बस ज़रा सी याद है मुझे
प्रायमरी स्कूल की
यही कि पहाड़ की छाँव, खेतों के बीच धूप नापते
रिक्ख, बाघ के डर के साये
डेढ़ घंटे पैदल चलना चलना होता
रोज़ पेन्सिल का आधा टुकड़ा मिलता
जो शाम तक शर्तिया खो भी ज़ाता
दो महिला मास्टरनियां थीं जिनके पढाएं का
भरोसा नहीं करते थे माँ बाप
और थे दो मास्साब थे, ठोकपीट सीखा देते थे पहाड़े
एक ताई थी खिलाती थी दलिया
वैसे ये सूचना है कि
ताई के श्रीलंका की लड़ाई में २३ साल के शहीद बेटे का मुआवज़ा
इस स्कूल की छत की शक्ल में बचा है अब
तीसरी कक्षा में मुहम्मद साहेब का एक पाठ था
सिर्फ़ एक वाक्य याद है अब तक
"अरब में लोग बेटियों को ज़मीन मे गाड़ देते थे"
नहीं मालूम था कहाँ अरब देश
पर गाली गढवाल में भी थी “खाडू म धरूल”1
महीनों आतंकित, सहमी नज़रें जब तब खेत में गढी लडकियां ढूंढती
कई बार माँ से पूछा मुझे कब गाड़ेगी?
माँ सुनकर आगबबूला होती
मुझे तब नहीं पता था कि मैं पहली संतान नही
चौथी में सम्राट अशोक के ह्रदय परिवर्तन का एक पाठ था
कलिंग को ध्वनि के मोह में ‘कर्लिंग’ लिखती रही
लिखती रही.. मार खाती रही.. कई कई दिन
तंग आकर मास्साब ने अलमारी के ऊपर बिठा दिया आधा दिन
और शाम को माँ से कहा
“इस लड़की को कुछ समझाना मुश्किल”
तीन दशक बाद एक पराये देश में
अपने बच्चे के लिए ढूंढ रही हूँ प्रायमरी स्कूल
परिचित, पड़ौसी बताते है कि
अच्छे प्रायमरी स्कूल की सरहद में मकान की कीमत बढ़ जाती है
मंदी की मार के बीच
प्रोपर्टी एजेंट प्रायमरी स्कूल और प्रोपर्टी के सम्बन्ध की तसदीक करता है
उसकी चिन्ता शिक्षा नही प्रोपर्टी की रीसेल वेल्यू है
अमरीका में अच्छे स्कूल का मतलब
उच्चमध्यवर्गीय बसावट का नजदीकी स्कूल है
मुक्त बाज़ार तय करता है स्कूल में संगत
इस बीच ओबामा रास्ट्रपति हैं
एक दशक के युद्ध और लगातार बढ़ती मंदी के बीच
शिक्षा के लिए बजट कटौती की सूचना है
स्कूल में वॉलेन्टियर करती मांयें हैं
शिक्षा की बदहाली पर “वेटिंग फॉर सुपरमेन”2
और “एकेडेमिकली अड्रिफट”3 है
गोकि जीवन में स्कूल से ही बंधी हूँ
प्रायमरी एजुकेशन का कोई प्राइमर नही मेरे पास...
***
1“खाडू म धरूल”; गाड़ दूंगी, एक गाली
2“वेटिंग फॉर सुपरमेन”; डेविड गूगनहाइम द्वारा निर्देशित डोकुमेन्टरी फिल्म(२०१०)
3“एकेडेमिकली अड्रिफट; रिचर्ड अरम और जोसिपा रोक्सा की किताब (२०११)
उड़ते हैं अबाबील, (कविता-संग्रह)-२०११ से
कई किलोमीटर दूर जा कर सरकारी स्कूल में पढने की स्मृति ....... हाँ आज की शिक्षा जैसा तो कुछ नहीं था ... पर वो पढाई इतनी ठोस, इतनी कारगर क्यूँ थी, पता नहीं?
ReplyDeleteआप कविताएं नहीं लिखती....जिंदगी के तजुरबो को शब्द देती है
ReplyDeleteकई बार सोचता हूँ कि प्राइमरी स्कूल की इतनी गाढ़ी स्मृतियाँ क्यूं होती है हमारे पास? अतीत का एक पूरा भूगोल खडा कर दिया आपने.
ReplyDeleteवैसे बेटियों के मामले में हम भी कम बदनाम नहीं.
मेरे ब्लॉग का लिंक यहाँ देने के लिए शुक्रिया सुषमा जी.
शुक्रिया दोस्तों!
ReplyDelete@अनुराग, सही बात कविता मैं नही ही लिखती.., भावलोक से ज्यादा यहां सिर्फ लोक/अनुभव ही रहता है.
bahut badhiya didi
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