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Apr 23, 2010

धरती का बचना तभी संभव है जब मनुष्यों के बीच समानता बनेगी

२२ अप्रैल और ये पूरा महीना धरती दिवस, कविता माह के रूप में साल के कलेंडर पर जगह पाता है. हमारी संवेदनशीलता, ह्रदय और जनतंत्र में चुनी हुयी सरकारों की नीतियों और जन के सरोकारों में कितनी जगह पाता है? अगर होती कोई जगह, और सोच तो भूपेन को हिमालय के घाव लिखने की ज़रुरत नहीं होती. हमारी भोगौलिक , सांस्कृतिक, अस्मिता के प्रतीक हिमालय को लेकर हमारी कुछ सोच होती, सिर्फ हिमालय गानों में जगह न पाता. और हनीमून स्पोट के इतर उसके कुछ और बिम्ब भारत के जन के मन में होते, कुछ जुड़ाव होता.

उत्तर भारत को जल और जीवन दायिनी नदियों, गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी का इस तरह दोहन न होता। और जल, जीवन और जन के बीच सम्बन्ध कुछ हारमोनी लिए विकास की राह चलतें होते. एक जमीन से जुड़े गढ़वाली कवि, गीतकार और गायक को ये गाने और लिखने की ज़रुरत न होती.


"कख लगाण छ्वीं, कैमा लगाण छ्वीं
ये पहाड़ की, कुमौ-गढ़वाल की
सर्ग तेरी आसा, कब आलू चौमासा
गंगा जमुना जी का मुल्क मनखी गोर प्यासा
क्य रूड क्य हयून्द, पानी नीछ बूँद
फिर ब्णीछ योजना, देखा तब क्य हूंद"
.........नरेन्द्र सिंह नेगी

और भी बहुत कुछ नहीं होता, दुनिया में इस तरह की रेड लिस्ट हर साल नहीं बनानी पड़ती, कि कैसे जीवन के विविध रूप धीरे -धीरे विलुप्त हो रहे. अकेले भारत में करीब ५६९ सिर्फ पशुओं की जातियां इस लिस्ट में है। हिमालय को जिस तरह ऊर्जा के लिए दोहना जारी है, बहुत कुछ जो पौधों और पशुओं की जातियां है, जल्द ही इस लिस्ट में शामिल होंगी। मनुष्य वैसे भी अब उत्तराखंड के गाँव से तेजी से बह चुके है, और जो बचें है वों भी चंद बरसातों की बात है, बहतें हुये उन्हें भी नीचे ही आना है। पहाड़ का लगातार दुष्कर होता जीवन उन्हें या तो ख़त्म करेगा या दर-बदर भटकाएगा ही।
अपनी तरफ से चीन एवरेस्ट के बेस केम्प तक सैलानियों की सहूलियत और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सड़क बना चुका होगा। इस पार और उस पार से हिमालय पर कई कई घाव हो ही रहे है। अमूमन यही हाल दुनिया के कई दूसरे देशों का है।
चॉम्‍स्‍की ऐसे ही घबराये नहीं है, कि अभी तक इतना देखा, पर जो हो रहा है फिर भी अनदेखा अनचीन्हा रहा गया।
ऐसे ही नहीं बोलिविया के राष्‍ट्रपति ने एवो मोरालेस ने कहा कि "धरती और मौत में से अब सिर्फ एक का चुनाव बचा है". और धरती का बचना तब तक संभव नहीं है जब तक लोगों के बीच कोई आपसी तारतम्य, समानता नहीं बनती.
"Without equilibrium between people, there will be no equilibrium between humans and nature।"

सिर्फ लैटिन अमेरिकी देशो और अफ्रीका की सरकारे ही विकास की लूट-खसौट वाली नीतियों पर नहीं चल रही है। पूंजीवाद के केंद्र में भी कुछ वैसे ही भ्रम फैले है, कि दुनिया की हालत एक सी ही है,। और इन हालातों से निपटने के लिए जैसे माओवादियों द्वारा सत्तापलट के भ्रम हिन्दुस्तान में फैले है। कुछ उसी टोन पर ये भ्रम भी कि "सफ़ेद घर" भी समाजवादी लालरंग में पुत्ता जा रहा है.


1 comment:

  1. तात्कालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक नुकसान करने का आत्मघाती रवैया हमें न जाने कहां ले जाएगा ??
    बोलिविया के राष्‍ट्रपति एवो मोरालेस ने बड़ी ही सटीक बात कही है - "Without equilibrium between people, there will be no equilibrium between humans and nature।"

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