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Nov 20, 2010

पहाड़ डायरी 2010-०४

त्तराखंड के जौनसार हिस्से में कभी मेरा जाना नहीं हुआ था. जौनसार के बारें में हालांकि बचपन से कई किस्से, किवदंतियां, गढ़वाल और कुमायूं के मुख्यधारा के समाज से अलग पहचान के आख्यान भी सुने थे. इन सब बातों के बीच जौनसार को लेकर मन के भीतर कुछ दबा आकर्षण, बचपन के सुने जौनसारी ज़ादू के किस्से भी थे.  गढ़वाल के कई गाँवों में जौनसारी औरतों की खूबसूरती के, उनके मायावी होने के, आदमी को खाडू (नर भेड़) में बदल देने के किस्से आम-फहम थे. इन किस्सों के बीच बचपन में बड़ी सांत्वना रहती थी, कि कभी गयी तो  सही सलामत आ सकूंगी. औरतों को बकरी में बदलने का एक भी किस्सा न था.  

हाड़ के उबड़ खाबड़ भूगोल में, जहाँ दो पीढी पहले तक पैदल चलने के अलावा दूर दराज़ के क्षेत्रों में पहुँचने का कोई साधन न था, १० मील की दूरी भी बहुत दूर किसी दूसरे प्रदेश तक की लगती रही होगी. जौनसार और गढ़वाल के लोगों के बीच भी सीधे बातचीत के मौके बहुत नहीं थे.  कुमायूं-गढ़वाल के बीच कुछ मौके फिर भी दुसांध के इलाके में थे, और फिर सरकारी नौकरी में जाने वालों के पास, बाकी बड़ी संख्या में अनुमान थे, और अकसर फिर ज़ादू की कहानियां, कुमायूं में गढ़वाल के ज्योतिष और ज़ादू के, गढ़वाल में काली कुमायूं के जादू के.  इस पूरे इलाके में मिथकीय ज़ादू भले ही न हो, प्रकृति की खूबसूरती और लोगों के सहजमना होने का जादू ज़रूर है, वही ज़ादू खींचता है बार-बार,

ढ़वाल की ही तरह जौनसार में भी महाभारत से जुड़े  तमाम किस्से है, चकरोता के पास लाखागृह, हनोल देवता का मंदिर इसी इलाके में है.  हनोल मंदिर का पुजारी मुख्यत: कोई  ठाकुर ही होता है. बीच रास्ते एक छोटे गाँव इछिला में एक दोपहर रुकना हुया १५ अगस्त के दिन, कुछ गलतफहमी थी कि जौंसारियों का एक बड़ा त्यौहार कोदो-संक्रांति १५ को है. दरअसल वों १६ को थी. फिर भी कुछ अनाज कूटे जा रहे थे, कुछ लोग छुट्टी लेकर एक दिन पहले गाँव पहुंचे हुये थे. ढ़ेर से बच्चे थे, जिन्होंने कुछ पारंपरिक गाने सुनाये. गाँव में हमें कुछ चाय पिलाई गयी और कुछ झंगोरा की एक पोटली मिली. झंगोरा  बाजरे सा एक पहाडी अनाज है, जिसे में खासतौर पर अपने पति को दिखाना चाहती थी, हरित क्रांती की बाढ़ में बहुत से छोटे अनाज मुख्य धारा से गायब हुये है, और उनका कुछ लोकल अस्तित्व ही बचा है. जहाँ एक तरफ लगातार, गेंहू और चावल ने लोगो का पेट भरा, बड़ी मंडियां भरी, वहीं  बहुत से छोटे अनाजों पर लोगों की निर्भरता समाप्त हुयी है. उसका एक सीधा परिणाम संभवत: भरपेट लोगों में भी बड़ी मात्रा में कुछ हद तक कुपोषण है. छोटे अनाज सिर्फ अपने अच्छे पोषक तत्वों के अलावा भी महत्वपूर्ण इसीलिए है कि बिना खाद, और बिना कीटनाशक के भी इनकी पैदावार अच्छी होती है, सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

भारत में हरित क्रांति जिस तरह से कुछ सालों के लिए गेहूं और चावल की पैदावार बढाने में सक्षम हुयी है, वों बहुत लम्बे समय तक का समाधान नहीं है. उसके 4० सालों से लगातार खाद और सिंचाई पर निर्भरता ने बहुत बड़े हिस्से की जमीन को प्रदूषित किया है, और जमीन की उर्वरता भी कम होगी. भू जल का स्तर भी संभवत: नीचे गिरा होगा. दुनिया की बढ़ती आबादी, कुपोषण और भूख का समाधान भविष्य में कुछ हद तक फिर से छोटे अनाजों की तरफ लौटना भी एक कदम हो सकता है. खासकर भारत के उलट अफ्रीका में हरित क्रांती अगर फेल हुयी तो उसका एक बड़ा कारण सिंचाई के लिए पानी का न होना, और वहां के लोकल अनाज के बजाय मक्का और दूसरे अनाजों को उगाये जाने का जोर रहा जो उस जमीन के लिए अनुकूल नहीं थे. आज पिछले एक-डेढ़ दशक से अफ्रीका की जमीन में हज़ारों सालों से जो अनाज उगाये जाते रहे है, उनकी और लौटना ही संभवत: एक अच्छा कदम है और कुछ अच्छी खबरे इस दिशा में आ रही है. 

जौनसार की अच्छी खेती देखकर कुछ हद तक मन तर गया. अब भी बड़ी मात्रा में मिर्च, अदरक, हल्दी, मक्का, कोदो, चूड़ी, अरबी, और भी कुछ अनाज अच्छी उपज दे रहे थे और उनको बेचकर लोग अच्छे पैसे कमा रहे थे. इस तरह से अपने लोकल रिसोर्सेज़ पर निर्भरता देखकर और लोगों का संपन्न जीवन देखकर, स्वस्थ बच्चे देखकर अच्छा लगा. इन सबके बीच फिर बंदरों की और जंगली सूअरों की खेती को नुकसान पहुंचाने वाली तकलीफ़ का समाधान लोगों के पास नहीं है.   कुछ लोगो रात को २-३ बजे  भी अपने खेत बचाने के लिए जानवरों को हांक आते है. खेती पर इस तरह की मेहनत करने वाली पीढ़ी पहाड़ में कब तक बचेगी इसके बारे में अमूमन सभी बुजुर्गों की एक ही राय है नयी पीढ़ी मेहनत करना नहीं चाहती और उसके सपने शहर जाकर कोइ नौकरी पकड़ने के है. और खासकर लडकियां इतनी पढ़ गयी है की नौकरी मिलेगी नहीं और खेती वो करेंगी नहीं, तो शिक्षा ने बंटाधार किया है" 


 यी पीढ़ी मेहनत करे या न करे मेहनत करने को वैसे भी पर्याप्त जमीन पहाड़ के लोगों के पास नहीं है, उससे लंबे समय तक परिवार गुजारा कर सकें. अभी भी जो गाँव में कुछ लोग खेती पर आधारित जीविका चला रहे है, वो इसीलिए संभव हुया है की गाँव छोड़कर अधिकतर लोग चले गए है और बचे लोगों के पास वो जमीन है. पहाड़ की ८०% जमीन वैसे भी जंगलात के कब्ज़े में है. १८९२ से लेकर १९८० तक लगातार पहाड़ की जमीन पर जंगलात का कब्ज़ा बढ़ा है. जो जमीन पहले पशुओं के चारागाह की तरह इस्तेमाल होती थी, वन पंचायत की जमीन थी, और गाँव की लकड़ी, घास और सामूहिक उपयोग की जमीन थी, उसे कई किश्तों में पिछले १५० साल में वन विभाग ने कब्ज़ा किया है. ब्रिटिश राज ने सामूहिक स्वामित्व के अधिकार को अवैध  करार दिया और सिर्फ उस जमीन को लोगों के पास रहने दिया जहां हल से जुताई होती थी. ब्रिटिश राज में वन विभाग की जो नीव डाली गयी उसका मुख्य उद्देश्य जंगल की लकड़ी पर कब्ज़ा था. पहाड़ में जो दूर दराज़ तक सडकों का जाल फैला वो इसी लकड़ी को पहाड़ से लाने के लिए फैला. माधव गाडगिल व् रामचंद्र गुहा की किताब  This Fissured Land: An Ecological History of India“ जंगल पर कब्ज़े के इतिहास, उस पर प्रतिरोध के इतिहास, और उस लकड़ी का कितना कारोबार हुआ उसका आख्यान है. पहाड़ की इस लकड़ी का इस्तेमाल रेल के लिए हुआ, हिन्दुस्तान और उसके बाहर भी दूसरे देशों के लिए, प्रथम विश्वयुद्ध के दरमियान पानी के जहाज़ बनाने के लिए भी. अरब देशों में चली कुछ लड़ाईयों के लिए भी हिन्दुस्तान भर के जंगलों का दोहन हुआ. कुछ हद तक फोरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के देहरादून में होने के तार पहाड़ की इसी बेशकीमती लकड़ी के कारोबार से जुड़े है, ये अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. इसके बीच फिर बड़ी मात्रा में यहाँ के बहुत से पेड़ जो चारा उपलब्द्ध करवाते थे, बहुत से जगंली फल वाले पेड़, लोगों की जिन पर निर्भरता थी, वो मुनाफे का सौदा न थे, इसीलिए बड़ी मात्रा में चीड़, और बाद के दिनों में स्वतंत्र भारत में यूकेलिप्टस जैसे पेड़ों  की भी रोपाई इन सदाबहार जंगलों को नष्ट करने के बाद हुयी. गाडगिल और गुहा की किताब एक सिरे से हमारी आँख खोलती है की वन विभाग ने पिछले १५० साल में हमारे जंगल और पर्यावरण और लोगों के पारंपरिक जीविका के स्रोतों को नष्ट किया है. लोगों के साथ साथ हिमालय के पर्यावरण पर भी इसकी दूरगामी परिणाम हुए है. पानी और नमी ख़त्म हुयी, और पहाड़ की भुरभुरी मिट्टी को जिस तरह से यहाँ के पेड़ बांधे रखते थे, अब वो लगातार धसक रही है. 

पूरे पहाड़ में दूर दूर तक बरसात में जो हरियाली दिखी, वो मुख्यत: गाजरघास या लेंटाना की झाड़ है, जो एक इनवेसिव स्पीसीस है. सर्दी के दिनों यही पहाड़ धूसर और भूरे, पेड़ विहीन दीखते है. बरसात में जो इस बार तबाही हुयी, जगह जगह जमीन धसक गयी है, लोग बेघर हुए है, और जान माल का जो नुक्सान हुआ है, उसका कारण पीछे अतीत में बड़ी मात्रा में जंगलात विभाग और सरकारों की देखरेख में इन जंगलों का नाश है जो १५० की कहानी है. लैंटाना एक मूलरूप से दक्षिणी अमेरिका में उगने वाली झाडी है जिसे एक सजावटी पोधे की तरह १८०७ में भारत में दाखिल किया गया था. भारत में लैंटाना ने बड़ी तेज़ी से फैलना शुरू किया और यहाँ की प्राकृतिक घास और छोटी झाडियों की जगह ले ली. जिसका सीधा असर पशुओं के लिए चारे का संकट के रूप में सामने आया, और दूरगामी असर भारत के जंगलों की प्राकृतिक वनस्पति का हास और पर्यावरण की बनावट में बदलाव आया. कई दशकों के प्रयास के बाद भी वन विभाग लैंटाना को फ़ैलाने से नहीं रोक सका है, और आज हालत ये है की भारत के जो सबसे महत्त्वपूर्ण तीन जैव विविधता के क्षेत्र है तीनो के ऊपर लैंटाना का ख़तरा है.  
 
हाड़ के दुरूह भूगोल ने नही संभवत: लोगों के पारंपरिक संसाधनों के छीन लिए जाने की वजह से लोगों को पहाड़ छोड़ना पड़ा, और दिल्ली, ढाका, पेशावर तक कौने-कौने लोग मजदूरी करने पहुंचे. कुछ लोग लकड़ी काटने वाले ठेकेदारों के आसरे समयसमय पर लकड़ी के चिरान के काम पर जाते रहे. प्रथम विश्वयुद्द ने बड़ी मात्रा में पहाड़ के लोगों को भर्ती किया और लाम पर भेजा. पहाड़ के लगभग सभी छोटे कस्बे मिलेटरी बेस की तरह बने. उसमे हर पहाड़ी छोटे कसबे में भूगोल को छोड़ बाकी समानता भी है, एक बड़ा हिस्सा केंट का होना. पहाड़ के मर्द फौज के लिए, लकड़ी रेल, जहाज़, स्पोर्ट्स गूड्स, फर्नीचर से लेकर फर्श तक के लिए, छोटे-छोटे पहाड़ी शहर पर्यटक और अफसरों की सैरगाह. कुछ इसी तरह का पहाड़ के विकास का खांचा ब्रिटिश भारत में बना, आज़ाद भारत में अब भी जारी है. पहाड़ के लोगों का पहाड़ में होना, वहाँ अपनी गुजर बसर के संसाधन का होना, पहुँच में स्कूल होना, अस्पताल होना इनमे से किसी के भी हित में नहीं था.  और जीवन यापन के लिए दर-बदर भटकते पहाड़ी भगोड़े का टैग लिए खुद भी घुमते है. जो नहीं भागे, लंबे समय तक बेगारी में अंग्रेजो और रईसों की डोलिया और सामन पहाड़ में इधर से उधर ले जाते रहे, जंगल के चीरान में मजदूरी करते रहे, सड़क बनाने के बीच मजदूरी करते रहे. और साहेब लोग कुछ कृपा कर सौ दर्दों की एक दवा शराब को सुचारू रूप से पहुंचाते रहे...

Oct 31, 2010

अरुंधती राय की विच हंटिंग

आज हालोवीन है, विच हंटिंग के विरोध का भी एक सिम्बोलिक दिन.  अरुंधती राय ने  कश्मीर  के सवाल को पब्लिक डोमेन में लाने की जो कोशिश की है, पता नहीं कश्मीर को लेकर संजीदा संवेदनशीलता कितनो में जागी है, पर अरुंधती कि विच हंटिंग जबरदस्त तरीके से शुरू हो गयी है. अरुंधती को गोली मारने से लेकर, उनके बलात्कार तक की कामना लोग अपनी टिप्पणियों में बेहद बेशर्मी से छोड़ रहे है. सार्वजानिक जीवन में, विरोध की असहमति की कितनी जगह है?
शोमा चौधरी का एक ये लेख है,  लंबा है, पर उम्मीद है कि आप में से कुछ लोग इसे पढ़ लेंगे. दूसरा अरुंधती का इंटरव्यू है, उन सब सवालों को लेकर, जिनसे कई लोगो के मन बेचैन है.  अरुंधती के बारे में सही राय बनाने से पहले इससे भी कुछ मदद मिलेगी.

मेरी अरुंधती से कई मामलों में असहमति के बावजूद, उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में ही मेरी राय है.
कश्मीर का मुद्दा सिर्फ इतने तक सीमित नहीं है कि लोगो को आज़ादी का हक होना चाहिए, अलहदा होने के लिए, या कोई बड़ी मुसलमान आबादी पड़ोसी देश में मिल जाय. फिर खुश रहेगी या फिर सैनिक शासन में खुश रहेगी. उसके बहु आयाम है, और सिर्फ हिन्दुस्तान पाकिस्तान ही नहीं है, ग्लोबल राजनीती के बड़े तार भी होंगे, और आतंकवाद के भी है. सामरिक दृष्टी से भी भारत के लिए कश्मीर का महत्तव है. और इन सबके मद्दे नज़र संजीदा तरीके से लोगो के लिए कोई पालिसी होनी चाहिए, मुख्यधारा में उनके मिलने के प्रयास होने चाहिए. ये जो देश है इसका विकास इस तरह का है कि सभी सीमावर्ती राज्य, दूर दराज़ के देहात, और सबसे गरीब लोग इसकी परिधि के बाहर है, और जनतंत्र के पास उन्हें देने के लिए सैनिक शासन से बेहतर कुछ होना चाहिए.

कश्मीर के अलगाव का मुद्ददा जटिल है, पर उसका सही हल राजनितिक ही होना चाहिए, या उसकी जमीन बनने के संजीदा प्रयास होने चाहिए. अरुंधती से असहमति के बाद भी, उनकी आवाज़ , विरोध और असहमति की आवाज, एक स्वस्थ जनतंत्र के लिए ज़रूरी है. अरुंधती की जुमलेबाजी भी अगर लोगों को 60 साल की लम्बी चुप्पी के बाद कश्मीर के राजनैतिक समाधान की तरफ सक्रिय करती है तो ये पोजिटिव बात होगी. इतना तो निश्चित है कि पुराने जोड़तोड़ के फैसले, राजनैतिक अवसरवाद, और सैनिक शासन का फोर्मुला बर्बादी और आतंकवाद ही लाया है. संजीदे पन से जब हिन्दुस्तान के नागरिक सोचेंगे, तभी जो सरकार है, नीती नियंता है, किसी संजीदा दिशा में जायेंगे.  रास्ट्रवाद की छतरी के नीचे अरुंधती की बैशिंग से समाधान नहीं निकलने वाला है,

Oct 23, 2010

२०१० पहाड़ डायरी -03

देहरादून जाकर पहले हफ्ते में विद्यासागर नौटियाल जी से मिलना हुया. उनकी सहृदयता रही कि कुछ दिन पहले ही अस्पताल से घर लौटे थे, आराम की हिदायत के बीच भी सिर्फ एक इमेल के बदले उन्होंने घर आने को कहा, कुछ तीन घंटे तक उनसे बातचीत होती रही, फिर आने से पहले दो और मुलाकाते, तीसरी वाली खासकर उनकी पत्नी से. उनसे मिलना ही बेशक इस पूरी यात्रा का  सबसे बड़ा सबब बना. उनसे मिलने से पहले उनकी किताब, "सुरज सबका है" पढी. कई सालों से सुने लोकगीत "बीरू-भड़ू क देश, बावन गढ़ु क देश" का कुछ मतलब इसी किताब से मिला, "गोर्ख्याणी " के पुराने भूले किस्से समय के नक़्शे में फिर कहीं अपनी जगह पाए. फिर तीस साल पहले अपने बचपन के दिनों में भी लौटे, अंगीठी को तापते सुने किस्सों कहानियों की साँझ-और रातों में लौटे.  उसके बाद फिर "फट जा पंचधार" "मेरी कथा यात्रा", "सरोज का सन्निपात" पढी.  जो अब  भी बची है वों  "उत्तर बायाँ है" और "देशभक्तों की कैद में", "मोहन गाता है".,  बाकी पुस्तकों तक पहुँचने का भी कभी मौक़ा बनेगा ऐसी उम्मीद है.  उनके पास बेहद अच्छी स्मृति है, जिया हुया एक गरिमापूर्ण सामाजिक और बेहद सादा व्यक्तिगत जीवन का खजाना है, बहुत सी नयी किताबे अभी लिखी जानी भी बाकी है......

बहुत सी बातें गढ़वाल के बारे में उनसे पता चली, कुछ मोटी बातें भी मुझे मालूम न थी, जैसे कि टेहरी रियासत १९६० तक बनी ही रही, बाकी देश से अलग यहां रियासत का कानून चलता था, और राजशाही के दमन,मनमाने पने की और बहुत सी बाते भी, मसलन लोगो के लिए रामलीला खेलना एक अपराध हुआ, क्यूंकि राजा की एक रानी इस दरमियान मर गयी थी. फ़िल्मी गाने की सख्त मनाही, हाथ से सिले कपड़ों का लम्बे समय तक चलन.., फिर बहुत कुछ प्रजामंडल आन्दोलन के बारे में, टेहरी बाँध के चलते गाँव, घर डूब जाने की बातें, और अब नए टेहरी तक की भी. उनके चुनाव जीतने की बातें बिना पैसे खर्च किये, दूर दराज़ के देहातों तक की लम्बी पद-यात्राएं.   एक व्यक्ति इतनी आसानी से सुलभ, निष्कपट, एक जीवन इतना सादा पर कितना विराट.
उनसे हर बात सुनने जान लेने का इतना मोह था, कि जिस छोटी सी फिल्म के लिए उनसे मिलना हुआ, बातचीत उसके दायरे के बाहर ही होती रही. फिल्म और जीवन की वैसे भी  क्या तुलना? फिल्मे जीवन से निकलती है, फिल्मों से जीवन निकले ये होता नहीं....

पहले हफ्ते में ही सुदर्शन जुयाल जी से भी मुलाक़ात हुयी, जो फिल्मकार है, और कुछ महीनों पहले १८ साल बंबई में रहने के बाद देहरादून वापस आये थे. उनके बारे में नैनीताल में ज़हूर दा और कुछ दोस्तों से  सुनती रही थी,२० साल पहले, कभी मुलाक़ात नहीं हुयी थी. अवस्थी मास्साब से कई बार बात हुयी थी,  ये कुछ अजब संयोग ही है कि उनकी फ़ाकामस्ती की कुछ झलक सुदर्शन जो दामाद है उनके, उनमे झलकती है. सुदर्शन लगभग हमारे साथ ही रहे जब भी बाहर निकलने के मौके बने, और घर पर भी कई बार लम्बी बात हुयी. सबसे अच्छी तस्वीरे और कुछ वीडीयो उन्होंने ही बनाए अपने मार्क II 5D से,  उनसे मेरी खूब जोर-शोर से बहसे हुयी, बहुत अच्छी बातचीत हुयी, और बच्चे मेरे उनके गेजेट्स को देखकर जब तब कैमरामैन बन जाने और फिल्म बनाने के आईडिया से उत्साहित होते रहे. सुदर्शन कैमरे के प्रयोगों के साथ मोर्छंग की धुनें भी निकालते रहे. गाँव में बच्चों के बीच खिलोने की तरह कैमरे को ले जाते रहे, बहुत आसानी से खासकर बच्चों के साथ बिना किसी प्रयास के सम्बन्ध बना लेना, और बातचीत में हास्य की छटा भी उनकी ख़ास बात है. ...........

 देहरादून के पहले हफ्ते के इतवार को डाकपत्थर निकलना हुआ, जहाँ कुछ देर नवीन कुमार नैथानी जी के घर पर, साहित्य भाषा, पहाड़ पर बातचीत हुयी. उनसे कभी ५ साल पहले पत्राचार हुआ था, मिलने का पहला मौक़ा था. नवीन ने मुझे ज्ञानपीठ से हाल में ही आयी "सौरी की कहानिया"  भेट की, और "कथा में पहाड़ " मेरे हाथ अभी तक लगी नहीं. भौतिक विज्ञान के व्याख्याता नवीन की कहानिया, कल्पना की दुनिया सौरी में जिस सहजता से मन को लिए जाती है, वों विलक्षण है और नवीन उतने ही सरल, तरल, अपने.......

नवीन के यहां ही कुछ जौनसार के विधार्थी मिले, जिनसे बातचीत हुयी, एक लड़का जो कोलेज के चुनाव में सक्रीय था, हमारे साथ सहिया तक गया, कुछ लगातार रोचक बातचीत उससे होती रही, कुछ जौनसारी गानों को भी उसने प्रमोद से कुछ प्रोत्साहन के बाद गाया. सहिया तक का खूबसूरत पहाडी रास्ता, पहाड़ों के बीच बहती नदी लागातार साथ ही बनी रहे. एक पुरानी ब्रिटिश आऊटपोस्ट के खंडर पर रुके, जहाँ कुछ औरते बैठी थी, नीचे ढलान पर उनकी बकरियां चर रही थी.   वहीं ज़मीन पर एक बुजुर्ग महिला थी, युं ही बैठी, पता चला कुछ सवा लाख कीमत की अकेली उनकी बकरियां है. मेहनत से तपे खूबसूरत चेहरे. तीन जवान औरते थी, सुदर्शन और प्रमोद काफी देर कुछ बातचीत की कोशिश करते रहे, सबके एवज में ज़बाब उन बुज़ुर्ग महिला से ही मिले, अचानक से दख़ल देते अजनबी मर्दों के बीच वों ढाल सी तनी रही.....


उसको कुछ हल्का करने की कोशिश में और कुछ नदी को पास से देख लेने के मोह में राजीव (जिसने बीच बीच में कचहरी छोड़कर ड्राईवर का रोल निभाया),  को लेकर ढलान पर उतरी. चमकती पारे की नदी खिली धूप में, बरसात की हरियाली, क्यूँ कहीं जाऊ यहाँ से, यही बैठी रहूँ कुछ बकरियां चराते तो भी जीवन में क्या बिगड जाएगा? रोजी-रोटी तो चल ही जायेगी..., राजीव की सोच दूसरी दिशा में है, राजीव कहता है दीदी ऊपर बैठी दोनों लडकियां कितनी खूबसूरत है, कुछ पढाई-लिखाई होती, बड़े शहरों के अवसर होते, तो ये भी मिस-इंडिया, मिस यूनिवर्स क्या नहीं हो सकती थी?  कुछ दिन पहले कश्मीर की किसी फिल्म के शूट के कुछ किल्प्स जो प्रमोद की नज़र चढ़े थे का ज़िक्र करते प्रमोद ने कहा था लडकियां, इतनी खूबसूरत, बिना सोचे यूँ ही मर-कट जाय लोग.  पहाड़ी लडकियां मिस इंडिया/मिस यूनिवर्स की दौड से बेदखल, पूरे के पूरे गाँवभर की खूबसूरत लडकियां औरते, इस खूबसूरत, जटिल और दुरूह भूगोल में अकली मरती-कटती भी, बच्चों और बूढों का संबल, औरतपने के साथ गायब मर्दों के हिस्से का काम  करती, सिर्फ उनके गोरे रंग वाले चेहरे ही नहीं, मेहनत से  दमकती आत्मा भी, पर वहाँ नज़र किसकी जायेगी.....      

Oct 17, 2010

ग्लोबल सिटीजंस

  

किसी शहर और देश में  नहीं
बसता घर
रिमझिम बारिश में निकली धूप और धुन्ध के बीच कहीं पसरा है,
छिन्न-विछिन्न पहचानों के मेले में
खंड-खंड बीहड़ में गुम, तिनके-तिनके बिखरा है
कुछ तारीखें है, कुछ चिंदी चिंदी कागज के टुकडे है
कुछ भूले-बिसरे शहर-दर-शहर है
नहीं है स्थायी घर  का पता.....


एक समंदर सा है आदमी, औरतों और बच्चों का
पृथ्वी के एक छोर से दुसरे तक बहता हुआ
मुसाफिर है मन सालों-साल
अटा-सटा है सामान एक दशक से
घर के इत्मीनान में नहीं
कुछ ऐसे कि गोया कल सफर पर फिर निकालना हो
अबाध गति से घूमती दुनिया के बीच स्थगित है जीवन .....

बहुत दूर तक धरती के कौने-कौने पसरी है अजनबीयत
कभी न छटने वाली धुन्ध के मानिंद
बौराया मन धुंधलके में ढूंढता है
परिचित पहचाना कोई चेहरा,
कोई आवाज़, कोई हंसी, कोई भूला इशारा
आँखों में उतर आयी जानी सी चमक
किसी आवाज के अंदेशे में चौंकती है नींद बार-बार
कोई नींद में रहता है सुकून से बरसों पीछे छूटे शहर में
और आँख खुलने पर कुछ देर को बैठता है दिल
रोजमर्रा की भागदौड़ में बीतता है दिन.....


जाने कौन सी आस थी धकेलती  रही जो एक छोर से दुसरे छोर
या अपने दायरे से ही भाग खड़ा हुआ था मन
या फिर बंद हवाएं थी, निपट निराशा थी
या हूलज़लूल के मलबे से ढका आसमान था
और कुछ खीझ भी कि हमारे होने न होने से कब कुछ होना था
अनजाने भूगोल में गुम हो जाने का अपना रोमान था
या अनचाहे बंधों, बेबसी और शर्म से मुक्ती का कोई गान था.....

बीते समय की तरह अब स्मृति में ही है घर, शहर,
और अजनबी है अब वों देश भी
अजनबी है ये शहर, ये देश भी 
अजनबी है मन, चोर के मानिन्द नींद में करता है सेंधमारी
उनींदेपन की मिठास में बौराया सुनता है
भूली-बिसरी आवाजे, आहें, कुछ धंसी हुयी खामोशियाँ
लावा सा आठ दिशाओं में पिघलता, बहता है मन.
मन की ज़मीन पर उगते है देखे और बहुत अनदेखे नाकनक्श
अकसर तो कभी न देखी जगहें, कहीं गहरे धंसे पड़े डर,
उम्र के बड़े क्षितिज पर फैले कई पड़ाव
जो नहीं है शामिल वों उनफती बैचैनिया है
कहीं दूर से छनती आती मद्धम रोशनी सी पसरती है चेतना
अचेत अँधेरे की खोह से अकबकाकर निकल भागती है नींद
अलसुबह की खुमारी में सोचता है मन
अब सपनों की सरहदों तक है अपना होना.....

Sep 30, 2010

2010 पहाड़ डायरी -02

आत्मीय रिश्तों की संगत में इत्मीनान होता है, कुछ अपने को फिर से पा लेना होता है, ज़रूरी नहीं कि मतभेद न हो, समझ में आयें सब कुछ ठीक-ठीक, परन्तु न समझ सकने की कसक या समझ लेने की कोशिश का भी अंत नहीं होता. पहाड़ किसी छूट गए आत्मीयजन सा है, मन के बहुत पास, वास्तविकता में बहुत दूर, जिसे  जानने का खुमार है, उसका होना, उसके दुःख-सुख, बहुत कुछ, स्मृति (जो यूं भी समझ के आयने में रोज़ बदलती है) पर ही टिके है. वास्तविकता में पहाड़ कितना बदला उसका अनुमान कुछ व्यक्तिगत स्तर की कही-सुनी-लिखी  बातों, कुछ सार्वजनिक उद्वघोषणाओं, कुछ पढ़कर, या फिर साल-दो साल में दो हफ्ते की छुट्टी बिताने के बीच लगता रहा है, इस बार सीमित समय की कुछ प्लानिंग थी पहाड़ को  कुछ पास से देख लेने की, सुन लेने की, छू भर लेने की. फिर अकसर जैसे होता ही है, जीवन अपने तरह से हमें प्लान कर लेता है, और प्लानिग के बारे में सिर्फ एक ही निश्चिंतता बची रहती है कि कुछ न कुछ गड़बड़ होती जायेगी. इस बार इसके कंट्रोल पैनल पर मौसम सवार था. हर बार कोई दूसरी चीज़ होगी, अपनी अपनी तरह से हम सभी कहेंगे...
"Once a journey is designed, equipped, and put in process, a new factor enters and takes over. A trip, a safari, an exploration, is an entity, different from all other journeys. It has personality, temperament, individuality, uniqueness. A journey is a person in itself, no two are alike. And all plans, safeguards, policing, and coercion are fruitless. We find after year of struggle that we do not take a trip; a trip takes us."
 John Steinback (1962)




 पिछले 13 बरसों में  बरसात में कभी भारत आना हुआ नहीं था.  इस बार एक  महीने  के लिए माँ मेरे साथ थी,  ये तय हुआ कि  माँ के वापस लौटने के साथ मुझे भी कुछ दिनों के लिए जाना है पहाड़. माँ  कहती भी रही कि बरसात में छोटे बच्चों के साथ कई मुश्किलें होंगी, और पहाड़ के भीतर जाना लगभग नामुमकिन है. फिर भी एक बार रस्ते  लग गए तो फिर पहुँच  भी गए, हालांकि मुश्किल की शुरुआत भारत पहुँचने से पहले ही हो गयी.  यूजीन से प्लेन जब सेन-फ्रांसिस्को पहुंचा, उसे उतरने की जगह नहीं मिली कुछ २० मिनट तक और जब तक भागकर इंटरनेशनल टर्मिनल तक पहुंचे,  फ्रेंकफर्ट के प्लेन का दरवाजा बंद हो चुका था, अपने सामने उसे छूटते  देखा, फिर २ घंटे की कोशिश के बाद तय हुया कि हम लोग २४ घंटे के लिए सेन-फ्रांसिस्को में अटक गए है.  बच्चों और माँ के साथ एक रात La Quinta Inn, में बिताई. ये भी संयोंग ही था   कि डेस्क पर हिन्दी बोलने वाला अमित नाम का लड़का मिला, जो करेबियन आईलेंड का था, और उसने बताया कि हिंदी उसने अपने पिता से सीखी है, जो वहां रेडियो नवरंग चलाते है.  किसी तरह तीन दिन बाद दिल्ली पहुँचना हुआ, और टर्मिनल तीन जो उसी दिन खुला था, को देखना सुखद अनुभव रहा. तीन घंटे एयरपोर्ट पर बीतने के बाद एक घंटा नई दिल्ली स्टेशन पर बीता.  मैं उम्मीद कर रही थी कि "कोमनवेल्थ गेम्स" के चक्कर में कुछ फ़ायदा दिल्ली के रेलवे स्टेशन के हिस्से भी आयेगा, जो  नहीं ही आया था.  इस बीच  मेरा  एक  बेटा लगातार मक्खियों के पीछे भागते हुये और दूसरा तरह-तरह के लोगो को देखते हुये अपना मन बहलाते रहा.  बचपन में  भोलापन और ख़ास तरह की अपेक्षा  का न होना संभवत: उनकी खुशी का राज़ रहा होगा .

दिल्ली से देहरादून का सफ़र हरियाली की लम्बी पट्टी से गुजरते हुये जाना है,  बरसात में हरे रंग के सारे संभव शेड्स दिखते है,  रिमझिम पानी में नहाई प्रकृति तृप्त दिखती है.  खेतों और हरियाली के बीच  कुछ पुराने बहुत से नए ईंट के भट्टे खड़े मिलते  है, गहरे खुदे हुये  खेतों  पर नज़र जाती है, मिट्टी ईंट के  भट्टों की तरफ जाते भी दिखती है.  जिस गति से हर छोटे बड़े गाँव, शहर, और महानगरों में कभी न ख़त्म होनेवाला कंस्ट्रक्शन चल रहा है, सोचती हूँ, कितने वर्ष और कि सारी की सारी top soil, को इंटों में बदल जाना है,  कितना और समय है इस हरियाली का, खेती  का, खुशहाली का?.  मिट्टी के ईंट में बदलते ही  वापस फिर मिट्टी बनने की  संभावना  कहां  बचती है, या इसकी ही कि मैं ही  फिर वापस आ सकूंगी इसी मिट्टी में लौटकर किसी दिन  ....

 आम का सीजन लगभग ख़त्म होने को था, लीची का ख़त्म हो चुका था. पिता ने आम-लीची दोनों को फ्रिज और फ्रीज़र में भरकर रखा था. चार दिन लगातार  बच्चे दिन में सोये, रात में उठे  रहते और मैं  इधर उधर कुछ काम करती, फिर रात में जागना होता, फिर कभी दिन में भी झपकी,  माँ भी मेरी तरह नींद से जूझती है, दिन में और रात में भी.  बुआ जी  और पिताजी की बाते, उत्सुकता, और प्यार हमें बीच में खड़े होने का, नींद से लड़ने का संबल देता है. हमारी एक भली पड़ोस की आंटी जी, रोज़ सुबह बहुत दिनों तक दूध लाती है, ताकि माँ की कुछ मदद हो सके.  धोबी जी को बुलाकर में घर के परदे, चादर और दरियां देती हूँ, जो एक महीने बाद तक भी वापस नहीं आयी.  बारिश में हाल बेहाल रहा, देहरादून के कुछ इलाकों में बार-बार पानी भरता रहा, कपड़े धोने और उन्हें सुखाने की सहूलियत उन्हें न मिली. माँ कहती रही कि "धीरे-धीरे खुद ही धो लेते, पर तुझे अक्ल है कहाँ? किसी की सुनती कहाँ है?".  बारिश अब तक रुकी नहीं है, पता नहीं अब भी वों कपडे घर वापस आये या नहीं? 

जितने दिन रही वहाँ, लगातार बारिश, बाढ़, भूधसांव, बादल और जमीन फटने की खबरे आती रही, कपकोट के स्कूल में छत के ढहने से १८ बच्चों की मौत की खबर चल रही है. कई पुल टूटे हुये है. रात को दो बजे पता चलता है कि देहरादून के माजरा वाले इलाके में घरों के भीतर पानी आ गया है. लगातार बरसात है, बरसात की खबर है, और बच्चे चिंतित है कि हमारे घर तक कब बाढ़ पहुँच रही है. अपने गाँव जाने की कोई सूरत महीने भर में नहीं बन पायी. हनुमंती का पुल टूटा रहा. खबर ये भी है कि ३०० सालों से खड़ा घर जो था गाँव में, उसका आधा हिस्सा टूट गया है. शेषहाल अभी पता लगना बाकी है.  नैनीताल और हल्द्वानी का रास्ता भी टूटा रहा, अल्मोड़ा में तहस नहस अब तक जारी है...

इस सबके बीच फिर कुछ देर को धूप खिली, बारिश रुकी, बन्दर आते जाते रहे, घर के बाहर ही नहीं, रसोई के  भीतर तक और एक दो बार कपडे उठाकर भी ले गए. बंदरों की इस कदर बढ़ी आवाजाही की वजह कुम्भ मेले के प्रबंधन से जुडा भी बताया गया कि हरिद्वार के बन्दर भी अब देहरादून और दूसरे शहरों में है. पिता के पास बन्दर को दूर से भागने के लिए एक गुलेल है, पिता कहते है कि "देहरादून के बन्दर औरतों से नहीं डरते, इसीलिए उनके पीछे नहीं दौड़ना"


 मैं हैरान होती हूँ कि उत्तराखंड की भूमी का ८०% वन विभाग के कब्ज़े में है,  पहाड़ में  सिर्फ ७% खेती की जमीन है.    कभी सोचती हूँ कि ब्रिटिश भारत और  आज़ाद भारत की सरकार का उत्तराखंड की जमीन पर जो कब्ज़ा गहराता रहा है,  पीढी दर-पीढी लोगों के पास खेती और मेहनत करके गुजारे का अकेला संसाधन जो ज़मीन थी, कम होती गयी.  फारेस्ट रीसर्च इंस्टिट्यूट के सामने से, इसके भीतर, और बाहर गलियारों  में गुजरते हुये ख्याल आता है कि फारेस्ट रीसर्च इंस्टिट्यूट की देहरादून में स्थापना का कोई सीधा सिरा  अंग्रेजों के  जल, जंगल और जमीन की  हडपने की नीती से न रहा हो ये कैसे मुमकिन है? क्या  विस्थापन की एक एतिहासिक वजह ये रही होगी?. उसके कुछ तार भी कहीं जुड़ते होंगे कि क्यूं विकास की परिधि के बाहर छूटा  रहा पहाड़? या सिर्फ ये मान  लिया जाय कि  जो पहाड़ के गाँव के गाँव खाली हो गए है, वों सिर्फ अपनी सरल भूगोल में बस जाने की चाह में खाली हुये है,  और साल, सागौन, शीशम,चीड़    की लकड़ी और भी कितनी बहुमूल्य अकूत वन संपदा है उत्तराखंड में वों कोई  प्रत्यक्ष और परोक्ष वजह न रही होगी.
 वन प्रबंधन की जो भी नीतियाँ है, उससे उपजे जो  परिणाम है,  उनके असर पहाड़ के जन जीवन पर बहुत गहरे पड़ते है,  चाहे वन पंचायत की जमीन से अंतत: गाँव के लोगों के हक ख़त्म होने की बात हो, या घास और लकड़ी को जंगल से लाने पर प्रतिबन्ध हो, या फिर जंगली जानवरों की संख्या में अनियंत्रित तरीके से बढे और वों जंगल की सीमा के  बाहर खेती के लिए, मनुष्य और पालतू जानवरों के लिए खतरा बन जाय. उससे पार पाना पहाड़ के लोगों के बस में नहीं है, बस में पहाड़ के किसानों के  सिर्फ इतना है कि इस मार और उस मार को सहते रहे, और पहला मौक़ा जो भी मिले जीविका के लिए दर-ब-दर घुमते फिरे.  बंदरों का आतंक सिर्फ देहरादून में ही नहीं दिखा, बल्कि बाद में ये भी पता चला की बंदरों और जंगली सूअरों की संख्या पहाड़ में इस कदर बढ़ चुकी है, कि जो बहुत थोड़े से लोग गाँव में बचे रह गए है, उनके लिए खेती करना असंभव हो गया है. बाद के दिनों कुछ  गाँवों  के रास्ते, लोग हमें दिन दहाड़े खेतों की रखवाली करते दिखे. एक ९५ से १०० साल की दादी मिली जो सुबह ६ बजे से दिन १ बजे तक खेत में इसीलिये बैठी थी कि बन्दर भगाने है. एक प्रायमरी स्कूल के रिटायर प्रिंसिपल भी खेत में रखवाली के दौरान ही मिले. गाँव के आस-पास बाघ के मंडराने की भी खबरे मिली, और ये भी कि किस तरह से आये दिन कुछ गाय, कुछ बछड़े, बकरियां बाघ उठाकर ले जाता रहा है. ये भी कि जंगली सूअर को फांसने को जो घात किसी ने गाँव में लगाई थी, उसमे एक बाघ फंसकर मर गया, और दो ग्रामीण छ: महीने से जेल में है.  तीन साल पहले अस्कोट-आराकोट की यात्रा के अनुभव सुनाते हुये, डाक्टर शेखर पाठक ने दूर दराज़ की एक महिला का किस्सा सुनाया कि कैसे भालू के हाथ पेड़ की ओट से पकड़कर उसने भालू की छाँ कर दी, और एक ग्रामीण का पूरा चेहरा भालू के हमले में घायल हुया.   इस बीच मोबाईल फ़ोन ने कई तरह के नुकसान के बावजूद इनकी पहुँच गाँव तक और गरीब तबकों तक भी हुयी है, एक मज़ाक के किस्से की तरह ये भी पता चला कि पेड़ पर जंगल में चढी एक ग्रामीण महिला ने मोबाईल से घर फ़ोन किया, कि पेड़ के नीचे भालू खड़ा है, और वक़्त पर मदद उस तक पहुँची.
 जिन लोगों का जीवन बन्दर, भालू और बाघ के डर   और गतिविधियों से प्रभावित है, या होता है, उनकी भरपाई या समाधान की चिंता शहरी मीडीयां या फिर उत्तराखंड की दससाला  सरकार की चिंता का कभी सबब बनेगी? अमेरिका में भी हिरणों की संख्या हर साल बढ़ जाती है, और उसे नियंत्रित करने के लिए शिकार की अनुमति दी जाती है. बड़ी संख्या में घरेलू कुत्ते, बिल्ली आदि को स्टरलाइज किया जाता है. बंदरों की समस्या के लिए शायद ये एक मानवीय तरीका हो सकता है, कोई अन्य समाधान हो तो उसे भी ढूंढा जाना चाहिए, मसलन जंगल की सीमा पर कुछ ultrasonic या फिर infra-red घेरा भी बनाया जा सकता है कि जन जीवन और वन्य जीवों के बीच कोई संतुलन हो सके. इस तरह की तकनीकी का इस्तेमाल रोज़ के जीवन में अमेरिका में देखते आयी हूँ. घरो की छोटे शहरों में अकसर कोई बाउंडरी नहीं होती, और कुत्ते बिल्लियों को अपने घर की सीमा में रखने के लिए इस तरह की तकनीकी का इस्तेमाल किया जाता है. अकसर कार पर लगाने के लिए भी कुछ बहुत सस्ती डिवाईस आती है, जो ख़ास किस्म की ध्वनी संचारित करती है, जिसे सिर्फ जानवर सुन सकते है, मनुष्य नहीं, और इसी लिए चलती कार से १० फीट की दूरी रखते है. चूँकि ८०% की उत्तराखंड की भूमी सरकारी नियंत्रण में है, तो किसी भी तरह से लोगों के पास इस तरह के अधिकार और रिसोर्सेस नहीं है कि जंगल की इस तरह की घेराबंदी करे. सरकार की ज़रूर इस दिशा में सचेत पहल की जिम्मेदारी बनती है, वन्य जीवों के प्रति भी और उस भूखंड में रहने वाले लोगों के प्रति भी....,

पता नहीं ख्यालों की दुनिया में उत्तराखंड घुमते हुये, दुनिया के नक़्शे के दूसरे भूखंड बार-बार तुलना के लिए मानस में आते है, कि ज़रा सी पहल से, किसी सूचना और तकनीक से यहां का जीवन भी कुछ कम कष्टभरा  हो सकता है.  उत्तराखंड से बाहर रहती हूँ, तो लगातार उत्तराखंड जहन में बना रहता है.  पिछले महीने कोबरा पर काम करने वाली एलिस से माईनोट में मिलना हुआ था. बहुत देर तक हम सांप, कोबरा, अजगर पर बात करते रहे. एलिस , जर्मनी में पली बढ़ी थी,  एक तरह से सांप का आकर्षण  यूनिवर्सिटी  तक खींच कर लाया था उसे और अब दुनिया भर के जहरीली साँपों की बनावट पर उनकी गति पर रिसर्च करती है. बिन -हाथ पैरों वाला सांप कैसे दुनिया में जीता होगा उसकी अपने जीवन की एक मुख्य चिंता बन गया.  उसी से पता चलता है कि दरअसल सांप के लिए जहर बेशकीमती है, और अगर जरूरत न हो तो उसे सांप जाया नहीं करता. ५०% कोबरा का डंक जहर लिए नहीं होता. सिर्फ डराने के लिए ही होता है. एलिस से बातचीत करते हुये मैं लगातार  उत्तराखंड के पहाड़ और तराई में बीते दिनों में लौटती रही.  हर बरसात पहाड़ और खासकर तराई में कितने बच्चे, कितनी औरते सांप के काटने से मर जाते है, कही मीलों दूर तक भी एंटी-वीनोम के इंजेक्शन नहीं मिलते.  बचपन के दिनों में जब कितने कितने लोग सांप के काटे हुये, मेरे दादाजी के पास आते थे, और कितनी बार तो होता था कि दिन में रात के किसी भी पहर वों किसी को बचाने एक गाँव से दूसरे में अस्सी साल की उम्र में भी जाया करते थे.  कितनी बार तो होता कि दादी और माँ उन्हें कहते कि इस उम्र में मत भागो, बीमार हो जाओंगे, कहीं गिर पड़ोगे, किसी तरह की कोई कमाई कभी की नहीं तो जो पुण्य हुआ  अब बहुत हुआ. दादाजी ने कभी सुनी नहीं, उनका विश्वास बना रहा कि अगर अपनी सेवा के बदले उन्होंने पैसे लिए तो उनका मन्त्र काम करना बंद कर देगा.  प्रेमचंद की मन्त्र कहानी कुछ अपनी जानी पहचानी कहानी लगती थी.  एलिस से बात करते हुये कितनी बार सोचती हूँ कि क्या ये महज इत्तेफाक रहा होगा, कि सांप के काटे दादाजी के पास जितने लोग आये होंगे, वों सब वही होंगे जिनके भीतर कोबरा ने ज़हर नहीं उडेला था.या फिर कुछ पारंपरिक तरीके कई पीढीयों ने खोजे थे, वों भी खो गए है, और नया अभी पूरी तरह पसरा नहीं है.


 देहरादून में एक डॉक्टर से दूसरे, फिर इस टेस्ट के बाद दूसरे पथोलोजी में चक्कर काटते माँ को लेकर एक पूरा दिन बीतता है. आधा दिन अपने बेटे के साथ एक डाक्टर की दुकान पर भी बीतता है.  सुबह ग्यारह बजे से पहले किसी भी डाक्टर का मिलना असंभव है.  हर जगह लम्बी कतारे है, कतार के बीचों बीच चेहरे पर बदहवासी और नींद लिए दो औरते छोटे बच्चों को लेकर खड़ी है, शायद बहुत लंबा सफ़र तय करके देहरादून पहुँची थी.  हर डॉक्टर के घर में एक दुकान  है, वहाँ भीड़ है, दो-तीन लोग किसी पेथोलोजी के बैठे है, जो बिना दस्ताने पहने लोगों का खून जांच के लिए निकाल रहे है, मळ-मूत्र के सेम्पल इकठ्ठा कर रहे है, २००-३०० रूपये की पर्ची कटा रहे है.  एक स्किन स्पेशलिस्ट के यहां प्रमोद के साथ जाती हूँ, प्रमोद से बीच बातचीत में रहा नहीं जाता, और धीरे से फुसफुसाते है कि डॉक्टर के नाखूनों की तरफ देखकर कहते है " कितने सलीकेदार हाथ है, मेनिक्युर्ड!".  मेरा ध्यान हाथ में फंसी तीन डायमंड की बड़ी अंगूठीयों और एयररिंग्स की तरफ जाता है.  स्किन स्पेलिस्ट की दुकान में सबसे बड़ा विज्ञापन, लेज़र से चेहरे के और भी बाकी शरीर के बालों को स्थाई रूप से कैसे निजात पायी जाय, इसका है.  मैं बाद में प्रमोद से कहती हूँ कि यूं ही तो नहीं होगा कि एक औसत दिन में इतने ताम-झाम के साथ, इतनी कीमत के पांच हीरों में सजकर एक छोटे क्लिनिक की डॉक्टर आती है?  है कोई सम्बन्ध  जिस तरह की केयर मरीज़ को मिलती है, और जितने पैसे वों दिनभर में इस डॉक्टर, उस डॉक्टर, इस पेथोलोजी, से दूसरी तक फूंकता है?  सिर्फ डाक्टरों की दुकाने है, इतने सारे डाक्टर, पथोलोजी, और अल्ट्रा-साउंड की दुकाने ही है, अस्पताल एक तरह से इस पूरी राजधानी में मुझे ढूंढें नहीं मिलते, जहाँ एक बार कोई बीमारे में जाय और  ठीक से दवाई लेकर घर लौट जाय या ठीक डायग्नोसिस का इत्मीनान लिए लौट जाय.

हर बार माँ और पिता को डांटती रहती हूँ कि बीमार पड़ने पर किसी ठीक-ठाक डॉक्टर को दिखाकर आओ. खुद जाकर पता चलता है कि किसी सटीक डायग्नोसिस की गुंजाईश उत्तराखंड की राजधानी में भी कितनी मुश्किल है? बीमार आदमी शायद कुछ आराम से ठीक हो जाय पर बीमारी में पूरे-पूरे दिन यूं भटकने का बोझ जब तक संभव हो नहीं उठाना चाहता. पिता ने रामदेव के योग के असर में अपना वजन और स्वास्थ्य काफी हद तक ठीक किया है, और एक चलती फिरती रामदेव की डिस्पेंसरी उनका बेडरूम है.  सायंस की समझ मुझे उनकी तरह सहज विश्वासी नहीं बनाती, अब लगता है कि विरोध से भी क्या हासिल होना है?  किसी बहुत छोटी सी बीमारी के लिए भी अगर देहरादून जैसे शहर में किसी डॉक्टर तक पहुँचने में इतनी बड़ी झंझट हो, तो फिर लोगों के पास क्या चारा है, बाबा रामदेव के अलावा, या फिर सदूर देहातों में भी किसी वैध, किसी झाडफूंक करने वाले, या किसी फार्मेसिस्ट, किसी झोलाछाप नकली डाक्टर से इलाज़ कराने के अलावा? बिना विकल्प के किसी भी चीज़ को कोसने का मुझे हक भी क्यूं  हो?
फिर से मन किसी दूसरे छोर पहुँच जाता है. दुनिया के सबसे ज्यादा डाक्टर इस देश में ट्रेन होते है, अच्छे दिमाग और ट्रेनिंग वाले डाक्टर है. विकसित देशों में भी हिन्दुस्तानी डाक्टरों की अच्छी खपत है, इतनी बड़ी जनसंख्या  वाले देश में, बावजूद पिछले दो दशक में इतने पैसे की भरमार हुयी है, फिर भी स्वास्थ्य सेवाएं क्यूं बदतर हुयी है? पब्लिक सेक्टर के अस्पतालों का ढांचा और विश्वशनीयता  क्यूं  चरमरा रही है? प्राइवेट सेक्टर भी इतनी बढ़त के बाद भी, बुनियादी किस्म की सुविधा क्यूं नहीं व्यवस्थित कर पा रहा है? बार-बार उत्तराखंड से भागकर मन ग्लोबभर में घूमता रहेगा फिर वापस आयेगा यंही,  इसी झाड़-झखाड के बीच, उसी खुशबू, उसी बीहड़ की तरफ...

करीने लगी कोई क्यारी
या सहेजा हुआ बाग़ नहीं होगा ये दिल
जब भी होगा बुराँश का घना दहकता जंगल ही होगा
फिर घेरेगा ताप,
मनो बोझ से फिर भारी होंगी पलके
मुश्किल होगा लेना सांस
मैं कहूंगी नहीं सुहाता मुझे बुराँश,
नहीं चाहिए पराग....
भागती फिरुंगी, बाहर-बाहर,
एक छोर से दूसरे छोर
फैलता फैलेगा हौले हौले,
धीमे-धीमे भीतर कितना गहरे तक
बुराँश बुराँश ...
 
जारी ..............

Sep 20, 2010

२०१० पहाड़ डायरी -01


मेरे लिए पहाड़  लौटना सिर्फ किसी सुपरिचित भूगोल में लौटना नहीं होता, हमेशा किसी अहसास में, किसी खुशबू में, मन में दबी छिपी किसी लम्बी-संकरी, सांप सी बल खाती पगडंडी में होता है, जहाँ सपनो का एक बड़ा मेला लगा हो, और किसी छोटे बच्चे की तरह मैं चकमक हुयी जाती हूँ, रंग से, रोशनी से, उचाईयों से, डरती भी जाती हूँ गहराईयों से. दृष्टी हमेशा विराटता को समेट लेगी, कि   दिमाग सब केटालोगिंग कर ले, इसका होश नहीं बनता.  लगातार देखने की प्यास में बार-बार पहाड़ को देखना होता है एकटक.

कभी सचमुच जब पहाड़ लौटना होता है,  उत्सुकता हमेशा जस की तस बनी रहती है;  कि अगले मोड़ पर क्या होगा? कौन से फूल खिले है, किन वनस्पतियों  की गंध हवा में तैरती आती  है? आवाज  किसी नदी की है, किसी सदाबहार झरने का प्रपात है,  कि बरसाती गदेरे की किसी नाले  की छलछल है? कौन सी चिड़िया के बोल है?  कंड़ार के चौड़े पत्तों को देखकर बचपन के कतिपय दिनों में गाँव की दावत में खाये खुश्के की मिठास गले उतर जाती है,   हींग और जंबू की छोंक वाली दाल जो कभी पत्तल में खाई होगी, के लिए दिल हदसने लगता है.  नहीं तो कितने साल बीते, मोर  और लेस  खाने से स्वाद का रिश्ता रोज़-ब-रोज़ के जीवन में बचा नहीं है, बेलेंस डाईट, और समय बचाने की फ़िराक में कुछ इस्ट-वेस्ट मिक्स खाना खाने की भी वैसी ही आदत बन गयी है, जैसे किसी तयशुदा काम को ठीक से निपटा लेना. पर क्या होता है कि घर पहुचते ही माँ से कहना हो जाता है कि "आज कपिल बना दे, कल को चूर्काणी, परसों फांडू  शाम को मूली और गडेरी की भांग के बीजवाला साग, जाते-जाते स्वाल और कितना कुछ फिर भी छूट  ही जाता है, चाहे-अनचाहे फिर पीछे पहाड़  छूट जाता है".  कौन सी ऋतु है, किस ऊँचाई पर हूँ का पता चलता है इससे कि कैसे  हवा त्वचा को सहलाती है, या  तेज़ अंधड़ जिस तरह अपने बहाव  में मेरे रूखे, घुंघराले  बालों को  पटकते चलते है,  कि  हवा में तैरते पराग सांस लेना दूभर करते है. जी.पी.एस की ज़रुरत नहीं पड़ती, कलेंडर देखने का जी नहीं चाहता.  पहाड़ जाना समय  के पार जाना भी है,  बचपन की स्मृति को फिर से जी लेना है, किसी स्वाद में, किसी सुर में, किसी बोली में, बदन की सिहरन में, किटकिटाते दांतों में, ठण्ड से सुन्न हुये, जलते हाथ-पैरों में और नाक के टिप पर उपजे तीखे दर्द में, मुँह से निकलती भाप में,  नीली पडी नसों में, या सामने किसी चेहरे की लाली की रंगत में.  और फिर किसी स्टील के गिलास में चाय पी लेना, उसकी गर्माहट में अपनी किसी भूली  "चाह" की याद  पकड़ लेना भी होता है...

पहाड़ लौटना  एक बार फिर से मिलकर  आना है अपने देखे-अनदेखे पुरखों को जिन्होंने कभी बड़े जतन से बनाए होंगे पहाड़ काटकर सीढ़ीदार खेत, फिर कई पीढीयों ने उन्हें जतन से संजोया भी होगा, हर बरसात चिने  होंगे कई पगार, बचाए होंगे कई खेत,  उन मेहनतकश, मिट्टीसने, सख्त हाथों और बिवाईभरे पैरों को छूकर आना है, पहाड़ के गीतों और स्मृति में बसे सुरों को पहचान कर आना है.   पहाड़ पर होना प्रकृति के जड़-चेतन के साथ अपने दिल की धड़कन को सुनना भी है.   अपने जीवित होने की, अपनी सारी संवेदनाओं का लिटमस टेस्ट है, मेरे लिए पहाड़ पर होना.... फिर नष्ट, बंजर हुये इन खेतों को देखकर आना है, खाली पड़े, टूटते मकानों की शहतीरों पर उगते फफूंद और लाईकेन  की गंध अपनी नसिका  में भरकर लाना है, फिर सर  और समझ को धुनते जाना भी है कि क्यूं अपना घर-बार, खेत खलिहान, जानी पहचानी इतनी सुगंधी, मनभावन मौसम को छोड़कर दर-बदर हुये पहाड़ के लोग?  अपनी जमीन से क्यूं, कब और कैसे बेदखल हुये लोग...., बरसात में अचानक खुले रुँड में बह गए जैसे...

बाकी  जहाँ भी जाती हूँ, पहाड़ रेफेरेंस पॉइंट की तरह हमेशा साथ चलता है जागते भी, स्वपन में भी. पहाड़ की छाया में देश और दुनिया दिखती है. कुछ जंबू, कुछ क्वाद का आटा, कुछ भंग्जीरा, मेरे साथ पहुँच ही जाता है. न्यू जर्सी में अचानक तो किसी दोस्त के घर राई-हल्दी का रायता, या सूखे आम-गुड़-मेवे  की चटनी कुछ देर को ही सही मन को पहाड़ उड़ा ले जाती है. हँसते हुये फिर कोई नैनीताल के होस्टल में बिताये दिनों की याद में सिराक्यूज़, न्यूयोर्क  में चाय पकड़ाते हुये याद दिलाएगा; "चाह है, किसी राजकुमारी को भी कहां मिलती है, शुक्र मना ". मैं इथाका पहुँचते ही किसी दोस्त को खबर करूंगी, अरे नैनीताल जैसा, खिड़की से दूर कयुगा झील दिखती है, कोई दोस्त एइन्द्रिओनडेक  के लेंडस्केप में 'लेक जोर्ज'  पहुँचते ही घोषणा करेगा कि वही नैनीताल पा लिया. 'लेक जोर्ज' के किनारे आईसक्रीम का स्वाद वों नैनीताल के फ्लेट पर टहलते स्वाद जैसा है. फिर कोई सेंट-डियागो पहुँचते ही फ़ोन खटखटाएगा, असली नैनीताल यही है.  पता नहीं पहाड़ से निकले दुनिया के नक़्शे पर तितरबितर हम सब जहाँ जाते है,  कितने किस्म के  नैनीताल, अल्मोड़ा,  पौड़ी, उत्तरकाशी, चमौली, टेहरी,  रुद्रप्रयाग, बैजनाथ, पिथोरागढ़, बेरीनाग और जाने तो कितने कितने शहर, गाँव, क़स्बे  साथ लिए चलते है.  अजनबी जगह में प्रकृति का साम्य  ही होगा जो कुछ हदतक दिलासा देता है.

पहाड़ की कूदाफाँदी में कितनी चोट के निशाँ होंगे, आम के पेड़ से गिरकर हड्डी भी टूटी, पैर के बगल से एक बड़ा अजगर छूते हुये भी निकला, स्कूल जाने का जो दो घंटे का पैदल रास्ता था उससे जुड़े जंगल में रीछ अकसर दूर से दिखता था, और बचपन के भोले दिनों का भरोसा रहा होगा कि जब तब रीछ का डर लगता मेलू के  पेड़ को ढूंढकर उसके नीचे हम बच्चे दुबक जाते, जहन में पहला नक्शा रीछ के डर और मेलू के पेड़ों की छाया में अंकित हुआ.  बचपन के दिनों में कई आस-पास के गाँव में नरभक्षी बाघ का आतंक था.   इतने सबपर भी  तो दिल दहलने की अप्रीतिकर कोई याद नहीं है.  दिल दहलने की पहली याद 5 साल की उम्र की है,  रेल चढ़कर रूडकी-मुज़फरनगर की तरफ जाना हुआ था, तब की है, ऊपर की बर्थ पर सोयी, दर्द से बिलबिलाते उठी थी मैं, किसी ने एक भारी टोकरी मेरे सर पर रख दी थी.  दूसरी याद शहर में रह रहे अपनी एक कजिन के साथ लैंसडाउन बाज़ार जाने की है, जिसने अपनी एक दोस्त से ये कहकर मेरा परिचय कराया था कि गाँव के चचा की बेटी है.   शहर  की निर्ममता-परायेपन, और अचानक से अपनी झोली में  टपके  लाड़  के भी पहले, दूसरे, तीसरे और अनगिनत पाठ  बने, बिस्ताना गाँव से, भारत के महानगरों तक फिर अमरीका के कई शहरों में भी, परन्तु संवेदना का संस्कार हमेशा पहाड़ के छोटे गाँव का रहा. बेवकूफीपने की हद तक डूबी, इस गणित के हर नियम से पार लाटेपन वाली  संवेदना ने कई बार मन खराब किया, फिर इस लम्बे समय तक मुझे बचाए रखा भी, अजनबीपन की लम्बी यात्रा में कई सहृदय दोस्तियाँ भी दी. जितनी उम्र बढ़ती जाती है, सपनपने की सौ कहानियों के बीच, मन ऐसी ही किसी लाटेपन की निस्वार्थ, खुलेमन वाली किसी कहानी से सिंचित होता है.   बहुत पढेलिखे, रुआब-रुतबे वाले किसी  की याद से मन कब भीजता है?  याद रह जाती है एक मामूली बूढ़े सहृदय चौकीदार की, किसी दोस्त की रात १० से बारह के बीच ठण्ड में  लायब्रेरी के आगे खड़े होने की, १० साल बाद किसी दूसरे भूगोल में कोई पुराने कम पहचान की लड़की मुझे खोज लेती है, उसकी.  कोर्नेल में मेरा एक प्रोफेस्सर धीरे से पैर उठाकर नीचे स्टूल रख जाता है, और समझाईश देता है कि "प्रेग्नेंट अवस्था में अपना कुछ ख्याल करों लड़की!". किसी दोस्त के भी दोस्त का अचानक मिलने पर खिल उठना. ऑफिस की सेक्रेटरी का मेरे बच्चे को कुछ देर देख लेना, मुझे अपनी एक्सपेरिमेंट्स समेटने की सहूलियत  देना, बीच सड़क खराब हुयी कार को धकियाने को अचानक से उठे किसी अजनबी के हाथ.  बस-दुर्घटना के बाद एक अजनबी मुल्लाजी का मुझे और मेरी घायल दादी को सुरक्षित रातभर को पनाह देना, पिता तक खबर पहुंचाने में चार घंटे नगीना कचहरी के वायरलेस पर खराब करना, और सहृदय तहसीलदार की पत्नी का खाना खिलाना.   जीवन में यही सब बचा ले जाता है, ज़रा सी बिन गणित की संभावना, और संवेदना.  अठारह साल बाद ज़िक्र करते मेरा एम. एस. सी.  के दिनों का दोस्त कहता है कि "जो बुरा होता है, छल होता है उसके घाव गहरे ज़रूर होते है, उनकी उम्र छोटी होती है".  बहुत आगे किसे लेकर जाते है "शोर्टकट्स "?  पिछड़ेपन के दूसरे लक्षण भी चाहे अनचाहे साथ ही बने हुये है.  २० साल हुये पहाड़ छोड़े, अब भी लगता है कि जैसे वही हूँ, जब पहली बार पहुँची थी दिल्ली और सड़क पार करने में डर लगा था. ये डर अब भी लगता है, सिर्फ दिल्ली में नहीं, सारे बड़े, बेतरबीब फैले शहरों में. अब देहरादून में भी वैसे ही खौफज़दा होती हूँ कि घर सलामत पहुंचना होगा कि नहीं?

दो दशक तक पहाड़ को मन में लिए घूमती रही हूँ, इस बीच मन का पहाड़ ठीक-ठीक आज के पहाड़ का प्रतिबिम्ब तो नहीं रहा है, समय की छाप पहाड़ पर कई तरह से पडी है. नयी शक्ल के पहाड़ से मुलाक़ात का बहुत मौक़ा पिछले कई सालों में नहीं मिला, दूर से एक दूसरे को हाथ हिलाते रहे, उड़कर पहाड़ से आती खुशबू और दर्द दोनों को जहन में भरती रही. पहाड़ से अब फिर नयी तरह से पहचान करनी है. अब देश दुनिया के बदलते आयने में बदलते पहाड़, आगे बढे और पीछे छूटे पहाड़   को देखने की कोशिश  की भी शुरुआत भर है..
......जारी

Sep 16, 2010

सिमोन शाहीन का संगीत : स्वर और सपनों के मेले में गुजरना.....

सिमोन शाहीन,   फिलिस्तीनी  संगीतकार है, कुछ दो बार सिमोन को रूबरू सुनने का मौक़ा मिला, और अकसर तो होता ये है कि किसी लम्बे, थकाने वाले सफ़र पर निकला जाय और कुछ दिन से ठीक से नींद न मिली हो तो, सिमोन के कम्पोजीशन, धुनों से अच्छा साथी फिर कौन..?  सिमोन का अपना एक ग्रुप है जिसमे अधिकतर कुछ ख़ास किस्म के अरबी इंस्ट्रूमेंट की संगत पर रहते है, और एक मुख्य गायक भी कभी कभी होता है, अरबी और वेस्ट्रन क्लासिक म्यूजिक के मिलाप से सिमोन अद्भुत संगीत रचते है, जो कर्णप्रिय होते हुये भी जाने किन किन यात्राओं पर मन उडाये जाता है, और अपनी अरब की मिट्टी की महक बनाए रखता है. . सुनते हुये अकसर तो लगता है, कि मध्य-युग की किसी  कथा में भटकते, किसी मेले में, किसी पुराने बग़दाद की गली में, काहिरा के किसी भीड़ भरे  रंग बिरंगे बाज़ार में पहुँच गए हो, इस्तांबूल के किसी मेले में भटक गए हो...या कभी कभी भारत के ही किसी शहर में १५वी शताब्दी में चले गए हो. हर बार सिमोन के ग्रुप को सुनते हुये संगीत से ज्यादा इन अचीन्ही, अपहचानी दुनिया में भटकना होता है, कुछ अजनबीयत  के बीच बेख़ौफ़ घूमना होता है, किसी मेले में जैसे कोई खो जाए और घर लौटने और खो जाने की सुध भी न बचे, लगातार जैसे कोई बच्चा चकमक हुया जाय, इस रंग पर, उस रोशनी पर, उस मिठाई  पर, और जाने तो किन किन खेल तमाशों पर...

Aug 25, 2010

गिर्दा हमेशा हमारे बीच ही रहेंगे




गिर्दा अब हमारे बीच नहीं रहे कहने का साहस मन में नही है. २२ अगस्त को 11.31 AM को गिर्दा अब किसी 
दूसरी यात्रा पर निकल चुके है. गिर्दा जो हमेशा से अपने समूचेपन में लोगो से प्यार करते थे, गाते थे, लिखते थे, और सड़क पर उतर जाने में कभी संकोच नही किये, जन पक्षधरता  जिनकी अकेली पक्षधरता थी, हमेशा कई कई रूपों में बार बार हमारे बीच बने रहेंगे.
गिर्दा बखूबी फैज़ को कुमायूनी में उल्था कर गाते थे. उसी का एक मुखड़ा उनकी याद में ..... 

Jun 22, 2010

औरत और आदमी की कहानी

अभी एक मित्र ने  न्यू योर्क में हुये इंडिया फेस्ट्वल की कुछ तस्वीरे भेजी है. उसमे से कुछ तस्वीरे दो कलाकारों की है, इन्हें देखते लगता है, कि जैसे हमारी सीमाओं के जो घेरे है, वों शरीर से ज्यादा दिमाग में है.

Jun 16, 2010

history of coffee: bussiness of billions

कुछ दिन पहले कॉफ़ी पर एक लेक्चर बनाते समय एक अच्छी विडीयों सीरीज पर नज़र पडी, जो कुल मिलाकर आठ किस्तों में है, और कॉफ़ी की एतिहासिक कहानी कहते हुये, कॉफ़ी के ग्लोबल ट्रेड की गलियों में जाकर ख़त्म होती है. पेट्रोल के बाद जिस प्रोडक्ट का सबसे ज्यादा ग्लोबल कारोबार है, दुनिया में वों एक महज कॉफ़ी का प्याला है. पहली किस्त का वीड़ीयों यहां चेप रही हूं, कि जिन्हें आनंद आयेगा वों बाकी हिस्से भी आसानी से देख सकेंगे.


May 5, 2010

निरुपमा पाठक ........................................


निरुपमा पाठक के मामले पर कई लेख बहुत से मित्रों ने लिखे, चोखेर बाली पर, नारी पर और अलग से भी. तथ्य दुहराने की और केस के ट्रायल करने की ज़रुरत मुझे यहां नहीं लगती. ये मेरा काम नहीं, तथ्य मेरे पास सभी पक्षों के है नही.

निरुपमा के बहाने क्या लिखूं?
एक परिवार, एक जाति, और वर्ण-व्यवस्था पर गरियाती रहूँ?
जब कि स्त्री किसी भी जाति की हो, किसी भी धर्म की हो, किसी भी देश की हो, एक सम्पूर्ण व्यक्ति के अधिकार उसकी पहुँच में नहीं है। सामाजिक प्रक्रिया में सीमित या नामात्र की भागीदारी है. रोज़-रोज़ सचेत प्रक्रिया से कुछ बदलाव आयेंगे ही और अलग-अलग समाजो की फांस और अपनी ख़ास तरह की अनूठी जीवन रचने की जो शक्ती स्त्री के पास है, उसकी समझ कुछ हद तक स्त्री को सशक्त बना सकती है. ताकि निरुपमा का हश्र बहुत सी लड़कियों का न हो. जाति -व्यवस्था बहुत दिन तक टिकने वाली है नहीं, फिर भी स्त्री के स्वास्थ्य, सेक्सुअलिटी पर पितृसत्ताक, नजरिया बहुत लम्बे समय तक रहेगा, स्त्री का सामाजिक अनुकूलन भी नित नए रूप में सामने आयेगा. इन सबके बीच स्त्री तभी पार पा सकती है जब उसके पास आधुनिक नजरिया हो कि किस तरह स्त्री अपने शरीर, अपनी इच्छाओं, को देखे समझे ( Our Bodies, Ourselves: A New Edition for a New Era, Boston Women's Health Book Collective), और सामाजिक अनुकूलन की प्रक्रिया को समझते हुये उससे उलझे। समाज बदलने के साथ साथ स्त्री की अपने बारे में और अपने समाज के बारे में एक सचेत राजनैतिक शिक्षा की ज़रुरत लगातार बनी रहेगी. इस मायने में स्त्रीत्व की लड़ाई सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं है, अलग-अलग तरह से दूसरे समाजो में भी है।। अमरीकी समाज में एक बड़ी होती लड़की अपनी इस यात्रा को किस तरह से देखती है, नोमी वूल्फ की ये किताब कुछ कठिन सवालों से रूबरू होती है.

ये सिर्फ एक व्यक्ति का मामला नहीं है, एक परिवार का मामला भी नहीं...., एक बड़ी सामाजिक सोच का मामला है। जब तक वों नहीं बदलती स्त्री का आत्मसम्मान के साथ जीना संभव नहीं है, विवाह,जाति-प्रथा और यौन शुचिता आदि पर बहुसंख्यक समाज के जो विचार है उन्हें इतने सालों बाद भी लोहिया जी की तरह बार-बार कटघरे में खड़े किये जाने की ज़रुरत है. कम से कम स्त्री का माँ बनना या न बनना, विवाह के भीतर या बाहर बनना सिर्फ उसकी ही मर्जी होनी चाहिए। स्त्री का अपने शरीर, अपने स्वास्थ्य और कोख पर अपना ही हक हो, इस तरह का समाज जब तक नहीं बनता, एक नए तरह की नैतिकता जब तक समाज में नहीं बनती, निरुपमा जैसी मौत को रोका जाना संभव नहीं है. तब तक स्त्री का एक सम्पूर्ण मानव की गरिमा के साथ जीवन भी संभव नहीं है.

स्त्री की समस्या फिर भी इस तरह का समाज या क़ानून मात्र बनने से ही नही सुलझती. पर इतना तो होता है कि स्त्री के लिए मातृत्व अपमान का सबब नहीं बनता, उसे आत्महत्या की तरफ नहीं धकेलता, और कोई माँ-बाप अपनी संतान की ह्त्या के लिए मजबूर नहीं होते, सामाजिक दबाव के चलते. शायद अपनी औलाद के साथ खड़ा होना उनके लिए आसान हो जाता है.

निरुपमा पाठक की अगर ह्त्या उसके परिवारजन ने की है, तो ये माफी के लायक अपराध नहीं है. उन्हें ज़रूर कड़े से कडा दंड मिलना चाहिए. पर अगर समाज में कुछ बड़ी हलचल होती, अविवाहित पुत्री का मात्र्तव अगर अपमान का सामाजिक विषय होता तो ये होता. जिस तरह से आज सती होना स्त्री और परिवार की प्रतिष्ठा से जुडा नहीं है तो विधवा को जबरन नहीं मरना. कुछ हद तक विधवा विवाह भी स्वीकृत है व्यापक स्तर पर. और ये सब ऐसे ही नहीं हुया, ये सामाजिक चेतना में आये परिवर्तन की देन है। लम्बे संघर्षों की भी। स्त्री का अपने शरीर और अपनी कोख पर अधिकार भी किसी दिन आयेगा ही. इसीलिए ये मामला एक दकियानूसी परिवार, एक धर्म और एक जाति का मामला मात्र नहीं है. स्त्री के प्रति जो दकियानूसी सोच है, वों समाज मैं बहुत व्यापक है, और वों बदलेगी तभी, जब समाज में व्यापक हलचले होसामूहिक चेतना में बड़े बदलाव आयें. इस तरह की स्थिति बने की स्त्री एक सम्पूर्ण मानव का दर्ज़ा पाए, और बिना पुरुष के भी एक माँ की, एक अभिभावक का सम्मान पाए. स्त्री का अविवाहित माँ बनना एक दुर्घटना हो हो, और अगर बन भी जाय तो अपमान का सबब हो. स्त्री के पास सिर्फ आत्महत्या, गर्भपात, और प्रायोजित शादियों से बेहतर विकल्प हो. उसी तरह विवाहित स्त्री का माँ बनना या बनना भी सामाजिक दबाव का परिणाम हो. माँ और बच्चे का जो सम्बन्ध है वों सिर्फ उनकी अपनी भावना से ही तय हो, और वों उनके जीवन सबसे बड़ा उत्सव हो.

चोखेर बाली पर अनुराधा पूछती है निरुपमा के बहाने अब एक बार अपने भीतर झांकें, प्लीज़! और कहीं से फेसबुक के हवाले ये कहती है कि शायद निरुपमा के लिए मात्र्तव एक चुना हुआ फैसला न था, और उसे किस तरह से हेंडल किया जाय इसकी समझ न थी, और आस-पास इस तरह का कोई सपोर्ट सिस्टम भी नहीं रहा होगा, झूठ सच जो भी हो अगर उसने अपने प्रेमी को भी अपनी स्थिति नहीं बतायी तो ये कुछ गहरे सवाल ज़रूर खड़े करता है। वों सवाल है स्त्री की सामाजिक शिक्षा का, स्त्री कैसे सशक्त हो, उसे ठीक समझ हो अपने शरीर की, अपनी इच्छाओं की भी और इसके लिए हमारे समाज में सार्वजानिक संसाधन हो जहां कोई मदद के लिए जा सके, या फिर स्त्री शिक्षित हो, अपने बारे में. मात्र्तव उसके लिए दुर्घटना न बने, माता बनने और माँ न बनने के जो पारिवारिक और सामाजिक दबाव स्त्री पर लगातार बने रहते है, उनसे पार पाए. कम से कम इस बहस और ब्लॉग की बहसों से इतना तो समझ में आता है कि योन शुचिता की एक विचार के बतौर सामाजिक सोच पर कुछ पकड़ कम हुयी है। और दकियानूसी, स्त्री विरोधी, लोग भी आज गर्भ-निरोधक उपायों के इस्तेमाल को, अनचाहे मातृत्व से बेहतर मानते है. सवाल लेकिन सिर्फ माँ बनने और नहीं बनने का नहीं है, सवाल ये है कि क्या स्त्री एक सम्पूर्ण मनुष्य है? या उसका शरीर और उसकी योनिकता का मालिक कोई दूसरा है? पिता, पुरुष या समाज? और जब तक ये सवाल नहीं सुलझाया जाएगा, स्त्री को एक सम्पूर्ण मनुष्य की गरिमा नहीं मिल सकती.