कला यथार्थ, और स्मृति को ही समग्र
तरीके से समझने-गुनने उसके अंडर प्रोजेक्शन और ओवर प्रोजेक्शन का टूल
है, जो यथार्थ को जड़ नहीं बने रहने देती, उससे पार पाने का
सपना और संभावनाओं की खोज करती है, और उनका सृजन भी. अकेले व्यक्ति के कुछ हद तक पूर्णता
तक पहुँचने, अनवरत का साध्य भर...
हालाँकि कहानी के सच होने का दावा कोई लेखक नहीं करता. पर कथाएँ विलक्षण रूप से जीवन के सच को उजागर करती हैं, न देखे हुये, न भोगे हुये दुःख-सुख को पाठक के जीवन का हिस्सा बना देती हैं, न देखी जगहों और न विचरे भूगोल के साथ अपनापा स्थापित करती हैं. किसी दुसरे लोक, किसी दुसरे भूगोल, किसी दूसरी जमीन में बसे किरदार बहुत-बहुत अलहदा होते हुये भी मनुष्य की तरह किसी साझी जमीन पर मिलते हैं. पढ़ने वाले के मन में ही कल्पना, संवेदना, स्मृति और आशा के मिलेजुले रसायन की नदी बहती है जिसमें तैर कर पाठक किताब के भीतर एंट्री लेता है, और अजानी दुनिया को एक्सप्लोर करता है. और जब लौटता है तो अपना एक हिस्सा वहां छोड़ आता है, किताब का कुछ हिस्सा अपने भीतर सहेजकर लौटता है. ऐसे ही कोई दोस्तोवस्की, ओसिमोव, चेखव, टॉलस्टाय, मार्खेज, टैगोर, ओस्त्रोवस्की, प्रेमचंद, रेणु, राँगेव राधव, विलियम सरोवन, पामुक के किरदार याद रहते हैं.
कहानी से क्या चाहिए ? कोई बनी बनायी अपेक्षा शायद नहीं रहती, मैं किसी नए की उम्मीद में, अपने रूटीन से एस्केप के लिए किताब की तरफ जाती हूँ. उन भूगोलों में टहलने जहाँ जाना सचमुच में संभव न रहा हो, उन नामों को सुनने जिनका सही उच्चारण न पता हो, अपने अंतरंग से बाहर किसी दुसरे अंतरंग स्पेस में किसी दुसरे समय में, किसी और टीस में. और जब लौटी हूँ तो तो दुःख और सुख में नहायी, अपने जीवन और परिवेश को किसी नयी नज़र से देखती, कई दिनों और कई सालों तक कुछ नशे में रहती, अच्छी कहानियां और उपन्यास यही करते हैं .
लेकिन फिर अच्छी कहानी को अपने सन्दर्भ, भूगोल में गहरे धंसा होना होता है, भले ही वो आज से दो हज़ार साल आगे की हो या पीछे की, तब भी जब किसी ऎसी जगह की हो, जो है ही नहीं, लेकिन ये दुनिया लेखक की अपनी होती है, या जिसे वो मन प्राण से समझता है,
कहानी के लिए चैलेन्ज हमेशा कहन का और मौलिक कंटेंट का ही रहेगा. कहानी यदि सिर्फ इमिटेशन, और उथली कल्पना के ही सहारे खड़ी है, तब कहानी का झूठ, जीवन के झूठ से ज्यादा आसानी से पकड़ में आ जाता है.
और यदि कहानी कल्पनाशून्य हो, यथार्थ का एकहरा, उथला सिलसिलेवार किस्सा तब जुगुप्सा और फ्रस्टेशन के अलावा कुछ नया नहीं करती, कुछ नया अनुभव, ख़ुशी पाठक के हिस्से नहीं आते. उसका समय नष्ट होता है.
.....
(खुद से एक वार्तालाप, कुछ नयी कहानियाँ पढ़ते हुये, और पुरानी कहानियों को याद करते हुये ... )
हालाँकि कहानी के सच होने का दावा कोई लेखक नहीं करता. पर कथाएँ विलक्षण रूप से जीवन के सच को उजागर करती हैं, न देखे हुये, न भोगे हुये दुःख-सुख को पाठक के जीवन का हिस्सा बना देती हैं, न देखी जगहों और न विचरे भूगोल के साथ अपनापा स्थापित करती हैं. किसी दुसरे लोक, किसी दुसरे भूगोल, किसी दूसरी जमीन में बसे किरदार बहुत-बहुत अलहदा होते हुये भी मनुष्य की तरह किसी साझी जमीन पर मिलते हैं. पढ़ने वाले के मन में ही कल्पना, संवेदना, स्मृति और आशा के मिलेजुले रसायन की नदी बहती है जिसमें तैर कर पाठक किताब के भीतर एंट्री लेता है, और अजानी दुनिया को एक्सप्लोर करता है. और जब लौटता है तो अपना एक हिस्सा वहां छोड़ आता है, किताब का कुछ हिस्सा अपने भीतर सहेजकर लौटता है. ऐसे ही कोई दोस्तोवस्की, ओसिमोव, चेखव, टॉलस्टाय, मार्खेज, टैगोर, ओस्त्रोवस्की, प्रेमचंद, रेणु, राँगेव राधव, विलियम सरोवन, पामुक के किरदार याद रहते हैं.
कहानी से क्या चाहिए ? कोई बनी बनायी अपेक्षा शायद नहीं रहती, मैं किसी नए की उम्मीद में, अपने रूटीन से एस्केप के लिए किताब की तरफ जाती हूँ. उन भूगोलों में टहलने जहाँ जाना सचमुच में संभव न रहा हो, उन नामों को सुनने जिनका सही उच्चारण न पता हो, अपने अंतरंग से बाहर किसी दुसरे अंतरंग स्पेस में किसी दुसरे समय में, किसी और टीस में. और जब लौटी हूँ तो तो दुःख और सुख में नहायी, अपने जीवन और परिवेश को किसी नयी नज़र से देखती, कई दिनों और कई सालों तक कुछ नशे में रहती, अच्छी कहानियां और उपन्यास यही करते हैं .
लेकिन फिर अच्छी कहानी को अपने सन्दर्भ, भूगोल में गहरे धंसा होना होता है, भले ही वो आज से दो हज़ार साल आगे की हो या पीछे की, तब भी जब किसी ऎसी जगह की हो, जो है ही नहीं, लेकिन ये दुनिया लेखक की अपनी होती है, या जिसे वो मन प्राण से समझता है,
कहानी के लिए चैलेन्ज हमेशा कहन का और मौलिक कंटेंट का ही रहेगा. कहानी यदि सिर्फ इमिटेशन, और उथली कल्पना के ही सहारे खड़ी है, तब कहानी का झूठ, जीवन के झूठ से ज्यादा आसानी से पकड़ में आ जाता है.
और यदि कहानी कल्पनाशून्य हो, यथार्थ का एकहरा, उथला सिलसिलेवार किस्सा तब जुगुप्सा और फ्रस्टेशन के अलावा कुछ नया नहीं करती, कुछ नया अनुभव, ख़ुशी पाठक के हिस्से नहीं आते. उसका समय नष्ट होता है.
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(खुद से एक वार्तालाप, कुछ नयी कहानियाँ पढ़ते हुये, और पुरानी कहानियों को याद करते हुये ... )
कहानी के ये पर्सेप्शंस विज्ञान कथाओं पर भी लागू होते हैं -मगर उनके यथार्थ तो बिलकुल ही अनदेखे और अनजिए होते हैं
ReplyDeleteिफलहाल ये फुटकर विचार हैं। अाशा करती हूं िक फीडबेक से सोच गहरी होगी। अाभार अापका
ReplyDeleteमार्मिक स्थलों की पहचान रचनाकार की सबसे बड़ी चुनौती होती है। उसके बिना कहानी अधूरी लगती है।
ReplyDeleteठीक, इसी तरह हमें लगने लगा था कि सोवियत संघ से हम कितना परिचित हैं। वे नाम, वे गंध, वो कल्चर जैसे हमारे ही जीवन का हिस्सा रहे। पहरन और साज-श्रृंगार की बात हॉवर्ड फॉस्ट के `अमेरिकन` का हिंदी अनुवाद पढ़ते हुए कितनी ज्यादा समझ में आई। किताब पढ़नी शुरू की, भाषा की कोई लच्छेदारी, साज-सिंगार वगैरह नहीं मिला और अजीब सी बोरियत महसूस हुई पर जब भी किताब बंद करनी चाही, दिल-दिमाग दोनों ने इंकार कर दिया। उस किताब की बेचैनी आज तक पीछा करती है।
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