"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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Feb 19, 2010
निर्मल पांडे और नैनीताल
निर्मल को कुछ बार नैनीताल में देखा, कुछ थोड़ी बहुत बातचीत, कुछ ८९-९० के बीच उनके कुछ नाटक (नैनीताल युगमंच द्वारा आयोजित) को देखने का मौक़ा मिला होगा। कभी गाहे बगाहे इन नाटको की टिकट भी बेची होंगी अपने हॉस्टल के दायरे में। फिर भी एक छोटे झीलवाले, रोमानी शहर में निर्मल के मायने, हमेशा कुछ ख़ास रहेंगे, भले ही बोलीवूड में निर्मल के मायने कुछ हाशिये से ज़रा से ऊपर, और एक संघर्षरत एक्टर के हो तब भी।
नैनीताल में पता नहीं अब बीस वर्षों के बाद आम युवाओं के बीच संभावना के मायने क्या है मुझे मालूम नहीं(निश्चित रूप से ग्लोबलाईजेशन ने ये सूरत नैनीताल में भी बदली होगी, बाकी जगह की तरह)। बीस पचीस साल पहले तक सिर्फ एक कोलेज था, रोमान में नहाया हुया, एक लम्बी फैशन परेड। जिससे निकलकर कुछ ९५% जनता बाबू बनने के सपने संजोये जीवन में उतरकर अपने को धन्य समझती थी। कुछ लोग वहीँ अटके पहाड़ पर चढ़-चढ़ कुछ पी. एच. डी. उधम भी करते थे, फिर थककर बी. एड. करके किसी स्कूल की नौकरी पकड़ते थे। सपनों के पीछे दौड़ने का जज्बा बहुत लोगों में था नहीं. मेरी एक मित्र ने जो बेहद अच्छी खिलाड़ी थी, सिर्फ इसलिए खेलना छोड़ दिया कि खेल की प्रेक्टिस के लिए जो कपडे पहने जाते थे, उन्हें देखकर कुछ शोहदों ने उसका जीना हराम कर दिया था. एक बार कुछ हॉस्टल की लडकियां राज बब्बर के साथ फोटो खिंचा आयी थी, कुछ तीन दिन तक होस्टल वार्डन ने उनका जीना हराम किये रखा. हॉस्टल में कुछ रातजगे करके जो कुछ पोस्टर बनाएं होंगे, कुछ ढंग की किताबें पढी होंगी, तो उनके आगे "Mills and Boons" का घटिया अम्बार भी सजाया होगा, कि हमारी एक किशोरवय वाली नोर्मल लड़की वाली पहचान का भ्रम वार्डन को और हॉस्टल के कुछ गुंडा तत्वों को रहे, खासकर अति junior जमाने में. इसी तरह का सीमित सपनो का आकाश था नैनीताल में.
निर्मल कुछ उन ५% लोगो में से थे जिन्होंने इस बेहूदगी के पार संभावनाएं देखी थी। और उसमे भी शायद कतिपय ऐसे होंगे जिन्होंने किसी सपनीली दुनिया में जाने के बारे में सोचा होगा। इसीलिए निर्मल कुछ ज्यादा प्यारे होंगे बहुत से मित्रों को क्यूंकि उनके बाद बहुत से लड़के-लडकिया नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की तरफ रूख किये। सपनों के पीछे दौड़ने का ज़ज्बा कुछ अभिजात्य वर्ग के नैनीताल के स्कूलों में पढ़े छात्रों में रहा होगा, कोई नसीर बना, कोई अमिताभ, पर खांटी नैनीताली, पहाड़ की ऊबड़-खाबड़ भूगोल की धुन्ध से निकला स्टार सिर्फ निर्मल था.
निर्मल लगभग लगातार एक अरसे तक नैनीताल में आकर थियेटर से लेकर नुक्कड़ नाटक करते रहे, और सपनीली दुनिया के द्वार तक पहुँचने वाले पुल की तरह कुछ लोगों को दिखते रहे। एक बार कुछ इन्तखाब में बैठे एक लड़की जो फ़िल्मी दुनिया में जाना चाहती थी, बड़े समय तक कुछ ख्वाब बुनती रही। मैं कुछ एक कोने अनसुना करके सुनती रही. इसीलिए निर्मल हकीक़त से ज्यादा नैनीताल में एक ख्वाब की तरह लोगों को याद रहेंगे .
Feb 11, 2010
बूझे-अबूझे जीवन संसार
कई शहरों की, और कुछ बरोड़ा और लखनऊ की बेहद पुरानी खूबसूरत इमारतों की झलक, नैनीताल की हरियाली की झलक में छात्र अकबकाया हुया है, कि "स्लमडोग मिलिन्येर" वाले भारत से बहुत अलग कोई दूसरा भारत भी है? उसके अचरज़ से अचरज़ में पड़ी मैं खुद से पूछना चाहती हूँ कि सूचना और संचार के विस्फोटों से गूंजती इस दुनिया में क्या है जो हम ठीक-ठीक पहचानतें है? एक संसार के भीतर बंद, अटे-सटे हुए है कितने संसार, एक दूसरे से बेखबर, कभी उलझे हुए, और कभी आमने-सामने भी हाथापाई को तैयार, फिर भी क्या कोई रखता है ज़रा सी भी पहचान?.....................
फिर से छात्र दिनों पर लौट आती हूँ, कुछ मामला समझाती हूँ, कि भारत के हॉस्टल और अमेरिका के डोर्म्स में क्या रिश्ता है? हॉस्टल के नाम पर पहला बिम्ब ग्रिल वाले गेट का आता है, और एक छोटे बच्चे का को सांझ ढले अपनी मौसी को हॉस्टल में मिलने आया था। गेट बंद हो चुका था, और ग्रिल के आर-पार जितना देखा जा सकता था, उतने में १५ मिनिट तक बात करता रहा और जाते जाते पूछ भी गया कि "मौसी क्या आप जू में रहती हो?" छात्र को मैंने जू में रहे जानवर की छटपटाहट के बारे नहीं बताया, नहीं ये कि लड़कियों के हॉस्टल में खूखार प्राणी नहीं निरीह जानवर बसतें है। खूंखार जानवर शहर भर में खुले घूमते है। छात्र को बताया, एक सामूहिक खाने की मेस के बारे में। एक धोबी के बारे में और कुछ सामूहिक बाथरूम और टायलेट्स के बारें में......
छात्र मुझे अपने जीवन के बारे में अपने मित्रों और प्रेम प्रसंगों के बाबत भी कितना कुछ बिन पूछे बताता चलता है। उसकी इस बेबाकी से, उसकी और अपनी दुनिया के अंतरों में बिखर फिर सोचती हूँ कि एक मेज़ के आमने-समाने एक ही उम्र के दो लोग, दो अलग दुनिया, फिर इनके भीतर कितनी सारी दुनियाएं, कितनी तो बिलकुल कहीं गहरे भीतर दबी रहेंगी, उनका तो कभी कहीं ज़िक्र भी नहीं होगा। कितने ढ़ेर से संसार है इस एक ही संसार के भीतर, फिर उनके भीतर कुछ और...........फिर कुछ और भी होंगे। कुछ अचेत तरह से हम दोनों दूसरी दुनियाओं की मौजूदगी को अक्नोलेज करते है, ये जानते बूझते कि शायद कभी ठीक-ठीक कोई एक भी न समझ पाएं। पर ये ख्याल कि कई संसार है इसी संसार में, कई कई संभावनाएं है जीवन में मन को हर्षित करता है।
छात्र के जाने के बाद भी फिर से सोचती हूँ मेरे अपने ही कितने संसार थे छात्र जीवन में, एक घर का, माता-पिता, भाई-बहन का, दूसरा क्लास के संगीयों का, तीसरा हॉस्टल की दुनिया का, और फिर दूसरा सामाजिक सांस्कृतिक दुनिया की दोस्तियों का। एक साथ इतने संसारों के भीड़ में मैं थी, इन संसारों का आपस में सिर्फ दूर बहुत दूर की पहचान का रिश्ता था, और अकसर तो इनमे से एक दुनिया बाकी सारी दुनियों की मौजूदगी को सचेत तरह से शिनाख्त भी करती होगी इसकी संभावना भी नहीं है। और फिर इन सबसे अलग एक मन की अपनी दुनिया भी थी. कभी किसी से बातचीत में इतने अरसे के बाद फिर कुछ टुकड़े उभरते है इन्ही दुनियाओं के, अपने बच्चे को बीच-बीच में कुछ बताती हूँ, खुद भी सोचती हूँ बनेगी कोई तस्वीर टुकड़े-टुकड़े जोड़कर?
यूँ तो सभी संसारों में घूमते हुए गुमान में रहती थी कि सब कंहीं हूँ, सबकी पहचान है, सवाल फिर भी मुहँ बाए खड़े रहतें है किसे जानतें है ठीक-ठीक? और कौन जानता है हमें भी ठीक-ठीक? या फिर हम क्या रखते हैं अपने मन की ठीक-ठीक पहचान? जीवन फिर बड़ी गूढ़ किस्म की चीज़ है, जब तक रहेगा, अनजाना ही बना रहेगा, नहीं बूझ पाऊँगी, कि किस दिशा में जाना है आगे? और क्यूँ जाना है? जिस राह जीवन जाएगा मैं भी चल दूंगी पीछे-पीछे। जो बीता उसे पीछे पलट-पलट कर देखती भी रहूंगी, कि कहाँ पहुंचना हुआ है?..........
Feb 9, 2010
Feb 8, 2010
बिना अनुमति बिना सूचना के जनसत्ता में
ब्लॉग लेखन की मुख्य बात ये है कि हम जो मन आये लिखे, बीच में आधा लिखा छोड़कर फिर कभी सहूलियत से लौट आएं, फिर दुरुस्त करे, फिर लौट आएं. इसीलिए ब्लॉग पर मैं बहुत सचेत होकर नहीं लिखती , कई गलतियां भी छूटी रहती है, कुछ इसीलिए भी कि हिंदी टाइपिंग ठीक से नहीं आती, कुछ इसीलिए भी कि सुधारने का वैसा समय नहीं रहता, और इसलिए भी कि कई वर्षों से इस भाषा के बीच नहीं रहती। तो ये रोज़ लिखना , कभी कभार लिखना उस भाषा को अपने लिए क्लेम करना है. हालाँकि कुछ हद तक ब्लॉग लेखन इसीलिए भी है कि लोग पढ़े, ताकि कुछ फीड बेक मिले, ख्याल कुछ दुरुस्त हो. इस लिहाज़ से मैं अपनी सभी पोस्टों को "ड्राफ्ट" या फिर "वर्क इन प्रोग्रेस " की तरह देखती हूँ।
प्रिंट में बिना अनुमति, गलतियों के साथ, छपना घातक है, लेखक और पाठक दोनों के लिए. ब्लॉग एक उभरता विकल्प है, और ज्यादा निजी स्पेस है. ब्लॉग और व्यवसायिक अख़बारों के मंतव्य और मंजिलें अलग अलग हैं. प्रिंट और ब्लॉग के इस फ़र्क को समझना चाहिए। प्रिंट मीडीया से प्रोफेशनल रेस्पेक्ट की उम्मीद ब्लोगरों को ज़रूर करनी चाहिए। व्यवसायिक नैतिकता की उम्मीद भी. जो व्यावसायिक अखबार है, या फिर जो पत्रिकाएँ है, वों सर्वजन हिताय इस काम में नहीं लगे है बल्कि, मुनाफे के लिए है। और से कम इतनी ज़िम्मेदारी उनकी बनती है, कि अनुमति ब्लॉग लेखक से लें, और छपने पर सूचना दें. कुछ लोग जो लेखन से ही जीविका चलाते है, उनके लिखे की कीमत भी उन्हें मिलनी ही चाहिए. ये अधिकार सिर्फ लेखक के पास होना चाहिए कि वों अपनी रचना मुफ्त में प्रिंट को देता है या नहीं.
ब्लॉग और प्रिंट कई मायनों से अलग है, फिर भी उनके बीच भागीदारी की, एक दूसरे से सीखने की और साथ मिलकर व्यापक समाज से संवाद की कोशिशे ईमानदारी के धरातल पर होनी चाहिए, दादागिरी की तरह नहीं, और न ही प्रिंट मीडिया को इस गलतफ़हमी में रहना चाहिए कि वों किसी के भी ब्लॉग से कुछ उठाकर-छापकर, ब्लोगर को किसी तरह से उपकृत कर रहे है, और इसीलिए अनुमति नहीं चाहिए। अखबारों की, और इलेक्ट्रोनिक मीडीया दोनों की ये ज़रुरत बहुत लम्बे समय तक बनी रहेगी की वों नयेपन के लिए, और विविधता के लिए ब्लोग्स पर आयेंगे, जहां पारंपरिक लिखने वालों, पत्रकारों से अलग बहुत से दुसरे लोग लिखते है, सिर्फ इसलिए लिखते है कि लिखना अच्छा लगता है, लिखना जीवन को समझने की एक कोशिश है।
मेरी आशा है कि ब्लोगर साथी और प्रिंट से जुड़े ब्लोगर भी इस पर विचार करेंगे। और एक स्वस्थ संवाद की दिशा में सक्रिय होंगे।
कई बार किताब, फिल्म या फिर ब्लॉग का रीव्यू के लिए अनुमति नहीं चाहिए। परन्तु पूरी पोस्ट का बिना अनुमति छपना मुझे ग़लत लगता है, और उसी के प्रति अपना विरोध यहाँ दर्ज़ कर रही हूँ. इसी के बाबत एक ईमेल जनसत्ता के संपादक को भी प्रेक्षित की है.
2012 fir ek bahas