के, आत्मसात करना मुश्किल है। आश्र्य्जनक रूप से इस पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों की इतनी बहुतायत है, कि बाकी सारे जीव विलुप्त होने की कगार पर है। जितनी बार चिडियाघर जाती हूँ, भले ही कितना छोटा हो, दिमाग को एक झटका सा लगता है, की जीवन के और भी स्वरुप है, और इनकी मौजूदगी हमारे अपने अस्तित्व से जुडी है.

डार्विनवाद से भी मुश्किल है, वों सोच प्रक्रिया को समझना और ग्रहण करना, जिसमे अपने पूर्वाग्रहों को , विश्वाश, को दरकिनार रखकर जो सामने है, उसे सिर्फ़ वस्तुगत आधार पर समझने की इमानदार कोशिश करना। अधिकतर मनुष्यों के लिए, चाहे वों विज्ञानिक हो या न हो, शायद यही सबसे कठिन काम है, क्योकि हमारा चेतन और अवचेतन, एक तरह का जाल है, और वों पर्यवेक्षण पर, और निष्कर्षो पर हावी हो जाता है। इसी को समझकर शायद जर्मन दार्शनिक "गोथे" ने कहा होगा की " सबसे मुश्किल है उसे देखना जो आँख के ठीक सामने हो"।

डार्विन वाद को पढने की और समझाने की नयी कसक मुझे कोलेज के दिनों मे हुयी, की इसे पाठ्यकर्म के दायरे से बाहर रखकर पढा जाय। और खासकर भगत सिंह के लेख "मैं नास्तिक क्यो हूँ?" को पढ़कर। मजे की बात है बायलोजी मेजर की डिग्री जो तीन साल मे पूरी की उसमे डार्विन का कही जिक्र नही हुया, और जेनेटिक्स को लगातार पढने के उपक्रम मे कभी किसी टीचर ने आधुनिक जेनेटिक्स और उभरते हुए बायोटेक्नोलोजी के फील्ड से डार्विन के सम्बन्ध मे कुछ नही कहा। हमारे लिए, डार्विन और सोशल डार्विनवाद फर्क करना अपनी तयशुदा शिक्षा प्रणाली के तहत सम्भव नही हुया। और जैसे-जैसे डिग्री बढ़ती गयी, डार्विनवाद और इसकी उपयोगिता, ऐसा लगा बस स्कूल तक की थी। बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली मे विज्ञानिक खोजो का जो एक कांतिनुयम है, वों सिरे से गायब है। और ये सिर्फ़ डार्विन वाद के ही संधर्भ मे नही बल्कि एक बड़े धरातल पर भी। उस बड़े धरातल पर जहाँ रीसर्च होती है, देश के बड़े संस्थानों की प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं मे भी और अगल-बगल काम करने वालो, और विभिन्न प्रयोग्शालो के बीच मे सहयोग और संप्रेषण हीनता की स्थिती है। एक ऐसी संस्कृति मे डार्विन से संबध जोड़ना बहुत दूर की कौडी है।

एक गुमशुदा दोपहर को, तीन दिन की अनिद्रा, थकान और इम्तिहान देने के बाद, मन किसी की शक्ल देखने का नही हुया, न हॉस्टल जाने का, सो बरोदा यूनिवर्सिटी की हंसा मेहता लायब्रेरी की शरण ली, और जेनेटिक्स के सेक्शन मे भटकते हुए, डार्विन की मूल पुस्तक "origin of species", निकाली और अगले सात घंटे मे कई बार पढा, पलट-पलटकर भी पढा, क्योंकि उस समय अंगरेजी मे पढ़ना भी इतना सहज नही था। पता नही कितना समझ मे आया, पर समझने की शुरुआत ज़रूर हुयी। डार्विन की खोज को समझना उसके ऐतिहासिक और सामाजिक संधर्भ मे भी अब सम्भव है मेरे लिए। पर एक बड़ा सवाल अब भी कई बार सामना करता है, की "क्या मैं वाकई वस्तुगत तरीके से चीजों को देख समझ रही हूँ?"। और कई बार वस्तुगत वेवेचन के बाद भी जो बात साफ़ नही हो पाती, और अक्सर दिमाग मे कुछ तर्कहीन खटके (intutions) होते है, और वों चीजों को समझने की नयी दिशा दे देते है।
मेरे जीवन का एक लंबा समय तर्क और इन तर्कहीन खट्को की जद्दोजहद मे बीतता है, और डार्विन कोई रास्ता नही सुझाते।

अगली किस्त तक अगर डार्विन मे रूचि हो तो अच्छी जानकारी यहाँ भी है।

जारी .......................

Feb 11, 2009

“गुलाबी चड्डियाँ” अभियान

मेरे लिए "गुलाबी चड्डी" अभियान का जो मूल तत्व है, और उसमे छिपी उम्मीद है की स्त्री एक सम्पूर्ण मनुष्य है और अपने फैसले ख़ुद ले सकती है, वों महत्त्वपूर्ण है, और एक ऐसे समय मे जब अराज़क तत्व संस्कृति के नामपर, भारतीयता के नाम पर आतंक कायम किए हुए है और वृहतर समाज और क़ानून दोनों हाथ -पर -हाथ रखकर बैठे है। आम स्त्रियों के मन मे और तमाम ऐसे लोगो के मन मे जिन्हें स्वतंत्रता प्रिय है, एक जो डर बैठ गया है, की इस महान देश मे औरतों को सबक सिखाने का जिम्मा कोई भी ऐरा-गेरा ले सकता है। उस स्थिति मे विरोध का जो भी तरीका हो वों चुप रहने से बेहतर है। और विरोध के तरीके भी कोई सन्दर्भ रहित नही होते। एक अति दूसरी अति को जन्म देगी ये निश्चित है। पर विरोध के तरीके को ग़लत बताने वाले अपने घरो मे दुबक कर क्यो बैठ जाते है, जब राम सेना के विरोध की बारी आती है? क्यों नही इससे ज़्यादा रचनात्मक तरीका ढूंढते है, अपने लोकतंत्र को बचाने का ? एक ऐसा समाज बनाने का जहा हर व्यक्ति की सुरक्षा और सम्मान की गारंटी हो ?

विरोध का कारगर तरीका क्या हो? ये निश्चित रूप से सोचने का मुद्दा है, और सिर्फ़ इसी सन्दर्भ मे नही, देश की ढेर सारी समस्याओ के निदान के लिए भी, आम नागरिको की विरोध मे क्या भुमिका हो इस पर भी सोचने की ज़रूरत है . स्त्री की समस्या भी बहुत सी समस्याओं से जुडी है।

ग़लत क्या है? सही क्या है? और जो स्त्री के लिए आज "पब" जाना ग़लत हो गया है, तो क्या पिछले हजारो सालो की भारतीय संस्कृति मे पुरुषो ने सोमरस-से -मयखाने का जो सफर तय किया है वों क्यों निंदनीय नही है? दिरा पान दुनिया की सभी संस्कृतियों का हिस्सा रहा है, और भारत का इतिहास इससे अलग नही है, और औरतों का मदिरा-पान अगर हिंदू धर्म के विरोध मे ही है, तो कोई बताये की हिन्दुस्तान के कई मंदिरों मे, देवी की प्रतिमा के पूजन मे "शराब " का क्या काम है? शिव का भांग के साथ क्या सम्बन्ध है? कितनी लज्ज़त से भारतीय साहित्य, "मधुशाला", और मयखानों की इबादत से भरा पडा है। या वों भी कोई अँगरेज़ अनुवाद करके छोड़ गया है?

मुझे लगता है की संस्कृति पर , भारतीय इतिहास पर, और अपने बदलते परिवेश को समझने के लिए, और भविष्य क्या लेकर आ रहा है ? शांत होकर अलग-अलग दिशा से वैचारिक संवाद की गुंजायश बना कर रखनी होगी। और सबसे ज़रूरी, हर दूसरे मनुष्य के लिए वही सम्मान बनाना होगा जो हम अपने लिए आपेक्षा करते है.
हिन्दी ब्लॉगजगत, और भारतीय समाज बार-बार इस सीमा को लाँघ जाता है, और ये निशानी है असभ्य समाज की, और सामाजिक -सांस्कृतिक उथलेपन की भी। कभी कभी मुझे लगता है हिंदू धर्म के ठेकेदार जब तक इस धर्म की आत्मा और सहिसुण्ता का नाश नही कर देंगे, और इसे इस्लाम की तरह आक्रमक (मेरा इस्लाम की प्रतिक्रिया वादी छवी है उससे है, जो "राम सेवको, और सैनिको के दिल मे है) नही बना देंगे उन्हें चैन नही आयेगा. जब तक हमारे हर देवता के नाम पर खूनी दरिन्दे संगठन नही खड़े कर देंगे, और जब तक हमें राम के नाम से, हनुमान के नाम से, शिव के नाम से, और हमारे इतिहास और धर्म मे जो भी गौरवशाली है, उससे नफरत नही हो जायेगी, तब तक ये धर्म की रक्षा का बीडा उठा कर रखेगे।
इसीलिये ये सिर्फ़ औरतों की ही जिम्मेदारी नही है, हर उस भारतीय की जिम्मेदारी है, की वों यूं ही अपनी आजादी का , सांस्कृतिक गौरव का और धार्मिक श्रदा का अपहरण कुछ लगावे-भगवो को न करने दे।

पवन शेट्टी की हिम्मत एक ऐसे समय मे नयी आशा का संचार करती है।

1। I believe that taking an opposition stand for "forced and self-guardianship" of Ramsena for Indian women, is right stand for any person who believes in democracy, and is freedom loving.


2. The second question, is what should be the nature of that stand?
I would say that one extreme results in another extreme and the "Pink chaddi" campaign is the logical consequence of the actions of Ram Sena.

3. Indeed Ram in "Indian Manas" is the most moderate person, who seeks consensus among different beings, and These goons should not be allowed to use name of Ram or any other respected Hindu Deity for their purpose. And their actions and misconceived believes are not equal to hindu philosophy and teachings.

3. Going to the pub or not going should be left as a individual choice for women as well, as it is for men. If going to the pub is wrong for women, then Menfolks should not enter there either. And I believe in 60 years of freedom, there is very little objection from the society for men. So lets recognize that aspect as well.

4. "Pink-Chaddi" is used probably as a sensational and attention catching word, it could have been virtually and "pink-roomal".
But the use of extreme in this case serves two purpose,
-one of course is publicity and letting people know, that there is resistance.

-the second purpose is more hidden probably, but reflects the anger of women, when goons start to decide for them, what is right or what is wrong, and people buy their point in name of the "sanskriti". It is also there to express this anger in the crudest form, and to reflect some sense of power of the rebels.

Conclusion: Before we start totally, rejecting this campaign, lets see,
-if we are happy "if Ram Sena " becomes face of Hindu values and Indian culture?
-What else can be done, if we do not expect "This goon-sena" our moral leader? becoz doing something is better than nothing.

-The third question relates to culture Invasion, effect of consumerism, economy and western culture, and it again requires another dimension of discussion, and a huge array of solutions can be found to counter that, probably the mode of action of "ram Sena" bajrang dal and "shiv sena" are not the ओनली way, Indians can invent.