सुनना. फिर.. फिर..वही भूली बिसरी धुनें, कभी कुछ दिनों बाद, कभी महीनो और फिर कभी सालों बाद भी, फिर से डूबना, फिर से लौटना अपने पास ही. भटकना फिर एक बार धूप और बूंदाबांदी में एक साथ. सपनों के भीतर जगते रहना देर रात तक, अलसुबह तक. भरी दोपहरी भीड़ के बीच धीरे से मुस्काना, कहना खुद से उठ जा अब.., काम..काम... काम... है, दिन है...... दिन है......... दिन के दस्तूर है..
फैज़ साहेब की आवाज़ में एक और यहां है
"He is an emissary of pity and science and progress, and devil knows what else."- Heart of Darkness, Joseph Conrad
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बिना ऑर्केस्ट्रा के आवाज़ की प्युरिटी एक खास टीस में आती है , अनअलाय्ड .. साफ सच्चा
ReplyDeleteफैज तो हम जैसे नौजवानों की जबान हैं। उनकी गजल तो किसी भी रूप में खुदबखुद खिल उठती है। बस मेंहदी हसन की आवाज हो तो और बात होती है।
ReplyDeleteआवाज़ की मिठास समझ आती है, दिल में उतरता है, मगर साथ ही जल्दी-जल्दी यह भी सूझने लगता है कि उर्दू कितना समझ नहीं आती..
ReplyDeleteआजकल ब्लॉगिंग मे गीत-संगीत की बहार चलती लग रही है..मगर दिल भरता नही..मधुर प्रस्तावना के बाद मधुरतम नूरजहाँ!!.फ़ैज साहब की आवाज पहली बाद सुनने को मिली यहाँ...शुक्रिया!
ReplyDelete.वाह !
ReplyDeleteक्या तो ग़ज़ब अदायगी
नूर जहाँ
नूर जहाँ
एक आवाज जो बदल देती है शब्दों के मायने !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !