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Dec 14, 2008

भारत यात्रा- तस्वीर पर कुछ पैबंद


पिछले कई महीनो से पैर थमने का नाम नही लेते, और कई तरह की यात्राओं के बीच तकरीबन ढाई हफ्ते की भारत यात्रा भी बस आज ख़त्म होने को है। हर बार की तरह इस बार भी बदलते भारत को समझने की एक सतही जद्दोजहद मेरे मन मे चलती रही, और रेफेरेंस के तौर पर वों भारत मेरे सामने बार-बार आता रहा, जो कुछ सालों पहले पीछे छूट गया, और अब हर बार चंद दिनों मे जो भी मानस को नया लगता है, उसी तस्वीर को बनाने -बिगाड़ने का समान बन जाता है। सब जगह कितने असंगठित कलाकार है, जिनके लिए इस नयी ग्लोबल अर्थ व्यवस्था मे एक नयी ज़मीन तलाशी जा सकती है, अगर उनको थोडा सा प्रशिक्षण दिया जा सकता, एक बड़ी फलक पर कई संभावनाए सामने आ सकती है.

कई किस्म के लोगो से इस बीच मुलाक़ात हुयी, और काफी बातचीत भी हुयी। ख़ास तौर पर अपनी एक ७० साल की बुआ से बात करके बड़ी गहराई से ये बात महसूस हुयी कि एक अनपढ़, बहुत साधारण और बूढी स्त्री का मानस भी लोकोक्तियों मे, कबीर और रहीम के दोहो मे, भगवत पुराण की कहानियों मे कही न कंही अपने अस्तित्व का और उसको समझने , उसे विस्तृत करने का प्रयास करता है। शायद कोई मुझे कभी इस विषय पर निबंध लिखने को कहता तो सूर, कबीर, वेदव्यास जैसे कितने ही नामो के सहारे मैं लिख लेती। पर दिल की गहराई से पहली बार मुझे ये समझ मे आया।
इस यात्रा मे खासतौर पर शहरों और महानगरो मे एक नयी और परोक्ष जाति -व्यवस्था भी उभरती नज़र आयी। खासतौर पर उन दो तबको के बीच जिनमे से एक के पास बहुत कुछ है, और दूसरे के के पास बड़ी मुश्किल से गुजारे का साधन। आर्थिक पहलू से बना ये विभाजन पहले भी था, और भारत के अलावा दूसरे देशो मे भी है। इसे जाति व्यवस्था मैं इसीलिये कह रही हूँ, क्योंकि पहले जो त्रिस्क्रित व्यवहार अछूतों के लिए था, अब गरीब आदमी के लिए है। महानगरो के निवासी अपने घरो मे काम करनेवाली, ड्राईवर, माली आदि को एक आदमी के वजूद से कमतर नज़रिए से देखते है। और कई तरह के कामो को भी उन्होंने अपने वर्ग और अपने अभिमान का विषय केन्द्र मे रखकर इस तरह से बाँट लिया है, की कुछ काम उनकी इज्ज़त को कम और दूसरे उनकी इज्ज़त को बढ़ा देते है। अपने द्वारा जनित कचरे को ठिकाने लगाना अब भी कमतर समझा जाता है। इसीलिये शहर-गाँव मैदान सब कचरे का ढेर है।
तीसरा बड़ा ही हास्यास्पद और दू:खदायी पहलू है लगभग सभी वर्गों का सिर्फ़ मात्र एक उपभोक्ता बन जाना। एक ऐसा उपभोक्ता जिसकी समझ सिर्फ़ नए से नए समान को एकत्र करने मे है, बिना ये समझे कि इसकी ज़रूरत क्या है, और कभी -कभी इन चीजों का सही इस्तेमाल क्या है। इसीलिये घड़ी एक समय को ट्रैक और मैनेज करने का टूल न बनकर जेवर बन जाती है, और कैसरोल रेफ्रीजरेटर मे खाना रखने के डिब्बे मात्र। बड़ी मार्के की बात है कि जिस समाज की सोच से नए आविष्कार जन्म नही लेते, और सिर्फ़ जहा नए उत्पादों को बेचने का एक बड़ा बाज़ार है, वहाँ निजी और सार्वजानिक तौर पर संसाधनों का क्षय होता है।

Oct 23, 2008

वेलकम टू सज्जनपुर :फ़िल्म


श्याम बेनेगल की कोमेडी फ़िल्म "वेलकम टू सज्जनपुर" मेरी राय मे पिछले कुछ सालो मे बनी हंसोड़ फिल्मो मे बेजोड़ है। बड़ी बखूबी से बुने ताने-बाने एक बड़ा रंगमच तैयार करते है, और व्यवस्था पर कटाक्ष  भी बड़ी आसान से हो जाता है। फिलहाल काफी मज़े की है और देखने वाला कई बार हंसते-हँसते कुर्सी से गिर सकता है। इसीलिये सावधानी बरते!!
पूरी फ़िल्म का सूत्रधार एक गाँव का पढा-लिखा बेरोजगार युवक है जो गाँव लौटकर लोगों  के लिए चिठ्ठी लिखने का धंधा करता है, और उसी के ज़रिये कई लोगों के जीवन मे झांकने का अवसर दर्शको को मिलता है। एक दृश्य यहाँ से लिया गया है। परम्परा , राजनैतिक गुंडागर्दी , के बीच दो-तीन प्रेम कहानीया है, और मोबाइल फ़ोन और किडनी के व्यापार का नया तकनीकी पहलू भी है, जो इस जमीन से जुड़ गया है।

Oct 8, 2008

युमा सुमेक : एक गला अनेक आवाजे

युमा सुमेक पेरू की एक बहुत ही अदुत गायिका थी, जिन्हें उतनी प्रसिद्धी अपने जीवन मे नही मिल पायी। युमा के स्वर मे एक बहुत बड़ी रेंज है, जिसमे कभी ये आवाज़ मानवीय है, सुरीली है, और वही बड़ी आसानी से मानवीय आवाज़ के इतर भी आवाजाही करती है, जंगली पक्षियों, जानवरों, और प्रकृति की विभिन्न धव्नियो को भी उनके गले से सुनना अपने आप मे एक अनुभव है, और मानव के स्वर सामर्थ्य की सीमा तक पहुँचना भी है।




Sep 21, 2008

दादी-दादा की कहानी-3

दादी की कहानी शुरू करने का मेरा कोई प्लान नही था। पर अब भी अक्सर बचपन के घर के सपने आते है। कई दिनों के बाद सपने मे फ़िर दादी के साथ लंबा समय बिताया। ब्लॉग खोलकर देखा तो ख़ुद -ब -ख़ुद दादी की कहानी शुरू हो गयी। समय की बंदिश, है, पर कुछ सार मे लाल्बोलुबाब ये है, की दादी आज भी हम सब की स्मृति मे चंडीरूप ही है। बहुत सशक्त , घर परिवार मे उन्होंने अपने सौतेले बच्चे, जेठ के बच्चे और अपने ६ बच्चे संभाले। और घर परिवार तक ही सीमित भी नही थी, खेती मे, जंगल से लकडी लाना, पानी लाना, हर तरह के काम मे उनका सहयोग बराबर ही था। मेरे दादा ख़ुद बेहद मेहनती थे, १४-१६ घंटे रोज़  घर-बाहर काम करते थे। पर शाम के समय खाना खाने के बाद घर के सभी सदस्यों को उनकी अंगीठी के चारो तरफ़ झुंड लग जाता था। और और गीता, भागवत, पुराण और कई तरह के श्लोक, कविता पाठ सबके लिए करते थे। बेटिया, बहुए, उनकी पत्नी, बच्चे, अक्सर गाव के दूसरे लोग भी रोज १-२ घंटे इसमे शामिल रहते थे।
कड़क मेहनत के बाद, खेती, जानवर आदि देखने के बाद भी मेरे दादा अपना दिन सुबह १-२ घंटे की एकांत रामायण पाठ से करते थे। और कुछ जानकारी उन्हें पहाड़ मे पायी जाने वाली जडी -बूटियों की भी थी। डॉक्टर के अभाव मे दूर-दूर तक के गाँव वाले उन्ही का सहारा खोजते थे। साँप के काटे लोगो को बचाने का जिम्मा पूरे इलाके मे उन्ही के पास था। सिर्फ़ सेवा-भाव से ही वों सबकी मदद करते थे, और इसके एवज मे कभी कुछ किसी से नही लेते थे। इस कारण दूर-दूर के गाँव के लोग भी हमारे गाँव को उनके नाम से जानते थे। और खेती के समय, किसी कामकाज के समय, हर वक़्त उनका काम बिन बुलाए कराने को तैयार रहते थे। अपनी जरूरत भर का सामान उन्हें अपनी खेती से मिल जाता था। स्वभाव से बेहद सज्जन , और विनम्र, और बेहद स्वाभिमानी।

मेरी दादी का जीवन से संतुष्टी के साथ जीना इसीलिए भी सम्भव हो पाया होगा क्योंकि दादाजी, उम्र के अधिक होने के बाद भी सज्जन, विनम्र और मेहनती थे। अपनी तरफ़ से जितना बन पड़ता था, सारे काम करते थे। और परिवार के पास भले ही धन न था पर एक बहुत बड़ा मित्रो का दायरा था। बहुत मुश्किलों के बाद भी बेहद हौसला था। फ़िर मौक़ा  लगा  तो  लिखूंगी ।

Sep 20, 2008

दादी का जीवन-2

सोलह साल की उमर मे मेरी दादी ३४ साल के मेरे दादा की पत्नी बनकर घर आयी थी। घर पर कोई महिला न थी। दो बच्चे मेरे दादा के और तीन बच्चे उनके बड़े भाई के थे। कुछ ऐसा इतेफाक हुया की दोनों की पूर्व पत्निया किसी शादी मे भाबर गयी आयर मलेरिया की चपेट मे आकर अचानक मर गयी थी। बड़े भाई नौकरी करते थे, और छोटे भाई यानी मेरे दादा गाँव की जमीन देखते थे। अंत मे ये तय हुया की छोटा भाई दूसरी शादी कर ले, और उसकी पत्नी इन सारे बिन माँ के बच्चों को संभाल ले। दादा के परिवार मे दोनों लोगो ने इस रणनीती को ध्यान मे रखकर मेरी दादी को परिवार मे लाये थे। आस-पास के गाव के लोगो को परिवार के हालत का पता था, सो कोई भी आसानी से अपनी लड़की को इस बोझ तले नही धकेलता। इसीलिये बहुत दूर के गाँव के एक अहमक, जंगलात के अफसर जिसकी बड़ी उम्र की बेटिया थी, उसके सामने मेरे दादा विवाह का प्रस्ताव लेकर गए। मेरी दादी के सगे जीजा ने भी इस रिश्ते को करवाने मे खासी भुमिका निभायी।

शादी के तीन-चार दिन पहले मेरी दादी को बताया गया की उसकी शादी है। शादी की उम्मीद हंसी-खुशी भरे जीवन की ही रही होगी शायद मेरी दादी के मन मे भी, उसे क्या पता था की इसका क्या मतलब है? ससुराल पहुँच कर कितने पत्थर उसके गले लटकने वाले है? किस -किस के हिस्से की जिम्मेदारिया , उसके सारे सपनो और ऊर्जा को सोखने का इन्तेजाम किए बैठी है? और ये कमसिन लड़की इससे बेखबर, थैला भरकर गहने जो उसके पास पंहुचे थे, उन्ही मे खुश हो रही थी। ये गहने भी उन दोनों मृत औरतों के थे जिनके बच्चे उसे जाकर संभालने थे। और सिर्फ़ दो-चार दिन के बाद उसे लौटाने थे। ये कहानी ढेर सी दूसरी औरतों की भी थी, जहाँ मात्र शादी के दिन के लिए गाँव भर के गहने इक्कठे किए जाते और दुल्हन के माँ-बाप को दिखाने के लिए, और घर लौटते ही गहने वापस लौटा दिए जाते। औरतों को इस तरह के धोखे देने की सामाजिक सहमति थी, और शायद आज भी है। मेरे दादा के सदाचार की , भले , उदार मनुष्य होने की साख थी। पर सामाजिक मर्यादा, उसके ताने-बाने, नेकचलनी के कांसेप्ट भी पुरूष-पुरूष के व्यवहार पर ही आधारित है। स्त्री -पुरूष के सन्दर्भ मे तो मर्यादा पुरुषोतम भी मर्यादा खो देते है, और उसका भी यश पाते है.

कभी -कभी मुझे लगता है की शादी -शुदा जीवन हमारे चारो तरफ़ बिखरा है, और कई मायने मे अपने घर परिवारों मे , समाज मे विशुद्द स्वार्थपरता से ये सम्बन्ध तय होते है, पर लड़की जिसकी शादी होनी है, वों न इन फैसलों मे शामिल है, और जिसे एक बड़ा विस्थापन झेलना है, वों शादी-शुदा जीवन के सुनहरे सपनों मे डूबी रहती है। शायद जितना कठिन शादी-शुदा जीवन है, उसके ठीक उलट इसका "विज्ञापन" उतना ही लुभावना है। और ये लोरी से शुरू होकर मोक्ष तक पहुँचने की यात्रा मे सब जगह बड़े उजाले अक्षरों मे है। इतना प्रबल है ये विज्ञापन की ये आस-पास के देखे सच और उसको गुनने की शक्ति को , नष्ट कर देता है.

पिता ने अपनी बचकाना हरकत मे तीन बचन बंधवाये, ये सोचकर की मेरी बेटी की खुशी तय हो गयी। माँ ने जब इतनी बड़ी उम्र के ६ फिट लंबे दुल्हे और अपनी सबसे नाजुक कमसिन लड़की का जोड़ बनते देखा तो बेहोश हो गयी। उसके बिना ही शादी की सारी रस्मे हो गयी और मेरी दादी विदा हो गयी.

Sep 10, 2008

ब्लॉग्गिंग के एक साल : "The argumentive Indians are very much alive here"


पिचले साल सितम्बर मे खेल-खेल मे ये ब्लॉग बनाया था, सिर्फ़ इस उत्साह से की ओनलाईन हिन्दी टाईप की जा सकती है, और मोजिला पर एक पुराने मित्र का ब्लॉग ठीक से पढा नही जा रहा था, उसी समस्या को सुलझाने के लिए, ख़ुद ब्लॉग बनाया। कुछ दिन तक ख़ास समझ नही आया की क्या किया जाय? किसके लिए लिखा जाय? कितना समय इस पर खर्च किया जाय? और इससे हासिल किसी को भी क्या होगा?

इन सवालो के ज़बाब अभी भी ठीक-ठीक नही मिले है, पर बरसों पहले छूट गया डायरी लेखन और ख़ुद से संवाद कुछ हद तक कायम हुया है। ब्लॉग जगत से परिचय हुया और कुछ लोगो का लिखा पढ़ने का चस्का भी लगा। कुछ पुराने जाने-पहचाने नाम कई सालो बाद ब्लॉग जगत मे देखने को फ़िर से मिले। सारी प्रविष्टिया तो नही पढ़ सकती पर फ़िर भी जब भी मौका मिलता है, "एक हिन्दुस्तानी की डायरी, टूटी -बिखरी, कबाड़खाना, ठुमरी, उड़न -तस्तरी , घुघूती-बासूती, पहलू, चोखेर बाली, नारी, शब्दों का सफर, और सुनील दीपक जी के ब्लोग्स नियमित पढ़ती हूँ।

बाकी, "गाहे-बगाहे" के विनीत मुझे अपने विधार्थी जीवन मे वापस ले जाते है, मिनाक्षी जी की कविताएं, कई अनुभूतियों को जगाती है, रियाज़ उल- हक , दीलीप मंडल जी,अफलातून जी, के ब्लोग्स सोचने की सामग्री भी देते है। तरुण और काकेश वापस घर की याद दिला देते है। और भी कई ब्लोग्स को बीच-बीच मे देखने -पढ़ने का अवसर मिला, सब का नाम लेना यहाँ असंभव है। यही कहा जा सकता है, की ब्लॉग जगत एक समग्र आईना है, भारतीय समाज का, कोई पहलू और दृष्टिकोण इसमे छूटा नही लगता, एक धरातल पर कई तरह की जद्दोजहद। शायद इसी जद्दोजहद से आपस मे सभी को कुछ सीखने को मिलेगा। "The argumentive Indians are very much alive here".

तीन लोग जिन्हें पढ़ने की इच्छा रहती है, आजकल गायब है, काकेश, चंद्रभूषण और मनीषा पाण्डेय, अगर कही ये लेख पढ़े तो आप लोग समय मिले तो ब्लॉग पर ज़रूर लिखे, ऐसी मेरी विनती है। आप तीनो लोगो को पढ़ना अच्छा लगता है। असहमति कई बिन्दुओ पर हो सकती , फिर भी आप के लिखे का इंतज़ार रहता है।

इस महीने दस साल पुराना आशियाना छोड़ा है, और नई नौकरी, नया घर, नया शहर, अपनाया है, सो समय कभी कभार ही लिखने का मिलेगा, पर पढ़ने की गुंजाईश किसी तरह निकालती रहूंगी। ले दे कर यही एक जीवंत संवाद मेरा "Vibrant India " से बचा है। और शायद कुछ हद तक ब्लॉग्गिंग के मायने , और यह्ना समय नष्ट करने का मुआवजा भी यही है।
मेरे ब्लॉग पर आने वालो का धन्यवाद.

Sep 6, 2008

कुछ और समय तक आप सब से बातचीत न हो सकेगी.

प्रिय ब्लोगर मित्रो,
व्यक्तिगत व्यस्तता के चलते, कुछ और महीनो तक आप सब से बातचीत न हो सकेगी। फ़िर भी कोशिश होगी की यदा-कदा आप सबका लिखा पढती रहूँ और टिप्पणी के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहूँ।

मेरे ब्लॉग पर आने वालो का धन्यवाद और हिन्दी ब्लॉग पर अच्छा लिखने वालो का भी.

Jul 30, 2008

एक पुराकथा

आप सब के साथ एक इमेल पर आयी कहानी बांटती हूँ। चुटकी लेने के लिए बुरी नही है.
Young King Arthur was ambushed and imprisoned by the monarch of a neighboring kingdom. The monarch could have killed him but was moved by Arthur's youth and ideals. So, the monarch offered him his freedom, as long as he could answer a very difficult question.
Arthur would have a year to figure out the answer and, if after a year, he still had no answer, he would be put to death.The question?....What do women really want?

Such a question would perplex even the most knowledgeable man, and to young Arthur, it seemed an impossible query. But, since it was better than death, he accepted the monarch's proposition to have an answer by year's end.He returned to his kingdom and began to poll everyone: the princess, the priests, the wise men and even the court jester. He spoke with everyone, but no one could give him a satisfactory answer.Many people advised him to consult the old witch, for only she would have the answer. But the price would be high; as the witch was famous throughout the kingdom for the exorbitant prices she charged.
The last day of the year arrived and Arthur had no choice but to talk to the witch. She agreed to answer the question, but he would have to agree to her price first.

The old witch wanted to marry Sir Lancelot, the most noble of the Knights of the Round Table and Arthur's closest friend! Young Arthur was horrified. She was hunchbacked and hideous, had only one tooth, smelled like sewage,
made obscene noises, etc. He had never encountered such a repugnant creature in all his life.He refused to force his friend to marry her and endure such a terrible burden; but Lancelot, learning of the proposal, spoke with Arthur.He said nothing was too big of a sacrifice compared to Arthur's life and the preservation of the Round Table. Hence, a wedding was proclaimed and the witch answered Arthur's question thus:
What a woman really wants, she answered....is to be in charge of her own life.
Everyone in the kingdom instantly knew that the witch had uttered a great truth and that Arthur's life would be spared.
And so it was, the neighboring monarch granted Arthur his freedom and Lancelot and the witch had a wonderful wedding. The honeymoon hour approached and Lancelot, steeling himself for a horrific experience, entered the bedroom. But, what a sight awaited him. The most beautiful woman he had ever seen lay before him on the bed. The astounded Lancelot asked what had happened.
The beauty replied that since he had been so kind to her when she appeared as a witch, she would henceforth, be her horrible deformed self only half the > time and the beautiful maiden the other half.
Which would he prefer? Beautiful during the day....or night?Lancelot pondered the predicament. During the day, a beautiful woman to show off to his friends, but at night, in the privacy of his castle, an old witch? Or, would he prefer having a hideous witch during the day, but by night, a beautiful woman for him to enjoy wondrous intimate moments?

What would YOU do?What Lancelot chose is below. BUT....make YOUR choice before you scroll down below. OKAY?.........Noble Lancelot said that he would allow HER to make the choice herself.Upon hearing this, she announced that she would be beautiful all the time because he had respected her enough to let her be in charge of her own life.Now....what is the moral to this story?.........
Scroll down...
...
The moral is..... If you don't let a woman have her own way....
Things are going to get ugly!

Jun 13, 2008

प्रोफेसर डी. डी. पंत जी को श्रदांजली

प्रोफेसर डी. डी. पंत जी को श्रदांजली
प्रोफेसर डी. डी. पंत जी का निधन ११ जून को, लगभग नब्बे साल की आयु में हलद्वानी में होने की सूचना कई मित्रो से मिली है। पन्त जी एक जाने माने भोतिक-विज्ञानी थे, और बहुत से पदों को सुशोभित करने के बाद वों कुमाऊं विश्वविधालय के कुलपति बने। उनके जीवन के बारे मे एक बहुत अच्छा लेख मेरे पुराने मित्र श्री आशुतोष उपाध्याय, जो पन्त जी के छात्र भी रहे है, ने अपने ब्लॉग बुग्याल पर पिछले साल सितम्बर मे बड़ी आत्मीयता से लिखा था। फिलहाल उससे ज्यादा जानकारी पन्त जी के बारे मे मेरे पास नही है। और न ही व्यतिगत स्तर पर पन्त जी से मेरी उस तरह की जान पहचान रही है। आशुतोष के लेख के साथ अगर एक और लेख उनके कोई भूतपूर्व छात्र लिखते जिसमे पन्त जी के काम के बारे मे, उनके सारे पर्चो के रेफेरेंसस आदि का एक संकलन बना पाये तो ये पंतजी के लिए एक सच्ची श्र्दान्जली तो होगी ही, पर बहुत से विधार्थियों के लिए भी एक अच्छा रिसोर्स होगा.पन्त जी को एक साधारण छात्रा की तरह मेने नैनीताल केम्पस मे तीन साल मे कई बार सुना। किसी बड़े मंच पर नही, पर ढेर से छोटे -छोटे कमरों मे, कई तरह के छोटे और बहुत ही छोटे स्तर के प्रोग्रामो मे। कभी "दृष्टिकोण " नाम के स्टडी सर्किल मे , कभी किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के दरमियाँ, कभी हॉस्टल और इंटर-हॉस्टल जैसी छोटी -मोटी पहल के दौरान। किसी भी सकारात्मक पहल के लिए, चाहे वों कितनी ही छोटी क्यों न हो, पन्त जी हमेशा केम्पस के बच्चों के साथ होते थे।उस जमाने मे पन्त जी रिटायर्ड "प्रोफेसर एमेरिटुस " थे, परन्तु शायद किसी भी दूसरे फुल टाइम प्रोफेस्सर से ज्यादा सक्रिय थे, उनकी उन दिनों की प्रयोगशाला मे भी बेहतरीन काम हुआ, और उसी लैब के नाम से नैनीताल केम्पस की बाहर के एकादमिक सिर्किल मे एक इज्ज़त के साथ पहचान थी। इसका इल्म मुझे नैनीताल छोड़ने के के बाद हुआ, और अब भी उस प्रयोगशाला के जिक्र बिना DSB केम्पस का रेफरेंस अधूरा सा रहता है।पन्त जी की यादे मेरे मानस मे एक ऐसे अध्यापक की है, जिसने शिक्षा को क्लास रूम से आगे, और पाठ्यक्रम से आगे जा कर देखा, और एक बड़े छात्र समुदाय को जीवन के विभिन्न क्षेत्रो मे आगे बढ़ने का होसला दिया, एक कोहरे और बारिश मे डूबे, रोमानी शहर मे.
Posted

May 12, 2008

Purple Hibiscus-A novel by Chimamanda Ngozi Adichie



Purple Hibiscus एक युवा नाईज़ीरीया की लेखिका Chimamanda Ngozi Adichie का लघु उपन्यास है।
Enugu, Nigeria, मे ये कहानी शुरू होती है, जिसकी कहानी एक पन्द्रह साल की लड़की के आसपास घूमती है, उसके घर के बंद माहोल, खुले बगीचे के बीच, और एक ऐसे पिता की निगरानी मे जो घर के बाहर लोगो की मदद करने के लिए और राजनीती मे अच्छे दखल के लिए जाना जाता है। वही पिता घर पर कैथोलिक धर्म की मान्यता को लेकर बहुत रूढ़ है और अपने ही परिवार की आज़ादी का दुश्मन, घर पर बहुत बंद माहोल का सृजक। अपनी पत्नी और बच्चों को बुरी तरह से मारपीट से अपने कट्टरपंथी रास्ते का अनुयायी बनाने वाला। ऐसे मे दो किशोरवय के सहमे बच्चे इस कहानी मे दाखिल होते है।
ये कहानी एक राजनीतिक परिदृश्य मे भी है, जो नाईज़ीरीया मे सैनिक शासन के पहले शुरू होती है, और उसके बाद मिलिटरी कू और बाद के सामाजिक -राजनैतिक माहोल मे आगे बढ़ती है। इसी माहोल मे दो किशोर भाईबहन अपने पिता के घर से अपनी मौसी के घर जा कर रहते है। इस घर का खुला माहोल, गर्मजोशी से भरा माहोल, इन दोनों बच्चों के जीवन को नए आयाम देता है।
एक बड़े पटल पर लिखी पारिवारिक कहानी अपने आप मे बचपन, बचपन और किशोरवय के संक्रमण की कहानी
एक कविता की तरह कहती है। और साथ ही ये आज़ादी और आज़ादी के सपने की कहानी भी है, प्यार और नफरत की, नए और पुराने प्रतिमानों की भी। सामाजिक संघर्ष के परिवेश मे एक किशोर मन के आत्म संघर्ष की।
एक सेम्पल यहाँ पढे

Apr 9, 2008

खांचे मे बन्द चिड़चिड़ी औरत और समाज की सुविधा

सुन्दर, सलौनी, लड्किया के एक चिड़चिड़ी औरत मे बदलना, एक सामाजिक परिघ्टना है। जीवनसाथी का ज़बरन थोप दिया जाना, लागातार एक विस्थापित व्यक्ति की तरह ससुराल मे रहना, लगातार, मेहनत वाले, उबाऊ काम, जीवन मे एकरसता, सन्युक्त परिवार के दबाव, आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा, ये सब मिलकर बनाते है एक चिड़चिड़ी औरत.


सुजाता ने भारतीय समाज की पारिवारिक संरचना पर कुछ सवाल उठाये है, गृहस्थी का बोझ और उसका संत्रास भी स्त्री के हिस्से मे ज्यादा क्यो है? स्त्री चाहे काम् काज़ी हो य फिर ग्रिहस्तन, घर के काम उसके लिये ओप्शनल नही

एक मत यह भी आया कि अगर स्त्री घर सम्भालने मे नाकाबिल है तभी परेशानी होती है, और इसका एक उपाय एक नौकरानी रख लेना हो सकता है। इस तरह की प्रतिकिर्या, एक सिरे से हमारे समाज मे स्त्री-पुरुश की असमानता को जायज़ ठहराती है, य्थास्थिति की पक्षधर होती है और एक सामाजिक संरचना और इतिहासिक प्रिष्ठ्भूमी से उपजी मानवीय समस्याओ को निहायत व्यक्तिगत स्तर पर लाकर खारिज कर देती है.

रचना की तिप्पणी वही कथनी और करनी को मिलाने की ख्वाहिश को अभिव्यक्त करती है, और कहती है कि जितना भी ज़ोर लगेगी ये सुरत बदलनी चाहिये. और महिलाये, खासतौर से सिर्फ बात की बात बनाने तक सीमीत न रह जाय.

मुझे लगता है कि सुजाता और रचना दोनो की बाते, दो ज़रूरी बाते है, और एक मायने मे एक दूसरे की पूरक भी. सुविधासम्पन्न, और पढी-लिखी महिलाये, आज जहा पहुंची है, जितनी भी मोल-भाव की ताकत हासिल कर सकी है, सिर्फ व्यक्तिगत स्तर् पर ही स्त्री-मुक्ती का सवाल खत्म नही हो सकता. व्यक्तिगत स्तर पर ही मुक्ती की बात करना, और सिर्फ व्यक्ति को ही उसकी गुलामी, उसकी किस्मत, उसके दुख के लिये जिम्मेदार बना देना, एक मायने मे स्त्री-मुक्ति के सवाल् को बेमानी करार देना भी है. इसमे कोई दुविधा नही है कि ये एक बडा सामाजिक सवाल है, और समाज की संरचना को प्रश्न के दायरे मे लाना निहायत ज़रूरी भी है।

मनुष्य की सही मायने मे मुक्ती, चाहे वो स्त्री हो, पुरुष हो, और इस प्रिथ्वी के दूसरे प्राणी और यन्हा तक कि हवा-पानी भी प्रदूषण मुक्त तभी हो सकते है, जब इस धरती के बाशिन्दो मे एक समंवय हो, और किसी का अस्तित्व, किसी का सुख किसी दूसरे के दुख के एवज मे न मिला हो।
चुंकि हम एक ऐसे समाज मे रहते है, जो आज स्त्री के पक्ष मे नही है, और यहा रहने न रहने का चुनाव भी हमारा नही है. हम सिर्फ इतना कर सकते है, कि एक घेरे को और एक बन्द कमरे को जहा हमने, कुछ सामान जुटा लिया है, अपनी अनंत आज़ादी का आकाश समझ कर इतरा सकते है, जहा कभी सुरज की रोशनी नही आती।

दूसरा रास्ता ये हो सकता है, कि हम से जो भी बन पडे, इस समाज के समीकरण बदलने के लिये, वो करे. ज़ितना बन सके उतना करे. हर एक व्यक्ति की अपनी सुविधा और सीमा हो सकती है। इस दूसरे रास्ते की तलाश मे एक चीज़ जो अहम है, वो है इमानदारी, कथनी और करनी मे. और जो भी इन समीकरणो को बदलने की कोशिश करेगा, उसे गजालत तो उठानी ही पडेगी, कोई उसे सर -आंखो पर नही बिठाने वाला।

और जो लोग इन खतरो को जानकर, सचेत तरीके से उठाते है, वही समाजिक चेतना की अगुवाई भी करते है. मानव समाज पाषाण-युग से यहा तक इन्ही धीमे बद्लाओ के बाद पहुंचा है, और लगातार बदलेगा. एक समय् का लांछन दूसरे समय और काल मे उपाधि बन सकता है। और संकर्मण के दर्मियान बदलाव से ज्यादा कभी -कभी बद्लाव की बाते सुविधाजनक हो जाती है, क्योंकि उनके लिये कोई कीमत नही चुकानी पड्ती. और इसीलिये, इस पहलू पर रचना की बाते, बहुत ज़रूरी है

Apr 4, 2008

प्रवासी पहाडी होली

उत्तराखंड मे होली करीब महीने भर चलने वाला त्यौहार है, और एक ख़ास सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी है। उत्तराखंड से आने वाले प्रवासी भारतीयों ने अपने ढंग की होली वतन से दूर, अपने तरीके से मनायी। इसका आयोजन उना ने किया । एक प्रस्तुति यू-टूबपर
कुछ तस्वीरे




रंगोली

























khaDee होली











होली बैठक


चंद बर्फानी तस्वीरे


बहुत दिनों से समय की तंगी है, कुछ लिख नही सकी। कुछ तस्वीरे अपने आस-पास की। पिछले छ : महीने से इसी आलम मे रहने के बाद मौसम से शिकायत है। अब धुप के लिए और ताप की ख्वाहिश है, फूलों का, पत्तो का इंतज़ार है।

बर्फबारी के बाद , पिघलने की कगार पर













एक सुबह मार्च की














एक शाम मार्च २००८ की

Mar 26, 2008

आकाश, बादल और कुदाल



बचपन के कुछ दिन गाँव मे बीते, पत्थर की स्लेटो की छत , दुमंजिला पत्थर और मिट्टी का घर, आगे जंगला। घर का सबसे बढिया भाग मेरे लिए हमेशा जंगला ही रहा, खुला हुआ , जहाँ बैठकर घाम (धुप) तापा जा सकता है, दिन भर। और सामने दूर-दूर तक के पहाड़ देखे जा सकते है। नीचे की तरफ सीढीनुमा बगीचे, खेत, और फ़िर चीड़ का घनघोर जंगल। सर के ऊपर खुला हुआ आसमान, जो कई आकारों के बादल, रोशनी, और रंगो के तिलिस्म जैसा था। रोज़-ब-रोज़ नए रूप रंग मे, और बहुत दूर ऐसा लगता था की सामने वाले पहाड़ से जाकर मिला हुआ।

बालमन की छवी मे एक छवी ये भी थी की देवी-देवता, मृत और पितर भी आकाश मे ही कही रहते है। अक्सर आकाश मुझे एक झीने परदे जैसा दिखता और बादल मिलकर कई तरह के चहरे बनाते, जो उस परदे मे से झांकते हुए प्रतीत होते। मन मे बड़े होने की हूक कई बार ज़ोर मारती जिसका उद्देश्य होता, सामने वाले पहाड पर एक कुदाल लेकर जाना और आकाश को खोदना, ताकी उसके पीछे से झांकते चेहरों वाले देवी-देवता और पितरो को आजाद किया जा सके। उनसे बात की जा सके।


गरमी की राते भी गए देर तक जंगले मे बीतती थी। खुला आसमान, घुप्प अँधेरा और तारो भरी वैसी राते, चांदनी राते और ढेर सी पुरानी बातें, मेरे मन मे आज भी किसी आदिम स्मृति की तरह है।



Feb 19, 2008

क्या जूते मारना छेड़छाड़ रोकने का सही समाधान है ?

पारुल ने गाहे-बगाहे बच्चियों और औरतों को जिस तरह, verbal, physical, emotional, ताडन रोज़-रोज़ झेलना पड़ता है, उसी पर मन की बात लिखी। मुझे नही लगता की कोई भी इस ताडन से बच निकलने का अपवाद है। उत्तर भारत मे ये बहुत ज्यादा है, पर बाकी हिस्सों मे भी है। कही कम कही ज्यादा। औरतों के प्रति इस तरह की हिंसा मे समाज के हर वर्ग के पुरुष शामिल है, इसमे पढाई-लिखाई, जाती-धर्म, कोई बाधा नही।इसी मुद्दे पर मेने पहले भी अपने कोलेज के दिनों के संस्मरण किस्साये-कैंटीन-३ मे ज़िक्र किया है, और इसी असुरक्षा के माहौल मे किस तरह से हमारे सभ्य कहे जाने वाले ज्ञान के मंदिरों, विश्व्विधालयों मे भी लड़किया वहा alien बनी रहती है। कैंटीन जैसी सार्वजनिक जगह से भी निष्कासित रहती है। प्रेमचंद की लिखी पार्क वाली कहानी आज ५०-६० साल बाद भी समसामायिक है.हम मे से हर कोई अपने अपने समाधान निकलता है, जैसे पारुल ने निकाला, एक ऐसे जानवर को पीट कर, इस भरोसे की पीछे पति खडा है, बात बिगडी तो संभाल लेगा। अधिकतर लड़कियों के पीछे कोई खडा नही होता, बात संभालने के लिए। फ़िर आप शहर के हर नुक्कड़ पर अपने साथ किसी bodyguaard को लेकर घूम नही सकते। अब अगर साथ मे दो दो bodyguard भी हो तो बचना मुश्किल है, ये हमे नए साल मे हुयी मुम्बई की घटना ने बता दिया है। अब लड़कियों को छुप के छेडने kaa samay बीत गया है। भारत प्रगति पर है, अब ये एक सामूहिक आयोजन है। आसाम की राजधानी की सड़को पर भी दिन दहाड़े इस तरह की हरकत होती है, सरे आम। बुद्धीजीवी मीडीया कर्मी निर्वस्त्र भागती एक बच्ची की तसवीर खींचते है, आख़िर कैसे बनेगे अच्छे पत्रकार ? यही तो मौका है। मदद करने जायेंगे तो फोटो कैसे खीचेंगे, सुर्खियों मे कैसे आयेंगे, उनके चैनल्स किस तरह सफल होंगे? इसीलिए अपने भीतर के एक जिम्मेदार शहरी को मारकर, एक ऐसे इंसान को मारकर जो दूसरे के लिए मदद का हाथ बढ़ा सकता है, ही तो सफलता मिलाती है। पलएन एंड सिमपल .......हमारे समाज की नैतिकता यही पर उलझी है, की जिन महिलाओं के साथ इस तरह की हरकत होती है, वों अपने पहनावे से, अपने हाव-भाव से, इस हादसे के लिए कितनी जिम्मेदार थी? क़ानून, पुलिस, कोर्ट ये बाद की बातें है.पर आम लोगो मे , और एक बड़े समाज के हिस्से मे , इन हरकतों को अपराध न मानना और उसके लिए तर्क कुतर्क इस हद तक ढूंढ निकालना की पुरुषो के होर्मोनेस उनके वश मे नही, स्त्रिया उदीपन के लिए जिम्मेदार है, हमारे महान भारतीय संस्कृति का काला चेहरा दिखाने के लिए काफी है। जानवरों मे कभी किसी मादा के सामूहिक बलात्कार की कोई घटना, फिलहाल तो मेने न कभी पढी न नेशनलजेओग्रफिक पर आज तक देखी है।क्या जानवरों के नर अपने होर्मोनेस पर आदमी से ज्यादा वश रखते है ? प्रकृति मे हर जाती का नर यहां तक की फूल -पोधे भी बड़ी रचनात्मक तरीके से मादा को लुभाते है। इसीलिए कम से कम होर्मोनेस वाला समीकरण तो बहुत ही हास्यास्पद है। इसीलिए बात को आगे बढाते हुए मैं फ़िर से कहूंगी की ये एक ख़ास तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक समीकरणों से उपजी समस्या है, और इसका अन्तिम समाधान भी एक सजग समाज की भागीदारी और सक्षम क़ानून से ही सम्भव है। जब तक लोग खंड-खंड मे व्यक्तिगत समाधान ढूँढने के लिए अभिशप्त है, और हमारे समाज मे किसी तरह का सपोर्ट सिस्टम नही है, हर तरह के व्यक्तिगत समाधान सही ही है, जिनमे इग्नोर करना , रास्ता बदलना भी है। जिस तरह के परिवेश मे हम लोग बड़े होते है, अक्सर इस तरह की हिंसा की शिकार लड़की, को उनका परिवार, और समाज बार -बार कटघरे मे खडा करता आया है, और एक व्यक्तिगत परेशानी मे तब्दील कर देता है। हालाकि एक बड़े सामाजिक स्तर पर ये घटना रोज़ होती है। ये सब मैं अपनी व्यक्तिगत कायरता, या कम हिम्मत की वजह से नही कह रही हूँ। और सिर्फ़ व्यक्तिगत अनुभव के धरातल से ऊपर उठकर कह रही हूँ।