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Sep 16, 2012

होगा तो कैसे होगा जंगल से शहर लौटना

 

                           दान्तेवाड़ा उसी जमीन का हिस्सा
जिस पर मिट्टी हुए मेरे पूर्वज
क्यूं मुझे नहीं  मालूम कि कौन लोग
पीछे छूटे रहे, सभ्यता के निर्जन अंधेरे में
मेरी पहचानी दुनिया से बहिष्कृत, इतने सालों अकेले में
क्या है, ये शब्द  नेटिव..
आदिवासी..
दुनिया के भूगोल में फैले आदिम कटघरे

किवदंती है कि तीस हज़ार भूखे-नंगे
कलिंग के युद्धबंदी
आदमी—औरत—बच्चे
कभी धकियाये थे चक्रवर्ती अशोक ने घुप्प अँधेरे में
क्या है  भेद धम्म-अशोक और चंडअशोक में
कैसा होता है सभ्यता के बीच से बाहर हो‍कर जंगल जाना  
कैसी रही होगी जिजीविषा
जंगलीपन से निहत्थे जूझने का क्या होता है जीवट

अब जब सम्राट अशोक के वंशजों के लिए
अमूल्य हैं जंगल,  ज़रूरी जंगल से बेदखली
सोचती हूँ होगा तो कैसे होगा जंगल से शहर लौटना
किस शहर लौटना होगा...

                            ***
 दान्तेवाड़ा नाम से लिखी  एक पुरानी  कविता,  जिसका शीर्षक अब कोई भी जगह हो सकती है जहाँ विकास (मुनाफे) के पहुरुहे जल, जंगल, जीविका हड़पने के खेल में लगे हैं  

2 comments:

  1. सार्थक सृजन , बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर भी पधारें , आभारी होऊंगा.

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