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पढ़ाने से कुछ हफ्ते भर की फुर्सत मिली तो कुछ नयी पुरानी फिल्मे चलते, उठते, बैठते देख डाली। अवतार पर एक और दो और तीन रीवीयू है, फिर उस रीवीयू के भी कुछ रीवीयू है। और कुछ बड़े सवाल भी है कि संसाधनों की लूट को हम किसी दूरस्थ गृह में नहीं बल्कि
इस धरती में ही कैसे देखते है? अवतार लोक की कल्पना में निर्मल नैतिकता में बहते हुये अपने वास्तविक जीवन में हमारे भोले भाले सहृदय दर्शक प्रगति के नारे की सहूलियत के पीछे लपकने में देर नहीं करते, उसका सामाजिक मूल्य भले ही लाखों का विस्थापन हो या फिर एक सिरे से सफाया.
हिंदी फिल्मो में, माई नेम इज खान, ‘ओय लकी! लकी ओय!, कमीने, ब्लू अम्ब्रेल्ला और गुलज़ार की बनायी पुरानी फिल्म मौसम देखी। ले-देकर फिर से मौसम फिल्म के ही गीत और धुनें बची रह गयी है। बाकी किसी भी फिल्म के किसी गीत या ध्वनी की कोई स्मृति मेरे मन में नहीं है, दो दिन के बाद। ओय लकी! लकी ओय! को छोड़कर बाकी सभी फिल्मों ने निराश किया।
कमीने बिलकुल बकवास, ब्लू अम्ब्रेल्ला एक बेहद एकहरी, ऊबाऊ और हद दर्जे तक चिढ़ाने वाली फिल्म है, खासकर हिमाचल का भूगोल, फिल्म का दक्षिण भारतीय संगीत और धुनें. पूरी फिल्म में पात्रों के बीच किसी तरह का जीवंत संवाद नहीं है, न बच्चों के बीच, न माँ-बेटी के बीच, न वयस्कों के बीच आपस में.
स्टोरी के लिहाज़ से माई नेम इज खान एक बेहद घटिया फिल्म है. माई नेम इज खान का हीरो autistic है, मुसलमान है, जो २००१ के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हुये हमले के बाद अलगाव का शिकार हुया है. और स्कूल के कुछ बच्चों ने बुलींग में उसके बच्चे की जान ली है. शाहरूख को इसी मामले में अमेरिकी रास्ट्रपति से मिलना है और कहना है कि वों आतंकवादी नहीं है, और न उसका मारा गया बच्चा था. इसी घटनाक्रम में वों हेरेकेन कैटरीना में फंसे लोगों को बचाता है, मुसलमान अतिवादियों को पकड़वाने के लिए फ़ोन करता है, आदि आदि.... और अंतत: अमेरिकन रास्ट्रपति से उसका मिलना संभव हो पाता है। कहानी का ये पूरा घटनाक्रम बहुत ढीला है, कुछ ज़बरदस्ती का है. कैटरीना अब बीती बात हो चुकी है, और जिन्हें भी इसकी स्मृति है, उस स्मृति में कुछ अच्छा नहीं है. सबसे गरीब लोगो को मरने के लिए डूबने के लिए, उस सबके बीच अमानवीय हिंसा सहने के लिए मजबूर छोड़ दिया गया था. एक सर्व शक्तिमान रास्ट्र में. उसे इस फिल्म में यूं इस्तेमाल करना विद्रूप किस्म का मज़ाक है.
इसके विपरीत काजोल कुछ अहिंसक तरीके से अपने बेटे के कातिलों को सजा दिलाने की मुहीम में जुटती है, वों रास्ता अमरीकन डेमोक्रेसी का कुछ जाना पहचाना कारगर रास्ता है, जो देर से ही सही पर आम आदमी के लिए काम करता है. न्यू योर्क अमेरिका भर में युद्ध-विरोध का एक प्रमुख केंद्र इतने वर्षों तक रहा है, और लगातार
उन लोगो ने भी जिनके परिवारजन वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर में मरे, और उन लोगों ने भी जिनके बच्चे युद्ध में मरे या बहुत सालों से घर नहीं लौटे, हर छोटे बड़े मौकों पर युद्ध समाप्ति और धार्मिक टोलरेंस के लिए जुलुस निकाले है. लगभग हर अमेरिकी परिवार के भीतर लागातार तीखी बहसों में काले सफ़ेद दोनों पक्ष रहे है. इस दृष्टी से ये फिल्म अमेरिकन या कहे तो एक तरह से अंतररास्ट्रीय परिदृश्य को भी ठीक से पकड़ने में अक्षम रही है. एक मुसलमान के अलगाव को कहने के लिए इस फिल्म की कथा को इतनी बैसाखियों की ज़रुरत क्यूँ पड़ती है?
कुछ असहमतियों के बावजूद यही कहुंगा कि बड़ी ही ईमानदार समीक्षा है।
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