चिड़ियाघर मुझे बचपन के बचे रह गये उत्साह से अलग इसीलिए भी आकर्षित करते हैं कि वहां जाकर अहसास गहराता है कि प्रकृति में मनुष्य के अलावा भी कितने कितने विचित्र प्राणी है, और मनुष्य इन सबके बीच का हिस्सा है, वरना आपाधापी में उम्र बीत जाती है, कुछ पालतू पशुओं के अलावा हमारे परिवेश में जीवों की कोई उपस्थिति नहीं है. विकास के मौजूदा खांचे में जितनी इमारतें, मॉल, मल्टीप्लेक्स बढ़ते जा रहे है, जिस तरह से दुनिया अर्बनाइजेशन की दौड़ में शामिल है, उसकी एक बड़ी कीमत पशुओं की प्रजातियों का विलुप्त होते जाना भी है. दुनिया में रेड लिस्ट हर साल बढी दर से भरी जाती है, अकेले भारत में करीब ५६९ सिर्फ पशुओं की जातियां इस लिस्ट में है। जानवर प्रेमियों के पास अपनी अपनी तरह की संवेदनाएं है. हमारे समय में पश्चिम में शाकाहार के पक्ष में मजबूत राय बनती दिखती है, इतनी कि पहले कभी ऎसी चेतना न थी और लगभग पूर्व की ही तरह अबकी बार इसका आधार अहिंसा के नैतिक मूल्य भी है. कुछ लोग दूध और उससे बनी चीज़े भी छोड़ चुके है. जानवर प्रेमियों की अपनी अतिरेक कहानियाँ हैं.
पिछले हफ्ते दोपहर बाद एक दिन कुछ समय मिला तो बच्चों को लेकर का चिड़ियाघर जाना हुआ, चिड़ियाघर के खुले रहने में सिर्फ घंटाभर बचा था, लेकिन टिकट पूरा लेना पड़ता, मेरे अंदाज़ से तीन गुना ज्यादा महंगा. इसीलिए अगले दिन पर छोड़कर समुद्रतट पर जाना तय किया. दो दफे चिड़ियाघर के टिकट खरीदना मेरे लिए संभव नहीं था. बच्चे कुछ रुआंसा हुए, फिर वहीँ चिड़ियाघर के बाहर एक मोर चलता हुआ दिखा और उसके पीछे भागते उनके कुछ जानवर देखने की मुराद पूरी हुयी. ..
अगली सुबह से दोपहर तक जितना संभव हुआ सेन डियागो का जू देखा. एक तरह से अब तक देखे लगभग २० से ज्यादा चिड़ियाघरों में से सेन डियागो का चिड़ियाघर सबसे ज्यादा व्यवस्थित, पैदल घूमने, बस से या ट्राली से भी घूमने की व्यवस्था, सभी तरह की शारीरिक क्षमता के लोग चाहे छोटे बच्चों के साथ उलझे माता-पिता हो, बूढ़े असहाय लोग, किसी तरह से अपाहिज लोग या पैदल घूमने दौड़ने वाले धावक , सभी एक सामान रूप से इस बड़े चिड़ियाघर का आनद ले सकते है. इस एक चिड़ियाघर के भीतर बहुत परिश्रम और सूझबूझ से कई तरह के प्राकृतिक जंगलों की नक़ल है, सघन वर्षावन के भीतर बहुत घने बांस के जंगल, अलपाइन फोरेस्ट, रेगिस्तान, आर्कटिक है. इन सभी परिवेशों में जानवर स्वस्थ दीखते है, अपने प्राकृतिक वातावरण में उन्हें देखने का भरम होता है. सिर्फ चिड़ियाघर ही नहीं वरन ये वन्य जीव संरक्षण की रिसर्च का भी एक केंद्र है. दुनिया के कई हिस्सों से जानवरों को यंहा लाया गया है, और उनके व्यवहार का अध्ययन किया जाता है. इस जगह ६५ साल से हाथी है, और उनकी रीसर्च से ही हाथी के बारे में कुछ ख़ास बात पता चली, की हाथी की उम्र ६५-९० साल तक हो सकती है. २४ घंटों में हाथी सिर्फ २०-२५ मिनट की नींद खड़े-खड़े लेता है. ९०% समय से ज्यादा अपने पैरों पर खडा रहता है. इसी चिड़ियाघर के भीतर "लाइन किंग" बनाने से पहले डिज़नी की टीम ६ महीने तक रिसर्च करती रही और अपनी कहानी, उनके चरित्र गढ़ती रही. कुछ समय पहले ही इस चिड़ियाघर में कौन्डोर की प्रजाति को सुरक्षित करने और फिर से जंगल में इन पक्षियों को छोड़ने में सफलता मिली है. तो इस मायने में चिड़ियाघर वाकई विलुप्त प्रजातियों को फिर से कंजर्व करने में सहायक हो सकते है. चिड़ियाघर को देखकर ख़ुशी होती है कि मनुष्य की सकारात्मक सोच और सृजन के ज़रिये क्या क्या संभव हो सकता है अगर इसके लिए संसाधन हो, आर्थिक आधार हो और इमानदार तरीके से काम करने का, रिसर्च का माहौल हो तभी....
यहीं एक कोने मुझे विलियम सरोयन की कहानी "Tracy's Tiger" दिखता है, ये ब्लेक पैंथर कभी भूले से भी मारा न जाय. सरोवान की अटपटी, पगलेटी भरी कहानियों सा जीवीत रहे. भूले से भी किसी जानवर का वैसा अंजाम न हो जैसा "टेरी थोमसन" के प्राइवेट चिड़ियाघर के जानवरों का कुछ महीने पहले जेनेसविल, ओहायो में हुआ. टेरी थोमसन की कहानी, या कि न्यूयॉर्क के किसी फ्लेट में पाये गए शेर की कहानी इसी बात का सबक है कि व्यक्तिगत प्रयास और सिर्फ व्यक्तियों का अपने स्तर पर जानवर प्रेम नाकाफी है कम से कम जानवरों की खुशहाली और संरक्षण के लिए. ये सामूहिक बड़ी जिम्मेदारी है.
चिड़ियाघर की उत्सुकता और देखने का रोमान कुछ घंटों में ही ध्वस्त हुआ, शाम तक का एक चर्चित वीडियो भारत के एक शहर जोधपुर के सरकारी अस्पताल की आइ.सी.यु. का देखने को मिला, जिसमे भर्ती एक सत्तर साल के लकवाग्रस्त मरीज़ को चूहे नोचकर खा रहे है. शाम को एक पुराना मित्र कहता है कि "जो लोग देश से बाहर आ गए है, उन्हें पलटकर भारत के बारे में बुरी बातें नहीं कहनी चाहिए, सवाल खड़े नहीं करने चाहिए. इससे देश की इमेज खराब होती है". देश में रह रहे कितने-कितने दोस्त कहते है, कि "विरोध करने और सवाल उठाने की जगहें भारत के भीतर भी बची नहीं रह पा रही है. यहाँ रहना है तो बहुत चुप होकर रहना है, भले लोगों को, काम करने की चाहत रखने वाले नौजवानों को बहुत ज़िल्लत के साथ जीते रहना है.".
कहने की आजादी सो इन्टरनेट और सोशल नेट-वर्किंग साइट्स पर अभी हालिया सालों में आयी, उसके भी पर कतरने की कवायद दुनिया भर में अलग अलग तरह से शुरू हो गयी है. चीन में जहां इन्टरनेट एक तरह से पूरी निगरानी में है, कपिल सिब्बल भी भारत को उसी रास्ते ले जाना चाहते हैं, अमेरिकी सीनेट में आज इसी आज़ादी पर प्रतिबन्ध के लिए दो बिल बहस के लिए है..
@ कविता के पुराने बिम्ब बनाम चिड़ियाघर ,
ReplyDeleteजेएनयू की एक युवा लड़की की कविता पर बिम्ब ( सेनेटरी नैपकिंस वगैरह वगैरह ) के पुरानेपन / घिसगयेपन को लेकर आपने उसे झिडक दिया था जबकि आज आपकी संस्मरणात्मक पोस्ट कह रही है कि चिड़ियाघर का कांसेप्ट अपने पुरानेपन के बावजूद आज भी आपके और बच्चों और पोस्ट के लिए समीचीन है ! पोस्ट लिखने के लिए आज आपने वही किया जो उसने किया था :)
मेरा मतलब यह है कि उस दिन आप गलत थीं पर आज सही हैं ! आपको उस दिन लड़की का हौसला बढ़ाना चाहिए था !
http://ek-ziddi-dhun.blogspot.com/2012/01/blog-post_10.html
ReplyDeleteतब नई पीढ़ी की दो चार किताब बेस्ड कहन थी आज पुरानी पीढ़ी की एक ज़ू बेस्ड कहन है :)
@ Mr ali, fir se mere comment padhe...
ReplyDelete@Mr ali आपके इतराज़ का स्वागत है, मैंने हमेशा सही होने का दावा नही किया, मेरी एक राय थी, सो जाहिर की.. :) सिर्फ कुछ ब्लोग्स पर नज़र रहती है, और उनसे कुछ ज्यादा बेहतर सामग्री की उम्मीद भी, इसीलिए धीरेश जी के लिए वों कमेन्ट छोड़ा. कवियत्री के लिए वों नही था....
ReplyDeleteधन्यवाद ! मेरा ख्याल है कि पोस्ट लड़की ने लिखी है सो कमेन्ट भी पोस्ट या पोस्ट लिखने वाले के वास्ते हुआ ! ...खैर मेरा इरादा आपको आहत करने का नहीं है ! बस ज़रा सी ख्वाहिश कि बड़े लोग छोटों का हौसला बढ़ायें अगर सुझाव देना भी हों समझाइश की शक्ल में दिये जाना बेहतर !
Deleteयहां अलग आलम हैं। जितने भी चिड़ियाघर देखे, मन परेशान ही हुआ। जानवरों के साथ बेहद बुरा बर्ताव सैलानियों का भी और चिड़ियघर प्रशासन का भी। अगरतला में सिपाहीझाला से बहुत उम्मीद थी पर वहां भी यही दृश्य। जिस समाज में लोगों के साथ गया-बीता बर्ताव होता है, वहां यही देखने को मिलेगा। जारवा वाला वीडियो मसला तो सामने है ही। मेरा देश महान का राग अलापने से भी क्या हो जाएगा?
ReplyDeleteभारत से बाहर बसने वालो से याद आया कलकत्ता के हॉस्पिटल में लगी आग से दुखी ऑस्ट्रेलिया में बसे मेरे एक कार्डियो थोरेसिक सर्ज्जं दोस्त ने जब फेस बुक पर लिखा तो उसी के बेच मेट सर्जन दोस्त ने कहा तो तुम भारत आअकर चीज़े क्यों नहीं ठीक कर देते .दरअसल हमारी उथली देशभक्ति अक्सर आड़े आ जाती है .हम चीजों को एक्सेप्ट नहीं करते न उन्हें दुरस्त करते ....
ReplyDelete