मंदी की मार सबसे पहले जनसामान्य की बुनियादी ज़रूरतों पर पड़ती है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, एटसेट्रा .., जबकि बड़े कॉरपोरेशंस या औधोगिक घराने, हमेशा इस मार और मंदी के बीच भी सर्वजन हिताय के कुछ घिसे-पिटे राग के साथ, अपना मुनाफा बनाते रहते है, सब्सिडी लेते रहते है. अमेरिकी मंदी की मार के बीच शिक्षा पर आलरेडी कम बजट को और कम किया जाना, और सार्वजानिक शिक्षा के बुनियादी ढाँचे की चरमर के बीच बहुत सी बहसे है. उच्च शिक्षा का जो खेल है, और जिस पर इसका ढांचा टिका है उसके बारे में एक महत्त्वपूर्ण लेख ये है. इससे पहले एक किताब आयी है. एक फिल्म भी आयी है प्रायमरी और मिडल स्कूल पर केन्द्रित. इस सबके मद्देनज़र रोज़ कुछ साफ़ होता जाता है की सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था में एक छोटा सट्टा बाज़ार शिक्षा के नाम पर है.
कुछ साल पहले तक किसी गर्व के साथ हिन्दुस्तान की सर्वसुलभ शिक्षा और सरकारी अस्पतालों तक जनसामान्य की सहज पहुँच को लेकर कुछ गर्व होता था. अब बीस साल बाद वो भी नहीं है. एक तरह समाज और सरकार ने पूरी तरह से सरकारी ढांचे को किसी भी तरह सपोर्ट करने से हाथ खींच लिए है, और जन सामान्य ने कुकुरमुत्तो की तरह उगे गली मोहल्ले के कॉन्वेंट स्कूलों से लेकर अमिटी तक अपने संसाधन उड़ेल दिए है, बाक़ी बचे खुचे का बैंड बाजा ढेर से अमेरिकी-यूरोपी केम्पस बजा डालने वाले है. काश इसका आधा भी सार्वजानिक शिक्षा के ढांचे में लगता तो समाज के एक बड़े हिस्से को लाभ मिलता. कुछ सबक हम ले पाते और कुछ अपनी दुरुस्तगी करते..
आपकी पोस्ट के निष्कर्ष से सहमत!
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