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Dec 10, 2011

सिनेमा की खिड़की: बेतरतीब यादें



सात बरस की उम्र में  पहली फिल्म टेलीविजन पर देखी थी "माया.  बमुश्किल एक दो साल पहले मसूरी में टावर लगने की वजह से ही संभव हुआ था कि कुछ नजदीकी पहाडी शहरों में लोग टीवी देख सकें. टीवी की चलती-फिरती तस्वीरों का कस्बाई और ग्रामीण समाज में कोतुहल था. सिनेमा के परदे पर फिल्में देखने वालों के लिए भी. लेंसडाउन में तब सिर्फ किसी एक घर में टेलीविजन था, और सिर्फ कोतुहल में ही लोग कुछ मिनट से लेकर कुछ घंटों तक टीवी वाले घर में चले जाते. जान पहचान जरूरी नहीं थी. इतवार की फिल्म देखने का निमंत्रण संजोग से उस दिन हमारे परिवार के लिए था. धीरे-धीरे कीड़े मकोडों से स्क्रीन पर दिखते लोगों की कहानी समझ आयी. देवानंद, माला सिन्हा. देवानंद का उसमे नाम शायद श्याम था. मालूम नही था कि फिल्म में और असल जिन्दगी में नाम अलग होते है, कि फिल्म जीवन की सीधी सच्ची कहानी नही होती. बाद के 2 साल तक देवानंद को श्याम की तरह ही पहचानती थी..
क्या बदला सिनेमा ने उस उम्र में, मालूम नहीं, इतना तो हुआ कि एक खिड़की थी फिल्में, अजाने संसार में खुलती, डर, दर्द, जुगुप्सा और खुशी के कुछ कतरे वहां से बालमन में पैठ बनाते.  हकीकत के साथ तालमेल की कोशिश अवचेतन में चलती. बाद के तीन सालों में अनगिनत फिल्में देखी. कुछ फिल्में आवश्यक रूप से दादी के साथ देखीं, सती अनुसूया, अहिल्या, बहुला  टाईप, जिनका सारा खेल औरत की सती, और महासती होने और जीवन भर परीक्षा के नाम पर दुःख झेलने की लम्बी कहानियां थी. दादी से अकसर पूछा कि इन औरतों को क्यों इस तरह परीक्षा देनी पडी? दादी का ज़बाब होता कि पुरुष की मूढमति के कारण जीवन के इतने संकट खड़े होते है. टीवी पर उन दिनों नागिन फिल्म और चित्रहार में "मेरा मन डोले, तन डोले" छाया था, दूसरी भी कई नागिन टाईप की फिल्में. हमउम्र बच्चों के बीच ही नहीं बड़ों की बतकही में भी ये शुमार था कि सांप की आँखे कैमरा  सरीखी होती है, और अगर नाग को मार दिया तो नागिन बदला लेती है. अपने परिवेश में जहां हर बरसात सांप ही सांप नज़र आते थे, स्कूल जाते समय सड़क पर, अचानक से रिक्शे के नीचे पिचकते, कभी लम्बे और अकसर कुण्डली मारे, किचन के पाईप से घुसकर दुमंजिले घर में भी पहुँचते और केले के तने में लिपटे बड़े-बड़े  अजगर. ऊपर से नागिन जैसी फिल्मों के सबक थे कि कभी किसी ने नाग को मार दिया तो नागिन डस लेगी दोहरा भय जगाते थे. बचपन की एक बड़ी उलझन ये भी रहती थी, कि कैसे पहचाना जाय कि कौन वाकई नाग है, और दूसरे रेंगते सांप आखिर कौन से है? फिर ये भी कि नाग और नागिन की ठीक पहचान कैसे हो? क्यूंकि बदला सिर्फ नागिन ही लेती है, नाग बदला नहीं लेता, और क्यूं नहीं लेता?  दादी कहती रही कि सिर्फ नागिन की ही स्मृति तेज़ होती है. नाग को कुछ कहां याद रहता है?  नागिन की कहानी भी सावित्री, सती अनुसूया, बहुला की कहानी का का दूसरा पाठ था. नाग को भी कुछ उसी तरह की सहूलियत रही होगी जैसी अनगिनत सती स्त्रियों के पतियों को थी.

माँ और उनकी सहेलियों के साथ डकैतों-पुलिस वाली, अमिताभ की दीवार, ज़ंजीर, धर्मेन्द्र की क्रोधी या फिर मनोज कुमार की क्रांति, जितेन्दर की कव्वे उड़ाने वाला डांस से भरी फिल्में, शशि कपूर की चौर मचाये शोर, शोले. जीनत अमान और परवीन बाबी, हेमा मालिनी, रेखा. छोटे कस्बाई पहाडी शहरों में, जहां क़त्ल की कोई वारदात १०-२० सालों में एक बार होती थी, वहाँ की शब्दावली में "डान/ स्मगलर" तरह के शब्द किसी एलियन दुनिया की कहानी थे. आसपास उनके जैसा कभी कोई दिखता न था. क्रांति फिल्म देखकर देशभक्ती के ज्वार के चलते शहर में टहलते गोरी चमड़ी के टूरिस्ट पानी भरे गुब्बारों का टार्गेट बने. तब सारी गोरी चमड़ी वाले "अँगरेज़" थे. उनका और कोई देश, कोई नागरिकता, उनके देश भूगोल का हमारे बचपन के मन और आस-पास के बहुत से वयस्कों के मस्तिष्क में कोई साफ़ तस्वीर बनती नहीं थी. "एफिल टावर",  वियना के ओपेरा हाऊस, लंडन ब्रिज, सब सिर्फ अपराध की लोकेशन थी, जिधर एलियन जीव "संगरीला" टाईप कोई गाना गाते. फिल्मों की दुनिया हमारी अपनी पहचानी दुनिया से इतनी अलग थी. सिनेमा हॉल से बाहर कोई और दुनिया थी, अच्छा था सुकूनभरी थी. उसमे वैसी हिंसा, चकमक और असुरक्षा नहीं थी. बचपन में बहुत सीमित गतिविधियाँ  थी, अल्मोड़ा जैसे पहाडी शहर में कुल जमा दो सिनेमाहॉल, ऋषिकेश में तीन, और शायद नैनीताल में भी तीन ही थे, अब भी शायद इतने ही है. सिल्वर स्क्रीन पर देखी सूरतों के मिलान का कार्यकर्म घर में आये किसी मेहमान से लेकर, सड़क पर भीख माँगते भिखारी की सूरत तक से करने के खेल चलते रहते. सिनेमा हॉल में फिल्म देखना लगातार कम होता गया, उसका कोई आकर्षण नहीं बचा, सिर्फ साल में एक या दो. एक सालाना इम्तिहान के बाद , एक कभी बीच में. सिनेमा हॉल के बजाय टीवी फिल्में देखते रहे, राजकपूर की, गुरुदत्त की, विमल रॉय की, मनोज कुमार की, "मुगले आजम", "यहूदी" और दूसरी ऐतिहासिक फिल्मे भी, वही कुछ मन को अचीन्हे आनंद में भिगोतीं थी, इन फिल्मों के सुरीले गाने याद रहते. 

देवानंद की २-४ फिल्मों की जगह जहन में बनी रहेगी, पर सबसे ज्यादा वो सुरीले गानों के मार्फ़त ही याद रहेंगे.



Dec 4, 2011

Poetry Reading

पौड़ी गढ़वाल : मेरे गाँव की तस्वीर
आपाधापी के बीच कुछ समय बहुत चुपके से पोएट्री रीडिंग का भी इस बीच निकला. शुक्रवार को "Literacy Northwest Series" इस सत्र की ख़त्म हुयी, क्रिस एंडरसन के डेढ़ घंटे की कविता-पाठ के साथ. क्रिस  इंग्लिश डिपार्टमेंट में प्रोफेसर है, और कविता पाठ उनके नए कविता संग्रह "The Next Thing Always Belongs" की कविताओं का था. अंग्रेजी के प्रोफेसर  और कवि-लेखक के अलावा क्रिस कैथलिक मिनिस्टर भी है, और चर्च से जुडी गतिविधियों का  हिस्सा भी. पिछली दफे हालांकि उनकी कविता पाठ के बीच जब वो कहे  "ऐतिहासिक यीशु की उन्हें परवाह नहीं" तो कुछ लोग कमरा छोड़कर चले गए. क्रिस की कवितायें उनके जीवन के बीच से उपजी खट्टी-मीठी कवितायें है, दिल को छू कर जाती है, प्रकृति के साथ गहरे लगाव की उपज है. किसी भी तरह का अतिरेक, कोई प्रतिबद्धता उनमे नहीं है, जीवन का ही बड़ा पाठ है. उनकी कुछ कवितायें सुनते हुए मुझे रिल्के की याद हो आयी.  
कविता लिखने और सुधार के मामले में उनका कहना था की लगभग १०० दफे हर कविता को सुधारा  है उन्होंने, मैंने उनसे मज़ाक में कहा  "फिर तो प्रोफ़ेसर कवि पर हावी हुआ", उनका कहना था की कवि ने पिछले ९९ ड्राफ्ट भी फेंके नही, और कभी प्रोफ़ेसर को उलटे रास्ते फिर कवि ले जाता है. कविता के बारे में उनका कहना है की कविता कर्म  लगभग प्रार्थना करने जैसा है, एक स्प्रिचुअल एक्टिविटी, भले ही किसी धर्म से उसका कुछ लेना देना न हो...
मुझे अभी तक अपनी कवितायें पढने का उस तरह का अभ्यास नहीं है, जैसे अपने लेक्चर का, पिछले महीने, डिपार्टमेंट के "Travel Seminar Series" अपना लेक्चर "In the Heart of Himalayas" ख़त्म किया तो कुछ मित्रों ने आग्रह किया की कुछ कवितायें भी पढी जाय. सो दो कवितायें पहले हिंदी में पढी और फिर उनका कुछ इंस्टेंट अंग्रेजी कचर अनुवाद. बाद में "थैंक्स गिविंग के मौके के पर"  कुछ इसी तरह के कचर अनुवाद. अपने मित्रों से कहा की मुझे अंग्रेजी आती नहीं, तुम लोग हिंदी सीखों और अनुवाद करो. अपने से ज्यादा हमेशा मुझे दूसरों की कवितायें अच्छी लगती है, सो सुनने का रस भरपूर मिला...


Nov 28, 2011

"जहाँ तेरे नक़्शे-कदम देखते है, खियाबां-खियाबां इरम देखते है"*


भले ही जियोलोजिकल टाइमस्केल में इंसान की उम्र एक ज़र्रे से भी कम हो, तब भी अपनी कामनाओं, दुश्चिंताओं और अचरज के मिश्रण में जीवन सान्द्र है, सघन है, विरोधाभासी भी.  पृथ्वी भी ऎसी ही है , विपरीत चीज़ों के बीच साम्य का भ्रम खड़ा करती. जैसे पहाड़ और दर्रे (canyons/gorges) बिलकुल एक सा वितान, एक सरीखे, जमीन दरकती है, दर्रे बनते है, और बचा रह गया प्लेट्यू पहाड़ का भ्रम.  फिर टूटते-दरकते पहाड़ लगातार नए दर्रे बनने का सबब बनते है. सबसे ऊँचे पहाड़ और सबसे गहरे दर्रे हिमालय में ही है, पर आम लोगों की पहुँच से बाहर, दुर्गम. बहुत छोटे-छोटे दर्रे मध्य हिमालय में सब तरफ बिखरे हुये, भुरभुरे, भूरे-सिलेटी,  हरे पहाड़ों के बीच, जिन्हें मैं ठीक से पहचानती हूँ. जिन्हें बचपन के और बाद के वर्षों में भी कुछ पैदल नापा है, एक पैर रखने की जगह में, दोनों हाथों से जपकाते हुये जाना है,. कई दफ़े भुरभुरी रेत हाथ में आयी है,. बचपन के दिनों में  दर्रों के बीच चमकती चट्टानों की खानों में चट्टानों को पठाल/स्लेट में ढलते देखा है, जिनसे पहाड़ी घरों की  छत और आँगन बनते.  इन्ही स्लेटों पर आँगन के एक कोने बैठे दादाजी को ज्योतिष गणना करते देखा है, और बड़े कारिज़ के मौकों पर  भोज में बैठे मित्र-संबंधी, बारात की पंगत भी. कोयले से इन पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींची हैं, गंदा करने पर डांट खायी है. उन भोले दिनों में मन के लैंडस्केप की बुनियाद भी ऊबड़-खाबाड़ ही पडी, चोटियों और खड्डों से भरी-भरी....


पिछले कुछ दिन कोलंबिया रिवर गोर्ज में बीते, जो अमेरिकी उत्तरपश्चिमी भूभाग का वो हिस्सा है जो आइसऐज़ के ख़त्म होने के बाद महाजलप्रलय के असर में बना है . आईसएज  के अंत में तेज़ी से पिघलते ग्लेशियर्स के कारण नदियों और झरनों में आयी बाढ़,  तीव्र रफ़्तार से बहते पानी ने ज़मीन का वृहद् हिस्सा दर्रों में तब्दील किया.  जो हिस्सा या तो सीधे पानी से बचा रहा या अपनी ख़ास संरचना के कारण पानी के दबाव को झेल सका वों क्लिफ्फ़ बन गया. जो बह/कट  गया, जो परते पानी में घुल गयी, उनकी जगह खड्ड/ दर्रे बनते रहे. ये प्रक्रिया कई बार हुयी  है. इसके अलावा, बदलते मौसम में बार बार चट्टानों के बीच रिसते पानी का बर्फ़ बनना, फिर पिघलना, फिर जमना, एक अनवरत प्रक्रिया भी चट्टानओं को तोडती है, धीरे-धीरे.  पानी, हवा, से हुये भूक्षरण, ज्वालामुखी और भूकंप से हुये  विध्वंस सबने लाखों-करोड़ों वर्षों में इस विहंगम लैंडस्केप को गढ़ा है. इसे देख कुछ देर आँखें फटी रहती है, मन हक बक होता है हर बार. धरती  अजब अनोखी, जाने किस किस रंग को समेटे है, ठीक ठीक कभी मौका बनेगा कि सतह भर को ही पूरा देख सकूंगी?
 
पहाड़ और दर्रे का साम्य, अजीब खेल करता है.  तेज़ हवा और बहुत तेज़ पानी की मिलीजुली आवाज़, हड्डियों को चीरती ठण्ड बीच हिमालय में कहीं होने का अहसास बनता है, कुछ ही देर को सही, मैं घर से बहुत दूर घर जैसी किसी जगह में पहुँच जाती हूँ. कोस-कोस पर झरने और दरों के बीच बहती नदियाँ. नोर्थवेस्ट की हिमालय से समरूपता यहां के पोधों में भी है; लंबे घने बाँज, फर, चीड, हेमलक, बिर्च, चिनार, और देवदार के सुदूर तक फैले जंगल. हालांकि ये सब अब प्लान्ड फोरेस्ट्री का फल है, प्रकृति की सीधी उपज नही है. न यहाँ, न बहुत से हिमालयी हिस्सों में. उन्नसवीं सदी के मध्य से यहाँ और हिमालय दोनों के नेटिव पेड़ों का भारी मात्रा में कटान हुया है. और जैव-विविधता का नुकसान भी. सिर्फ व्यवसायिक नज़रिए से ही यहाँ तेज़ी से बढ़ने वाले वृक्ष लगाए गए है. फिर भी अमरीका के इस छोर की एशिया के कुछ हिस्सों से समानता है. बहुत से चीन में पाए जाने वाले और हिमालयी पोधों के जीवाश्म (fossil), जॉन डे , ओरेगोन में मिलते है,, और अनुमान है कि ये फोसिल एक तरह से २५० मिलियन वर्षपूर्व  पैनेंजिया के अस्तित्व के महत्त्वपूर्ण प्रमाण है.

क्लाइमेट सामान होने से बहुत से हिमालयी पोधे यहां फलफूल रहे है. आज लंबे घने बाँज, फर, चीड, हेमलक, बिर्च, चिनार, भोजपत्र, और  देवदार के पेड़ों के बीच हिमालय की खुशबू तिरती है. पहली दफ़े जब २००८ में ओरेगोन आयी थी तो जगह जगह सड़क के किनारे, नदी के किनारे, और यहाँ तक कि घर के आँगन में भी हिमालयन ब्लेक बेरी के कंटीले झाड, हिसालू और जगह जगह बुरांश के पेड़ दिखे.  लूथर बरबैंक  ने ब्लेक बेरी के बीज भारत से मंगवाए थे और १८८५ में इसे अमेरिका में इंट्रोड्यूज किया था. आज ब्लेक बेरी , की खेती मुख्यत: ओरेगोन और कैलिफोर्निया के कुछ हिस्सों में होती है. ओरेगोन में दुनियाभर में सबसे ज्यादा  ब्लेक बेरी  उगायी जाती है (~ 56.1 million pounds on 7,000 acres in २००९). कई वर्षों की ब्रीडिंग से ब्लेक बेरी  की ढ़ेर सी उन्नत किस्में ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी ने डेवेलप की है. इसी तरह बुरांश के भी बहुत से रंग लगातार ब्रीडिंग का नतीज़ा हैं. हिमालय में सिर्फ २-३ रंग देखे थे, यहां लाल और सफ़ेद और पीले, नीले , बैंगनी हर शेड में बुरांश और अज़ेलिया के फूल दिखते है. 
नोर्थवेस्ट में रहते हुये बचपन के दिनों के घर की बहुत याद आती हैहालांकि अब घर यहीं है, और बचपन का घर अब अस्तित्व में भी नही है, फिर भी मन भागता है उसी की तलाश में. कितनी दूर जाकर भी कितने पीछे लौटा ले जाता है मन.
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*- ग़ालिब 

Nov 5, 2011

सच और सपने के पार

दुनिया का तसव्वुर उतना ही बनता, जितनी बड़ी देखे की दुनिया होती, देखे-पहचाने लोगों से, चीज़ों से, पेड़-पोधों से,  कीड़े-मकोड़ों से, पंछियों-पशुओं  से... अनुभूती, हमें जाने पहचाने कोनों में, अपनी अपनी आत्म-गुफाओं के सुरक्षा के घेरे में बाँध लेती. मामूली होने से बचाती, उतना ही दुनिया का वितान होता सचमुच की दुनिया का, जिसको हेंडल करने की हमारी सामर्थ्य  होती है.

फिर इस देखे की दुनिया, जाने पहचाने के बीच दुनिया का सपना होता, जो हम सचमुच अपने लिए चाहते होते. जो पढ़ा होता, सुना होता है, तस्वीरों और फिल्मों  के मार्फ़त हमारे संज्ञान में आता. वो अंश-अंश के घालमेल, जागे में,  नींद में भी. सुनी बातें, लिखे शब्द, बुने हुये बिम्ब- सच से बहुत दूर, मायावी, परानुभूति  सपनों  की  ज़मीन बुनती...
बहुत कम लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि सच से दूर,  कोई परानुभूती का अंश अपने साथ दृष्टी भी साथ लाता है. रोज आदत की तरह हमारे जीवन में सहजता से शुमार काम,  आस-पास  रोज देखे जाने वाली चीज़ों  के अपह्चाने सत्य कला उद्घाटित करती है.  अनायास ही किसी कैमरे की नज़र, किसी घनीभूत पीड़ा के स्वर , व्यक्त किसी की छटपटाहट हमें मानो फिर से खुद को मिला देती है. अदेखे की दुनिया ही हमारे लिए सपनों की समान्तर दुनिया बुनती, जिसमे हमारी देखी दुनिया से बहुत बड़ी एक दुनिया है, कई तरह के लोग है,  जितना हम जानते है उससे भी बहुत आगे हर तरह के भले बुरे, वीभत्स, डरे हुये भी. ये अजानापन ही हमें हमारे जाने हुये की ऊब से बचाता है, जानी-पहचानी यांत्रिक, अमानवीय, तंगनज़र की सीमा से हमें आज़ाद करता है. आशा की एक खिडकी खुली रखता है, मन कहता है, ये सब पीछे छूटा रह जाएगा, दुनिया बदल जायेगी एक दिन, इस कुएं से बाहर जायेंगे, खुली घास के मैदानों की तरफ, ऊँचे पहाड़ों और समन्दर की तरफ कितनी विशाल है पृथ्वी ....

सच और सपने के पार  फिर सूचना होती,  हमें भयभीत करते अंक होते, कि बड़ी बहुत बड़ी दुनिया के बीच, विराट, बहुमुखी भूगोल के बीच हम टिनहा खड़े है. कि अपने  ताप और सपनों की भाप में जलते, हाथ-पैर पटकते, घुटनों पर सर किये. इस बड़ी दुनिया के बीच क्या मोल उसका ?
 

Oct 8, 2011

"उड़ते हैं अबाबील"

 

कई वर्षों से लिखने पढ़ने के बीच रही हूँ.  यायावरी के बीच बहुत कुछ लिखा (सायंस के इतर) शुरू के वर्षों का गुम हुआ, नष्ट हुया. लिखना बचा रहा. क्यूँ लिखती रही? नहीं मालूम, दिल में लिखने की हूक  उठती रही है. लिखना एक मायने में अपने से बातचीत करना है, एक निजी ज़रूरत,  अपने परिवेश, अपने समय की समझ बुनते जाने की कोशिश. इस लिहाज़ से बेहद अन्तरंग जगह, अपने साथ बैठ लेने की सहूलियत, चुपचाप, कभी झगड़ा  करते हुए, और कभी दुलार के साथ भी...

कविता लिखना खासकर मन की किमीयागिरी है, विशुद्ध प्रज्ञा को झकझोर देने का सलीका है. तर्क की विपरीत दिशा में आगे बढ़ने की मति, दुस्साहस है. हमारे जीनोम में अमूर्तन का कोड है. भाषा के पहले और भाषा के इतर की स्मृति का आदिमबोध है. जो अजाने संसार में, अनिश्चित यात्राओं में हमारी शरण बनता है. इस लिहाज़ से कविता लिखना समझ न आने वाली बड़ी दुनिया के बीच, खुद को तलाश लेने का उपक्रम है.

 लिखना फिर निजता के माईक्रोस्कोपिक फ्रेम के बाहर एक बड़े स्पेस में बनीबुनी समझ को परखना है, जीवन अनुभव के बेतरतीब ढेर को खंगालना है, भीतर चलती एक अनवरत तोड़फोड़  है सालों साल की. इस प्रक्रिया में जो भी निज है, एक मायने में फिर निज नहीं रहता, सामाजिक हो जाता है, स्व:अनुभूत एक सामूहिक अनुभूती का छोटा सा टुकडा, एक बड़े भवन की कोई खिड़की, कोई शहतीर हो ज़ाता है. 

 २००७ में बहुत पुराने मित्र के कहने पर हिंदी का ये ब्लॉग बिना किसी योजना के बनाया. २००७ से इस ब्लॉग पर बीच बीच में लिखती रही हूँ. इस बहाने ये लिखे का ड्राफ्ट एक जगह बचा रहा. लिखना फिर एक संवाद की जगह भी बनी. कई नए पुराने मित्रों के सुझावों, और हौसलाअफज़ाई  के बीच संवाद जारी रहा है. आप सभी मित्रों का शुक्रिया.

पिछले १३-१४ सालों से हिंदी परिवेश ज़बान नहीं रही.  हिंदी में लिखते रहना स्मृतिलोप के खिलाफ मेरी निजी लड़ाई है, अपनी भाषा, अपने समाज और देश से जुड़े रहने का एक पुल है. पिछले कुछ महीनों में, कुछ नई पुरानी और बहुत सी इस ब्लॉग पर लिखी कविताओं को एक कविता संग्रह की शक्ल दी है. संकलन की तैयारी के दौरान सुझावों के लिए  मेरे भाई अभिषेक, और  कवि मित्रों में  विजय गौड़,  मोहन राणा  और प्रमोद सिंह का शुक्रिया.  आदरणीय मंगलेश  डबराल जी का विशेष शुक्रिया , जिन्होंने धैर्य से  इस संग्रह को पढ़ा  और अपनी उदारता में  उत्साहवर्धक  शब्द इसकी भूमिका में लिखे है.

अंतिका प्रकाशन से  "उड़ते हैं अबाबील" इस महीने के आखिर में आप सब मित्रो को उपलब्ध होगा.. 



 
प्रकाशक
अंतिका प्रकाशन 

उड़ते हैं अबाबील 
(कविता-संग्रह) 
© डा. सुषमा नैथानी
 ISBN 978-93-80044-84-2
संपर्क 
सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एकसटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)
फोन : 0120-2648212 मोबाइल नं.9871856053
ई-मेल: antika.prakashan@antika-prakashan.com, antika56@gmail.com
फ्लिपकार्ट पर भी "उड़तें हैं अबाबील" उपलब्ध है.

 

Sep 23, 2011

भाषा की संगत




 "When we use our native language, a torrent of words flows into and out of brain. The occasional frustration of having a word stuck on the tip of the tongue, the slow ordeal of composing a passage in a foreign language, and the agony of a stroke victim struggling to answer a question reminds us that our ordinary fluency with language is a precious gift."-- in 'Words and Rules' ----Steven Pinker 
 
 घर की दहलीज़ के भीतर बोलना गढ़वाली में सीखा, हिन्दी भी वहीं  थी आँगन में खड़ी, बारादरी की बहसों के बीच, पड़ोस के घर में,  रेडियो पर बजती. फिर लिखना-पढ़ना, ठीक से सोचना इसी हिन्दी भाषा में सीखा, गढ़वाली घर के भीतरी कोनों में खिसकती चली गयी, कहीं याद में बिना शब्दों के मीठी तान बजती, स्वर धीरे से खो गए. इतना याद रहा क़ि इस भाषा को सुनते हुए लगता कि  स्वर और शब्द साथ-साथ रोतें है, हँसतें है, गढ़वाली में बात करना ऐसे, जैसे कोई लगातार गाने का रियाज़ हो, उसकी लय में ही उदासी, उल्लास, बैचैनी सारे भाव इतनी आसानी से घुले रहते की शब्दों को भी पकड़ने की ज़रुरत नहीं पड़ती.  शब्द और भावों की भिडंत न होती, आर-पार सब पारदर्शी .....
हिंदी की मुख्यधारा का दबाव होगा, या सबके बीच घुलमिल जाने की चाह, भीड़ के बीच अलग से इंगित होने का डर, या सबका मिला जुला असर, गढ़वाली भाषा का संगीत मेरे स्वर से हमेशा के लिए जुदा हो गया, उसकी जगह सपाट, बिना उतार चढ़ाव वाली, खड़ी बोली घर कर गयी. कोई उतार चढ़ाव स्वर में नहीं, निस्संग भाषाई संस्कार, जैसे बात करने वाला जो है, उसकी अपनी कही बात के साथ ही कोई रिश्ता नही. वापस पलटकर गढ़वाली बोलने की कोशिश करती हूँ तो सबसे पहले मेरी माँ को अटपटा लगता है, ये स्वर गढ़वाली नहीं रहे, रूखे है, लय से इनका सामंजस्य नहीं है. वो मुझसे कहती है, तू हिंदी ही बोल... 

पिछले वर्ष देहरादून के आस-पास के गाँवों में गयी तो कुछ गढ़वाली गाँवों में सभी बच्चे हिंदी बोलते दिखे, किसी को गढ़वाली नहीं आती थी. देहरादून की नजदीकी बसावट के ये गाँव शायद कई पीढ़ी पहले अपनी भाषा भूल गए होंगे. इनके लिए कठ्मोली या इसी तरह का कोई शब्द चलन में है. भाषा हिन्दी है, पर इन सबके स्वर न खड़ी बोली वाले है, न ही गढ़वाली की मिठास है कहीं,  बरेली, सहारनपुर के चूड़ी बेचनेवालों, और गरीब मुसलमान कारीगर तबके के स्वर इनकी भाषा में बजते हैं.

अंग्रेजी जीवन में सबसे बाद में दाख़िल हुयी, एक तरह से कॉलेज़ पहुँचने के बाद की भाषा, ज़रूरी भाषा, वो परिवेश की भाषा न थी, बर्ताव की भी नहीं, लगातार रट लेने वाली भाषा थी. सिर्फ स्मृति की भाषा, बाद में परिवेश की, काम-काज की भाषा बनी. खड़ी बोली का सपाटपन अंग्रेजी के पाश्र्व में मौजूद रहता है. और सहमापन, अटपटापन भी किसी कोने छिपा रहता है, जो हाव-भाव के साथ सहजता बनने नहीं देता, अचानक से इस भाषा में कोई चुहल नही सूझती, कोई मुहावरा, कोई कहावत, कोई लोकोक्ति यूं ही नहीं टपकती. इन सबका रियाज़ करना पड़ता है. मेरे स्वर, शब्द और भाव तीनों में कोई भीतरी, आत्मीय संगत नही है. अंग्रेजी पर सचेत और अचेत दोनों तरह से अमेरिकनाइज़्ड  एक्सेन्ट की परत चढ़ गयी है, लेकिन मूल हाव-भाव के साथ उसका सहज मिलाप नहीं ही हुआ है. 

अब इतने बरसों बाद भी, न पढ़ी  और लिखी गयी और न बरती गयी गढ़वाली भाषा की मिठास जबकि अब भी मेरे चेतन अवचेतन में बसती है. पहली भाषा, परिवार की और विरासत की अंतरंग भाषा और मादरीजबां  इतनी आसानी से नहीं छूटती ....

  मेरे यूरोपियन दोस्त हमेशा कहते रहे हैं कि क्यूँ हिन्दुस्तानी इतनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलने के बाद भी भाषा के साथ सहज नहीं, उनके एक्सप्रेशन सपाट होते है? चहरे पर भाव सहजता से आते जाते नहीं? स्वर में कोई उतार-चढाव नहीं होता?  यूरोपीय लोगों में  ये बात नहीं दिखती, वो अंग्रेज़ी बोलते है तो उनका मूलस्वर, हाव-भाव बहुत हद तक अपनी जमीन पर रहते है. हमारी तरह सपाट और सहमें नहीं होते, न ही अमेरिकी, ब्रिटिश स्वर की नक़ल की ऐसी पुरजोर कोशिश...

भाषाओँ की सहज संगत होना सिर्फ भाषा का मामला भर नहीं है, सभ्यता का मामला है, सत्तातंत्र के भीतर भाषाओं की हायरार्की का मसला है, एक समान्तर जाति-व्यवस्था, समाजशास्त्र की बात है. किसी भी भाषा के साथ दोस्ती होने के पहले ही आम लोग सत्ता के समीकरणों से सहम जाते है. क्षेत्रीय भाषा हिंदी के आगे, हिंदी अंग्रेजी के सामने. हमारी शिक्षा प्रणाली सिर्फ इस व्यवस्था को बनाए रखने का, इन मूल्यों की कन्फरमिटी का टूल है. शिक्षा हमें सिर्फ जो भी चालू व्यवस्था है उसीके बीच पैठ बना लेने की समझ देती है, आजादी और जनतांत्रिक तरीके से कुछ नया सीखने-रचने का शऊर, सहज बने रहने का हौसला, नहीं देती.

मेरे लिए हिन्दी ही पढने लिखने की सीखने की, सोचने की पहली भाषा रही, इस लिहाज़ से सारी बाक़ी भाषाओँ से मेरी नजदीकी भाषा है. हिंदी फिर रोज़गार की भाषा न रही, काम की भाषा भी नहीं, और पिछले कई सालों से परिवेश की भाषा भी नहीं. हिंदी में गाहे-बगाहे लिखते रहना, हिंदी पढ़ते रहना भाषा के साथ अपनी आत्मीयता को बचाए रखने की कोशिश है. इस कोशिश इतर भी कोशिश है कि किसी तरह से शब्द, स्वर और लय की संगत भी इसी भाषा में ठीक से ढूंढी जाय. 

खड़ी बोली इतनी सपाट है, हमेशा लय के खो जाने का अहसास बना रहता है, हमेशा लगता है कोई सुरीली संगत काश इस भाषा में संभव हो. सिर्फ गढ़वाली ही नहीं, शायद सभी क्षेत्रीय बोलियाँ हिन्दी में कुछ सुरीलेपन को घोल सकती है. इसे कुछ जीवंत बना सकती है. कुछ सहोदर रिश्ता हिन्दी का बोलियों के साथ हो, दूसरी भारतीय भाषाओँ के साथ हो...


 

Aug 23, 2011

अन्ना और अरुंधती

अरुंधती और बाकि सब लोगो का आन्दोलन पर सवाल उठाना ठीक  है. मुझे लगा कि कुछ दूरबीन से देखने की कसरत उन्होंने की है, उसकी भी ज़रुरत है, शायद माइक्रोस्कोप से देखने की भी. अलग अलग तरह के विचार विमर्श कुछ पूरी समझ बनाने में मदद करेंगे.  ये ही हमारे जनतंत्र को मजबूती देगा.

भले ही इस आन्दोलन से कुछ हो या न हो, मैं इससे उत्साहित हूँ, लोग इतनी बड़ी संख्या में बाहर आये, साथ आये, पहली दफा उन्हें दूसरे लोग भीड़ और न्यूसेंस नही लग रहे है. अपने लग रहे है, अपनी शक्ति की तरह दिख रहे है. ये सकारात्मक है. नही तो पिछले २-३ दशकों से वोट डालने भी नही जा रहे थे. लोकपाल के पास होने और उसके प्रभावी होने न होने से भी ज्यादा ये बात अपने मायने रखती है कि जनतंत्र को लोगों ने नेताओं के पास गिरवी नही रखा है, उसमे भागीदारी कर रहे है. हर तरह के लोगों पर इस आन्दोलन ने रोशनी डाली है. जो सबसे ज्यादा क्रांति, सामाजिक बदलाव की बात करते थे, वों लोग कोनों में दुबक गए है. और गाली खाने वाला मध्यवर्ग सड़क पर है. हर तरह के लोग है, हर तबके, हर धर्म और भाषा के. सच तो ये है कि ९०% को नही पता कि लोकपाल क्या है, वों शायद

इसीलिए जुड़े है कि अपने गुस्से और उम्मीदों के लिए उन्हें एक जगह मिल गयी है. मुझे उम्मीद है कि जब इतने विविध तरह के लोग एक जगह खड़े होंगे तो एक दूसरे से बहुत कुछ सीखगें, उनकी चेतना देर सबेर बदलेगी. सरकार और राजनैतिक पार्टियाँ अगर डर  के मारे सिर्फ ५% अपराधियों को भी टिकट आने वाले चुनाव में नही देती, और उनकी जगह २५-३० अच्छे लोग संसद में पहुच जाते है तो ये भी भारी जीत होगी. करोड़ों लोगो के हिस्से कुछ सामाजिक लाभ आएगा.
किसी जनांदोलन को पहले से तय रास्तों पर नही चलाया जा सकता, न ही वों चलता है, समय और समाज के हिसाब से उसकी अपनी स्वतंत्र विकास की दिशा बनती है. मुझे लगता है, अरुंधती इस बात को भूल गयी है. और बहुत सारे दूसरे लोग भी सांस बांधे यही कर रहे है...
 हमारी पीढ़ी ने उत्तराखंड का आन्दोलन देखा, वी पी सिंह के समय का मंडल देखा, उससे पहले आपातकाल के दरमियाँ हुये आंदोलनों के बारे में सिर्फ पढ़ा है. सब के सब बड़े समुदाय की ऊर्जा से चलने वाले, जाहिर तौर पर अराजनैतिक आन्दोलन थे,  कुछ दूध में उबाल की तरह थे, कुछ बहुत थक जाने और सरदर्द के बाद उल्टी कर देने जैसे, इन्ही रास्तों पर उनका अंत हुआ. होना भी था, कोई ग्रासरूट की गोलबंदी नहीं थी, राजनैतिक दूरदृष्टी नही थी, बड़ा सपना नहीं था, लोग कई खेमों में बंटे थे, सो जनाक्रोश का अंत हुआ. पर कुछ हद तक इन सबका गहरा असर हमारे समाज पडा, चेतना पर भी. हो सकता है इस आन्दोलन का भी यही अंत हो..., पर इस बात की मुझे उम्मीद है कि कुछ गुणात्मक परिवर्तन देश की चेतना में ज़रूर आएगा. कम से कम यही बात धंस जाय की जनता की भागीदारी ज़रूरी है, लोकतंत्र में...

Jul 26, 2011

प्रायमरी स्कूल

              

बस ज़रा सी याद है मुझे
प्रायमरी स्कूल की
यही कि पहाड़ की छाँव, खेतों के  बीच धूप नापते
रिक्ख, बाघ के डर के साये
डेढ़ घंटे पैदल चलना चलना होता
रोज़ पेन्सिल का आधा टुकड़ा मिलता    
जो शाम तक शर्तिया खो भी ज़ाता
दो महिला मास्‍टरनियां थीं जिनके पढाएं का
भरोसा नहीं करते थे माँ बाप
और थे दो मास्साब थे, ठोकपीट सीखा देते थे पहाड़े
एक ताई थी खिलाती थी दलिया
वैसे ये सूचना है कि
ताई के श्रीलंका की लड़ाई में २३ साल के शहीद बेटे का मुआवज़ा
इस स्कूल की छत की शक्ल में बचा है अब

तीसरी कक्षा में मुहम्मद साहेब का एक पाठ था 
सिर्फ़ एक वाक्य याद है अब तक
"अरब में लोग बेटियों को ज़मीन मे गाड़ देते थे"
नहीं मालूम था कहाँ अरब देश
पर गाली गढवाल में भी थी “खाडू म धरूल”1
महीनों आतंकित, सहमी नज़रें जब तब खेत में गढी लडकियां ढूंढती
कई बार माँ से पूछा मुझे कब गाड़ेगी?
माँ सुनकर आगबबूला होती
मुझे तब नहीं पता था कि मैं पहली संतान नही

चौथी में सम्राट अशोक के ह्रदय परिवर्तन का एक पाठ था
कलिंग को ध्वनि के मोह में ‘कर्लिंग’ लिखती रही
लिखती रही.. मार खाती रही..   कई कई दिन
तंग आकर मास्साब ने अलमारी के ऊपर बिठा दिया आधा दिन
और शाम को माँ से कहा
“इस लड़की को कुछ समझाना मुश्किल”

तीन दशक बाद एक पराये देश में
अपने बच्चे के लिए ढूंढ रही हूँ प्रायमरी स्कूल
परिचित, पड़ौसी बताते है कि
अच्छे प्रायमरी स्कूल की सरहद में मकान की कीमत बढ़ जाती है
मंदी की मार के बीच
प्रोपर्टी एजेंट प्रायमरी स्कूल और प्रोपर्टी के सम्बन्ध की तसदीक करता है
उसकी चिन्‍ता शिक्षा नही प्रोपर्टी की रीसेल वेल्यू है
अमरीका में अच्‍छे स्कूल का मतलब
उच्चमध्यवर्गीय बसावट का नजदीकी स्कूल है
मुक्त बाज़ार तय करता है स्कूल में संगत
इस बीच ओबामा रास्ट्रपति हैं
एक दशक के युद्ध और लगातार बढ़ती मंदी के बीच
शिक्षा के लिए बजट कटौती की सूचना है
स्कूल में वॉलेन्टियर करती मांयें हैं
शिक्षा की बदहाली पर “वेटिंग फॉर सुपरमेन”
2
और “एकेडेमिकली अड्रिफट”
3 है
गोकि जीवन में स्कूल से ही बंधी हूँ
प्रायमरी एजुकेशन का कोई प्राइमर नही मेरे पास...

***

1“खाडू म धरूल”; गाड़ दूंगी, एक गाली
2“वेटिंग फॉर सुपरमेन”; डेविड गूगनहाइम द्वारा निर्देशित डोकुमेन्टरी फिल्म(२०१०)
3“एकेडेमिकली अड्रिफट; रिचर्ड अरम और जोसिपा रोक्सा की किताब (२०११)

उड़ते हैं अबाबील, (कविता-संग्रह)-२०११  से

May 13, 2011

शिक्षा का बिजनेस

मंदी की मार सबसे पहले  जनसामान्य की बुनियादी ज़रूरतों पर पड़ती है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, एटसेट्रा .., जबकि बड़े कॉरपोरेशंस या औधोगिक घराने, हमेशा इस मार और मंदी के बीच भी सर्वजन हिताय के कुछ घिसे-पिटे राग के साथ, अपना मुनाफा बनाते रहते है, सब्सिडी लेते रहते है. अमेरिकी मंदी की मार के बीच शिक्षा पर आलरेडी कम बजट को और कम किया जाना, और सार्वजानिक शिक्षा के बुनियादी ढाँचे की चरमर के बीच बहुत सी बहसे है. उच्च शिक्षा का जो खेल है, और जिस पर इसका ढांचा टिका है उसके बारे में एक महत्त्वपूर्ण लेख ये है. इससे पहले एक किताब आयी है. एक फिल्म भी आयी है प्रायमरी और मिडल स्कूल पर केन्द्रित. इस सबके मद्देनज़र रोज़ कुछ साफ़ होता जाता है की सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था में एक छोटा सट्टा बाज़ार शिक्षा के नाम पर है. 
कुछ साल पहले तक किसी गर्व के साथ हिन्दुस्तान की सर्वसुलभ शिक्षा और सरकारी अस्पतालों तक जनसामान्य की सहज पहुँच को लेकर कुछ गर्व होता था. अब बीस साल बाद वो भी नहीं है. एक तरह समाज और सरकार ने पूरी तरह से सरकारी ढांचे को किसी भी तरह सपोर्ट करने से हाथ खींच लिए है, और जन सामान्य ने कुकुरमुत्तो की तरह उगे गली मोहल्ले के कॉन्वेंट स्कूलों से लेकर अमिटी तक अपने संसाधन उड़ेल दिए है, बाक़ी बचे खुचे का बैंड बाजा ढेर से अमेरिकी-यूरोपी  केम्पस बजा डालने वाले है. काश इसका आधा भी सार्वजानिक शिक्षा के ढांचे में लगता तो समाज के एक बड़े हिस्से को लाभ मिलता. कुछ  सबक हम ले पाते और कुछ अपनी दुरुस्तगी करते..

May 3, 2011

The Status of Women in Science and Engineering at MIT by Nancy Hopkins


About the Lecture

It’s difficult to imagine that at one point in her career, National Academy of Science member Nancy Hopkins thought to quit. In her talk, she relates the historical challenges facing women in science and engineering at MIT, the university’s responses to these problems, and how in the end Hopkins avoided becoming a poster child of the ‘leaky pipeline’ -- a term of art for the high rate of attrition among talented women in engineering and science academia.

Hopkins weaves together a personal tale with the larger story of gender discrimination in U.S. academia. She first captures a century of women at MIT, from the handful of female admissions starting in the late 19th century, to the current numbers: 45% of all undergraduates, 29% of graduate students and 17% of the faculty. However, there were no women science or engineering faculty in the first 100 years. During this period, the exclusion of top-notch women researchers from major academic posts was common, says Hopkins, a reflection of the fact that “societal beliefs can overpower merit.” A major turning point arrived in the 1960s and 1970s, when the civil rights and women’s movements flung open workplace doors to women.

But Hopkins notes that even after passage of laws against overt job discrimination, obstacles emerged to the advancement of women scientists and engineers, “unanticipated and largely invisible…almost as effective at excluding women as the fact they couldn’t get a job at all.” There was sexual harassment, which “made it impossible for women to be equal in the workplace.” Hopkins recalls in her undergraduate days grossly inappropriate behavior toward her by a Nobel Prize-winning biologist in a Harvard lab, but “didn’t grasp until years later that a man who treats a student that way may not be genuinely interested in her lab notes.” Mentors who could smooth the way to the next career step were few and far between for women students and young faculty. And unlike men, women have to choose between children or career. Hopkins says “women in my generation instinctively never talked about pregnancy or children at work…You wanted to make sure people knew you wanted to be a nun of science, and in fact personally, I was.” Hopkins cites as well “unconscious gender bias,” where women’s research appeared to colleagues of both genders less valuable than identical research by a man, and accompanying marginalization in university departments. Up against these problems, who could blame women for departing their professions, asks Hopkins.

At MIT, serious relief arrived in 1994, after Hopkins, demoralized after trying in vain to obtain more lab space for her zebrafish experiments, found similarly unhappy women colleagues who banded together to press for institutional solutions. Hopkins literally went about measuring lab space and provided hard data about gender bias to then MIT President Charles Vest, as evidence that women had less space available to conduct their research. (This “tape measure” turning point has earned Hopkins an unintended place in MIT history, while the tape measure itself is on display at the MIT Museum.)

In stages, over the subsequent years, MIT began intensively recruiting women scientists and engineers for its faculty; creating new family leave policies; and placing women in top administrative roles, among a number of remedies. 19% of science faculty are now women, and surveys show a much higher level of satisfaction among this group. But Hopkins says the job is not yet finished: Women at MIT, from students to faculty, report “the perception that when women advance, it is due to the lowering of standards.” The leaky pipeline won’t be fixed until “this insidious belief that women are less good than men” vanishes within MIT and society at large.


Nancy Hopkins

Amgen, Inc. Professor of Biology
Faculty member, Koch Institute for Integrative Cancer Research
Nancy Hopkins earned widespread recognition for cloning vertebrate developmental genes. Using a technique called insertional mutagenesis -- designed for such invertebrate animals as the fruit fly -- Hopkins's laboratory has cloned hundreds of genes that play a role in creating a viable fish embryo.

Hopkins' research earned her 1998 election to the American Academy of Arts and Sciences, 1999 election to the Institute of Medicine and 2004 election to the National Academy of Sciences. She speaks frequently about gender equity issues in science.

Hopkins obtained a B.A. from Radcliffe College in 1964 and a Ph.D. from the department of Molecular Biology and Biochemistry at Harvard University in 1971.

Apr 28, 2011

Women in Science

Biotechnology was still the future Buzz word in 1990 when I entered masters program in Biotechnology at MSU. Only 7-8 topmost Indian Universities offered this degree.  Like my fellow students I had some pride for being selected for DBT fellowship on the basis of All India Competitive examination. We were 8 girls in class of 14. Our senior as well as junior class had only three boys out of 14. Similar  ratios were common  in Chemistry and all other branches of life sciences in most  Universities across India. In research Institutions and Universities  representation of women graduate student who finished their Ph. D., published papers of equal merit were almost equal or more in comparison to male students. After two decades, that ratio of women majority is not reflected in Indian academia.

In India, there are less than 15% (sometimes less than 7%) women scientist employed in research institution and about 25% in Universities. I wonder where more than 50% of these bright girls have disappeared? Slowly, I came to know how gender discrimination played role in filtering out most women from science. There were many personal conversations with some male scientists who told me that women should not aspire for high achievements, should only work if they are unmarried, have a widowed mother, do not have a brother and so on. Some of my friends were told by a famous Vice Chancellor of a University that for a women working means extra pocket money and he will prefer to hire someone (a male) who is the provider for the family. I was personally reminded many times that women should have more tolerance.

Interestingly working hands of women scientists are prized as a graduate students, postdocs, technicians etc. (all short term positions) but their brain is not entrusted as much for leadership positions and permanent positions.

We looked at Western Society as a model of gender equality and hope. It’s been now 14 years since I am part of American Academia. There is again the same problem. the number of women postdocs and graduate students is not reflected in leadership positions.  Every now and then there is a gathering of women scientists ranging from graduate students to professors pondering on why women are in minority in science here as well? or how to survive and succeed in science? Typically, a successful Women professor narrates story of her struggle. The  end of the story is "I made through a route full of unfair deals, insults and negative attitudes,  so there is a light at the end of the tunnel".

I wonder what the meaning of these stories for young students is. If I have known those stories when I was 20, I may have embarked on path of secure and less struggling career. More than inspirations these stories give you blues, deprive you of hope and aspiration.  Academic achievements of women scientists should bring hope and sense of happiness to their life not a sense of martyrdom. Surprisingly no body talks about the structural changes that are  needed to make situation better for next generation. It is often a lesson given to individuals to cope with and continue.  Many successful model women scientist have successfully emulated the male behavior and have become one of the boys. I wonder if this is the idea of equality after all? 

Picture (source:Wikipedia): is of Nobel Laureate Barbara McClintock, who survived great difficulties, and excelled, often a great source of inspiration for all scientists).

Apr 24, 2011

टेक्सास: सेन अंतोनियो

सेन अंतोनियो शहर टेक्सास के बाकी शहरों से कुछ अलग है. बड़े शहरों के बीच  ख़ास पहचान और तकरीबन ३०० साल का इतिहास बचाए हुये भी. इतिहास की छवी और आधुनिकता सेन अंतोनियो नदी के  दोनों तरफ बड़े करीने से बसे   मनोहारी डाउनटाउन में साफ़ दिखते है. मुख्य आकर्षण  नदी के लेवल पर करीब ५ किलोमीटर (२.७ मील) सफ़ेद सैंड स्टोन की बनी हुयी वाकवे है जिसका विस्तार १३ मील तक करने की  योजना है. इस वाकवे के ऊपर सड़क, खूबसूरत इमारते, जीवन की बाकी चहल पहल है. मुश्किल से २० फीट चौड़ी नदी है यहाँ, उद्दगम के बहुत करीब, बाद में चौड़ी होती नदी अंतत: मेक्सिको की खाड़ी में मिलती है.  बहुत उथली हरे रंग के पानी से भरी साफ़ सुथरी. इतनी गर्मी, नमी के बीच भी पूरी तरह से मच्छर गायब, एक सुखद अहसास. नदी और उसके  ऊपर हर दो गज पर बनी वेनिशियन स्टायल की  पुलिया,  वेनिस  में होने का भ्रम कुछ पल के लिए देती है.  पूरे रस्ते पर बेला और चम्पा के फूलों की महक है, इधर उधर केले के पेड़, कुछ ट्रोपिकल दूसरे पोधे देखना कुछ अपनेपन से भरता है. कुछ बड़ी तरतीब से पूरे शहर में और नदी किनारे भी बहुत छोटे पाल्म के पेड़ है, दो फीट के, शायद खास तरह के लैंडस्केपिंग के लिए ब्रीड किये हुये, इस वक़्त फलों से भरपूर. ऊपर सड़क पर जितनी मारामारी है, नीचे वाकवे उतनी शांत है, नदी बहुत बहती नहीं दिखती पर मिलाजुला शोर पानी के बहने का पार्श्व में लगातार है, कुछ शायद फव्वारों और छोटे सजावटी  झरनों से पानी के गिरने की आवाज है.कुछ बतखें है... बीच बीच में पर्यटकों से भरी नाव गुजरती है बाकी हरे रंग का पानी शांत है.  रोहन ने मेरा ट्राईपोड   हथिया लिया है, और अपने कैमरे से कुछ शूटिंग उनकी चल रही है,  उसे पापा  के साथ आगे आगे भागना है. रवि को किसी पेड़ से गिरे कुछ फल मिल गए है, और पूरे रास्ते मिलते रहे. उसका काम उन्हें पानी में फेंक कर कुछ जलतरंग बनाना है, एक खेल करीब पौने घंटे तक उसे बहलाए है. चारो तरफ खिले फूल है. शाम धीरे धीरे उतर रही है...

अन्धेरा ढलते ही डाउनटाउन लगभग अपने पूरे शबाब पर है, रोशनी की झिलमिल से नदी भरी है, अब वो दिनवाली हरी नदी नहीं है, कुछ और है, अँधेरे उजाले का कोई आकर्षक खेल..... 
कुछ ४५ मिनट  की नाव में घुमाई है, और एक के बाद एक  नाव इस वक्त नदी में घूम रही हैं. हम भी एक नाव में सवार है. लगातार माईक पर कुछ पोपुलर किस्म की चीज़े कंडक्टर बता रहा है. कुछ  रेस्तरां के आगे  अच्छे बैंड्स परफोर्म कर रहे है. एक  मीठा मेक्सिकन बैंड है, रेड इन्डियन संगीत की धुनें बजाता, बांसुरी की लम्बी मीठी तान....

सेन अंतोनियो शहर पर गहरी छाप जर्मन, इटालियन और मेक्सिको की है, और सबका कुछ मिलजुल असर कुछ हद तक इस इलाके को बाकी शहर से अलग करता है. नदी है, संगीत है रोशनी है, एक खूबसूरत सी दीवाली है. नदी की सैर के बाद  बच्चे आईसक्रीम खाना चाहते है, एक जलेतो शॉप बगल में है, लगभग बंद होने वाली है, दुकानदार हमारी अंग्रेज़ी के जबाब लगातार इटेलियन में देता है, हमारे वेनिस  में रहने का भ्रम बनाए रखता है. टूरिस्ट अट्रेक्शन के लिए संजोया गया  बहुत से कोनों में से एक कोना ये भी है बहुत बड़ी बदसूरत एकसार  दुनिया के बीच. एक भ्रम...

टेक्सास समय हमारे ओरेगन के समय से दो घंटे आगे है, इसी असर में सुबह तीन बजे नींद खुल गयी है. होटल डरुरी के पांचवी मंजिल की बालकोनी से दिखता नदी नगर अँधेरे के कैनवस पर जगमगा रहा है. लगभग शांत.   सारा शहर शांत, सारे बजते हुये आर्केस्ट्रा, चलती हुयी नावे सब सोने गयी. बीच में सड़क पर रह रह कर  कोई कार गुज़रती है. रात के इस पहर  छिटकती रोशनी की एक परत  नदी पर बिछी है. अभी अप्रैल की कुछ नर्म, गुनगुनी, आद्र, अलसाई, हवा है.  मन करता है इस शहर में उम्र बीत जाय, न भी बीते तो कुछ साल रहा जाय. बचपन और किशोरवय की बहुत सी रातें नैनीताल की झील और उसमे पड़ती रोशनी को देखते बीती थी. सन्नाटे, रोशनी और पानी का अजब ज़ादू, कितना पहचाना. सुबह हो गयी है, इमेल करते, कुछ पढ़ते हुये, और कम से कम एक बार नदी किनारे फिर पैदल घूमे की इच्छा सर उठाती है. बच्चे अपने पापा के साथ स्वीमिंग पुल जाना चाहते है, मुझे दो घंटे का वक़्त है. इस अलसुबह कोई दुकान नहीं खुली, कुर्सिया रेस्तरा  के भीतर और बाहर उल्टी पड़ी है, कोई नहीं है दूर दूर तक सुबह की शांती और कुछ वीरानापन है, कुछ वैसा ही जैसे किसी शादी के निपट जाने के बाद अगले दिन लड़की के माता पिता का घर पर होता होगा, या नैनीताल में कोलेज इलेक्शन के अगले दिन केम्पस में होता था. कुछ वैसा भी जैसे दीवाली की अगली सुबह छोटे पहाडी कस्बों में होता था, हमारे बचपन के दिनों में, घर नए सिरे से साफ़ करना, और पडौसी, मित्र परिचितों के घर के लिए प्रसाद की छोटी छोटी पोटली माँ  का सुबह बनाते रहना. और बाकी लोगों का देर तक सोते रहना. सर पर घाम का चढ़ आना...

सड़क पर दुकाने है, ढ़ेर से म्यूजियम है, बहुत छोटी छोटी पर्यटक शहर की दुकाने है, खासकर मेक्सिको के बने क्राफ्ट से भरी. लगभग सब एक जैसी. एक दुकान के भीतर एक अधेड़ स्पेनिश औरत और उसकी किशोरवय की लड़की है, माँ सिर्फ स्पैनिश समझती है. कुछ बहुत ख़ास मिठास लिए माँ का चेहरा है, कुछ देर स्पैनिश में बोलती है. जबाब मैं दे नहीं सकती पर इतना समझ आता है कि सामान दिखा रही है. मुझे झल्लाहट अब  नहीं होती कि लोग मुझे मौक़ा दिए बगैर स्पैनिश में बोलना शुरू करते है,  अब इतने सालों में अपनी सूरत के  फरेब की मैं आदी हो गयी हूँ. शर्म आती है कि अब तक स्पैनिश नहीं सीखी. ख़ैर उसे कहती हूँ कि स्पैनिश नहीं आती, कुछ दो चार शब्द भर आते है. पर कुछ अपनापन सा बनता है, उससे कहती हूँ कि कुछ तस्वीर ले लूं उसकी दुकान की, इजाज़त मिलती है हंसी खुशी. बच्चों के लिए टी शर्ट और अपने लिए मेक्सिकन सिल्वर के झुमके खरीदकर उसकी दुकान से निकलती हूँ....

बाकी  दूसरे टूरिस्ट शहरों की तरह, सेन अन्तानियो  शहर के भी दो चेहरे है. टूरिस्ट के लिए शहर का एक चेहरा है, खूबसूरत, मौज से भरा, जिसके रस को आख़िरी घूँट तक पी लेना है,  एक ललचाता बाज़ार जहाँ  ज़ल्दबाजी है, कुछ लूट की तरह  खरीददारी करनी  है.  शहर के बाशिंदों के लिए दूसरा चेहरा, पर्यटक वाले चेहरे का विलोम. ये चेहरे नैनीताल, मसूरी, श्री रंगपट्टनम, वृन्दावन से लेकर नायग्रा फ़ॉल्स, और हर टूरिस्ट स्पोट पर लगातार दिखते है, पर्यटक भीड़ के चेहरे, और होटल के शीशे साफ़ करती, कमरे साफ़ करती, औरतों के चेहरे, दुकान के भीतर बैठे चेहरे, पूरी सर्विस कम्युनिटी  के चेहरे जिसपर ये पर्यटन उधोग टिका है.  इस विलोम पर कितनी दफ़े अटक जाती हूँ.  पर्यटक की मानसिकता जब कभी सर उठाती है, उसे दूर धकेलती हूँ.  बिना किसी लालच के, बिना लूट की मानसिकता के , इस शहर में घूमना है, इसे थोड़ा सा जानना है... थोड़ा अपने साथ बैठ लेना है....  

Apr 21, 2011

टेक्सास ट्रेवल

टेक्सास  १७वी स्टेट हुयी अमेरिका की जिसे कुछ नापने का मौक़ा मिला, जितना ८-१० दिन में हो सकता है . दूर दूर तक खुला समतल मैदान और वैसा ही सर के ऊपर आसमान भी. अच्छी सड़के, अनगिनत फ्लाईओवर्स एक के बाद एक, कितना लोहा, कितना सीमेंट लगातार. माने सभी बड़े अमरीकन शहरों के जैसा, और अब दुनिया के बहुत से दूसरे शहरों जैसा भी. शहर के भीतर और उसके बाहर जुड़े कई दूसरे शहरों तक लगातार गाड़ी में बैठे हाईवे में दिन गुजर सकते है, शायद  जीवन भी, घर बाज़ार और काम. सीमेंट का स्लेटीपन, जाने पहचाने एक जैसे दिखनेवाले छोटे बड़े बाज़ार, दुकाने, स्टोर्स, ...उनकी एकरसता, एक रंगरूप, हर शहर आपका पीछा करते है. ये साधारणपन, मॉस प्रोडक्शन का ख़्याल, और उसका इस तरह का विस्तार भीतर भीतर कुछ तोड़ता है. कहीं से कहीं जाना बेमतलब कर देता है. ग्लोबल लैंडस्केप अब हर शहर से उसका अपना कुछ जैसे छीन  लेता है, एक मायने में पहचान भी. बहुत सोचकर भी ऐसा कुछ दिखता नहीं है कि कहूँ कि ये ह्यूस्टन  शहर की याद है. होने को कितने ढ़ेर से म्यूजियम है, शायद बच्चों के साथ सबको देखना मुमकिन न होगा. एक बढ़िया एक्वेरीयम दिखा,  लिंडन जोनसन स्पेस सेंटर में एक दिन बीता, कुछ सपनों की कुछ देर को भरपाई, स्पेशशिप के भीतर जाने का अनुभव, नासा की घुमाई, मिसन कंट्रोल रूम की दिखाई.... नासा के केम्पस में बाहर से  सारी बिल्डिंग्स आम माचिस की डिब्बी वाली डिजायन की है. बहुत से बच्चों के खेलने वाले खेल अमूमन हर सायंस सेंटर में है.  नासा की ख़ास बात कुछ पुराने स्पेसशिप  एडवेंचर, सेटर्न, को रूबरू देख लेना,  छू लेना, और जी लेना कल्पना में ही सही उनकी एतिहासिक यात्राएं, और उपलब्धियां जो अभूतपूर्व है, मनुष्य जाति के लिए.


एडवेंचर के भीतर जाना कुछ समय के लिए ब्लेक एंड व्हाईट के जमाने वाले स्पार्क, केप्टन कर्क के स्टारट्रेक में जाने जैसा है. एक बीतगए की भावना फट से सर उठाती है. कुछ वैसे ही जैसे बीस पच्चीस साल के बाद मिला कोई बच्चा अचानक जवान होकर सामने आता है, और उस बचपने का जिसे हम पहचानते होते, कोई मेल नहीं बैठता. पर अपनी असमंजस के बीच भी स्मृति के जुड़े तार कुछ मन को भिगोते है. बचपन के दिनों में कोई एपीसोड स्टारट्रेक का मिस करने का मतलब बहुत कुछ छूट जाना होता..., उन दिनों अंग्रेजी बिलकुल समझ नहीं आती थी, कुछ पता नहीं रहता कि बात क्या हो रही है. पर बोलती फिल्म को मौन फिल्म की तरह देखकर कुछ कहानी बन जाती थी.

बाद के सालों में २००४ तक नियमित रूप से हर रात स्टारट्रेक-वोयाजर देखती रही.  स्टारट्रेक या फिर J. R. R. Tolkien  की लिखीThe Fellowship of the Ring, The Two Towers, and The Return of the King .जिसे उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखना शुरू किया था, को  कुछ हद तक सिम्बोलिक रूप में इस तरह भी देखा जाता रहा है कि यूरोप और एशिया के मुल्कों का समाजवाद अंतत: एकरूपता लाएगा, और  व्यक्ति के पास, सभ्यता के पास  भी गर्व करनेवाली जो  ख़ास बातें है वों ख़त्म हो जायेगी. न सिर्फ आज़ादी, और अभिव्यक्ति बल्कि रचनाशीलता भी, इतिहास भी...., सो स्टारट्रेक-वोएजर   इंडीविज्वलिज्म और कलेक्टिव (बोर्ग) की कभी ख़त्म न होने वाली लड़ाई का प्लाट है. एक ऑनस्क्रीन कोल्डवार. ये सब फिर बाद की बात हुयी. जिन दिनों या कि अब भी कभी स्टार ट्रेक देखने का मौक़ा मिला, तो उसे किसी दूसरे इमोशनल प्लेन पर देखने का मेरा आग्रह होगा, उसका मजा होगा. फिर जैसे टेक्नोलोजी डेटेड होगी, हमारी जानकारी में इजाफे होंगे, वोएजर भी बीती और बहुत पीछे छूटी बात होगा. कुछ वैसे ही जैसे २५-३० साल बाद भी याद रहता है कि बचपन के दिनों में ग्लूकोज बिस्किट का पैकेट और केरोमल की टॉफी ताउजी लाते थे. कोई दोस्त हॉस्टल के दिनों कितना मीठा गाना गाती थी.  ऐसी ही मिठास के साथ स्टार ट्रेक की याद रहेगी.

 स्टार ट्रेक से कुछ नयी डिस्कवरी नहीं होती थी, ज्यादातर ह्युमन इमोशनस  या बिहेवियर को एक दूसरे लैंडस्केप में देखना होता, अपने पहचाने परिवेश और समय के बाहर देखना होता. एक स्पेसशिप और जहाँ वों लैंड करता, घर का रास्ता ढूंढते हुये पूरे अन्तरिक्ष की टहल करता उसमे जीना होता.   घर लौटना सपने में होता, सच में रोज़ कहीं से कहीं निकलना होता... और बोर्ग के साथ मुठभेट होती जो सब कुछ एकरसता में समेट लेता, हर पहचान को रौंदता.  मेरे अपने जीने की तरह भी कुछ मायनों में. एक प्रवासी जीवन.

वोएजर की मैं कैथरीन या सेवेन आफ नाइन मैं न हुयी, पर लगता है बहुत करीब से बोर्ग से रोज़ सामना होता है, बोर्ग का नाम आज ग्लोबलाईजेशन है.....सब शहरों को,  भाषाओं को,  सभ्यताओं की विशेष पहचान को मिटाता ..... सब कुछ एकसार करता हुआ ...