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डार्विनवाद से भी मुश्किल है, वों सोच प्रक्रिया को समझना और ग्रहण करना, जिसमे अपने पूर्वाग्रहों को , विश्वाश, को दरकिनार रखकर जो सामने है, उसे सिर्फ़ वस्तुगत आधार पर समझने की इमानदार कोशिश करना। अधिकतर मनुष्यों के लिए, चाहे वों विज्ञानिक हो या न हो, शायद यही सबसे कठिन काम है, क्योकि हमारा चेतन और अवचेतन, एक तरह का जाल है, और वों पर्यवेक्षण पर, और निष्कर्षो पर हावी हो जाता है। इसी को समझकर शायद जर्मन दार्शनिक "गोथे" ने कहा होगा की " सबसे मुश्किल है उसे देखना जो आँख के ठीक सामने हो"।
डार्विन वाद को पढने की और समझाने की नयी कसक मुझे कोलेज के दिनों मे हुयी, की इसे पाठ्यकर्म के दायरे से बाहर रखकर पढा जाय। और खासकर भगत सिंह के लेख "मैं नास्तिक क्यो हूँ?" को पढ़कर। मजे की बात है बायलोजी मेजर की डिग्री जो तीन साल मे पूरी की उसमे डार्विन का कही जिक्र नही हुया, और जेनेटिक्स को लगातार पढने के उपक्रम मे कभी किसी टीचर ने आधुनिक जेनेटिक्स और उभरते हुए बायोटेक्नोलोजी के फील्ड से डार्विन के सम्बन्ध मे कुछ नही कहा। हमारे लिए, डार्विन और सोशल डार्विनवाद फर्क करना अपनी तयशुदा शिक्षा प्रणाली के तहत सम्भव नही हुया। और जैसे-जैसे डिग्री बढ़ती गयी, डार्विनवाद और इसकी उपयोगिता, ऐसा लगा बस स्कूल तक की थी। बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली मे विज्ञानिक खोजो का जो एक कांतिनुयम है, वों सिरे से गायब है। और ये सिर्फ़ डार्विन वाद के ही संधर्भ मे नही बल्कि एक बड़े धरातल पर भी। उस बड़े धरातल पर जहाँ रीसर्च होती है, देश के बड़े संस्थानों की प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं मे भी और अगल-बगल काम करने वालो, और विभिन्न प्रयोग्शालो के बीच मे सहयोग और संप्रेषण हीनता की स्थिती है। एक ऐसी संस्कृति मे डार्विन से संबध जोड़ना बहुत दूर की कौडी है।
एक गुमशुदा दोपहर को, तीन दिन की अनिद्रा, थकान और इम्तिहान देने के बाद, मन किसी की शक्ल देखने का नही हुया, न हॉस्टल जाने का, सो बरोदा यूनिवर्सिटी की हंसा मेहता लायब्रेरी की शरण ली, और जेनेटिक्स के सेक्शन मे भटकते हुए, डार्विन की मूल पुस्तक "origin of species", निकाली और अगले सात घंटे मे कई बार पढा, पलट-पलटकर भी पढा, क्योंकि उस समय अंगरेजी मे पढ़ना भी इतना सहज नही था। पता नही कितना समझ मे आया, पर समझने की शुरुआत ज़रूर हुयी। डार्विन की खोज को समझना उसके ऐतिहासिक और सामाजिक संधर्भ मे भी अब सम्भव है मेरे लिए। पर एक बड़ा सवाल अब भी कई बार सामना करता है, की "क्या मैं वाकई वस्तुगत तरीके से चीजों को देख समझ रही हूँ?"। और कई बार वस्तुगत वेवेचन के बाद भी जो बात साफ़ नही हो पाती, और अक्सर दिमाग मे कुछ तर्कहीन खटके (intutions) होते है, और वों चीजों को समझने की नयी दिशा दे देते है।
मेरे जीवन का एक लंबा समय तर्क और इन तर्कहीन खट्को की जद्दोजहद मे बीतता है, और डार्विन कोई रास्ता नही सुझाते।
अगली किस्त तक अगर डार्विन मे रूचि हो तो अच्छी जानकारी यहाँ भी है।
जारी .......................
चार्ल्स डार्विन के सामाजिक निहितार्थों की समझ को उन्मुख आपकी कशिश आपके डार्विन प्रेम को दर्शाती है -अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी !
ReplyDelete"हमारा चेतन और अवचेतन, एक तरह का जाल है, और वों पर्यवेक्षण पर, और निष्कर्षो पर हावी हो जाता है."
ReplyDeleteसही कहा. अगली कडियों की प्रतीक्षा रहेगी.
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : चिठ्ठी लेकर आया हूँ कोई देख तो नही रहा हैबहुत अच्छा जी
ReplyDeleteआपके चिठ्ठे की चर्चा चिठ्ठीचर्चा "समयचक्र" में
महेन्द्र मिश्र