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Apr 4, 2010

फिर बनेगें आशना कितनी बरसातों के बाद

सुनना. फिर.. फिर..वही भूली बिसरी धुनें, कभी कुछ दिनों बाद, कभी महीनो और फिर कभी सालों बाद भी, फिर से डूबना, फिर से लौटना अपने पास ही. भटकना फिर एक बार धूप और बूंदाबांदी में एक साथ. सपनों के भीतर जगते रहना देर रात तक, अलसुबह तक. भरी दोपहरी भीड़ के बीच धीरे से मुस्काना, कहना खुद से उठ जा अब.., काम..काम... काम... है, दिन है...... दिन है......... दिन के दस्तूर है..

फैज़ साहेब की आवाज़ में एक और यहां है

6 comments:

  1. बिना ऑर्केस्ट्रा के आवाज़ की प्युरिटी एक खास टीस में आती है , अनअलाय्ड .. साफ सच्चा

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  2. फैज तो हम जैसे नौजवानों की जबान हैं। उनकी गजल तो किसी भी रूप में खुदबखुद खिल उठती है। बस मेंहदी हसन की आवाज हो तो और बात होती है।

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  3. आवाज़ की मिठास समझ आती है, दिल में उतरता है, मगर साथ ही जल्‍दी-जल्‍दी यह भी सूझने लगता है कि उर्दू कितना समझ नहीं आती..

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  4. आजकल ब्लॉगिंग मे गीत-संगीत की बहार चलती लग रही है..मगर दिल भरता नही..मधुर प्रस्तावना के बाद मधुरतम नूरजहाँ!!.फ़ैज साहब की आवाज पहली बाद सुनने को मिली यहाँ...शुक्रिया!

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  5. .वाह !
    क्या तो ग़ज़ब अदायगी
    नूर जहाँ
    नूर जहाँ

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  6. एक आवाज जो बदल देती है शब्दों के मायने !
    बहुत बढ़िया !

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