A view of Ayarpata (courtesy: Pratibha Singh) |
सिद्धेश्वर सिंह से जब सन १९८८ में मेरा परिचय हुआ था तब मालूम नहीं था की वो कविता लिखते हैं. तब मैंने नैनीताल में यूनिवर्सिटी में प्रवेश ही लिया था, १६-१७ साल की उम्र, कुछ चकमक निगाहों से झील किनारे की दुर्गालाल साह लायब्रेरी और कॉलेज की लायब्रेरी में किताबों को पलटना शुरू ही किया था. हालाँकि माता-पिता ने और उससे ज्यादा खुद जिद करके हॉस्टल में रहकर विज्ञान की पढाई के लिए आई थी, परन्तु कविता, कहानी आदि पढने की आदत भी स्कूल से ही लगी थी. बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी. नैनीताल में हर तरह से बिगड़ने का माहौल था (बकौल शेखर पाठक), जाने-अनजाने सब उसकी चपेट में अपनी अपनी तरह से आते ही थे. सिद्धेश्वर हिंदी विभाग में शोधछात्र थे, लेकिन उन्हें जानना कैम्पस और शहर भर में शोध के अलावा जितनी गतिविधियाँ हो सकती थी, उनके मार्फ़त हुआ; मसलन उनके अभिनय, नाटक /एकांकी की स्क्रिप्ट लिखने, और निर्देशन से लेकर संयोजन तक में उनकी भागीदारी, इंटर हॉस्टल असोसियेशन के आयडिया से लेकर इसके अस्तित्व में आने और उसकी तमाम गतिविधियों में सक्रियता. वामपंथी-दक्षिणपंथी छात्र नेताओं की मारपीट/लड़ाई-झगड़ों तक को सुलझाने की मध्यस्थता करने तक की वजह से भी हम उन्हें जानते थे. इन सब के बीच हमेशा वो एक अच्छे सीनीयर की तरह ही दीखते रहे, कुछ दूर से, परन्तु उनकी छवि हमेशा अजातशत्रु की रही....
१९९० के बाद से २००७ तक मुझे नैनीताल के दिनों के बहुत से परिचितों का हाल-चाल पता नहीं चला फिर इतने वर्षों बाद ब्लॉग पर मुलाकात हुयी. उनकी कवितायें भी पढ़ने को मिली, और लगा की अरे इतने सारे कामों के बीच ये ही अजीब होता अगर सिद्धेश्वर कविता नहीं लिखते होते...
अभी हाल में ही "कर्मनाशा" उनका कविता-संग्रह , अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है.
तीखी बैचैनी व्यक्तिगत या सामाजिक/राजनैतिक, गुस्सा, विद्रोह और नारेबाजी इन कविताओं में नहीं हैं. न ही पोस्टमॉडर्न व्यक्तिकेन्द्रित विभ्रम और छिछलेपन की यहाँ गुंजाइश है, न भाषा में चाशनी का अतिरेक.
इन कविताओं में एक शांत, विनम्र कवि जीवन के प्रति कृतज्ञ, अहंकार से मुक्त, और अपनी ज़मीन पर मजबूती से पाँव जमाये, एक ऐसे मनोलोक में रमा है जहां किसी से उसका कोई कम्पटीशन नहीं, बस अपनी एक धुन है, ये अजातशत्रु की धुन है...
इस संग्रह की छोटी कवितायें, काफी आकर्षित करती है, रोज़मर्रा की चीज़ों में कविता ढूंढ निकालना, जीवन की बहुत छोटी-छोटी बेमतलब सी चीज़ों को संवेदना से अर्थ दे देना, और इस प्रक्रिया में आम दिनचर्या, आम जीवन में रस खोज निकलना और संतोष, ये उनकी ख़ास बात है. ...
वैसे तो बहुत सी कवितायें हैं जिन्हें अलग अलग मूड में पढ़ा जा सकता है, पुराने दिनों की "नराई" में नैनीताल पर लिखी ये कविता यहाँ चस्पा कर रही हूँ.
ऐसा कोई आदमी
पेड़ अब भी
चुप रहने का संकेत करते होंगे।
चाँद अब भी
लड़ियाकाँटा की खिड़की से कूदकर
झील में आहिस्ता - आहिस्ता उतरता होगा।
ठंडी सड़क के ऊपर होस्टल की बत्तियाँ
अब भी काफी देर तक जलती होंगी।
लेकिन रात की आधी उम्र गुजर जाने के बाद
पाषाण देवी मंदिर से सटे
हनुमान मन्दिर में
शायद ही अब कोई आता होगा
और देर रात गए तक
चुपचाप बैठा सोचता होगा -
स्वयं के बारे में नहीं
किसी देवता के बारे में नहीं
मनुष्य और उसके होने के बारे में।
झील के गहरे पानी में
जब कोई बड़ी मछली सहसा उछलती होगी
पुजारी एकाएक उठकर
कुछ खोजने - सा लगता होगा
तब शायद ही कोई चौंक कर उठता होगा
और मद्धिम बारिश में भीगते हुए
कंधों पर ढेर सारा अदृश्य बोझ लादे
धुन्ध की नर्म महीन चादर को
चिन्दी- चिन्दी करता हुआ
मल्लीताल की ओर लौटता होगा।
सोचता हूँ
ऐसा कोई आदमी
शायद ही अब तुम्हारे शहर में रहता होगा
और यह भी
कि तुम्हारा शहर
शायद ही अब भी वैसा ही दिखता होगा!
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'कर्मनाशा' ( कविता संग्रह)
- सिद्धेश्वर सिंह
प्रकाशक :
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