मेहदी हसन अब नहीं हैं...
बहुत से दिलों में हैं, और अभी न जाने कितने नए दिलों में उनकी जगह रोज़-रोज़ बननी बाक़ी है..
मेहदी हसन की मुलायम मखमली आवाज़ पहली बार नैनीताल के कंसल बुक डिपो में सुनी, आवाज़ के मोह में वहाँ घंटा भर बिताया. १६-१७ साल की उम्र की झेंप में पूछ न सकी कि किसकी आवाज़ है, कहां कैसेट मिलेगी. कुछ तबियत से फिर 88-89 में उनका पहला कैसेट "कहना उसे" हाथ लगा, फिर उन दिनों अक्सर हॉस्टल से सप्ताह के अंत में कभी डा. राजेश मिश्र के घर रहना होता, देर रात तक राजेश दा, शशि, के साथ साहित्य, राजनीति और समाजशास्त्र, सायंस की बतकहियों के बीच मेहदी हसन को सुनना भी होता. राजेश दा के पास संगीत का अपना खजाना था, काले तवे, पुराना ग्रामोफोन. उन दिनों मेहदी साहेब को सुनते कई बार लगा कि धीरे से लोबान-अगरबत्ती की खुशबू के बीच धुनी रमाये एक संन्यासी बैठा है, दीन दुनिया से बेखबर, धीमें-धीमें उठती मंद खुशबू, मन का हर कोना महकता, आवाज़ कभी पंख और कभी परवाज बन ले जाती हमें हमसे ही बहुत दूर, अदेखी जंगली फूलों की घाटी, सुरज की पहली किरण में नहायी दूब की नौक पर चमकती ओस की नन्ही बूँद के सलोनेपन में, अँधेरे में डूबे काला डांडा के पार चांदी के ऊँचे हिमल पहाड़ तक. बरखा की हलकी झड़ी में भीगता कोई बंजर, न भोगी वेदना, और खुशी कहीं मेरे हिस्से आ जाती. गवैया जो इतने अपनेपन में बाँध रस की दुनिया में हमारी अगुआई करता, वैसे ही फिर आहिस्ता से संगीत के किसी महीन तार पर बिठा अपनी जमीन पर वापस सहेजकर बिठा देता और फिर निरासक्त, निसंग एक कोने धूनी में रमा ही दिखता. उसका बहुत मतलब तब बनता न था पर कुछ उदासी, कुछ खुशी, नैनीताल की गुनगुनी धुप की तरह मेरे हिस्से में पहुंचती थी ....
87-89 के बीच डी. एस. बी. कोलेज में अबरार हुसैन भी छात्र थे, मुझसे कुछ दो साल सीनियर. कोलेज के छात्र संघ के सांस्कृतिक कायर्क्रम हो या कोई दूसरी शिरकत अबरार मेहदी हसन की गायी गजलों को गाने के लिए मशहूर थे. उनका गला अच्छा था, एक दफे मंच पर पहुँचने के बाद बार-बार उन्हें बुलाया जाता. कई दफ़ा अबरार से सुनी ग़ज़लों के बाद असली मेहदी हसन की गयी ग़ज़ल की खोज होती. मालूम नहीं अब अबरार कहाँ हैं? नैनीताल से जो कुछ चीज़े मेरे साथ-साथ कई जगह गयीं और अभी तक बनी हुयी है, उनमें मेहदी हसन, गुलाम अली और फरीदा खानम के कुछ कैसेट भी हैं. बहुत समय तक किताबों की तरह संगीत भी काफी अदल-बदल कर दोस्तों के बीच सुना गया. संगीत को साथ सुनना और खुशी को दोस्तों के बीच बांटना. खुशी का एक नाम मेहदी हसन ...
मेहदी हसन और दुसरे प्यारे सुर देर रात तक कान में बजते सालों साल, फिलिप्स के ओटोरिवर्स पॉकेट प्लयेर पर, सीक्वेंसिंग की चलती घंटों लम्बी कसरत के बीच, 12-14 घंटे की मेहनत के बाद अचानक से बिजली गुल हो जाती, और 3-4 मिनट में वैक्यूम ड्राय होती जेल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते, भूख, थकान और दो दिन नष्ट, नाकामी के अहसास के साथ महीने में कितने ही दिन लैब से हॉस्टल के कमरे तक लौटते हेडफ़ोन पर मेहदी का प्यारा, दिलासा भरा स्वर होता. सबसे कठिन, और थकान भरे दिनों के बीच, उनींदे दिनों में कैफीन के दम पर खुली आँखों, चलते-उखड़ते पैरों में बीतते खड़े दिनों में यूफोरिया सिरजती मेहदी हसन की आवाज़....
अमेरिका पहुँचने के बाद पाकिस्तानी दोस्तों के साथ जो सहज आत्मीयता बनी उसमें सरहद के पार से आते इन सुरों की भी अवचेतन में भूमिका रही होगी, मिलीजुली तहजीब इन चंद सुरों में, संगीत में, अपनी पूरी धमक के साथ बजती, दिल की हर धड़कन के साथ, हमारी शिराओं और धमनियों में बहती... भारत-पकिस्तान दिल तोड़ने की हद तक सांझापन और दूरी. राजनीती ने तो सिर्फ इन दो देशों के बीच नफरत की खाई खोदी है, 60 साल में तीन लड़ाईयां, और कभी न ख़त्म होनेवाले आतंकवाद की जमीन बुनी, मौते और ज़ख्म दोनों तरफ दिए. इन जख्मों पर जितनी भी मलहम संभव हुयी वो सुरों की आवाजाही के जरिये ही हुयी, वही बार-बार हमें फिर से एक ज़मीन पर खडा करते हैं. ये सुर हमारे दिलों में मुहब्बत की, इंसानियत की और भलेपन की ज़मीन को कुरेदते रहते हैं, उसे भिगोते रहते हैं. भारत के न्यूक्लियर टेस्ट हों , कारगिल का युद्ध, कि कश्मीर हो, राजनीति की छाँव यहाँ अमेरिका में भारत-पकिस्तान के प्रवासी दोस्तों के बीच बारबार अनमनेपन की लकीर खींचती हैं, घावों को ताजा करतीं, अविश्वास की जमीन बुनती हैं. परन्तु कुछ दिन बीत जाते हैं, और फिर हमारी सांझी तहजीब एक मरहम भी लगा देती हैं, हमारी आत्मा में बजते सुर, हिन्दी-उर्दू की मिलीजुली मिठास और एक सा भाव संसार फिर से हमें जोड़ देतें हैं. पाकिस्तानी स्टुडेंट असोसिएशन बंसत आयोजन के समय ढेरों पतंगों के बीच पाकिस्तानी से ज्यादा हिन्दुस्तानी और उनके बच्चे पतंग लिए दौड़ते, इंडिया नाईट और दिवाली नाईट के कार्यक्रम के बीच फिर पकिस्तान से घूम के आया बच्चा कुछ तस्वीरें, पावर पॉइंट चला देता, या एक छोटी सी फिल्म. जगजीत सिंह, मेहदी हसन, गुलाम अली, लता मंगेशकर और आशा भोसलें के सुर आपस में सार्वजनिक माहौल में मिले रहते, और हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी पड़ोसियों के बीच हलीम, बिरियानी और कबाब की खुशबू के साथ आवाजाही करते. अपने अनुभवों से ही मुझे लगता है अगर इन दोनों देशों के लोगों को खुलकर मिलने का मौका मिले तो अब भी मुहब्बत की वजहें, नफरत की वजहों से कई गुना ज्यादा हैं. दो देशों की सीमा के बावजूद दोनों देश के गायकों ने जिस तरह साथ साथ काम किया, दोनों देशों की आवाम को अपनेपन और प्यार से सींचा, उसी तरह काश ये हो सकता कि हिन्दुस्तान और पकिस्तान के लोग भरोसे के साथ आपस में मिलते, साथ-साथ अदब की, संगीत और साहित्य की, कारोबार की नयी उंचाईयां तक पहुँचते. एक दुसरे से खौफज़दा न रहते होते, देश के बजट का बड़ा हिस्सा जो सीमा पर चौकसी के लिए खर्च होता, उसका निवेश सार्वजानिक शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी में होता...
एक आवाज़ ढ़ेर सी आश्वस्ति. उम्मीद को हमारे भीतर ज़िंदा रखती, सपने देखने का हौसला और ज़ज्बा बनाये रखती है...
**************
सुर और स्वर अब भी हमारे बीच हैं, दिल अज़ीज हैं, मेहदी अब नहीं हैं...
हर किसी की मौत एक दिन निश्चित है, हमेशा के लिए उसे रोका नहीं जा सकता था. परन्तु एक टीस के साथ उनकी याद आयेगी. एक दशक के ज्यादा समय से बीमारी और आर्थिक तंगी के बीच जूझते हुए हमारे समय के सबसे महान गायक, सबसे मीठे स्वर ने आखिरकार दम तोड़ दिया. भारतीय उपमहाद्वीप में इस शख्स से न सिर्फ करोड़ों लोग मुहब्बत करते रहे हैं, बल्कि शीर्ष पर बैठे, वर्तमान और भूतपूर्व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री भी इनके बरसों मुरीद रहे हैं, भारत और पकिस्तान के छोटे बड़े शहरों, से लेकर राष्ट्रपति भवन और इन देशों के सबसे प्रतिष्ठित मंचों पर चालीस सालों तक गूंजते गायक के आखिरी साल यूं लाचारी के बीच बीतें. समुचित इलाज़ के आभाव में मौत हुयी. ऐसी स्थिति न होती तो उनका रचा हुया जो हमारे बीच बच गया, और उस जीवन की याद जिसने उसे रचा, हमारी सामूहिक स्मृति में उत्सव होता....
मेहदी की याद और टीस शर्म बनकर भारतीय उपमहाद्वीप की छाती सवार रहे, इन परिस्थितयों को बदलने का नया जज्बा दे, इसकी निष्पति कलाकारों, लेखकों, शायरों की बेहतर सामाजिक आर्थिक सुरक्षा कैसे हो उस दिशा की तरफ जाय. ...
बहुत से दिलों में हैं, और अभी न जाने कितने नए दिलों में उनकी जगह रोज़-रोज़ बननी बाक़ी है..
मेहदी हसन की मुलायम मखमली आवाज़ पहली बार नैनीताल के कंसल बुक डिपो में सुनी, आवाज़ के मोह में वहाँ घंटा भर बिताया. १६-१७ साल की उम्र की झेंप में पूछ न सकी कि किसकी आवाज़ है, कहां कैसेट मिलेगी. कुछ तबियत से फिर 88-89 में उनका पहला कैसेट "कहना उसे" हाथ लगा, फिर उन दिनों अक्सर हॉस्टल से सप्ताह के अंत में कभी डा. राजेश मिश्र के घर रहना होता, देर रात तक राजेश दा, शशि, के साथ साहित्य, राजनीति और समाजशास्त्र, सायंस की बतकहियों के बीच मेहदी हसन को सुनना भी होता. राजेश दा के पास संगीत का अपना खजाना था, काले तवे, पुराना ग्रामोफोन. उन दिनों मेहदी साहेब को सुनते कई बार लगा कि धीरे से लोबान-अगरबत्ती की खुशबू के बीच धुनी रमाये एक संन्यासी बैठा है, दीन दुनिया से बेखबर, धीमें-धीमें उठती मंद खुशबू, मन का हर कोना महकता, आवाज़ कभी पंख और कभी परवाज बन ले जाती हमें हमसे ही बहुत दूर, अदेखी जंगली फूलों की घाटी, सुरज की पहली किरण में नहायी दूब की नौक पर चमकती ओस की नन्ही बूँद के सलोनेपन में, अँधेरे में डूबे काला डांडा के पार चांदी के ऊँचे हिमल पहाड़ तक. बरखा की हलकी झड़ी में भीगता कोई बंजर, न भोगी वेदना, और खुशी कहीं मेरे हिस्से आ जाती. गवैया जो इतने अपनेपन में बाँध रस की दुनिया में हमारी अगुआई करता, वैसे ही फिर आहिस्ता से संगीत के किसी महीन तार पर बिठा अपनी जमीन पर वापस सहेजकर बिठा देता और फिर निरासक्त, निसंग एक कोने धूनी में रमा ही दिखता. उसका बहुत मतलब तब बनता न था पर कुछ उदासी, कुछ खुशी, नैनीताल की गुनगुनी धुप की तरह मेरे हिस्से में पहुंचती थी ....
87-89 के बीच डी. एस. बी. कोलेज में अबरार हुसैन भी छात्र थे, मुझसे कुछ दो साल सीनियर. कोलेज के छात्र संघ के सांस्कृतिक कायर्क्रम हो या कोई दूसरी शिरकत अबरार मेहदी हसन की गायी गजलों को गाने के लिए मशहूर थे. उनका गला अच्छा था, एक दफे मंच पर पहुँचने के बाद बार-बार उन्हें बुलाया जाता. कई दफ़ा अबरार से सुनी ग़ज़लों के बाद असली मेहदी हसन की गयी ग़ज़ल की खोज होती. मालूम नहीं अब अबरार कहाँ हैं? नैनीताल से जो कुछ चीज़े मेरे साथ-साथ कई जगह गयीं और अभी तक बनी हुयी है, उनमें मेहदी हसन, गुलाम अली और फरीदा खानम के कुछ कैसेट भी हैं. बहुत समय तक किताबों की तरह संगीत भी काफी अदल-बदल कर दोस्तों के बीच सुना गया. संगीत को साथ सुनना और खुशी को दोस्तों के बीच बांटना. खुशी का एक नाम मेहदी हसन ...
मेहदी हसन और दुसरे प्यारे सुर देर रात तक कान में बजते सालों साल, फिलिप्स के ओटोरिवर्स पॉकेट प्लयेर पर, सीक्वेंसिंग की चलती घंटों लम्बी कसरत के बीच, 12-14 घंटे की मेहनत के बाद अचानक से बिजली गुल हो जाती, और 3-4 मिनट में वैक्यूम ड्राय होती जेल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते, भूख, थकान और दो दिन नष्ट, नाकामी के अहसास के साथ महीने में कितने ही दिन लैब से हॉस्टल के कमरे तक लौटते हेडफ़ोन पर मेहदी का प्यारा, दिलासा भरा स्वर होता. सबसे कठिन, और थकान भरे दिनों के बीच, उनींदे दिनों में कैफीन के दम पर खुली आँखों, चलते-उखड़ते पैरों में बीतते खड़े दिनों में यूफोरिया सिरजती मेहदी हसन की आवाज़....
अमेरिका पहुँचने के बाद पाकिस्तानी दोस्तों के साथ जो सहज आत्मीयता बनी उसमें सरहद के पार से आते इन सुरों की भी अवचेतन में भूमिका रही होगी, मिलीजुली तहजीब इन चंद सुरों में, संगीत में, अपनी पूरी धमक के साथ बजती, दिल की हर धड़कन के साथ, हमारी शिराओं और धमनियों में बहती... भारत-पकिस्तान दिल तोड़ने की हद तक सांझापन और दूरी. राजनीती ने तो सिर्फ इन दो देशों के बीच नफरत की खाई खोदी है, 60 साल में तीन लड़ाईयां, और कभी न ख़त्म होनेवाले आतंकवाद की जमीन बुनी, मौते और ज़ख्म दोनों तरफ दिए. इन जख्मों पर जितनी भी मलहम संभव हुयी वो सुरों की आवाजाही के जरिये ही हुयी, वही बार-बार हमें फिर से एक ज़मीन पर खडा करते हैं. ये सुर हमारे दिलों में मुहब्बत की, इंसानियत की और भलेपन की ज़मीन को कुरेदते रहते हैं, उसे भिगोते रहते हैं. भारत के न्यूक्लियर टेस्ट हों , कारगिल का युद्ध, कि कश्मीर हो, राजनीति की छाँव यहाँ अमेरिका में भारत-पकिस्तान के प्रवासी दोस्तों के बीच बारबार अनमनेपन की लकीर खींचती हैं, घावों को ताजा करतीं, अविश्वास की जमीन बुनती हैं. परन्तु कुछ दिन बीत जाते हैं, और फिर हमारी सांझी तहजीब एक मरहम भी लगा देती हैं, हमारी आत्मा में बजते सुर, हिन्दी-उर्दू की मिलीजुली मिठास और एक सा भाव संसार फिर से हमें जोड़ देतें हैं. पाकिस्तानी स्टुडेंट असोसिएशन बंसत आयोजन के समय ढेरों पतंगों के बीच पाकिस्तानी से ज्यादा हिन्दुस्तानी और उनके बच्चे पतंग लिए दौड़ते, इंडिया नाईट और दिवाली नाईट के कार्यक्रम के बीच फिर पकिस्तान से घूम के आया बच्चा कुछ तस्वीरें, पावर पॉइंट चला देता, या एक छोटी सी फिल्म. जगजीत सिंह, मेहदी हसन, गुलाम अली, लता मंगेशकर और आशा भोसलें के सुर आपस में सार्वजनिक माहौल में मिले रहते, और हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी पड़ोसियों के बीच हलीम, बिरियानी और कबाब की खुशबू के साथ आवाजाही करते. अपने अनुभवों से ही मुझे लगता है अगर इन दोनों देशों के लोगों को खुलकर मिलने का मौका मिले तो अब भी मुहब्बत की वजहें, नफरत की वजहों से कई गुना ज्यादा हैं. दो देशों की सीमा के बावजूद दोनों देश के गायकों ने जिस तरह साथ साथ काम किया, दोनों देशों की आवाम को अपनेपन और प्यार से सींचा, उसी तरह काश ये हो सकता कि हिन्दुस्तान और पकिस्तान के लोग भरोसे के साथ आपस में मिलते, साथ-साथ अदब की, संगीत और साहित्य की, कारोबार की नयी उंचाईयां तक पहुँचते. एक दुसरे से खौफज़दा न रहते होते, देश के बजट का बड़ा हिस्सा जो सीमा पर चौकसी के लिए खर्च होता, उसका निवेश सार्वजानिक शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी में होता...
एक आवाज़ ढ़ेर सी आश्वस्ति. उम्मीद को हमारे भीतर ज़िंदा रखती, सपने देखने का हौसला और ज़ज्बा बनाये रखती है...
**************
सुर और स्वर अब भी हमारे बीच हैं, दिल अज़ीज हैं, मेहदी अब नहीं हैं...
हर किसी की मौत एक दिन निश्चित है, हमेशा के लिए उसे रोका नहीं जा सकता था. परन्तु एक टीस के साथ उनकी याद आयेगी. एक दशक के ज्यादा समय से बीमारी और आर्थिक तंगी के बीच जूझते हुए हमारे समय के सबसे महान गायक, सबसे मीठे स्वर ने आखिरकार दम तोड़ दिया. भारतीय उपमहाद्वीप में इस शख्स से न सिर्फ करोड़ों लोग मुहब्बत करते रहे हैं, बल्कि शीर्ष पर बैठे, वर्तमान और भूतपूर्व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री भी इनके बरसों मुरीद रहे हैं, भारत और पकिस्तान के छोटे बड़े शहरों, से लेकर राष्ट्रपति भवन और इन देशों के सबसे प्रतिष्ठित मंचों पर चालीस सालों तक गूंजते गायक के आखिरी साल यूं लाचारी के बीच बीतें. समुचित इलाज़ के आभाव में मौत हुयी. ऐसी स्थिति न होती तो उनका रचा हुया जो हमारे बीच बच गया, और उस जीवन की याद जिसने उसे रचा, हमारी सामूहिक स्मृति में उत्सव होता....
मेहदी की याद और टीस शर्म बनकर भारतीय उपमहाद्वीप की छाती सवार रहे, इन परिस्थितयों को बदलने का नया जज्बा दे, इसकी निष्पति कलाकारों, लेखकों, शायरों की बेहतर सामाजिक आर्थिक सुरक्षा कैसे हो उस दिशा की तरफ जाय. ...
नमन
ReplyDeleteउनकी आवाज़ गूंजती रहेगी सदा कानों में....
ReplyDeleteश्रद्धासुमन.
आपके और हमारे चहेते गायक नहीं रहे.दरअसल ऐसी शख्सियत को महज़ गायक कहना भी उचित नहीं है.मेंहदी साहब हमारे जीवन का हिस्सा थे और ऐसे में उनका न रहना हमें हमारी रूह से जुदा करता है :-(
ReplyDelete...तुम कहीं नहीं गए,शामिल मेरी साँसों में हो,
रंजिश ही सही पास मेरे,लौट आओ तुम !
Naman hai betaz Badshah ko ....
ReplyDeleteरंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ---जैसी गज़लों के अमर गायक को श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं
ReplyDeleteमेंहदी साहब की एक खासियत और ही थी पाकिस्तानी फ़िल्मी गानों को वो गज़ल का रूप देते थे, और जब आप उस गज़ल को सुनिये तो वाकई मूल रचना से एकदम अलहदा और अनोखा ही होता था...वैसे भी पिछले १५- २० सालों से खुद वो गा भी नहीं पा थे ..हां इस बात का अफ़सोस ज़रूर रहेगा ...कि मेंहदी साहब केत जीवन का आखिरी दौर बहुत दु:ख भरा था,शायद भारत में होते तो कुछ और बात होती,उन्हें हमारा सलाम !!!
ReplyDeleteExcellent writing Sush - keep it up
ReplyDeleteअफ़सोस...सख्त अफ़सोस...!
ReplyDeleteभारत और पाक के बाशिंदों के रिश्ते आवाजों की आवाजाही के ही मोहताज हैं. मेहदी हसन जी की बात ही निराली थी. वैसे फरीदा खानम की आवाज बड़ी प्यारी है. मैंने सहेज कर रखा है. आपका आलेख बहुत ही सुन्दर है.
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