एक मित्र जनसत्ता में मेरे ब्लॉग से एक पोस्ट छपने की सूचना दी है और ये लिन्क भेजा है। मेरे ब्लोगपर कॉपीराईट की घोषणा है, जिसे जनसत्ता ने नज़र अंदाज़ किया गया है, मुझसे न अनुमति ली गयी गई, और न कोई मेरे ब्लॉग की सामग्री छापने की सूचना जनसत्ता ने मुझे दी है. मैं समझती हूँ कि ये एक व्यवसायिक अखबार का मनमाना रवैया है, और किसी भी लेखक /लेखिका की बौद्धिक संपदा पर डाका है, जो अनुचित है.
ब्लॉग लेखन की मुख्य बात ये है कि हम जो मन आये लिखे, बीच में आधा लिखा छोड़कर फिर कभी सहूलियत से लौट आएं, फिर दुरुस्त करे, फिर लौट आएं. इसीलिए ब्लॉग पर मैं बहुत सचेत होकर नहीं लिखती , कई गलतियां भी छूटी रहती है, कुछ इसीलिए भी कि हिंदी टाइपिंग ठीक से नहीं आती, कुछ इसीलिए भी कि सुधारने का वैसा समय नहीं रहता, और इसलिए भी कि कई वर्षों से इस भाषा के बीच नहीं रहती। तो ये रोज़ लिखना , कभी कभार लिखना उस भाषा को अपने लिए क्लेम करना है. हालाँकि कुछ हद तक ब्लॉग लेखन इसीलिए भी है कि लोग पढ़े, ताकि कुछ फीड बेक मिले, ख्याल कुछ दुरुस्त हो. इस लिहाज़ से मैं अपनी सभी पोस्टों को "ड्राफ्ट" या फिर "वर्क इन प्रोग्रेस " की तरह देखती हूँ।
प्रिंट में बिना अनुमति, गलतियों के साथ, छपना घातक है, लेखक और पाठक दोनों के लिए. ब्लॉग एक उभरता विकल्प है, और ज्यादा निजी स्पेस है. ब्लॉग और व्यवसायिक अख़बारों के मंतव्य और मंजिलें अलग अलग हैं. प्रिंट और ब्लॉग के इस फ़र्क को समझना चाहिए। प्रिंट मीडीया से प्रोफेशनल रेस्पेक्ट की उम्मीद ब्लोगरों को ज़रूर करनी चाहिए। व्यवसायिक नैतिकता की उम्मीद भी. जो व्यावसायिक अखबार है, या फिर जो पत्रिकाएँ है, वों सर्वजन हिताय इस काम में नहीं लगे है बल्कि, मुनाफे के लिए है। और से कम इतनी ज़िम्मेदारी उनकी बनती है, कि अनुमति ब्लॉग लेखक से लें, और छपने पर सूचना दें. कुछ लोग जो लेखन से ही जीविका चलाते है, उनके लिखे की कीमत भी उन्हें मिलनी ही चाहिए. ये अधिकार सिर्फ लेखक के पास होना चाहिए कि वों अपनी रचना मुफ्त में प्रिंट को देता है या नहीं.
ब्लॉग और प्रिंट कई मायनों से अलग है, फिर भी उनके बीच भागीदारी की, एक दूसरे से सीखने की और साथ मिलकर व्यापक समाज से संवाद की कोशिशे ईमानदारी के धरातल पर होनी चाहिए, दादागिरी की तरह नहीं, और न ही प्रिंट मीडिया को इस गलतफ़हमी में रहना चाहिए कि वों किसी के भी ब्लॉग से कुछ उठाकर-छापकर, ब्लोगर को किसी तरह से उपकृत कर रहे है, और इसीलिए अनुमति नहीं चाहिए। अखबारों की, और इलेक्ट्रोनिक मीडीया दोनों की ये ज़रुरत बहुत लम्बे समय तक बनी रहेगी की वों नयेपन के लिए, और विविधता के लिए ब्लोग्स पर आयेंगे, जहां पारंपरिक लिखने वालों, पत्रकारों से अलग बहुत से दुसरे लोग लिखते है, सिर्फ इसलिए लिखते है कि लिखना अच्छा लगता है, लिखना जीवन को समझने की एक कोशिश है।
मेरी आशा है कि ब्लोगर साथी और प्रिंट से जुड़े ब्लोगर भी इस पर विचार करेंगे। और एक स्वस्थ संवाद की दिशा में सक्रिय होंगे।
कई बार किताब, फिल्म या फिर ब्लॉग का रीव्यू के लिए अनुमति नहीं चाहिए। परन्तु पूरी पोस्ट का बिना अनुमति छपना मुझे ग़लत लगता है, और उसी के प्रति अपना विरोध यहाँ दर्ज़ कर रही हूँ. इसी के बाबत एक ईमेल जनसत्ता के संपादक को भी प्रेक्षित की है.
2012 fir ek bahas
ब्लॉग लेखन की मुख्य बात ये है कि हम जो मन आये लिखे, बीच में आधा लिखा छोड़कर फिर कभी सहूलियत से लौट आएं, फिर दुरुस्त करे, फिर लौट आएं. इसीलिए ब्लॉग पर मैं बहुत सचेत होकर नहीं लिखती , कई गलतियां भी छूटी रहती है, कुछ इसीलिए भी कि हिंदी टाइपिंग ठीक से नहीं आती, कुछ इसीलिए भी कि सुधारने का वैसा समय नहीं रहता, और इसलिए भी कि कई वर्षों से इस भाषा के बीच नहीं रहती। तो ये रोज़ लिखना , कभी कभार लिखना उस भाषा को अपने लिए क्लेम करना है. हालाँकि कुछ हद तक ब्लॉग लेखन इसीलिए भी है कि लोग पढ़े, ताकि कुछ फीड बेक मिले, ख्याल कुछ दुरुस्त हो. इस लिहाज़ से मैं अपनी सभी पोस्टों को "ड्राफ्ट" या फिर "वर्क इन प्रोग्रेस " की तरह देखती हूँ।
प्रिंट में बिना अनुमति, गलतियों के साथ, छपना घातक है, लेखक और पाठक दोनों के लिए. ब्लॉग एक उभरता विकल्प है, और ज्यादा निजी स्पेस है. ब्लॉग और व्यवसायिक अख़बारों के मंतव्य और मंजिलें अलग अलग हैं. प्रिंट और ब्लॉग के इस फ़र्क को समझना चाहिए। प्रिंट मीडीया से प्रोफेशनल रेस्पेक्ट की उम्मीद ब्लोगरों को ज़रूर करनी चाहिए। व्यवसायिक नैतिकता की उम्मीद भी. जो व्यावसायिक अखबार है, या फिर जो पत्रिकाएँ है, वों सर्वजन हिताय इस काम में नहीं लगे है बल्कि, मुनाफे के लिए है। और से कम इतनी ज़िम्मेदारी उनकी बनती है, कि अनुमति ब्लॉग लेखक से लें, और छपने पर सूचना दें. कुछ लोग जो लेखन से ही जीविका चलाते है, उनके लिखे की कीमत भी उन्हें मिलनी ही चाहिए. ये अधिकार सिर्फ लेखक के पास होना चाहिए कि वों अपनी रचना मुफ्त में प्रिंट को देता है या नहीं.
ब्लॉग और प्रिंट कई मायनों से अलग है, फिर भी उनके बीच भागीदारी की, एक दूसरे से सीखने की और साथ मिलकर व्यापक समाज से संवाद की कोशिशे ईमानदारी के धरातल पर होनी चाहिए, दादागिरी की तरह नहीं, और न ही प्रिंट मीडिया को इस गलतफ़हमी में रहना चाहिए कि वों किसी के भी ब्लॉग से कुछ उठाकर-छापकर, ब्लोगर को किसी तरह से उपकृत कर रहे है, और इसीलिए अनुमति नहीं चाहिए। अखबारों की, और इलेक्ट्रोनिक मीडीया दोनों की ये ज़रुरत बहुत लम्बे समय तक बनी रहेगी की वों नयेपन के लिए, और विविधता के लिए ब्लोग्स पर आयेंगे, जहां पारंपरिक लिखने वालों, पत्रकारों से अलग बहुत से दुसरे लोग लिखते है, सिर्फ इसलिए लिखते है कि लिखना अच्छा लगता है, लिखना जीवन को समझने की एक कोशिश है।
मेरी आशा है कि ब्लोगर साथी और प्रिंट से जुड़े ब्लोगर भी इस पर विचार करेंगे। और एक स्वस्थ संवाद की दिशा में सक्रिय होंगे।
कई बार किताब, फिल्म या फिर ब्लॉग का रीव्यू के लिए अनुमति नहीं चाहिए। परन्तु पूरी पोस्ट का बिना अनुमति छपना मुझे ग़लत लगता है, और उसी के प्रति अपना विरोध यहाँ दर्ज़ कर रही हूँ. इसी के बाबत एक ईमेल जनसत्ता के संपादक को भी प्रेक्षित की है.
2012 fir ek bahas
बिना अनुमति के किया..यह गलत लगा..लेकिन आप के ब्लोग का लिंक पता दिया हुआ है।
ReplyDeleteअब इतना अच्छा लिखेगी तो चर्चा तो होगी ही.....बहुत बहुत बधाई।
वैसे तो यह कार्य कतई जायज नहीं है और अक्षम्य है, चूंकि आपने कॉपीराइट की नोटिस 'बोल्ड और बिग' रूप में शीर्ष में ही लगा रखा है.
ReplyDeleteमगर, फिर भी, रचनाकार (http://rachanakar.blogspot.com)जैसे उपक्रमों में हम हिन्दी के रचनाकारों की कॉपीराइट रचनाओं के कुछ चुनिंदा रचनाएँ अथवा अंश साभार प्रकाशित करते हैं और बहुधा उन्हें सूचित करने या उनसे अनुमति लेने का कार्य बहुत सी अड़चनों के कारण नहीं हो पाता.
पर, इसका उद्देश्य ये होता है कि अच्छी रचनाओं व उनके रचनाकारों के बाबत् जानकारी पाठकों को हो.
तो, आपके इस एक लेख (यहाँ आपके ब्लॉग का लिंक भी दिया है, ताकि पाठक आपके अन्य रचनाओं का रसास्वादन कर सकें,)जनसत्ता ने प्रकाशित किया है तो अर्थ इस रूप में लें कि जनसत्ता ने आपके लेख में कुछ संभावनाएं देख कर उसे आम जन के बीच कुछ सकारात्मक उद्देश्य के लिए प्रेषित किया है.
अलबत्ता, यदि कोई आपके ब्लॉग की तमाम सामग्री अपने व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए करने लगे तो बात जुदा है, बिलकुल जुदा है.
आपकी आपत्ति से पूर्ण सहमति है, अभी तक छपास की चाह के चलते हिन्दी ब्लॉगर आपत्ति व्यक्त नहीं करते रहे हैं पर अवसर है कि बात ओम थानवीजी (संपादक जनसत्ता) की निगाह में लाई जाए ताकि वे इस नीति पर पुनर्विचार करें। आप उन्हें om (dot)thanvi (at) expressindia (dot) com पर संपर्क कर सकती हैं।
ReplyDeleteडा. साहिबा , आपकी बात बिल्कुल ठीक है , ये सीधे सीधे कौपीराईट का उल्लंघन है , और आप वैधानिक कदम उठा सकती हैं । शायद ये दूसरों के लिए भी एक मार्गदर्शक कदम साबित हो । बस ये है कि समाचार पत्र में इस स्तंभ को नियमित लिखने/लगाने वाले भी खुद ही ब्लोग्गर न हों ?? मगर इससे इस बात को सही गलत नहीं ठहराया जा सकता
ReplyDeleteअजय कुमार झा
आपसे पूर्ण सहमति है.. यह कहीं से भी शोभनीय कदम नहीं है जनसत्ता का..
ReplyDeleteजहां पर सुषमा जी जन की सत्ता है
ReplyDeleteवहां पर ब्लॉग जगत की पूरी महत्ता है
पारिश्रमिक मिलना चाहिए और लेनी चाहिए अनुमति भी
पर नहीं देते हैं सूचना भी
विचार तो अच्छे लगते हैं
पर न जाने क्यों पूछ कर
मानने से क्यों सत्ता (चाहे जन के ही हों)
वाले बचते हैं।
इस संबंध में मैं प्रिंट मीडिया के नाम खुला पत्र में पहले ही लिख चुका हूं पर इस ओर से प्रिंट मीडिया ने न जाने क्यों आंखें मूंद रखी हैं या मूंदने का बहाना कर रहे हैं। लिंक देखिएगा http://avinashvachaspati.blogspot.com/2009/09/blog-post_23.html
गलत बात!! कई बार ऐसे ही हम भी छप चुके हैं अलग अलग अखबारों में. पूछना तो चाहिये ही कम से कम..पारिश्रमिक न भी दें तो भी.
ReplyDeleteगलत है.
ReplyDeleteलो जी. जिस चीज पर लोगबाग न्योछावर हुए जाते हैं आप को उसमे एतराज की वजह नजर आ रही है.
ReplyDeleteबहुत बधाई इस साहस के लिए और संवेदना इस डकैती का शिकार होने की घटना पर. आशा की जाए कि और ब्लॉगर लोग भी आपसे प्रेरणा लेकर कुछ आत्मसम्मान के गुर सीखेंगे और चोरों/डकैतों के चरण चाटना बंद करेंगे.
कुछ दिन पहले यही हरकत जनसत्ता ने अरविन्द मिश्र जी के साथ की थी. उनकी भावनाएँ भी कुछ आपसे मिलती जुलती थीं. (जैसा उनके कमेन्ट से नजर आया). तब भी मैंने यही कहा था कि इस चोरी की बधाई कैसे दी जाए.
लिंक देखिये:
http://blogonprint.blogspot.com/2010/01/blog-post_7071.html
ऐसी ही आपत्ति मैने चिट्ठाचर्चा में ,जनसत्ता में इस कॉलम की शुरुआत होने पर की थी, लेकिन अचरज यह है कि जनसत्ता मे ब्लॉग्स का रिसोर्स पर्सन ऐसी बातों को नज़र अन्दाज़ कर जाता है और केवल अपना काम किए जा रहा है। मेरी मूल आपत्ति भी यही थी कि कम से कम लेखक को सूचित करना तो अखबार का फर्ज़ बनता है। अमर उजाला और अक्सर अन्य कई अखबार भी ऐसा ही करता आ रहा है।आप दूर दूर के लोगों से सूचना पाएंगे कि फलाँ अखबार मे आपका यह ब्लॉग पोस छपाथा।
ReplyDeleteन जाने कब ब्लॉगर प्रिंट मीडिया के इस उपकार के बोझ से स्वयम को मुक्त करेंगे।
I got reply from Mr. Thanvi,
ReplyDeletesaying that its only my problem and many other bloggers have appreciated this act of Jansatta. So they will not include material from my blog.
I am stunned by this reply. I think as a profit making institution, the print media can afford (consciously and in calculated manner) to ignore copyright issues.
Its clear that it is not because of ignorance, or something they have not thought about.
An expected reply from a publisher because majority of bloggers do not have the idea what a copyright is and also do not have a profession intention of publishing their work in a authenticated pint form of a book/publication.
ReplyDeleteI agree the publisher missed the point being discussed here and well pointed by UT. SEEK THE CONSENT/REQUEST before printing. At the time of seeking consent the author reserves the right to decline the request. Atleast in all fairness the publisher (in this case Jansatta) can say we tried contacted the author and has/have_not the consent. All hey have to do is add a line at the bottom of the artcile saying WITH CONSENT FROM AUTHOR.
"सिर्फ इसलिए लिखते है कि लिखना अच्छा लगता है, लिखना जीवन को समझने की एक कोशिश है"
ReplyDelete"मेरी आशा है कि ब्लोगर साथी और प्रिंट से जुड़े ब्लोगर भी इस पर विचार करेंगे। और एक स्वस्थ संवाद की दिशा में सक्रिय होंगे"
इस आशा और विश्वास के साथ कि ब्लॉग लेखन से जुड़े लोग आपकी बात को पढेंगे और अमल में भी लायेंगे - विशेषकर मेरे जैसे नए blogger की तरफ से इस जागरूक सन्देश के लिए साभार धन्यवाद्.
सुषमा जी, माफी चाहूंगा कि कुछ विपरीत टिप्पणी कर रहा हूं।
ReplyDeleteयह कानूनन गलत है लेकिन इस प्रकाशन में आपका नाम लिखा है चिट्टे का पता है। इससे न केवल आपके चिट्टे का प्रचार ही हो रहा है पर हिन्दी चिट्टकारी को भी भाव मिल रहा है। मेरे विचार से इसे नज़र अन्दाज़ करना चाहिये।