बेला नेगी की फिल्म "दायें या बाएं " बहुत दिनों से चर्चा सुनती रही हूँ. आज देखने का मौक़ा मिला. शायद सपने और हकीक़त के बीच जितना फासला है, आदर्शवाद का जमीन में पटका जाना, उसकी निर्ममता, करुणा को बखूबी हास्य के पुट में पैक किया है, पर फिल्म का अंत बॉलीवुड के जाने पहचाने रस्ते से ही हुआ जिसने कुछ हद तक फिल्म की मौलिकता को कोम्प्रोमाईज़ किया.
कहानी का लब्बोलुआब नायक के शहर से गाँव लौटने की, और गाँव में अपनी गुजर की संभावनाओं की तलाश की कोमेडी है. फिल्म में गाँव में पला बढ़ा और कुछ दिनों शहर में रहने के बाद गाँव लौटा लड़का नज़र नहीं आता. अपने घर लौटता कोई व्यक्ति नहीं दिखता. जबकि उसका परिवार गाँव में रहता है. गाँव की इस दुनिया में कोई एलियन लौटा दिखता है.
पता नहीं क्या तो हुआ अपने देखे भूगोल को पहचानने के बाद भी आत्मा बहुत जुडी नहीं. किसी भी पुरुष पात्र की बॉडी लेंग्वेज में पहाडीपन नहीं है, गिर्दा जो इतने भरपूर थे अपनी भाव भंगिमाओं में, स्टेज पर और आम बातचीत में वो भी कहीं नज़र नहीं आते उस तरह से. भाषा में कुछ मीठापन हो सकता था, जो इतनी प्रचुर मात्रा में पहाड़ की भाषा में है. उसका रस भी नहीं है बहुत ज्यादा. पहाड़ का ग्रामीण जीवन जितना औरतों के इर्द गिर्द है, उसकी बहुत मार्मिक झलक नहीं दिखती. बेवजह बहुत सा समय बेरोजगार, लड़कों की चौपाल के आस-पास घूमता है, एक ही कोण में उसकी भी कोई अलग समझ उनके निकम्मेपन के अलावा बन नहीं पाती. शराब की घुसपैठ दिखती है, नहीं दिखता तो उससे नष्ट संसार, संभावनाएं, बच्चों और औरतों का त्रासदीपूर्ण जीवन. ये भी हास्यास्पद लगता है कि शराब इस तरह से स्वीकृत दिखती है कि कोई सवाल उठाता नही , बीबी झगडा नहीं करती. शहराती सी कुछ औरतें धूम्रपान के विरोध में प्रदर्शन करती दिखती है, जब कि धूम्रपान की ऐसी कोई उपस्थिति फिल्म में नहीं है, शराब का बहुत सशक्त विरोध का इतिहास रहा है पहाड़ में, वो भी बड़ी संख्या में ग्रामीण औरतों की भागीदारी वाला. तो पता नहीं ये लोगों की राजनैतिक चेतना पर फब्ती कसी गयी है या पहाड़ की महिलाओं के बिन बात पर झंडा उठा लेने का बिम्ब है.. फिल्म में शायद विलन की, मौत के कुंएं की मौजूदगी भी कोई नए आयाम नही जोडती, शायद उसकी ज़रुरत भी नही थी.
गाँव के रेफ़रन्स में एक अनामी शहर है, सम्पूर्ण, संभावना भरा, समस्या विहीन, बिना नाम का. अच्छा होता नाम का एक कस्बा होता आस-पास, गाँव के बच्चे जो अल्मोड़ा, नैनीताल जैसे पर्यटक शहरों में पहुँचते है, उसकी कोई झलक होती, कि वहां भी क्या संभावनाएं है उनके लिए? किसके लिए है?. शहर और गाँव के बीच भरम की दीवार भी टूटती, जिसे कुछ हद तक गाँव के लोग पहचानते भी है. सारे पहाडी शहर एक मायने में एक जैसे है, जिनमे सैलानियों के लिए कुछ होटल, कुछ खाने की दुकाने, छोटा सा बाज़ार, एक केंट एरिया, दो तीन स्कूल और हर विभाग के सरकारी दफ्तर. गाँव से आये हाशिये की शिक्षा लिए नौजवानों के लिए रोज़गार की संभावना होटल, में नौकरी करने के अलावा कोई दूसरी नहीं है. तो पलायन नज़दीक के शहर कसबे में नही, हमेशा से दिल्ली, बंबई, लाहोर से लेकर ढाका तक में पहाड़ से हुआ है, फौज में हुआ है.
पता नहीं क्या तो हुआ अपने देखे भूगोल को पहचानने के बाद भी आत्मा बहुत जुडी नहीं. किसी भी पुरुष पात्र की बॉडी लेंग्वेज में पहाडीपन नहीं है, गिर्दा जो इतने भरपूर थे अपनी भाव भंगिमाओं में, स्टेज पर और आम बातचीत में वो भी कहीं नज़र नहीं आते उस तरह से. भाषा में कुछ मीठापन हो सकता था, जो इतनी प्रचुर मात्रा में पहाड़ की भाषा में है. उसका रस भी नहीं है बहुत ज्यादा. पहाड़ का ग्रामीण जीवन जितना औरतों के इर्द गिर्द है, उसकी बहुत मार्मिक झलक नहीं दिखती. बेवजह बहुत सा समय बेरोजगार, लड़कों की चौपाल के आस-पास घूमता है, एक ही कोण में उसकी भी कोई अलग समझ उनके निकम्मेपन के अलावा बन नहीं पाती. शराब की घुसपैठ दिखती है, नहीं दिखता तो उससे नष्ट संसार, संभावनाएं, बच्चों और औरतों का त्रासदीपूर्ण जीवन. ये भी हास्यास्पद लगता है कि शराब इस तरह से स्वीकृत दिखती है कि कोई सवाल उठाता नही , बीबी झगडा नहीं करती. शहराती सी कुछ औरतें धूम्रपान के विरोध में प्रदर्शन करती दिखती है, जब कि धूम्रपान की ऐसी कोई उपस्थिति फिल्म में नहीं है, शराब का बहुत सशक्त विरोध का इतिहास रहा है पहाड़ में, वो भी बड़ी संख्या में ग्रामीण औरतों की भागीदारी वाला. तो पता नहीं ये लोगों की राजनैतिक चेतना पर फब्ती कसी गयी है या पहाड़ की महिलाओं के बिन बात पर झंडा उठा लेने का बिम्ब है.. फिल्म में शायद विलन की, मौत के कुंएं की मौजूदगी भी कोई नए आयाम नही जोडती, शायद उसकी ज़रुरत भी नही थी.
गाँव के रेफ़रन्स में एक अनामी शहर है, सम्पूर्ण, संभावना भरा, समस्या विहीन, बिना नाम का. अच्छा होता नाम का एक कस्बा होता आस-पास, गाँव के बच्चे जो अल्मोड़ा, नैनीताल जैसे पर्यटक शहरों में पहुँचते है, उसकी कोई झलक होती, कि वहां भी क्या संभावनाएं है उनके लिए? किसके लिए है?. शहर और गाँव के बीच भरम की दीवार भी टूटती, जिसे कुछ हद तक गाँव के लोग पहचानते भी है. सारे पहाडी शहर एक मायने में एक जैसे है, जिनमे सैलानियों के लिए कुछ होटल, कुछ खाने की दुकाने, छोटा सा बाज़ार, एक केंट एरिया, दो तीन स्कूल और हर विभाग के सरकारी दफ्तर. गाँव से आये हाशिये की शिक्षा लिए नौजवानों के लिए रोज़गार की संभावना होटल, में नौकरी करने के अलावा कोई दूसरी नहीं है. तो पलायन नज़दीक के शहर कसबे में नही, हमेशा से दिल्ली, बंबई, लाहोर से लेकर ढाका तक में पहाड़ से हुआ है, फौज में हुआ है.
जीवन अपनी सम्पूर्णता में, सीमित संभावनाओं में, बीहड़पन, सामाजिक संरचना में खुद इतना बड़ा विलेन है पहाडी गाँव के परिवेश में, कि सारी सद्दिच्छा के बाद भी एक अकेले व्यक्ति को शीर्षआसन करवाएगा, बार बार जमीन पर पटकेगा. रूप के स्तर पर पहाड़ का भूगोल, वेशभूषा, और प्रकृति के कुछ सीन सुहाने है, कथ्य बहुआयामी है पर गहराई इसमें नहीं है.
कला को किस तरह देखा जाय इसकी बहुत समझ मेरी है नहीं. एक आम दर्शक की तरह इतनी अपेक्षा जरूर रहती है कि कला सिर्फ सतह की झलकियाँ दिखाने के इतर कुछ परते खोलने का काम भी करे, उस बहुत कुछ को जो मन कि तहों में एक हलकी छाप सी बसती है, को मूर्त कर दे, अपने कुछ जाने पर अपह्चाने जीवन की, परिवेश की कुछ और पहचान बढ़ा दे. जिन लोगों ने करीब से पहाड़ न देखा हो, उनके लिए ज़रूर कुछ नयी खिड़की खुलती होगी. मेरे लिए कुछ ऐसा रहा कि बड़ी आस में किसी मित्र से मिलने जाओ और दरवाजे पर ताला देखकर वापस लौट आओ. कुछ निराशा हुयी फिल्म देखकर.
सार्थक प्रस्तुति, बधाईयाँ !
ReplyDeleteनिराश होना बहुत मुश्किल तो नहीं है
ReplyDeleteमैंने भी देखी है.. कुछ हिस्से बेहद अच्छे थे लेकिन हाँ कुछ तो था जिसकी वजह से ये फ़िल्म एक हल्की - फ़ुल्की फ़िल्म बनकर भी नहीं रह पाती... कहानी और कोशिश अच्छी थी शायद निभाना सही से नहीं हुआ।
ReplyDeleteओहो, सो सैड.
ReplyDeleteआई अम थिंकिंग.