समय और भूगोल के पार
अकसर कहीं कुछ पहुँची,
और बहुत कुछ पीछे छूटी मैं
किसी दिन समूची मिलूंगी खुदसे
लौट आऊँगी फिर अपने पास
उनींदी आँखों में उतर आये
कुछ कुलबुलाते सपनो की तरह
कुछ ऐसे जैसे बहती है फूलों की एक नदी
धीमे-धीमे बसन्ती बयार में,
या पतझड़ में फिरता रहे कोई बावरा
धुधंलके तक निपट निर्जन में,
उड़ता फिरे हरे, लाल, पीले, जामुनी पत्तों के संग
या गर्मियों की किसी दोपहर फिसलता रहे कोई बच्चा
चीड़ की पत्तियों से ढंकी किसी ढलान पर,
अपनी ही संगत के एकांत में खो दे समयबोध
वैसे ही फिर मिलना है मुझे
बैठना है देर तक अपनी ही संगत में
कुछ उलट-पुलट करनी हैं
दुनिया के नक़्शे पर खिंची आड़ी-तिरछी रेखाएं
लिखना है यात्रा वृत्तांत अबूझे मन की गलियों का
"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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शीर्षक होना चाहिए था,'सपने में कविता'.....कविता अच्छी लगी।
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