Copyright © 2007-present by the blog author. All rights reserved. Reproduction including translations, Roman version /modification of any material is not allowed without prior permission. If you are interested in the blog material, please leave a note in the comment box of the blog post of your interest.
कृपया बिना अनुमति के इस ब्लॉग की सामग्री का इस्तेमाल किसी ब्लॉग, वेबसाइट या प्रिंट मे न करे . अनुमति के लिए सम्बंधित पोस्ट के कमेंट बॉक्स में टिप्पणी कर सकते हैं .

Nov 5, 2011

सच और सपने के पार

दुनिया का तसव्वुर उतना ही बनता, जितनी बड़ी देखे की दुनिया होती, देखे-पहचाने लोगों से, चीज़ों से, पेड़-पोधों से,  कीड़े-मकोड़ों से, पंछियों-पशुओं  से... अनुभूती, हमें जाने पहचाने कोनों में, अपनी अपनी आत्म-गुफाओं के सुरक्षा के घेरे में बाँध लेती. मामूली होने से बचाती, उतना ही दुनिया का वितान होता सचमुच की दुनिया का, जिसको हेंडल करने की हमारी सामर्थ्य  होती है.

फिर इस देखे की दुनिया, जाने पहचाने के बीच दुनिया का सपना होता, जो हम सचमुच अपने लिए चाहते होते. जो पढ़ा होता, सुना होता है, तस्वीरों और फिल्मों  के मार्फ़त हमारे संज्ञान में आता. वो अंश-अंश के घालमेल, जागे में,  नींद में भी. सुनी बातें, लिखे शब्द, बुने हुये बिम्ब- सच से बहुत दूर, मायावी, परानुभूति  सपनों  की  ज़मीन बुनती...
बहुत कम लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि सच से दूर,  कोई परानुभूती का अंश अपने साथ दृष्टी भी साथ लाता है. रोज आदत की तरह हमारे जीवन में सहजता से शुमार काम,  आस-पास  रोज देखे जाने वाली चीज़ों  के अपह्चाने सत्य कला उद्घाटित करती है.  अनायास ही किसी कैमरे की नज़र, किसी घनीभूत पीड़ा के स्वर , व्यक्त किसी की छटपटाहट हमें मानो फिर से खुद को मिला देती है. अदेखे की दुनिया ही हमारे लिए सपनों की समान्तर दुनिया बुनती, जिसमे हमारी देखी दुनिया से बहुत बड़ी एक दुनिया है, कई तरह के लोग है,  जितना हम जानते है उससे भी बहुत आगे हर तरह के भले बुरे, वीभत्स, डरे हुये भी. ये अजानापन ही हमें हमारे जाने हुये की ऊब से बचाता है, जानी-पहचानी यांत्रिक, अमानवीय, तंगनज़र की सीमा से हमें आज़ाद करता है. आशा की एक खिडकी खुली रखता है, मन कहता है, ये सब पीछे छूटा रह जाएगा, दुनिया बदल जायेगी एक दिन, इस कुएं से बाहर जायेंगे, खुली घास के मैदानों की तरफ, ऊँचे पहाड़ों और समन्दर की तरफ कितनी विशाल है पृथ्वी ....

सच और सपने के पार  फिर सूचना होती,  हमें भयभीत करते अंक होते, कि बड़ी बहुत बड़ी दुनिया के बीच, विराट, बहुमुखी भूगोल के बीच हम टिनहा खड़े है. कि अपने  ताप और सपनों की भाप में जलते, हाथ-पैर पटकते, घुटनों पर सर किये. इस बड़ी दुनिया के बीच क्या मोल उसका ?
 

2 comments:

  1. जीब बात है इत्तिफ़ाक़न इन्ही की बाबत फेस बुक पर कुछ दिन पहले कुछ कहा था .....दोनों. मेरी फेवरेट फिल्मे है इसके अलावा" ऑफ साइड ." भी देखिये ......२०११ में अपने पेशे के तहत कई ऐसी चीजों से गुजरता हूँ जो कई लोगो के अकल्पनीय होगी.....ऐसा लगता है इस देश में विकास केवल कुछ सीमीत जगहों ओर सीमीत तबको में ही हुआ है

    ReplyDelete
  2. पढ़ तो लिया मगर कमेन्ट करने की तात्कालिक अनिच्छा के पश्चात पुनर्विचार कर यही बात लिख कर जा रहा हूँ !

    ReplyDelete

असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।